विगत चार सालों में मोदी सरकार के शासन के दौरान शिक्षा जगत और खासकर उच्चशिक्षा के क्षेत्र में अनेक बुनियादी परिवर्तन घटे हैं जिनके कारण उच्चशिक्षा के सामने जीवन⎯मरण के प्रश्न उठ खडे हुए हैं। केन्द्र सरकार की जो नीतियाँ हैं लागू हुई हैं उनके कारण बडे पैमाने पर उच्चशिक्षा के क्षेत्र में अराजकता पैदा हो गयी है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सालाना बजट में तकरीबन 55 फीसदी तक की कटौती की गयी है। इसके कारण देश में शोधकार्यों और सेमीनार आदि के कार्यों पर सबसे ज्यादा असर हुआ, विगत एकसाथ में बहुत कम पैसा इन कार्यों के लिए आवंटित हुआ है।
अनेक केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में मोदी सरकार द्वारा नियुक्त उपकुलपति रबड़ स्टैम्प बनकर रह गए हैं। पांडिचेरी विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, ए एमयू, जामिया, डीयू, जेएनयू आदि में निरंतर अशांति बनी हुई है, अनेक केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अभी तक सातवें वेतनमान लागू नहीं होपाए हैं। उच्चशिक्षा के मद में आवंटित धन में बडे पैमाने पर कटौती की गयी है। केन्द्र सरकार के अधीन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में साठ फीसदी अकादमिक पद खाली पडे हैं। यही दशा इन जगहों पर कर्मचारियों की है, कर्मचारियों के पद भी तकरीबन चालीस फीसदी खाली पडे हैं। मोदी सरकार ने शिक्षकों, छात्रों और राजनीतिकदलों से सलाह किए वगैर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भंग करने का फैसला ले लिया है जबकि इतना बडा फैसला लेते वक़्त व्यापक सलाह मशविरा करने की जरूरत थी। यह सब किया जा रहा है हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ़ इण्डिया ड्राफ़्ट बिल 2018 के तहत। यह बिल यदि संसद से पास हो जाता है तो यूजीसी एक्ट, 1956 खत्म हो जाएगा। यह उच्चशिक्षा में व्याप्त स्वतंत्रता को सीधे खत्म कर देगा।
उच्चशिक्षा के मद में आवंटित धन में बडे पैमाने पर कटौती की गयी है। केन्द्र सरकार के अधीन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में साठ फीसदी अकादमिक पद खाली पडे हैं। यही दशा इन जगहों पर कर्मचारियों की है, कर्मचारियों के पद भी तकरीबन चालीस फीसदी खाली पडे हैं।
अभी यूजीसी के पास विभिन्न विश्वविद्यालयों को धन आवंटित करने का अधिकार है, यह काम वह यूजीसी एक्ट 1956 के सेक्शन 12 के तहत करता है। उच्च शिक्षा आयोग बिल पास होने के बाद वित्तीय अधिकार सीधे मानव संसाधन मंत्रालय के हाथ में चले जाएंगे। फलत: विश्वविद्यालय सीधे मानव संसाधन मंत्रालय के अधीन एक विभाग मात्र बनकर रह जाएंगे। इससे शिक्षा में रेजीमेंटेशन बढ़ेगा। इस बिल के पास होने के बाद गरीबों, एससी, एसटी और ओबीसी के लिए उच्चशिक्षा पाना और भी कठिन हो जाएगा। उल्लेखनीय है इस बिल पर गुजरात राज्य के हायर एजुकेशन कौंसिल एक्ट के प्रावधानों का गहरा असर है। इसी तरह सर्च कमेटी और चयन समिति में केबीनेट सचिव के साथ, उच्चशिक्षा सचिव, नामांकित एकेडमीशियन, रहेंगे, यह कमेटी पूरी तरह सरकारी सचिवों और प्रतिनिधियों से भरी होगी। वे ही विभागों के मुखिया और उपप्रधान का चयन करेंगे।