Published on Jan 03, 2019 Updated 0 Hours ago

भारतीय विधि शिक्षण संस्थानों को अमेरिका और यूके के विधि शिक्षण संस्थानों के सकारात्मक पहलुओं पर गौर करने और उन्हें अपनी व्यवस्था में समाहित करने की जरूरत है।

भारतीय विधि शिक्षा में बड़े बदलाव जरूरी

मुंबई विश्वविद्यालय के विधि के छात्रों के एक समूह की वजह से भारत के सरकारी विश्वविद्यालयों में विधि शिक्षा की व्यवस्था हाल में एक बार फिर चर्चा में आ गई है। इन छात्रों ने लॉ कालेजों में परीक्षा व्यवस्था में बदलाव के खिलाफ बंबई हाई कोर्ट में आवेदन किया था। विवाद के केंद्र में 24 अगस्त 2018 को यूनिवर्सिटी की एकेडमिक काउंसिल की ओर से नोटिस जारी कर परीक्षा व्यवस्था में 60:40 पैटर्न लागू करना था। इसका मतलब है उनके सब्जेक्ट ग्रेड में 100 में से 60 अंक टर्म के अंत में होने वाली परीक्षा से मिलेंगे, जबकि बाकी के 40 अंक नियमित असाइनमेंट, प्रजेंटेशन, क्लासरूम की चर्चा और समय-समय पर होने वाले टेस्ट के रूप में नियमित आकलन के होंगे।

इसके बाद बंबई हाई कोर्ट ने इसके बाद 29 अक्तूबर 2018 को अंतरिम आदेश जारी कर परीक्षा की इस प्रस्तावित व्यवस्था को स्थगित कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि निरंतर आकलन की प्रस्तावित व्यवस्था हालांकि सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन सत्र के बीच अचानक इसको लागू कर दिया जाना और उस पर से प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, व्यवहारिक नहीं है। नतीजतन, अब छात्रोंं के लिए 100:0 वाला पुराना पैटर्न जारी रहेगा, जहां उनका पूरा ग्रेड एक बार टर्म के अंत में होने वाले हर कोर्स की एक परीक्षा से तय होगा। इस घटना ने एक बार फिर भारत में विधि शिक्षा में छात्रों के मूल्यांकण व्यवस्था की समीक्षा की जरूरत की ओर ध्यान दिलाया है।

यूके में छात्र हाई स्कूल के बाद सीधे कानून की शिक्षा हासिल कर सकता है और तीन साल में कानूनी की डिग्री पा सकता है। पहले वर्ष में छह कोर कोर्स सफलतापूर्वक पूरे होने के बाद छात्र वोकेशनल फेज में प्रवेश कर जाता है, जहां उसे सोलिसीटर और बैरिस्टर के बीच एक कैरियर का हर हाल में चयन करना होता है। विधि शिक्षा का यह चरण वोकेशनल ट्रेनिंग कोर्स और किसी कार्यरत वकील के साथ एप्रेंटिसशिप में बांटा जाता है। इंग्लैंड में कानून के छात्रों को कानून की उनकी जानकारी में मददगार व्यवहारिक कौशल उपलब्ध करवाना उपयुक्त माना जाता है जो उसे इस पेशे के बारे में समग्रता से समझने में मदद करता हो।

दूसरी तरफ, अमेरिका में कानून की शिक्षा स्नातक यानी ग्रेजुएशन स्तर पर शुरू होती है। चूंकि अमेरिका में कानून के छात्र के पास अंतर स्नातक डिग्री होनी आवश्यक है, इसलिए यहां छात्रों की ब्रिटिश छात्रों के मुकाबले ज्यादा विविधता भरी और संतुलित शिक्षा मिल पाती है। हालांकि अमेरिका के ज्यादातर कानूनी शिक्षा संस्थानों से निकलने वाले छात्रों के पास कानून की बहुत शुरुआती जानकारी होती है और वे इसके व्यवहारिक पहलू से बहुत अधिक वाकिफ नहीं होते हैं। इसकी वजह यह है कि उनको व्यवहारिक प्रशिक्षण का अवसर सिर्फ कभी-कभार होने वाली समर इंटर्नशिप के दौरान ही मिलता है। इसकी वजह से उन्हें व्यवहारिक अनुभव बहुत कम मिलता है और वे कार्यस्थल में उतरने के लिए ज्यादा तैयार नहीं होते हैं। कानून के किसी खास पहलू में विशेषज्ञता ग्रेजुएट लॉ डिग्री प्रोग्राम या स्थानीय बार एसोसिएशन के कंटीन्यू एजुकेशन के जरिए हासिल की जा सकती है। अमेरिकी व्यवस्था के मुकाबले ब्रिटिश कानूनी पढ़ाई की व्यवस्था में एप्रेंटिसशिप और व्यवहारिक प्रशिक्षण को ज्यादा तवज्जो दी जाती है और विशुद्ध अकादमिक प्रशिक्षण पर कम जोर दिया जाता है।

