गुजरात में एक मंजे हुए और दूसरे युवा प्रतिद्वंदियों (गोलियेथ बनाम डेविड) के बीच ‘असमान’ की लड़ाई का समापन प्रत्याशित तरीके से ही हुआ और राहुल गांधी भाजपा से राज्य छीनने में नाकाम रहे। लेकिन मोदी के जादू में कमी आई है, खासकर जीत के मामूली अंतर एवं उनके संसदीय गृह क्षेत्र ऊंझा में हुई हार को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है। 41 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ कांग्रेस ने राज्य में अपनी राजनीति साख फिर से स्थापित कर ली है।
बेशक, यह देखा जाना अभी बाकी है कि कांग्रेस को एकजुट बनाए रखने वाला यह गोंद कितना कारगर साबित होता है। राज्य स्तरीय विधान सभाएं उस प्रकार से कार्य नहीं करतीं जिससे विपक्ष को एक उच्च स्तरीय ‘राजनीति’ के लिए मंच हासिल हो सके जैसा कि संसदीय लोकतंत्रों का नियम होना चाहिए। काफी हद तक यह एक शून्य गणित वाला खेल है जिसमें सत्ताधारी को ही अक्सर कम ही अवसर प्राप्त होते रहते हैं।
तो, क्या कांग्रेस 2019 के चुनाव में भाजपा को धूल चटा सकती है? हां, ऐसा हो सकता है, बशर्ते, भाजपा ये पांच सुधारात्मक कदम न उठाए। ये कदम हैं — अपने कोर नेतृत्व को विस्तारित करना; सरकारी नौकरियां देना; हिन्दुओं की लामबंदी से परहेज करना एवं शिक्षा तथा स्वास्थ्य में निर्णय निर्माण प्रक्रिया में तेजी लाना और त्वरित तथा उत्साहपूर्ण तरीके से बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं को आगे बढ़ाना।
पहला, भाजपा को अपने राज्यों के मुख्यमंत्रियों की सार्वजनिक छवि को मजबूत बनाने पर गंभीरता से प्रयास करना चाहिए तथा उन पर राज्य चुनाव को विजयी बनाने का भरोसा करना चाहिए बजाए कि इसके लिए प्रधानमंत्री के करिश्मे पर निर्भर रहने के। 2018 में, मध्य प्रदेश, छत्तीगढ़ और राजस्थान में चुनाव होंगे। यह बड़ी विडंबना है कि पहले ऐसे उपदेशों का लक्ष्य कांग्रेसी राजवंश हुआ करता था जिसने सुनियोजित तरीके से राज्य स्तरीय नेतृत्व को समाप्त कर दिया जिससे कि गांधी की जागीर के लिए ‘खतरा बन सकने वाले’ लोगों को दूर रखा जा सके। आज भाजपा, जो कभी खुली प्रविष्टि और प्रतिभा वाली पार्टी मानी जाती थी, को नए सिरे से अनुभव प्राप्त करने की जरुरत है।
अगर राज्य स्तरीय भाजपा नेतृत्व हाथ पर हाथ रखकर बैठी रही तो 2019 में हालात बदतर हो सकते हैं क्योंकि तब केवल शाह-मोदी की जोड़ी को ही मशक्कत करनी पड़ेगी।
दूसरा, अगर युवा मतदाताओं को भाजपा की तरफ आकर्षित करना है तो केवल रोजगार के सृजन के जरिए ही ऐसा संभव हो पाएगा। भाजपा निजी क्षेत्र में रोजगार की बदतर स्थिति को अगले दो वर्षों के दौरान दुरूस्त कर लेगी, इसके आसार बहुत कम नजर आते हैं। लेकिन सरकारी नौकरियों में युवाओं को अवसर देने से उसे कोई रोक नहीं सकता। अगर सुनियोजित तरीके से किया जाए तो एक व्यक्ति को रोजगार देने से अन्य 10 लोगों के दिलों में उम्मीदें पैदा होती हैं। अगर सरकार 10 लाख लोगों को रोजगार देती है तो एक करोड़ युवाओं के दिलों में उम्मीदें पैदा हो जाती हैं।
केन्द्र सरकार के असैनिक (सैन्य क्षेत्रों को छोड़कर ) हिस्से में भी 2001 से ही लगभग दो लाख लोगों को रोजगार नहीं प्रदान किया गया है। आज 4,20,000 रिक्त पद हैं। व्यापक सार्वजनिक क्षेत्र में, जिसमें सभी राज्य और स्थानीय सरकारें शामिल हैं, रोजगार में 20 लाख की कमी आई है जो 1995 में 1.95 करोड़ के स्तर पर थी। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
तीसरा, हिंदू संघटन की रणनीति अब बहुत कारगर नहीं रह गई है। प्रधानमंत्री मोदी को निश्चित रूप से सभी नागरिकों के कल्याण के लिए एक बहु-सांस्कृतिक, प्रतिभा आधारित राष्ट्र के 2014 के विजन पर लौट आना चाहिए जिसमें संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए जातियों या धर्मों के आधार पर भेदभाव न किया जाए। भारत में हिंदुओं पर न तो कोई खतरा है और न ही उनकी संस्कृति पर कोई हमला कर रहा है।