यह बारह सदस्यों की कमेटी होगी इसके सदस्य अधिकांश मंत्रालयों के नौकरशाह होंगे।मसलन इसमें विभिन्न मंत्रालयों से तीन सचिव होंगे, शिक्षा संस्थानों के संचालकों में से दो सदस्य होंगे, मान्यता प्राप्त संस्थाओं से दो सदस्य होंगे, जबकि इस समय यूजीसी में दस सदस्यों में चार प्रोफेसर सदस्य हैं। जबकि उच्चशिक्षा आयोग में मात्र दो शिक्षक सदस्य ही होंगे।
इसी तरह उच्च शिक्षा के निजीकरण की दिशा में तेजगति से कदम बढ़ाते हुए मोदी सरकार ने 62 विश्वविद्यालयों⎯कॉलेजों को स्वायत्तता दे दी है। इनमें पाँच केन्द्रीय विश्वविद्यालय भी हैं। यह सरकारी संसाधनों से चलने वाले शिक्षा संस्थानों का सीधे निजीकरण है। उल्लेखनीय है देश का हरेक विश्वविद्यालय, चाहे राज्य का हो या केन्द्र का, कानूनन स्वायत्त होता है, पाठ्यक्रम बनाने से लेकर नियुक्तियों तक उसे स्वायत्त मिली हुई है अत: केन्द्र सरकार जिसे स्वायत्तता कह रही है वह दरअसल निजीकरण है उसे स्वायत्तता नहीं कहते। जिन विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को स्वायत्तता दी गयी है अब वहाँ एससी, एसटी और ओबीसी और गरीब छात्रोंको आरक्षण और अन्य अकादमिक सुविधाएँ नहीं मिलेंगी। उच्चशिक्षा के इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखें और फिर जेएनयू में घट रही घटनाओं पर ग़ौर करें तो। पाएँगे कि जेएनयू पर केन्द्र सरकार के इतने व्यापक हमले क्यों हो रहे हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इस समय अकादमिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता की सबसे कठिन लडाई लड रहा है। छात्र संघ के चुनाव के बाद कैम्पस में “आपातकाल” जैसी अवस्था है, प्रशासन ने जुलूस, प्रदर्शन, आंदोलन आदि पर अनिश्चितकाल के लिए पाबंदी लगा दी है। उल्लेखनीय है इस विश्वविद्यालय पर केन्द्र सरकार ने पहले भी हमले किए हैं लेकिन उनसे कैम्पस सीमित समय तक अशांत रहता था। लेकिन मोदी सरकार आने के बाद सन् 2014 से सुनियोजित ढंग से जेएनयू के खिलाफ मीडिया, पुलिस और गुंडों की मदद से प्रचार अभियान शुरू किया गया, कहा गया जेएनयू देशद्रोहियों का केन्द्र है, जेएनयू के पक्षधर राष्ट्रविरोधी हैं, जेएनयू के वामपंथी राष्ट्रविरोधी हैं, जेएनयू के शिक्षकों का बडा हिस्सा माओवादी हिंसा और पृथकतावाद का समर्थक है। खासकर टीवी न्यूज चैनलों से इस तरह के विचारों का जमकर प्रचार किया गया, यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें हाल ही में छात्रसंघ के चुनाव संपन्न हुए।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इस समय अकादमिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता की सबसे कठिन लडाई लड रहा है। छात्र संघ के चुनाव के बाद कैम्पस में ‘आपातकाल’ जैसी अवस्था है, प्रशासन ने जुलूस, प्रदर्शन, आंदोलन आदि पर अनिश्चितकाल के लिए पाबंदी लगा दी है।
