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ऑन्ग सान सू की पर कई मामलों पर मुक़दमा चलाए जाने से पूरी दुनिया खीझी हुई है. तो क्या म्यांमार में लोकतंत्र को क़ब्र में दफ़ना दिया गया है?
Image Source: Getty
म्यांमार की सैन्य अदालत द्वारा पूर्व स्टेट काउंसलर ऑन्ग सान सू ची को दो साल क़ैद की सज़ा सुनाए जाने को देश के ‘लोकतंत्र के लिए एक बड़ा झटका’ माना जा रहा है. लेकिन, सैन्य अदालत का ये फ़ैसला, म्यांमार की सत्ता पर क़ाबिज़, सैन्य शासकों की उस इच्छा के अनुरूप ही है, जिसके तहत वो 2023 में ‘बहुदलीय चुनाव’ कराने से पहले ताक़तवर विपक्षी दल के नेताओं का सफ़ाया करना चाहते हैं.
डॉ ऑन्ग सान सू की को, इस साल फ़रवरी में तख़्तापलट के बाद हिरासत में लिया गया था. इस समय वो 11 आरोपों का सामना कर रही हैं. इनमें भ्रष्टाचार, 2020 के चुनाव के दौरान कोविड-19 के प्रतिबंधों का उल्लंघन करने, लोगों को भड़काने, अवैध तरीक़े से विदेश से सामान मंगाने और औपनिवेशिक काल के सरकारी गोपनीयता क़ानून का उल्लंघन करने जैसे कई आरोप शामिल हैं. अगर वो इन सभी मामलों में दोषी पायी जाती हैं, तो उन्हें 100 साल से भी ज़्यादा क़ैद की अधिकतम सज़ा दी जा सकती है. हाल ही में सू की पर जिन मामलों को लेकर मुक़दमा चलाया गया था, वो दो आरोपों से जुड़े हैं. पहला तो जनता को सेना के ख़िलाफ़ भड़काने का मामला है और दूसरा मामला, देश में कोविड-19 की पाबंदियों को तोड़ने का है.
डॉ ऑन्ग सान सू की को, इस साल फ़रवरी में तख़्तापलट के बाद हिरासत में लिया गया था. इस समय वो 11 आरोपों का सामना कर रही हैं.
चूंकि, जनता को भड़काने वाले मामले में चार साल की सज़ा को घटाकर पहले ही दो साल का कर दिया गया है, तो ऑन्ग सान सू की, इसमें से 10 महीने की क़ैद तो पहले ही फरवरी से अब तक पूरी कर चुकी हैं. अब इस मामले में उन्हें एक साल और दो महीने की सज़ा और काटनी है. वहीं, कोविड-19 के उल्लंघन के मामले में उन्हें दी गई सज़ा में कोई कमी नहीं की गई है.
17 दिसंबर को ऑन्ग सान सू की एक क़ैदी के लिबास में कोर्ट में पेश हुईं, जहां पर उनके ऊपर भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई चल रही है. म्यांमार के सैन्य शासकों ने आरोप लगाया है कि उन्होंने बाज़ार दर से बहुत कम क़ीमत पर संपत्तियां किराए पर लीं.
सैन्य शासकों द्वारा झूठे और और अन्यायपूर्ण आरोपों में क़ैद किए जाने का तजुर्बा ऑन्ग सान सू की के लिए नया नहीं है. वो पहले ही पंद्रह साल तक घर में नज़रबंद रह चुकी हैं. बदक़िस्मती से एक महीने के भीतर, तख़्ता पलट के एक साल पूरे हो जाएंगे. कार्यवाहक सरकार ने कितनी तेज़ी से एक तानाशाही सरकार का चोला पहन लिया है, ये बात बिल्कुल साफ़ तौर पर देखी जा सकती है. सैन्य शासकों ने म्यांमार को फिर से उन्हीं हालात में पहुंचा दिया है, जहां वो एक दशक पहले था. आज ज़रूरत इस बात को समझने और उसका विश्लेषण करने की है कि आख़िर म्यांमार में तख़्तापलट क्यों हुआ और अभी जो हो रहा है, वो क्यों हो रहा है.
आज ज़रूरत इस बात को समझने और उसका विश्लेषण करने की है कि आख़िर म्यांमार में तख़्तापलट क्यों हुआ और अभी जो हो रहा है, वो क्यों हो रहा है.
