Published on Dec 11, 2019 Updated 0 Hours ago

मंदी के बावजूद भी हमारा देश दस प्रतिशत विकास दर वाले देशों में है, फिर हम मानव सूचकांक में पिछड़ रहे क्यों?

विकास सूचकांकों पर ध्यान जरूरी

दुनियाभर में सरकारों द्वारा अपने नागरिकों को मूलभूत चीजें मुहैया कराने को लेकर अरसे से बहस होती रही है. इसी बात के मद्देनजर ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ का कांसेप्ट आया.

आगे चलकर उसमें रोटी-कपड़ा-मकान के अलावा ऐसी बहुत सी चीजें शामिल हो गयीं, जिनके बिना मूलभूत सुविधाओं की कल्पना करना ठीक नहीं होगा. वे सुविधाएं हैं शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ पेयजल, स्वच्छ हवा, अच्छी सड़कें, सूचना का अधिकार, रोजगार आदि. जिस देश में प्रत्येक नागरिक को ये सभी सुविधाएं मिलती हों, जाहिर है, वह देश उन्नत होगा. इन्हीं सब पैमानों पर मानव विकास सूचकांक तैयार होता है, जिसमें इस साल कुल 189 देशों में भारत 129वें स्थान पर है, जो पिछले साल के मुकाबले एक पायदान सुधार पर है.

अब सवाल यह है कि दुनिया में तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश भारत का मानव विकास सूचकांक इतना कमजोर क्यों है, कि वह सौ देशों में भी शामिल नहीं है? मंदी के बावजूद भी हमारा देश दस प्रतिशत विकास दर वाले देशों में है ही न, फिर हम मानव सूचकांक में क्यों पिछड़ रहे हैं?

सार्वभौमिक सत्य है कि जिस देश की शिक्षा-स्वास्थ्य की स्थिति बेहतर होती है, वहां लोगों की कार्यक्षमता भी ज्यादा होती है.

ये सवाल ही विचारकों को सोचने पर मजबूर करते हैं कि अब जीडीपी ज्यादा बढ़ाने के बजाय मानव विकास सूचकांकों को दुरुस्त करनेवाले बुनियादी विकास पर जोर देना चाहिए. इसके लिए मुख्य बुनियादी सुविधाओं के साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान देना बहुत जरूरी है. सार्वभौमिक सत्य है कि जिस देश की शिक्षा-स्वास्थ्य की स्थिति बेहतर होती है, वहां लोगों की कार्यक्षमता भी ज्यादा होती है.

भारत की आधी आबादी से ज्यादा तो ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, उसको कितनी मूलभूत सुविधाएं मिल रही हैं, इस बात को तो छोड़ ही दें, हमारे शहरों में भी लोगों को सारी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं, जहां ज्यादातर लोग टैक्स देनेवाले हैं और ऐसा माना जाता है कि शहरों में सुविधाएं ज्यादा हैं.

सरकारें कहती हैं कि उन्होंने नागरिकों के लिए सब उपलब्ध करा दिया है. लेकिन, शोधकर्ता पाते हैं कि कुछ को सुविधाएं मिल रही हैं और बहुत से लोगों को नहीं मिल रही हैं,. इसलिए बहस जारी है कि सबको सुविधाएं मिलें. हालांकि, यह स्थिति सिर्फ भारत की नहीं है, दुनियाभर में भी यही हाल है. दरअसल, इस स्थिति के लिए बाजारू अर्थव्यवस्था (मार्केट इकोनॉमी) जिम्मेदार है. भारत भी अरसे से मार्केट इकोनॉमी को लेकर बढ़ रहा है. मार्केट इकोनॉमी में ही सारी गैर-बराबरी छिपी हुई है और इसके कारण भी कि मानव विकास सूचकांक पर भारत बेहतर क्यों नहीं है.

मार्केट इकोनॉमी का सिस्टम साफ कहता है कि उसे सिर्फ मुनाफा चाहिए. मुनाफे की बुनियाद पर जब जीडीपी ग्रोथ को देखा जायेगा, तो जाहिर है मानव विकास सूचकांक पीछे छूट ही जायेंगे. दूसरी तरफ, दो-ढाई दशक में हुए तकनीकी विस्तार ने तो शारीरिक श्रम और लोगों के रोजगार का सबसे ज्यादा नुकसान किया है. पहले जब एक व्यक्ति फैक्ट्री या कंपनी खोलता था, तो उसको छह हजार कर्मचारियों की जरूरत होती थी.

भारत भी अरसे से मार्केट इकोनॉमी को लेकर बढ़ रहा है. मार्केट इकोनॉमी में ही सारी गैर-बराबरी छिपी हुई है और इसके कारण भी कि मानव विकास सूचकांक पर भारत बेहतर क्यों नहीं है.