अमेरिका और यूके की कानून की पढ़ाई के स्वरूप में अंतर उनके अकादमिक अध्ययन के अलग-अलग तरीकों में भी प्रदर्शित होती है। यूके में क्लासरूम में होने वाली पढ़ाई मूल रूप से लेक्चर और ट्यूटोरियल पर निर्भर करती है, जिनमें केस स्टडीज कभी-कभार ही उपयोग में लाई जाती है। इसकी वजह से ब्रिटिश छात्र कम सक्रिय होते हैं। उधर, अमेरिका में कानून की पढ़ाई मूल रूप से केस स्टडीज पर ही आधारित है और इसमें छात्रों को विभिन्न मामलों का अध्ययन कर उनका विश्लेषण करना पड़ता है। इसके बाद वे सोक्रैटिक मैथड का इस्तेमाल कर इस पर अपने साथियों के साथ चर्चा करते हैं। इस पद्धति में छात्र गंभीर चर्चा और बहस में शामिल होते हैं, जिससे उनकी चिंतन प्रक्रिया शुरू हो जाती है और वे सिर्फ एक पुराने ढर्रे से ही पढ़ने को मजबूर नहीं होते। इसलिए कहा जा सकता है कि अमेरिका में कानून के छात्रों को लगातार तार्किक और विश्लेषणात्मक रूप से सोचने को बढ़ावा दिया जाता है।

भारत में कानून की पढ़ाई के लिए छात्रों के पास हाई स्कूल के बाद पांच साल की अवधि के लिए एलएलबी करने का विकल्प है या फिर स्नातक के बाद तीन साल की अवधि के लिए। इंटर्नल और एक्सटर्नल परीक्षा का तरीका इस समय सिंबायोसिस और जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल जैसे कुछ प्राइवेट लॉ स्कूलों के साथ ही नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी और दिल्ली विश्वविद्यालय आदि में भी उपयोग में लाया जा रहा है। जहां दिल्ली विश्वविद्यालय में एक्सटर्नल और इंटर्नल एसेसमेंट का 75:25 का पैटर्न अपनाया जाता है, सिंबायोसिस में कोर लॉ पाठ्यक्रम के छात्रों के लिए 60:40 का पैटर्न अपनाया जाता है। आंतरिक मूल्यांकण में प्रोजेक्ट, केस एनायलसिस, लेख, प्रजेंटेसन, क्विज, ड्राफ्टिंग, मूट कोर्ट्स, लर्निंग लॉग्स या डायरी और छोटे क्लास टेस्ट आदि शामिल हैं। आंतरिक मूल्यांकण के तरीके हर संस्थान में अलग-अलग होते हैं।

इन संस्थानों में हालांकि इंटर्नशिप को बढ़ावा तो दिया जाता है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है और छात्र समर इंटर्नशिप स्वैच्छिक रूप से करते हैं, जिस पर किसी प्राधिकरण की निगरानी नहीं होती। इसके मुकाबले, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), जिसे देश के सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कॉलेज में गिना जाता है, अपने छात्रों को पूरे एक साल के लिए मेडिसीन की विभिन्न शाखाओं में बारी-बारी से इंटर्नशिप करने के लिए भेजता है। इससे जाहिर होता है कि यहां अकादमिक सत्र के दौरान प्रैक्टिकल प्रशिक्षण पर कितनी तवज्जो दी जाती है। इसी तरह चार्टर्ड एकाउंटेंसी (सीए) पास करने वाले छात्रों को इसके विभिन्न स्तर की परीक्षाओं के बीच तीन साल के लिए आर्टिकिलशिप पूरी करनी होती है और इस पर इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (आइसीएआइ) नजर रखती है। ऐसे में कानूनी डिग्री जो सीए या मेडिसीन की ही तरह पेशेवर डिग्री है, इसमें भी सैद्धांतिक ज्ञान के साथ ही व्यवहारिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।

भारत के विधि प्रशिक्षण व्यवस्था के तहत एसेसमेंट की व्यवस्था में व्यापक बदलाव की जरूरत है। भारतीय विधि प्रशिक्षण संस्थानों को अमेरिका और यूके के विधि प्रशिक्षण संस्थानों के सकारात्मक पहलुओं पर गौर कर उन्हें अपनी स्थानीय व्यवस्था में शामिल करने की जरूरत है। केस स्टडी, कंटीनुअस एसेसमेंट, वोकेशनल ट्रेनिंग और अनिवार्य एपरेंटिसशिप को एसेसमेंट का अंग बनाना होगा और मू्ल्यांकण का कम से कम 40 फीसदी वजन इन्हें दिया जाए। इसे सफलतापूर्वक लागू करने के लिए विधि शिक्षण संस्थानों के शिक्षकों को क्लासरूम के अंदर बहस और चर्चा को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षित करना होगा। छात्रों को विभिन्न महत्वपूर्ण फैसलों के विश्लेषण करने, उनका मतलब समझने और उन पर अपने विचार रखने के लिए प्रेरित करना होगा। इससे उनके संचार, विश्लेषण और अंतर-वैयक्तिक कौशल में निखार आएगा। शिक्षण संस्थानों को क्लासरूम के साथ ही व्यवहारिक काम करते हुए सीखने पर जोर देना होगा। छात्र अपने अकादमिक सत्र का एक अहम हिस्सा लीगल एपरेंटिसशिप में बिताएं और वह बार काउंसिल के द्वारा नियंत्रित हो।

उपरोक्त बदलाव से ना सिर्फ विधि छात्रों की रोजगार की संभावना बढ़ेगी, बल्कि क्लास रूम में उन्हें जो विभिन्न सिद्धांत बताए जाएंगे, उनकी व्यवहारिक समझ भी बढ़ेगी। इसलिए देश के विधि समुदाय के लिए यह जरूरी है कि वह आगे आए और गुणवत्तापूर्ण विधि शिक्षा को सुनिश्चित करने में मदद करे। इसके लिए सफल वकीलों को खुद भी पढ़ाने के लिए आगे आना होगा और साथ ही एपरेंटिसशिप के पर्याप्त अवसर देने होंगे। इस तरह वे कौशलयुक्त और विद्वतापूर्ण विधि स्नातक तैयार करने में मदद कर सकेंगे।


लेखक ORF मुंबई में रिसर्च इंटर्न हैं।

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