इसबार के छात्रसंघ चुनाव में पहलीबार हिंसा की वारदातें हुईं। मतगणना के दौरान हिंसा हुई, बडी संख्या में संघियों की मदद के लिए बाहर से हथियारबंद गुंडों की सात गाड़ियाँ कैम्पस में दाखिल हुईं और मतगणना को रोकने, मतपत्र लूटने की कोशिश की गयी, मतगणना कर रहे चुनाव आयोग के सदस्यों पर हमले किए गए, मीडिया को मतगणना के दौरान कैम्पस में आने से रोका गया। इन सबके खिलाफ छात्रों ने व्यापक एकजुटता का प्रदर्शन किया, गुंडागर्दी का उत्तर गांधीवादी तरीकों से नारे⎯जुलूस निकालकर दिया। इस साल के छात्रसंघ चुनाव में “वाम एकता मंच” को अभूतपूर्व छात्र समर्थन मिला, चारों मुख्यपदों (अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, सहसचिव) वाम एकता मंच के उम्मीदवार अभूतपूर्व अंतराल के साथ जीते, उल्लेखनीय है अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद दूसरे नम्बर पर रही, उसके उम्मीदवारों को अच्छे वोट लेकिन उसके वोटों में पिछले साल की तुलना में गिरावट आई, उसे पचास वोट कम मिले। इसी तरह उसे मात्र एक कौंसलर पद पर विजय हासिल हुई। वोटिंग के आंकडे दर्शाते हैं कि नए छात्र⎯छात्राओं ने बडी संख्या में वाम एकता मंच को वोट दिए जिसके कारण विशाल संख्या में उनको वोट मिल पाए। इसके अलावा वाम विरोधी ताकतें बिखरी हुई थीं फलत: वामविरोधी वोट पूरी तरह बँट गए वहीं दूसरी ओर वाम संगठनों (आइसा, एसएफआई, एआईएसएफ, डीएसएफ) ने एकजुट होकर चुनाव लड़ा, इस तरह की वाम एकता जेएनयू में पहले कभी देखी नहीं गयी। जेएनयू में वैचारिक मतभेद भुलाकर वाम एकता जब संभव है तो देश के बाकी हिस्सों में भी संभव है यही एक संदेश जेएनयू चुनाव ने दिया। जेएनयूएसयू के चुनाव में वाम संगठनों की भारी मतों से जीत का एक और संदेश है कि विश्वविद्यालय प्रशासन और केन्द्र सरकार की नीतियों को छात्र समुदाय पूरी तरह अस्वीकार करता है।
उल्लेखनीय है मोदी सरकार ने विगत चार सालों में सुनियोजित ढंग से जेएनयू की सभी मान्य कमेटियों के फ़ैसलों और नियमों की खुलेआम अवहेलना करके जेएनयू के प्रशासनिक चरित्र को बुनियादी रूप से बदल दिया है। अब प्रशासन आम सहमति से काम नहीं कर रहा बल्कि वहाँ तानाशाहीपूर्ण तरीकों और नीतियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। एकेडमिक कौंसिल में बिना बहस के चीजें पास करके थोपी जा रही हैं, एकेडमिक कौंसिल के अनेक जनतांत्रिक फ़ैसलों को उपकुलपति ने अधिनायकवादी ढंग से अस्वीकार करके मनमाने ढंग से बदला है, शिक्षकों की नई नियुक्तियाँ सभी कायदे कानून तोड़कर हुई हैं और अधिकांश में आरएसएस के कम योग्य लोगों को नियुक्त किया गया है। विभिन्न विषयों के केन्द्रों के अध्यक्षों और डीन आदि की नियुक्तियाँ सभी मान्य नियमों और परंपराओं को ताक पर रखकर की गयी है।
उल्लेखनीय है मोदी सरकार ने विगत चार सालों में सुनियोजित ढंग से जेएनयू की सभी मान्य कमेटियों के फ़ैसलों और नियमों की खुलेआम अवहेलना करके जेएनयू के प्रशासनिक चरित्र को बुनियादी रूप से बदल दिया है। अब प्रशासन आम सहमति से काम नहीं कर रहा बल्कि वहाँ तानाशाहीपूर्ण तरीकों और नीतियों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