साल 2011 से म्यांमार के सैन्य शासकों ने अपनी नीतियों में कुछ बदलाव करके NLD पार्टी के लिए कुछ गुंजाइश बनाई थी, जिससे बहुत ज़रूरी हो चुका लोकतांत्रिक बदलाव लाया जा सके. इसके पीछे तीन अहम कारण थे. पहला तो अंतरराष्ट्रीय दबाव था. फिर देश के नागरिक भी लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. इसके अलावा सैन्य शासकों की राजनीतिक इच्छाशक्ति ने भी म्यांमार में लोकतांत्रिक बदलाव लाने में काफ़ी अहम भूमिका अदा की थी. ये एक हक़ीक़त है कि सैन्य शासकों ने म्यांमार के जनता के दिल की बात समझी. क्योंकि, वो 8888 या 2007 की केसरिया क्रांति जैसी कोई घटना दोबारा होने से रोकना चाहते थे. माना ये जाता है कि म्यांमार की सैन्य सरकार, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी बेहतर छवि बनाना चाहती थी. इसीलिए, 2008 के संविधान के तहत सेना ने जिन बदलावों की इजाज़त दी, उस दौरान ये भी सुनिश्चित किया था कि सभी महत्वपूर्ण अधिकार सेना के पास ही रहें.
NLD के पांच साल के शासन के दौरान, म्यांमार की नई सरकार ने संघवाद के साथ कुछ ऐसे संवैधानिक और आर्थिक बदलाव लागू किए, जिनका वादा उन्होंने किया था. इस दौरान म्यांमार की सेना और नागरिक सरकार के बीच व्यवहारिक रिश्ते रहे. इस दौरान, सू की की सरकार, विश्व मंचों पर अपने देश के जातीय अल्पसंख्यकों और ख़ास तौर से रोहिंग्या पर सेना के ज़ुल्मों को छुपाया, उनका बचाव किया.
2020 के चुनाव दोनों पक्षों के बीच टकराव का प्रमुख मैदान बन गए. कोविड का प्रोटोकॉल, रोक-थाम और प्रतिबंध चुनाव अभियान के प्रमुख मुद्दे बन गए. मगर, यूनियन सॉलिडैरिटी ऐंड डेवेलपमेंट पार्टी (USDP) की लगातार ख़राब होती छवि ने उसे चुनावी तौर पर अप्रासंगिक बना दिया. जब चुनाव के नतीजों का एलान हुआ, तो सैन्य शासकों को तगड़ा झटका लगा. 2020 के चुनाव में NLD की भारी जीत और ज़बरदस्त लोकप्रियता ने सरकार के विधायी अंग पर सेना की पकड़ को कमज़ोर कर दिया. इससे और संवैधानिक सुधारों की संभावना दिखने लगी, जिससे सरकार पर सेना की पकड़ और भी कमज़ोर होने का डर था. इससे NLD की स्थिति और भी मज़बूत हो जाती, क्योंकि उसके पास मज़बूती से शासन करने लायक़ जनादेश भी था. म्यांमार के सैन्य शासक ऐसा होने की इजाज़त नहीं दे सकते थे, और शायद ये सबसे बड़ी वजह थी कि पहले चुनाव में धांधली के आरोप लगे, और फिर सैन्य तख़्तापलट किया गया.
अब तक देश में सैन्य शासकों का विरोध करने वाले 1400 लोगों की हत्या की जा चुकी है. गांव के गांव जलाकर राख के ढेर में तब्दील कर दिए गए हैं.
ऑन्ग सान सू की के बारे में सैन्य अदालत के हालिया फ़ैसले ने देश भर में जारी लोकतांत्रिक आंदोलनों को एक नया मक़सद देने का काम किया है. इस आंदोलन को युवा वर्ग बड़ी निडरता से चला रहा है. अब तक देश में सैन्य शासकों का विरोध करने वाले 1400 लोगों की हत्या की जा चुकी है. गांव के गांव जलाकर राख के ढेर में तब्दील कर दिए गए हैं. हाल ही में NLD पार्टी के पूर्व नेताओं वाले राष्ट्रीय एकता सरकार दल ने अराकान नेशनल लीग से हाथ मिलाने का प्रस्ताव रखा है, ताकि सैन्य सरकार को म्यांमार की सत्ता से बेदख़ल कर सकें. भविष्य में ऐसी और भी मिसालें देखने को मिलेंगी.
ऑन्ग सान सू की को सज़ा देने के हालिया एलान का पूरी दुनिया ने विरोध किया है. दो विपरीत प्रतिक्रियाएं दिखाने वाले इंटरनेट और न्यूज़ चैनलों पर दुनिया के तमाम देशों के निंदा वाले बयानों की बाढ़ आई हुई है. एक तरफ़ तो ऑन्ग सान सू की को सज़ा देने की ये कह कर आलोचना की जा रही है कि ये राजनीतिक मंशा से उठाया गया क़दम है. वहीं, दूसरी तरफ़ बहुत से देशों ने सैन्य अदालत के फ़ैसले को लेकर गंभीर चिंता ज़ाहिर की है. यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका और सुरक्षा परिषद ने खुलकर सू की को सज़ा देने की निंदा की है. यूरोपीय संघ के राजनयिक जोसेप बोरेल ने सैन्य अदालत के फ़ैसले को ‘राजनीति से प्रेरित’ बताया है. संयुक्त राष्ट्र की मानव अधिकार उच्चायुक्त मिशेल बैशले ने कहा है कि अदालत ने सू की को एक ‘नक़ली मुक़दमा चलाकर’ सज़ा सुनाई है. सुरक्षा परिषद ने एक बयान जारी करके सैन्य अदालत के फ़ैसलों की निंदा की और मांग की कि म्यांमार में राजनीतिक क़ैदियों को रिहा करके के सत्ता को लोकतांत्रिक हाथों में सौंपा जाना चाहिए. म्यांमार के मौजूदा शासकों पर अपने रवैये में बदलाव लाने का दबाव बनाने के लिए अमेरिका, नए प्रतिबंध लगाने के बारे में विचार कर रहा है.
