Author : Manoj Joshi

Published on Aug 25, 2020 Updated 0 Hours ago

विदेश नीति को लेकर कमला हैरिस के विचार बिडेन के सबसे क़रीब थे. चाहे वह गठबंधन और साझेदारी के महत्व के मुद्दे पर हो, या मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए, उनके विचार बिडेन के समान हैं.

क्या बिडेन और हैरिस अमेरिकी राजनीति को एक नई दिशा दे सकते हैं?

लगभग हर एक इस बात पर सहमत होगा कि हम समकालीन इतिहास में एक समयांतर- बिंदु पर हैं, जहां एक युग दूसरे को रास्ता दे रहा है. यहां आम सहमति भी होगी कि सोवियत संघ के पतन के बाद की अवधि की पहचान बन चुकी निश्चितताओं का खात्मा हो रहा है. भविष्य में असुरक्षा और उथल-पुथल का एक बड़ा कारण होगा दुनिया भर में फैली कोविड-19 महामारी.

इन हालात में, पुराने ज़माने की डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बिडेन की द्वारा भारत का समर्थन सिर्फ़ स्वागतयोग्य कदम से कुछ अधिक है. पिछले हफ्ते भारतीय अमेरिकी समुदाय के लिए अपनी टिप्पणी में उन्होंने कहा, “मैं हमेशा भारत के साथ खड़ा रहूंगा और इसके अपनी सीमाओं पर सामना कर रहे ख़तरों में इसका साथ दूंगा.”  भले ही उन्होंने पूर्वी लद्दाख में टकराव का ज़िक्र नहीं किया हो, लेकिन सीमाओं पर भारत की स्थिति के लिए उनका आम समर्थन भरोसा जगाता है और अगर वो नवंबर में अमेरिका के अगले राष्ट्रपति चुने जाते हैं तो अमेरिकी नीति में एक नया आयाम भी ला सकता है.

27 अक्टूबर 1962 के एक बयान में अमेरिका ने मैकमोहन लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता दी थी, लेकिन इसने भारत की जम्मू कश्मीर की सीमा के समर्थन में कभी भी साफ़ रुख नहीं अपनाया. वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर भारत की मौजूदा स्थिति का समर्थन भारत-अमेरिका संबंधों में आगे बढ़ने का एक बड़ा कदम होगा. यह टिप्पणी इस वजह से कि भी महत्वपूर्ण है कि सीनेटर के रूप में बिडेन का रिकॉर्ड- खासकर विभिन्न अवधियों में जब वह 2000 के दशक में शक्तिशाली सीनेट की विदेश संबंध समिति (SFRC) के चेयरमैन थे.

अगस्त 2001 में समिति के चेयरमैन के तौर पर उन्होंने राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश को एक पत्र लिखा जिसमें पोखरन परीक्षण को लेकर भारत पर लगाई पाबंदियों को हटाने के लिए कहा गया था. एक विपक्षी नेता के रूप में वह अनिवार्य रूप से वह भारत के प्रति अमेरिका की स्थिति में एक बड़े  बदलाव के लिए प्रशासन के निर्णय के प्रति अपना समर्थन जता रहे थे. उस समय सीनेटर बिडेन ने इस बात पर जोर दिया था कि भारत को समर्थन चीन के ख़िलाफ़ उसे इस्तेमाल करने के लिए नहीं था “ वो जैसे हैं, उनके साथ वैसा व्यवहार करने के लिए सभी कारण हैं- वो एक महान राष्ट्र है.” बिडेन ने 2006 में एक भारतीय अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में कहा था, जिसके कुछ ही समय बाद आख़िरी बार सीनेट की विदेश संबंध समिति के चेयरमैन बने, उन्होंने कहा, “मेरा सपना है कि 2020 में दुनिया के दो सबसे क़रीबी देश भारत और अमेरिका हों. अगर ऐसा होता है, तो दुनिया सुरक्षित हो जाएगी.”

उस समय, भारत-अमेरिका परमाणु समझौता संपन्न होने की पूर्व संध्या पर, उन्होंने भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच “दशकों के अविश्वास और संदेह” को दूर करने की ज़रूरत पर जोर दिया था, और कहा था, “यह इकलौता ज़रूी रिश्ता है” जो हमें अपनी सुरक्षा की ख़ातिर ठीक करना होगा.”

विदेश नीति के अनुसार, बिडेन पहले से ही अपने चुनाव अभियान के लिए सलाहकारों की एक काबिल अनौपचारिक टीम बना चुके हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि बिडेन की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विदेश नीति पर कुछ ज़्यादा विवादास्पद कदमों को वापस लेना होगा.