एक जमाना था एकेडमिक कौंसिल से लेकर बोर्ड ऑफ़ स्टैडीज तक प्रोफ़ेसरों में विभिन्न मसलों पर विचारों का खुलकर आदान प्रदान होता था लेकिन अब एकेडमिक कौंसिल में अधिकतर प्रोफेसर आतंक की वजह से चुप रहते हैं और उपकुलपति की हां में हां मिलाते हैं, सिर्फ प्रोफ़ेसरों के चुने गए दो नुमाइंदों को एकेडमिक कौंसिल में बोलते देखा गया है।इसके अलावा विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों—शिक्षकों—कर्मचारियों के जनतांत्रिक अधिकारों को पूरी तरह छीन लिया है। छात्रसंघ के चुनाव के तुरंत बाद परिसर में जुलूस, धरने और आंदोलनों पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गयी है। उल्लेखनीय है विश्वविद्यालय प्रशासन ने पहले भी विश्वविद्यालय में इस तरह की पाबंदी लगाई थी जिसे छात्रों⎯शिक्षकों ने नहीं माना।
जेएनयू में प्रशासन के जरिए असल में केन्द्र सरकार आतंक और भय का माहौल बनाने में लगी है, इसके लिए छात्रनेताओं के खिलाफ आए दिन कार्रवाई होती रहती है, शिक्षकों और छात्रों के सर्वसम्मत विरोध के बावजूद उपस्थिति रजिस्टर में हस्ताक्षर करने, छात्रों के उपस्थिति रजिस्टर को बनाने, नियमित उपस्थिति दर्ज करने के नियम को थोप दिया गया है। कैम्पस में लडकियों के खिलाफ उत्पीडन और हमले की घटनाएँ बढी हैं, अनेक मामलों में संघी शिक्षकों के नाम आए हैं। इसके अलावा अनेक शिक्षकों के नाम प्लेगरिज्म के चक्कर में भी सामने आए हैं। पीड़ित लडकियों ने जब कुछ शिक्षकों के खिलाफ शारीरिक उत्पीडन और यौन शोषण की लिखित शिकायत की तो प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की, फलत: उनको अदालत की शरण में जाना पडा, इसी तरह विभिन्न विभागों के अध्यक्षों की अवैध नियुक्तियों के खिलाफ भी शिक्षकों ने अदालत की शरण। ली, कन्हैया कुमार और अन्य छात्रनेताओं के खिलाफ विश्वविद्यालय प्रशासन ने मनमाने ढंग से जो दंडात्मक कार्यवाही की थी उसको भी अदालत में चुनौती दी गयी और उसमें अदालत का फैसला छात्रों के पक्ष में आया और वे अपनी थीसिस जमा कर पाए। कहने का तात्पर्य कि विश्वविद्यालय प्रशासन हर स्तर पर छात्रों और शिक्षकों के खिलाफ आए दिन फैसले ले रहा है और मनमाने ढंग से अपने फैसले थोपने की कोशिश कर रहा है इसके कारण कैम्पस में हमेशा तनाव रहता है।
सन् 2014 के पहले जेएनयू की यह स्थिति नहीं थी, कैम्पस में शांति थी, गुंडागर्दी नहीं थी, प्रशासन, पुलिस और गुंडों का आतंक नहीं था, प्रत्येक समस्या को प्रशासन हल करने की कोशिश करता था। लेकिन विगत चार साल में माहौल तेजी से बदला है, खासकर मौजूदा उपकुलपति के आने के बाद कैम्पस की परिस्थितियाँ तेजी से बिगड़ी हैं। इस सबके कारण जेएनयू के लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण चरित्र को व्यापक क्षति पहुँची है।
लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर थे। वे जेएनयू छात्र संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष थे।
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