Author : Satish Misra

Published on Jan 31, 2017 Updated 0 Hours ago

उत्तर प्रदेश में भाजपा की चुनावी राह आसान नहीं हैं, सपा-कांग्रेस गठबंधन भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं है।

विधानसभा चुनावों में भाजपा की कड़ी परीक्षा

उत्तर प्रदेश विधानसभा के सात चरण के मतदान के पहले चरण के लिए नामांकन पत्र दाखिल करने की शुरुआत 17 जनवरी से हो गई है। यहां पहले चरण के लिए मतदान 11 फरवरी को होंगे और अंतिम चरण के लिए आठ मार्च को जबकि मतगणना 11 मार्च को होगी।

80 सांसदों को संसद भेजने वाले देश के सबसे बड़े राज्य के चुनाव नतीजे बेहद अहम हैं क्योंकि यह सिर्फ आने वाले समय में राष्ट्रीय राजनीति को ही प्रभावित नहीं करेंगे, बल्कि सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की राजनीति पर भी इसका गंभीर असर होने वाला है।

राज्य में 14.12 करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग कर सकेंगे। ये राज्य की 403 विधानसभा सीटों के 147148 बूथों पर उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करेंगे।

राज्य में चुनाव त्रिकोणीय होने वाला है, जिसमें भाजपा, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) के नेतृत्व वाला गठबंधन लोगों से अगले पांच साल तक राज्य को चलाने का जनादेश मांग रहा होगा।

नोटबंदी, पाकिस्तान पर पिछले साल किया गया सर्जिकल स्ट्राइक, कानून-व्यवस्था, राज्य प्रशासन का सपा शासन के दौरान हुआ यादवीकरण, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता और अंततः लेकिन बेहद महत्वपूर्ण राज्य का विकास मतदाताओं के लिए अहम मुद्दे होंगे।

राज्य के नतीजे इस बात का भी संकेत देंगे कि जाति और पहचान की राजनीति का अंत शुरू हुआ है या नहीं। वीपी सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार की ओर से 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार किए जाने से राष्ट्रीय राजनीति में जातियों का असर काफी बढ़ गया था।

जहां भाजपा और बसपा खुले तौर पर राज्य में जातीय समीकरणों को साधने में लगी हैं, मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा विकास को मुद्दा बना कर राज्य की युवा आबादी को लुभाने की कोशिश में है जो रोजगार के अवसर और बेहतर जीवन स्तर की तलाश कर रही है।

उत्तर प्रदेश में जीत या हार का भाजपा के भविष्य पर गंभीर प्रभाव होने वाला है, क्योंकि यह नतीजा सिर्फ मोदी सरकार के काम-काज पर जनादेश के तौर पर ही नहीं देखा जाएगा, बल्कि इस साल जुलाई-अगस्त में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों को भी प्रभावित करने वाला है।

प्रधानमंत्री और भाजपा दोनों के लिए ही उत्तर प्रदेश की लड़ाई बेहद अहम है क्योंकि अगर भाजपा कम से कम सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर नहीं उभरी तो इस केसरिया पार्टी का समर्थन घटना शुरू हो जाएगा। साथ ही मोदी के ‘यूएसपी’ को भी गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा, क्योंकि वह अपने दम पर जिता ले जाने वाले नहीं रह जाएंगे। मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का विरोध शुरू हो जाएगा, जिससे प्रधानमंत्री के लिए शासन चलाना और मुश्किल हो जाएगा।

2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 47 सीटें मिली थीं और 15 फीसदी वोट मिले थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 43.3 फीसदी वोट प्रतिशत के साथ 71 सीटों पर आगे रही। मोदी वोट लुभाने के सबसे अहम कारण रहे और केसरिया ब्रिग्रेड के मुखौटे भी।

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रदर्शन में विधानसभा चुनाव के मुकाबले काफी बढ़ोतरी हुई और इसे मिलने वाले कुल वोट में बड़ी उछाल दर्ज की गई। अगर आप 2014 में मिले इसके वोट के आधार पर विधानसभा चुनाव के नतीजों का आकलन करें तो इसे 328 सीटें मिलनी चाहिएं।

मोदी ने पिछले छह महीने के दौरान उत्तर प्रदेश में सात रैलियां संबोधित की हैं और भाजपा ने पूरे राज्य में परिवर्तन यात्राएं आयोजित की हैं। यह राज्य में कोई कोशिश छोड़ने वाली नहीं है और कम से कम सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने आने के लिए भाजपा हर विकल्प अपनाएगी।

जहां भाजपा को 2014 के चुनाव में अपने पक्ष में चली लहर और कांग्रेस विरोध का फायदा मिला और मोदी को लोगों में भारी लोकप्रियता हासिल थी क्योंकि एक तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उनके प्रदर्शन के बारे में काफी जोरदार तरीके से लोगों को बताया गया था और साथ ही वे विकास का वादा कर रहे थे जिसमें लोगों के लिए रोजगार होगा और लोगों के जीवन स्तर को काफी ऊंचा किया जा सकेगा। लेकिन भाजपा की इस लहर को काफी चुनौतियां मिल रही हैं।

ढाई साल के शासन के बाद भाजपा नेतृत्व वाली राजग गठबंधन सरकार लोगों के जेहन पर कोई बहुत अच्छा असर छोड़ने में नाकाम रही है। कट्टर समर्थकों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ताओं को छोड़ कर 2014 में भाजपा के लिए वोट करने वाले अधिकांश मतदाताओं का मोहभंग हो चुका है और ये लोग इस केसरिया संगठन के लिए दुबारा वोट करने से बच सकते हैं।

