Published on Jun 21, 2019 Updated 0 Hours ago

मूल मसौदे की इस डेढ़ लाइन पर जिस तरह से बवाल हुआ, उससे पता चलता है कि भाषा का मामला अभी भी कितना संवेदनशील है और शायद हमेशा ही रहे.

भाषा पर फिर से क्यों मचा बवाल?

भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे से जिस तरह से गलतफहमियों को बढ़ने और शोर-शराबा मचने दिया गया, वह हैरान करता है. हालांकि कुछ दिनों में सरकार ने स्थिति संभाल ली. उसने कहा कि यह सिर्फ ‘मसौदा’ है. सरकार ने मसौदे के P4.5.9 वाले हिस्से को भी हटा दिया, जिसमें कहा गया था कि सभी गैर-हिंदी भाषी राज्यों को, हिंदी भाषा को स्कूली शिक्षा में शामिल करना होगा. अगर वह ऐसा नहीं करती है तो यह चिंगारी आग में बदल सकती थी.

1960 के दशक से भाषा नीति तय मानी जाती रही है. 1959 और 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वादा किया था कि सरकार त्रिभाषा फॉर्मूले में ढील देने को तैयार है, जिसमें हिंदी के साथ अंग्रेजी तब तक आधिकारिक भाषा रहेगी, जब तक कि गैर-हिंदी भाषी राज्य अंग्रेजी को हटाने के लिए तैयार नहीं हो जाते. संविधान में भी अंग्रेजी को अनिश्चितकाल के लिए (आर्टिकल 343-3) आधिकारिक भाषा बनाए रखने का रास्ता खुला रखा गया था. इसके मुताबिक 1963 में राजभाषा कानून पास हुआ, जिससे अंग्रेजी को संविधान के पहले 15 साल के बाद भी जारी रखने की इजाज़त मिली.

मैंने त्रिभाषा फॉर्मूले में ढील की बात इसलिए लिखी है क्योंकि चाहे जो हो जाए, तमिलनाडु और उत्तर भारतीय राज्य, त्रिभाषा फॉर्मूला लागू करने की पहल नहीं करते. हद से हद वे अंग्रेज़ी को क्षेत्रीय भाषा के साथ किसी न किसी रूप में जारी रखते और बाकी फैसला लोगों पर छोड़ देते. पिछले 60 साल का तजुर्बा हमें यही बताता है.

डॉ. कस्तूरीरंगन ने भी नए मसौदे में कमोबेश पहले वाली भावना का ख्य़ाल रखा है. इसकी प्रस्तावना के आखिरी पैराग्राफ में लिखा है, ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में शिक्षा व्यवस्था में बदलाव और उसमें जान फूंकने का तरीका बताया गया है. इसे हमने बदलते हुए वक्त, नॉलेज बेस्ड सोसायटी और भारतीयों की विविधता, परंपरा, संस्कृति और भाषा को ध्यान में रखकर तैयार किया है.’ इसमें ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है, जिससे किसी को ठेस पहुंचे.

शिक्षा में भाषा के सवाल पर रिपोर्ट में कहा गया है (सेक्शन 4.5), ‘नीति में इस पहलू को भी शामिल किया गया है कि आज बड़ी संख्या में स्कूली छात्रों को ऐसी भाषा में शिक्षा दी जा रही है, जिसे वे नहीं समझते. इससे सीखने की शुरुआत करने से पहले ही वे पीछे छूट रहे हैं. इसलिए शुरुआती वर्षों में छात्रों को उनकी भाषा में पढ़ाने की ज़रूरत है.’ इसके बाद के सब-सेक्शन में कहा गया है कि अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों की भाषा क्षेत्रीय भाषा से अलग हो तो उन्हें भी अपनी ज़ुबान में शिक्षा का बराबरी का हक़ मिलना चाहिए. कुल मिलाकर मसौदे में ‘क्लासरूम में भाषा को लेकर लचीले रुख़ की वकालत की गई है.’