भारत और अमेरिका ऐतिहासिक परमाणु समझौते की ओर बढ़ने के साथ, विपक्ष में रहते हुए भी बिडेन इसके प्रमुख समर्थक बनकर उभरे. वह अपने उदारवादी अंतरराष्ट्रीयतावाद और दलीय साझीदारी के लिए जाने जाते हैं और विदेश संबंध समिति में शीर्ष डेमोक्रेट के रूप में अपनी स्थिति का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने 85-12 के विशाल अंतर से सीनेट से मंज़ूर हाइड एक्ट को पारित कराने में प्रमुख भूमिका निभाई. हालांकि उन्हें हाइड एक्ट पर अधिकांश डेमोक्रेट्स के वोट मिले, लेकिन जिन्होंने “ना” में वोट दिए,  वे सभी उनके साथी डेमोक्रेट थे. यह सांसद हेनरी जे हाइड द्वारा पेश महत्वपूर्ण कानून था, जिसने भारत को परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1954 की प्रमुख शर्तों से छूट देने में मदद की. यह ऐसा कदम था जिसने इस सौदे को मुमकिन बनाया.

विदेश नीति के अनुसार, बिडेन पहले से ही अपने चुनाव अभियान के लिए सलाहकारों की एक काबिल अनौपचारिक टीम बना चुके हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि बिडेन की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विदेश नीति पर कुछ ज़्यादा विवादास्पद कदमों को वापस लेना होगा. इस टीम में क़रीब 49 वर्किंग ग्रुप शामिल हैं, जो एक बड़े विदेश नीति समुदाय के साथ बातचीत करते हैं. खबरों के अनुसार विदेश विभाग के दो पूर्व अधिकारी सुमोना गुहा और टॉम वेस्ट दक्षिण एशिया पर वर्किंग ग्रुप की अगुवाई कर रहे हैं. सुमोना अभी आलब्राइट स्टोनब्रिज ग्रुप की वाइस प्रेसिडेंट हैं और टॉम वेस्ट कोहेन ग्रुप के एसोसिएट वाइस प्रेसिडेंट हैं.

पर्यवेक्षकों ने बताया है कि जिन संभावित उपराष्ट्रपति उम्मीदवारों पर विचार किया गया, विदेश नीति को लेकर कमला हैरिस के विचार बिडेन के सबसे क़रीब थे. यह उनके सीनेट रिकॉर्ड, राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में उनकी प्रतिक्रियाओं और बहस टिप्पणियों के विश्लेषण में रेखांकित होता है. चाहे वह गठबंधन और साझेदारी के महत्व के मुद्दे पर हो, या मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए, उनके विचार बिडेन के समान हैं. हालांकि, इस तथ्य को देखते हुए कि बिडेन का विदेश नीति में ज़्यादा लंबा अनुभव है, कमला हैरिस के लिए विदेश नीति पर उनसे अलग विचार रखने की संभावना है. लेकिन, बिडेन का लंबे समय तक काम करने का अनुभव था और ज़ाहिर तौर पर विदेश नीति में रुचि थी. कमला एक मज़बूत शख़्सियत की मालिक हैं, लेकिन घरेलू मुद्दों पर ज़ोर देने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चुन सकती हैं.

जे. जे. सिंह ने इंडिया लीग फॉर अमेरिका (ILA) का नेतृत्व किया था, जो 1940 के दशक में अमेरिका में भारतीयों के प्रतिनिधि संगठन के रूप में उभरा था. ILA ने न सिर्फ़ अमेरिका में भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सबसे महत्वपूर्ण पैरोकार भी बना.

इस बीच, एक रिपोर्ट के अनुसार, कमला हैरिस ने एक भारतीय अमेरिकी, सबरीना सिंह को अपनी प्रेस सचिव नियुक्त किया है. सबरीना सिंह का जे. जे. सिंह की पौत्री के रूप में एक खास खानदानी रुतबा है. जे. जे. सिंह ने इंडिया लीग फॉर अमेरिका (ILA) का नेतृत्व किया था, जो 1940 के दशक में अमेरिका में भारतीयों के प्रतिनिधि संगठन के रूप में उभरा था. ILA ने न सिर्फ़ अमेरिका में भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सबसे महत्वपूर्ण पैरोकार भी बना.

