Author : Ashok Malik

Published on Jun 07, 2017 Updated 0 Hours ago

नरेन्द्र मोदी सरकार का चीन में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव फोरम के बहिष्कार का  फैसला भारतीय विदेश नीति के हाल के तीन प्रमुख जोखिम भरे फैसलों में से एक है।

जोखिम भरा है बीआरआई फोरम के बहिष्कार का फैसला

कूटनीति में आमतौर पर बहुत ही सजग और नपे-तुले अंदाज से कदम उठाए जाते हैं। इसमें जोखिम भरे और आनन-फानन में बहुत कम कदम उठाए जाते हैं। इसे देखते हुए नरेन्द्र मोदी सरकार का चीन में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) फोरम के बहिष्कार का फैसला भारतीय विदेश नीति के हाल ही में उठाए गए तीन प्रमुख जोखिम भरे फैसलों में से एक है।

इससे पहले के पिछले दो जोाित भरे फैसले थे —  बांग्लादेश की आजादी का समर्थन करने का फैसला, भले ही उसका आशय पाकिस्तान के साथ संघर्ष था और दूसरा 1998 में परमाणु परीक्षण करने का निर्णय। आखिरकार दोनों ही फैसलों का नतीजा अच्छा रहा। 1971 के भारत के दृष्टिकोण के नैतिक सिद्धांत ने उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित किया और सैन्य कामयाबी दिलाई तथा इंदिरा गांधी के महान उपलब्धियों के दौर की ओर इशारा किया।

दूसरी ओर, पोखरण-2 और भारत की ओर से की गई परमाणु हथियार की औपचारिक घोषणा ने विश्व को भारत के जिम्मेदार परमाणु शक्ति होने की वास्तविकता का सामना करने के लिए बाध्य कर दिया। बहिष्कार का दौर समाप्त होने के बाद, वह भारत के साथ संबंध जोड़ने के लिए बाध्य हुआ और इस तरह आधुनिक कूटनीति के चरण की शुरूआत हुई।

बीआरआई फोरम के बहिष्कार, का औपचारिक वक्तव्य वन बेल्ट, वन रोड (ओबीओआर) के नाम से विख्यात परियोजनाओं के मिश्रण की व्यवहारिकता और तर्क को कमजोर करता है तथा सम्राट शी जिनपिंग के बीजिंग दरबार के सामने खड़ा होने से इंकार करना काफी अरसे बाद चीन के लिए भारत की ओर से जबरदस्त चुनौती है।

साफ तौर पर कहा जाए, तो भारत के पास फोरम में जाने से इंकार करने और बीआरआई/ओबीओआर को अपनी जायज महत्वाकांक्षाओं के लिए खतरा मानने का कोई विकल्प नहीं है।

मोदी-शी संबंध इस मोड़ तक कैसे पहुंचे? मोदी ने 2014 में कार्यभार संभाला, जब चीन खुद को आर्थिक और संयुक्त शक्ति की पराकाष्ठा के तौर पर देखता था। वर्ष 2000 में, जब पूर्ववर्ती भाजपा सरकार सत्ता में आई थी, तो चीन का जीडीपी भारत के जीडीपी से दुगुना था। वर्ष 2014 तक आते-आते यह भारत के जीडीपी से लगभग पांच गुना था। 2008 के बीच — जब पश्चिमी देश वित्तीय संकट के कारण कमजोर स्थिति में थे और 2014 में, भारत के जीडीपी में 50 प्रतिशत वृद्धि हुई, तो चीन के जीडीपी में 250 गुना वृद्धि हुई । मोदी को यह विरासत सौंपी गई थी।

उन्होंने क्या जवाब दिया? पहला, उन्होंने चीन की कम्पनियों और निवेशकों की बाजार तक पहुंच बढ़ाने की मांग की, जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा पर संदेह के आधार पर ठुकरा दिया गया। यह कुछ हद तक कारगर रहा और चीनी निवेश में वृद्धि हुई।

इसके बावजूद, यह दावा नाकाम रहा कि इससे चीनी प्रणाली के भीतर भारत के लिए राजनीतिक लाभ की स्थितियां तैयार होंगी। न ही चीन ने भारत द्वारा निर्यात की जा सकने वाली वस्तुओं और सेवाओं : फार्मास्यूटिकल औषधियां, कुछ विशेष प्रकार के मांस और डेयरी उत्पादों और आईटी सेवाओं से गैर-शुल्क बाधाओं को हटाकर खुलापन दर्शाया है।