म्यांमार के पड़ोसी देशों ने एक बार फिर से सकारात्मक नज़रिया अपनाया है. इन देशों ने ऐसे बयान दिए हैं, जिनमें चिंता तो झलकती है. लेकिन, ये देश म्यांमार के सैन्य शासकों की खुली आलोचना से बचते रहे हैं.
वहीं, म्यांमार के पड़ोसी देशों ने एक बार फिर से सकारात्मक नज़रिया अपनाया है. इन देशों ने ऐसे बयान दिए हैं, जिनमें चिंता तो झलकती है. लेकिन, ये देश म्यांमार के सैन्य शासकों की खुली आलोचना से बचते रहे हैं. मिसाल के तौर पर, जापान के विदेश मंत्री योशिमासा हयाशी ने कहा कि उनका देश मौजूदा फ़ैसले को लेकर बहुत चिंतित है. भारत के विदेश मंत्रालय प्रवक्ता अरिंदम बागची ने भी गहरी चिंता जताई और कहा कि भारत, म्यांमार की हालिया घटनाओं से काफ़ी विचलित है. दोनों ही देशों ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि म्यांमार में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए.
चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने कहा कि, ‘चीन ये उम्मीद करता है कि म्यांमार के सभी पक्ष देश के दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर काम करेंगे. आपसी मतभेद कम करने के प्रयास करेंगे और बड़ी मशक़्क़त के बाद शुरू हुए लोकतांत्रिक बदलावों की प्रक्रिया को जारी रखेंगे.’
क्षेत्रीय संगठन आसियान के मानव अधिकारों पर संसदीय दल के अध्यक्ष चार्ल्स सैंटियागो ने ऑन्ग सान सू की को सज़ा सुनाए को ‘इंसाफ़ का मज़ाक़’ बताया है. उन्होंने कहा कि इससे साबित होता है कि म्यांमार के सैन्य शासक, आसियान के फ़ैसलों और क़दमों का पालन नहीं करना चाहते हैं. इससे अलग रुख़ अपनाते हुए आसियान के मौजूदा अध्यक्ष, कंबोडिया के प्रधानमंत्री अगले महीने म्यांमार के दौरे पर जाने की योजना बना रहे हैं, जिससे कि संवाद का एक ज़रिया निकल सके. 2022 में आसियान के अध्यक्ष के तौर पर कंबोडिया का बर्ताव ही ये तय करेगा कि आसियान आगे चलकर म्यांमार को लेकर क्या रुख़ अपनाने वाला है और अगले दो साल तक आसियान, म्यांमार में बदलाव को लेकर किस नीति पर अमल करेगा. भले ही कंबोडिया के प्रधानमंत्री के म्यांमार दौरे को वहां के सैन्य शासकों को जायज़ ठहराने वाले क़दम के तौर पर देखा जा रहा हो. लेकिन, म्यांमार के सैन्य शासकों से संवाद का रास्ता खोलने के लिए ऐसे दौरों की ज़रूरत है. अगर वास्तविक बदलावों की अपेक्षा है, तो भविष्य में ऐसे और भी दौरे करने की ज़रूरत पड़ सकती है. यहां पर ये समझने की ज़रूरत है कि भले ही कुछ प्रतिबंध लगाने ज़रूरी लग रहे हों. लेकिन, उनसे अपेक्षित बदलाव आने की उम्मीद बहुत कम होती है.
अगर दुनिया वाक़ई म्यांमार औऱ पूरे इलाक़े की बेहतरी के बारे में गंभीरता से सोचती है, तो वहां के सैन्य शासकों को अलग थलग करने के सीमित फ़ायदे ही होंगे. म्यांमार में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए सैन्य शासकों की राजनीतिक इच्छाशक्ति की अहमियत बनी रहने वाली है. जैसा कि डर है, हो सकता है आगे चलकर ऑन्ग सान सू की को सज़ा देने वाले और भी फ़ैसले आएं. इसके बावजूद, लोकतांत्रिक देशों को अपनी विदेश नीति में म्यांमार को अहमियत देते रहना होगा.
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Sreeparna Banerjee is an Associate Fellow in the Strategic Studies Programme. Her work focuses on the geopolitical and strategic affairs concerning two Southeast Asian countries, namely ...
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