भाजपा नेताओं के बीच प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह दोनों की ही कार्य प्रणाली को ले कर असंतोष है, जिनके बारे में माना जाता है कि वे पार्टी के मध्य स्तर के नेताओं तक के लिए उपलब्ध नहीं होते।

भाजपा के लिए एक और कठिनाई है क्योंकि इसने राज्य में अपना कोई मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया है और मोदी ही पार्टी का एकमात्र यूएसपी हैं। प्रधानमंत्री कम से कम एक दर्जन और रैलियों को यहां संबोधित करने वाले हैं।

दूसरी तरफ भाजपा को आरएसएस के समर्पित कार्यकर्ताओं और एक सुनिश्चित वोट बैंक का लाभ भी है। आरएसएस ने अपने कुछ बेहतरीन लोगों को यह सुनिश्चित करने में लगा दिया है कि भाजपा उत्तर प्रदेश चुनाव जीत सके। अमित शाह ने राज्य के जातीय गणित को साधने में काफी ध्यान दिया है ताकि गैर-यादव ओबीसी (अन्य पिछड़ी जाति) को लुभाया जा सके। पार्टी ने ओबीसी नेताओं को अपने साथ लिया है ताकि उनके जरिए संबंधित जातियों के वोट बैंक पर पार्टी कब्जा कर सके।

भाजपा को मुख्य चुनौती मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से आने वाली है जिन्होंने पारिवारिक संघर्ष में जीत हासिल करने के बाद पार्टी पर पूरा नियंत्रण कर लिया है। चुनाव आयोग ने भी मान लिया है कि पार्टी और चुनाव चिन्ह पर उनका ही अधिकार है। मुख्यमंत्री की छवि अब भी बेदाग बनी हुई है और लोग उन्हें ऐसे व्यक्ति के तौर पर देख रहे हैं जिन्होंने बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं और अन्य विकास परियोजनाओं को मुमकिन बनाया है। उन्होंने अब कांग्रेस के साथ चुनाव गठबंधन भी कर लिया है।

लंबी देरी और काफी सौदेबाजी के बाद हुए कांग्रेस के साथ गठबंधन ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि राज्य की 20 फीसदी हिस्सेदारी वाली मुस्लिम आबादी के वोट बंटेंगे नहीं। जहां पहले मुस्लिम राज्य में सपा से हट कर बसपा की ओर जा रहे थे, कांग्रेस के साथ गठबंधन ने मुस्लिम वोट को एकजुट कर दिया है जो आम तौर पर भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए वोट करते हैं।

यह सच है कि बसपा ने अपना चुनावी होमवर्क बहुत अच्छे से किया है और जातीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुए ही अपने उम्मीदवार तय किए हैं, इसके बावजूद बसपा प्रमुख अपने मुताबिक नतीजे हासिल करने में नाकाम हो सकती हैं, क्योंकि अखिलेश को सभी जातियों में समर्थन हासिल है। इससे बसपा सुप्रीमो मायावती का काम मुश्किल हो गया है और 2007 में सपा के हाथों मिली हार के बाद फिर से सत्ता में आने के सपने को ठेस पहुंच सकती है।

कांग्रेस ने 2012 के चुनाव में 28 सीटें जीती थीं, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में महज दो सीटें जीत पाई थी। अब इसके सामने बड़ी चुनौती है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की किसान यात्रा से लोगों में कुछ हलचल जरूर हुई है, मगर यह काफी नहीं लग रही है। राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी की सक्रिय भागीदारी और कांग्रेस के सपा के साथ गठबंधन को संभव बनाने में उनकी भूमिका ऐसा कारण है जो पार्टी कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने के साथ ही उस वर्ग को भी संतुष्ट कर सकता है जो देश की सर्वाधिक पुरानी पार्टी की ओर उम्मीद की नजर से देखता है। अखिलेश की पार्टी के साथ इसके गठबंधन ने कांग्रेस और इसके नेतृत्व को यह मौका दिया है कि यह देश के सबसे बड़े राज्य में अपनी मौजूदगी को बढ़ा सके।

पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप), कांग्रेस और अकाली दल-भाजपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला होने वाला है। अकाली-भाजपा गठबंधन को सत्ता-विरोध का सामना करना पड़ रहा है और इस वजह से मुख्य मुकाबला आप और कांग्रेस के बीच होने वाला है। आने वाले हफ्तों में तस्वीर साफ हो जाएगी।

उत्तराखंड में मुख्य लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच है। हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस और दूसरी तरफ भाजपा मुकाबले में हैं। राज्य में न सिर्फ भाजपा में आपसी खींचतान जोरों पर है, बल्कि नोटबंदी की वजह से भी पार्टी बचाव की मुद्रा में है। उत्तराखंड में भाजपा के लिए एक और मुश्किल यह है कि इसने अपना कोई मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया है।

गोवा में आप सत्ता के लिए एक गंभीर दावेदार बन गई है और यह सत्तारुढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी कांग्रेस दोनों के लिए मुश्किल बन सकती है।

मणिपुर में भाजपा की जीत की उम्मीद काफी ज्यादा है, क्योंकि सामान्य तौर पर उत्तर-पूर्व राज्यों में लोग उसी पार्टी को सत्ता में लाना चाहते हैं जो नई दिल्ली में सत्ता में हो।

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