आज वैसी फैक्ट्री या कंपनी के लिए छह सौ कर्मचारियों की भी जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि ज्यादातर काम तो तकनीकी उपकरणों से हो जायेगा. जाहिर है, मार्केट इकोनॉमी में तकनीकी विकास से रोजगार कम हुए हैं और लोगों में क्रयशक्ति घट रही है. कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़ शुरू हो गयी है और आज भारत में बड़े अमीर हैं, जबकि वहीं करोड़ों लोगों को दो वक्त का खाना भी नहीं मिलता, बाकी सुविधाओं की कौन कहे.

अब सवाल है कि ऐसा क्या किया जाये कि देश के हर नागरिक को हर सुविधा उपलब्ध हो, और मानव विकास सूचकांक में भी हम बेहतर पायदान पर आ सकें. यह इतना आसान नहीं है. इसके लिए मार्केट इकोनॉमी का मॉडल बदलना पड़ेगा. उस नये मॉडल में एक संभावना यह बनती है कि अगर हमारी अर्थव्यवस्था 4-5 प्रतिशत की दर के आसपास भी बनी रहकर सबको जरूरी सुविधाएं देने के काबिल है, तब ठीक है. लेकिन 10-11 या इससे ज्यादा पर पहुंचकर भी वह अपने नागरिकों को बुरी स्थिति में रखती है, तो ऐसे विकास दर की जरूरत ही क्या है.

आज मार्केट इकोनॉमी हर चीज में घुस गयी है. शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं में भी. तभी तो सरकारें नये विश्वविद्यालय या स्कूल-कॉलेज नहीं खोल रही हैं. जाहिर है, जब सरकार नहीं खोलेगी, तो निजी कंपनियां शैक्षणिक संस्थान खोलेंगी और मुनाफा कमायेंगी और उसकी शिक्षा गरीब के हाथ से बाहर होगी. यह मॉडल एक नये तरह की गैर-बराबरी को जन्म देता है. यही हाल बाकी सुविधाओं में भी है.

आज मार्केट इकोनॉमी हर चीज में घुस गयी है. शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं में भी. तभी तो सरकारें नये विश्वविद्यालय या स्कूल-कॉलेज नहीं खोल रही हैं.

सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की खस्ता हालत ने आम लोगों के स्वास्थ्य को किस तरह खस्ता बना दिया है, यह किसी से छुपा नहीं है. ऐसे में हम स्वास्थ्य सूचकांक में कहां बेहतर हो पायेंगे? इस हालत पर सरकार कहती है कि उसके पास पैसा नहीं है, इसलिए वह लोगों पर खर्च नहीं कर रही है. यहीं पर मेरा सुझाव है कि इस गैर-बराबरी को खत्म करने के लिए अमीर लोगों पर ज्यादा टैक्स लगाना पड़ेगा. अगर एक आदमी एक करोड़ कमा रहा है और वह बीस लाख टैक्स दे देगा, तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. लेकिन अगर वहीं एक व्यक्ति 20 हजार कमा रहा है और उससे दो हजार भी ले लिया जाये, तो उसकी व्यवस्था बैठ जायेगी. इसीलिए टैक्स की सीमा निर्धारित की जाती है.

वेल्थ टैक्स यानी संपत्ति कर भी लगाना होगा. अगर ये दोनों चीजें नहीं की गयीं, तो गैर-बराबरी दूर नहीं होगी. यह काम सिर्फ सरकार ही कर सकती है, इसलिए सरकार को चाहिए कि जीडीपी के साथ ही वह अपने नागरिकों के जीवन विकास पर भी ध्यान दे. इसी को जनकल्याणकारी सरकार कहते हैं. चूंकि अपरोक्ष टैक्स तो गरीब आदमी भी देता है, इसलिए उसका कल्याण भी जरूरी है.

यह इतना आसान नहीं है. क्योंकि पूंजी जब ताकतवर होगी, तो वह श्रम की अनदेखी करेगी और बेरोजगारी बढ़ेगी. पहले के जमाने में श्रम ताकतवर होता था, तो लोगों की नौकरियां नहीं जाती थीं. आज पूंजी ताकतवर है, इसलिए आसानी से किसी की भी नौकरी चली जाती है. मार्केट इकोनॉमी ने पूंजी को ही ताकतवर बना दिया है. फिर बुनियादी सुविधाएं किसी को मिले या न मिले, इस बात की किसी को फिक्र नहीं होती है. यह पूरी तरह से आर्थिक मामला नहीं है, बल्कि राजनीतिक मामला है. अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो कुछ ही समय में गैर-बराबरी, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि दूर हो जायेगी.


वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित, ये लेख मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित हुई थी.

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