दुनिया के लिए बिडेन-हैरिस प्रेसिडेंसी का क्या महत्व होगा? राजनीतिक रूप से, यह अंतरराष्ट्रीयतावादी दृष्टिकोण के साथ एक केंद्र-वाम प्रशासन होगा. जैसा कि जोश रोजिन ने टिप्पणी की है, भले ही यह सभी डेमोक्रेट्स को उत्साहित न करे, लेकिन बिडेन-हैरिस दुनिया का नज़रिया “एक मज़बूत बहुपक्षीय प्रणाली का नेतृत्व करने वाला एक मज़बूत अमेरिकी युग” वापस ले आएगा.

दूसरे शब्दों में, रूस और चीन से तल्ख़ी भरे आमना-सामना के साथ ही, अमेरिका अपने सहयोगियों  व बहुपक्षीय संगठनों की तरफ फिर से लौटेगा, जिसका मतलब होगा डब्ल्यूएचओ, पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते का समर्थन और संभवतः फिर से ट्रांस-पैसिफिक साझीदारी में पुनः प्रवेश

भारत के लिए इसका क्या मतलब हो सकता है? निश्चित रूप से, रिश्ते ट्रंप युग से अलग होंगे जिसकी ख़ासियत सनक भरे उतार-चढ़ाव थे. बहुत सारी सकारात्मक बातें भी हुईं, एक दौर में मोदी ने ट्रंप और अन्य लोगों से सतर्कता भरी दूरी रखी, लेकिन दोनों एक-दूसरे से गले भी मिले.व्यापार के मोर्चे पर भारत पर बहुत दबाव रहा है और ट्रंप प्रशासन का आतंकवाद को लेकर रुख पूरी तरह भारत की पसंद का नहीं है. पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कड़ा रुख अपनाने के बाद, ट्रंप के मातहत अमेरिका भारत और पाकिस्तान के बीच के मुद्दों पर अधिक तटस्थ स्थिति में आया और यहां तक ​​कि कश्मीर विवाद में मध्यस्थता भी करना चाहा. ईरान के साथ व्यापार पर बांह मरोड़े जाने के अलावा, नई दिल्ली को रूस से एस-400 आयात करने के मुद्दे पर भी विरोध का सामना करना पड़ा.

पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कड़ा रुख अपनाने के बाद, ट्रंप के मातहत अमेरिका भारत और पाकिस्तान के बीच के मुद्दों पर अधिक तटस्थ स्थिति में आया और यहां तक ​​कि कश्मीर विवाद में मध्यस्थता भी करना चाहा.

डेमोक्रेट्स के लिए मानवाधिकार हमेशा बड़ा मुद्दा रहा है और बिडेन जमाल खशोगी की हत्या के लिए सऊदी अरब की आलोचना करने, या उइग़र नजरबंदी के मुद्दे पर चीन के ख़िलाफ़ दबाव बनाने में हिचकिचाए नहीं. कमला हैरिस ने सीनेटर के रूप में सऊदी अरब को हथियारों की बिक्री रोकने और यमन युद्ध के लिए अमेरिकी समर्थन को खत्म करने को वोट दिया है. इसलिए, भारत को जम्मू कश्मीर में लॉकडाउन और सीएए कानून जैसे दूसरे मुद्दों के कारण छूट मिलने की संभावना नहीं है.

बिडेन और हैरिस के धौंस भरे उदारवाद के प्रति झुकाव से, हम चीन पर मानवाधिकारों के मुद्दे पर और साथ ही दक्षिण चीन सागर में इसकी गतिविधियों पर निरंतर दबाव देख सकते हैं. दक्षिण चीन सागर या बौद्धिक संपदा चोरी के मुद्दे पर चीन के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ नहीं अपनाने की ओबामा प्रशासन की ग़लती को बिडेन दुरुस्त कर सकते हैं. लेकिन भारत अगर अपने दांव अच्छी तरह से चलता है तो यह अमेरिका-चीन संबंधों के अपरिहार्य संघर्ष का लाभार्थी हो सकता है.

लेकिन अगर बिडेन की राजनीतिक प्रवृत्ति प्रबल होती है, तो हम प्रक्रिया का एक अलग नतीजा देख सकते हैं. युद्ध के रास्ते के बजाय हम अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान के समन्वित प्रयास से, जिसमें भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी शामिल हो सकते हैं, चीन को सीधे रास्ते पर लाया जाता देख सकते हैं. सारी बातें ठीक हैं और अकेले अमेरिका व यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्थाएं चीन के आकार का तीन गुना हैं. और बीजिंग यूएस की सैन्य क्षमता के क़रीब भी नहीं फटकता है. एक मौका देकर, इस तरह की नीति से चीन की करतूतों को दुरुस्त करने में मदद मिल सकती है. और अगर भारत ठीक से कदम उठाता है, तो फ़ायदा उठाने की स्थिति में भी हो सकता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.