स्कूलों में तीन भाषाएं पढ़ाने (4.5.3) पर मसौदा कहता है, ‘छोटे बच्चे तेज़ी से भाषा सीखते हैं. इसका फायदा उठाकर प्री-स्कूल और ग्रेड 1 के बाद बच्चों को तीन या उससे अधिक भाषाएं सिखाई जानी चाहिए ताकि वे ग्रेड तीन तक उन भाषाओं में बेधड़क बात कर सकें, लिपि पहचान सकें और बुनियादी टेक्स्ट पढ़ने के योग्य हो जाएं.’ यह कमाल का आइडिया है. इसके लिए ग्रेड 3 तक बच्चों को सिर्फ भाषा और बुनियादी गणित की शिक्षा दी जाए और बाकी के विषय उन्हें बाद के वर्षों में पढ़ाए जाएं. सिलेबस को बदलकर यह काम किया जा सकता है. यह इसलिए ज़रूरी है ताकि बच्चों के दिमाग पर बोझ न बढ़े और उनके सोचने-समझने की क्षमता कुंद न हो. इस मामले में अरस्तू, रूसो, मॉन्टेसरी और टैगोर के विचार काफी काम आ सकते हैं. इन सबने 7 साल तक बच्चों की शिक्षा कैसी होनी चाहिए, इस बारे में बहुत कुछ कहा है. हालांकि, अभी इस मुद्दे को रहने देते हैं.

त्रिभाषा फॉर्मूला पर मसौदे का रुख 1968 के बाद की नीति के मुताबिक है. इसमें सुझाव दिया गया है, संविधान, लोगों, क्षेत्रों और संघ की भावनाओं का ख्याल रखते हुए इसे जारी रखा जाएगा. इसमें यह भी माना गया है (4.5.6) कि नीति को उसकी मूल भावनाओं के साथ लागू करने की जरूरत है. इससे यह इशारा किया गया है कि अभी तक इसे मूल भावनाओं के मुताबिक लागू नहीं किया गया है और इस मामले में हिंदी भाषी राज्यों को उनकी जवाबदेही की याद दिलाई गई है.

हालांकि, इसे कुछ राज्यों में लागू करना चाहिए, ख़ासतौर पर हिंदी भाषी राज्यों में. राष्ट्रीय अखंडता के लिए हिंदी भाषी राज्यों को देश के दूसरे हिस्सों की कम से कम एक भाषा ज़रूर पढ़ानी चाहिए. अगर मसौदा तैयार करने वालों को लगा कि हिंदी भाषी राज्य त्रिभाषा फॉर्मूले को ईमानदारी से लागू नहीं कर रहे हैं तो उन्हें ग़ैर हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी नहीं थोपनी चाहिए थी, जिसका ज़िक्र इसके बाद के सब-पैराग्राफ में किया गया था. इस पैरा को संशोधित मसौदे से बाद में हटाया गया और सिर्फ इतना कहने से बात ख़त्म नहीं हो जाती कि हिंदी भाषी राज्य ‘देश के दूसरे हिस्सों की भाषा पढ़ाएं.’ इसे और स्पष्ट किया जाना चाहिए.

मूल मसौदे की इस डेढ़ लाइन पर जिस तरह से बवाल हुआ, उससे पता चलता है कि भाषा का मामला अभी भी कितना संवेदनशील है और शायद हमेशा ही बना रहे. लोग जिस भाषा में बात करते हैं, वह उनके लिए बेशकीमती होती है. बहुसंख्यकवाद के किसी सिद्धांत से इस विवाद को खत्म नहीं किया जा सकता. 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में 43.6 पर्सेंट लोग हिंदी बोलते हैं. इसमें भोजपुरी, मैथिली, मारवाड़ी और इस तरह के कई अन्य छोटे भाषा समूहों को शामिल किया गया है. यानि हिंदी भाषा बोलने वालों में अलग-अलग भाषाई समाज के लोग हैं और शायद इसे कुछ बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है. इससे एक और सवाल खड़ा होता है कि हिंदी बोलने वालों की संख्या द्रविड़ बोलने वालों के मुकाबले तेज़ी से बढ़ रही है यानि वे दूसरे भाषाई समूह की तरह परिवार नियोजन पर ध्यान नहीं दे रहे हैं.