अल्पसंख्यक समुदायों को यह महसूस करने की आवश्यकता है कि केवल नाममात्र से ही वे अल्पसंख्यक हैं। अल्पसंख्यक होना केवल एक अंकगणितीय तथ्य भर है। वे अपने लिए, अपने परिवारों तथा समाज के लिए जो हासिल कर सकते हैं, उनमें केवल उनकी अपनी अंतर्बाधाओं के कारण ही कुछ दिक्कत है न कि सरकारी ढांचे में उनके लिए कोई प्रतिकूल स्थिति है।
निश्चित रूप से, युवाओं को उनकी जड़ों के संपर्क में बनाए रखना; इतिहास को दुरुस्त करना जहां उसे पक्षपातपूर्ण ढंग से लिखा गया है; भाषा एवं सांस्कृतिक नीति पर एक राष्ट्रीय सर्वसहमति का निर्माण करना, ये सभी सरकार के लिए वैध कदम हैं। सरकार के कदम तभी धमकाने वाले लगते हैं, जब वे भेदभावपूर्ण राजनीतिक लाभ अर्जित करने के लिए किसी छद्म तरीके से उठाए जाएं।
चौथा, राजनीतिक संघवाद जीएसटी के कार्यान्वयन के बाद से प्राथमिकता में पीछे रह गया है। केंद्र सरकार को अनिवार्य रूप से संविधान की समवर्ती सूची वाले क्षेत्रों के संबंध में इस सिद्धांत के आधार को विस्तृत करना चाहिए, जहां केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों के पास कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। शिक्षा एवं स्वास्थ्य ऐसे दो प्रमुख क्षेत्र हैं।
फंडों के आवंटन एवं उपयोग पर फैसलों को प्रतिभागी एवं सर्वसहमत बनाने के लिए शिक्षा एवं स्वास्थ्य में जीएसटी परिषद के प्रतिरूपों का औपचारिक रूप से सृजन किया जाना चाहिए। शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में भारत अफ्रीका के सहारा क्षेत्रों के कई विकासशील देशों से भी काफी पीछे है। संयुक्त एवं समन्वित प्रयास; सार्वजनिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं में उल्लेखनीय विस्तार; सेवाओं की गुणवत्ता में बेहतरी लाने के लिए टेक्नोलॉजी का लाभ उठाना तथा दोनों क्षेत्रों में बजटीय आवंटन को दोगुना करना ऐसे सुधारात्मक कदम हैं जिसे अल्पकालिक अवधि में कार्यान्वित किया जा सकता है। इन मूलभूत सेवाओं पर फोकस करने से ही मतदाताओं के बीच काफी उत्साह का संचार हो सकता है।
पांचवां, मूल्य-संवर्द्धन का सर्वाधिक लाभ उठाने के लिए बेहतर है कि नई परियोजनाएं आरंभ करने के बजाए वंचित वर्गों के लिए ढांचागत क्षेत्र की अधूरी पड़ी परियोजनाओं तथा कार्यों को पूरा करने पर फोकस किया जाए। रोजगार, बेहतर संपर्क, कम कारोबारी लागत सभी को इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश से ही प्रोत्साहन मिलता हैं। कुछ अभिनव पहल किए जाने की भी आवश्यकता है। बुनियादी ढांचे से संबंधित छोटी परियोजनाओं के लिए इंटरनेट के द्वारा बड़ी संख्या में लोगों की सेवाओं को सूचीबद्ध (क्राउड सोर्सिंग) करने के द्वारा भी राजकोषीय बोध में कमी आ सकती है।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि, यह आम नागरिकों तथा निजी क्षेत्र की कंपनियों को प्रतिभागी होने का अहसास दिलाता है, केवल सार्वजनिक बख्शीश पाने वाला नहीं। इस तरीके से योगदान दिए जाने वाले निजी फंडों पर अच्छे रिटर्न के भरोसे से भी पर्याप्त मदद मिल सकती है। कार्यशील स्ट्रीट लाइट; पैदल यात्रियों के लिए रोड ओवर या अंडरपास; सार्वजनिक शौचालय; बेहतर सार्वजनिक परिवहन; बेहतर जलापूर्ति की सुविधा पर समुचित ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
देश की वित्तीय स्थिति पहले से काफी दबाव में है। वर्तमान फंडों के पुर्नआवंटन के द्वारा इसके लिए आवश्यक फंड की व्यवस्था की जा सकती है। जीडीपी के 3 प्रतिशत तक अतिरिक्त फंड का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य एवं बुनियादी ढांचे पर जाने की जरूरत है। रक्षा आवंटनों में कमी तथा सहायक विभागों के फंडों में कटौती कर अगले दो वर्षों में इस लक्ष्य को अर्जित किया जा सकता है।
भाजपा अभी तक विजय की राह पर सरपट आगे बढ़ती रही है। अब उन राजनीतिक किलों की रक्षा करने की जरूरत है जिसका उसने निर्माण किया है। वह किस प्रकार ऐसा करती है, उसी पर 2020 में एक भग्न, कमजोर भारत या एक प्रगतिशील, आगे की सोच रखने वाले, नागरिकों की आकांक्षाओं को पूरे करने वाले देश के बीच का अंतर निर्भर करता है।
यह टिप्पणी मूल रूप से द टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी थी।
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