वादों के बावजूद, चीन अभेद्य बना रहा — जबकि चीन भारतीय मदों को तीसरे देशों के माध्यम से आयात करता रहा या अन्य देशों से होने वाले इसी तरह के आयात पर छूट देने की पेशकश करता रहा। हाल ही में अमेरिका को बीफ आयात पर छूट देना इसी का उदाहरण है।

दूसरा, भारत को पड़ोसी देशों को चीनी प्रभाव से अलग रखने में कुछ कामयाबी मिली। जहां एक ओर चीन के प्रतिनिधि और निर्वाचक स्थल पूरे दक्षिण एशिया में हैं, वहीं भारत —श्रीलंका, बांग्लादेश और तो और नेपाल एवं म्यांमार में अपनी तीन साल पहले की स्थिति से बेहतर स्थिति में है।

ओबीओआर के एक संघटक बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआईएम) गलियारे — के संदर्भ में, जिसे चीन अपनी वस्तुएं भारत के बाजारों तक पहुचाने के एक मार्ग के रूप में देखता है — उसे लेकर भारत और नॉएप्यीडा समान रूप से सतर्क हैं। म्यांमार इस बात को लेकर चिंतित है कि चीन के ट्रक और कार्गो स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर सृजित किए बिना या कोई मूल्य वर्धन किए बिना केवल उसके भूगोल का इस्तेमाल करेंगे।

मूल्य वर्धन और स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर सृजित न करने की चिंता केवल बीसीआईएम तक ही सीमित नहीं है। यह ओबीओआर के डीएनए में ही है। श्रीलंका में, बेवजह बेतहाशा खर्च और कर्ज है। पाकिस्तान के डॉन अखबार में प्रकाशित (सीपीईसी मास्टर प्लान उजागर), ‘सीपीईसी मास्टर प्लान’ में कहा गया है कि ओबीओआर का अंतिम लक्ष्य पाकिस्तानी क्षेत्र में केवल चीन की बस्तियों और आर्थिक तथा बहलाव के क्षेत्रों के सृजन करना है।

 चीन अपनी पश्चिमी सीमा (शिनजियांग) से ग्वादर बंदरगाह और अरब सागर तक पहुंच कायम करना चाहता है। एक बार यह गलियारा अलग होते ही — अगर उसे अलग किया जाना संभव हो सका — उसकी पाकिस्तान के बाकि हिस्सों के साथ सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता आसान हो जाएगी।

पूरे दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र के देशों में इसी से मिलती-जुलती योजनाओं के साथ ओबीओआर में राजनीतिक और (पाकिस्तान में) सैन्य कुलीनों को खरीद कर संवेदनशील तथा अब तक विकासशील व्यवस्थाओं को अस्थिर करने का जोखिम मौजूद है। इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हितधारक होने के नाते भारत, इन मामलों को उठाने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता।

 भारत को भी अपनी घोषणा के अनुसार, 100 असंगत सम्पर्क और ढांचागत परियोजनाओं के कार्यान्वयन में तेजी लानी होगी, या दक्षिण एशिया और हिंद महासागर में कार्य शुरू करना होगा। चीन की योजनाओं के लाभकारी होने की संभावना है, उनके पास खुली निविदा की किसी इससे मिलती-जुलती परियोजना के दो से तीन गुना ज्यादा बजट है। श्रीलंका में कुछ सड़क परियोजनाओं के मामले में भारतीय बोलियां, चीनी बोलियों के मूल्य का लगभग तीसरा हिस्सा थी और स्थानीय श्रमिकों को उपयोग में लाया गया।

दरअसल, भारतीय परियोजनाओं का आकलन किया गया है। लेकिन यही धारणा है कि चीन के कार्यान्वयन की गति बहुत तेज है। अगर भारत को ओबीओआर का मुकाबला करना है, तो मोदी को इस धारणा में बदलाव लाना होगा।


यह समीक्षा मौलिक रूप से द इकॉनोमिक्स टाइम्स में प्रकाशित हुई थी।

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