किसी भाषा का दर्जा अक्सर देश या क्षेत्र के दर्जे पर निर्भर करता है, जहां उसका इस्तेमाल करने वाले रहते हैं. अंग्रेजी का सम्मान ग्रेट ब्रिटेन की उपलब्धियों की वजह से किया जाता है. चीन ने जिस तेज़ी से आर्थिक तरक्की की है, उसके कारण आज मंदारिन सम्मानित भाषा बन गई है. कई लोग इसे सीखना चाहते हैं. भारत में सत्ता ने आज़ादी के बाद से हिंदी का ज़ोरशोर से समर्थन किया है, लेकिन हिंदी भाषी राज्य दूसरों के लिए रोल मॉडल नहीं बन पाए हैं.

सस्टेनेबल डेवेलपमेंट गोल में उपलब्धियों के आधार पर ओआरएफ, कोलकाता में नीलांजन घोष और उनकी टीम ने हाल ही में राज्यों की एक रैंकिंग तैयार की है, जिसमें पहले सात में से चार राज्य दक्षिण भारत के हैं. इसमें छत्तीसगढ़ को 17वां, मध्य प्रदेश को 18वां, झारखंड को 21वां, यूपी को 22वां और बिहार को 23वां स्थान मिला है. भारत में घरेलू पर्यटकों को आकर्षित करने के मामले में तमिलनाडु पहले नंबर पर है. 2017 में वहां 20.9 पर्सेंट घरेलू पर्यटक गए थे. इससे पता चलता है कि भले ही राज्य के लोग ख़राब हिंदी बोलते हों, उससे देश भर के लोगों के तमिलनाडु जाने पर असर नहीं पड़ा है.

अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पर ड्राफ्ट में जो विमर्श दिया गया है, वह ठीक नहीं है. इसमें अंग्रेजी को औपनिवेशवादियों’ और ‘आर्थिक अभिजात्य’ वर्ग से जोड़ा गया है. इसे ‘पावर स्ट्रक्चर लैंग्वेज’ बताया गया है. मसौदे में इसे बिना देरी के खत्म करने (82-83) का सुझाव दिया गया है. हालांकि, इसके साथ यह भी कहा गया है कि ‘सभी सरकारी और निजी स्कूलों में अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई बेहतरीन ढंग से जारी रहनी चाहिए.’ मसौदा कहता है कि अंग्रेजी से ‘जैसी अंतरराष्ट्रीय भाषा बनने की उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हुई’, लेकिन छात्रों से साइंस और टेक्नोलॉजी जैसी उच्च शिक्षा के लिए इसे सीखने को कहा गया है. इन बातों को पढ़कर मन में एक सवाल आता है कि एक वर्ग को अंग्रेज़ी से महरूम करके क्या हम एक नया पावर स्ट्रक्चर नहीं खड़ा कर करेंगे.

राजनीतिक एजेंडे से भाषा को बाहर करना नेहरू का बड़ा योगदान था, फिर कुछ लोगों को क्यों सभी देशवासियों पर हिंदी थोपने का आइडिया ठीक लगा, यह पहेली अभी बनी हुई है. रॉबर्ड डी किंग ने ‘नेहरू एंड द लैंग्वेज पॉलिटिक्स ऑफ इंडिया’ (ऑक्सफोर्ड, 1997) किताब में लिखा है, ‘भाषाई समस्याएं वैसी होती नहीं हैं, जैसी पहली नजर में दिखती हैं. वे अक्सर उस एजेंडा पर परदा डाल देती हैं, जो भाषा से हल्के तौर पर जुड़े होते हैं.’ शायद इससे हमें त्रिभाषा फॉर्मूले पर नए बवाल की पहेली सुलझाने में मदद मिले.

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