Author : Sushant Sareen

Published on Mar 07, 2019 Updated 0 Hours ago

अब तक पाकिस्तान ही युद्ध की धमकी दिया करता था, लेकिन अब भारत ने जता दिया कि आतंकवाद के खिलाफ जंग में वह सीमा पार करने से भी गुरेज नहीं करेगा।

आंखों में धूल झोंकने की कवायद

पाकिस्तान ने जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर के बेटे और भाई सहित कई दहशतगर्दों को ‘एहतियातन हिरासत’ में लिया है। दावा किया गया है कि इससे आतंकवाद की कमर टूटेगी। वहां चर्चा यह भी है कि जेहादी कामों में लगी कुछ तंजीमों को खत्म कर दिया जाएगा, कुछ दूसरे कामों में लगाई जाएंगी और कुछ गुटों के लड़ाके अर्धसैनिक बलों में शामिल किए जाएंगे। यानी जो लोग, अब तक आतंकी वर्दी में दहशत फैला रहे थे, अब वे फौजी दस्तों के साथ अपने मनसूबे पूरे करेंगे।

जाहिर है, यह पूरी कवायद किसी हिंदी फिल्म से कम नहीं दिखती। खासतौर से बॉलीवुड की ‘बी’ या ‘सी’ ग्रेड की फिल्मों की तरह, जिनका निर्देशक प्रदर्शन से पहले फिल्म के खास होने का दावा तो करता है, लेकिन असलियत में वह एक तय फ़ॉर्मूले पर ही बनी होती है। पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसी तंजीमों पर साल 2001 में भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद पहली बार प्रतिबंध लगाया गया था। तब से लेकर अब तक तकरीबन आधा दर्जन बार पाकिस्तान ऐसी कार्रवाई कर चुका है, लेकिन नतीजा सिफर है।

बेशक ‘एयर स्ट्राइक’ के बाद उसने यही दिखाने की कोशिश की कि पूरी दुनिया उसकी हिमायत है, लेकिन असलियत में उस पर आतंक का खेल बंद करने का भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव है। फिर, भारत की मुद्रा भी इस बार बदली-बदली सी है। अब तक पाकिस्तान ही युद्ध की धमकी दिया करता था, लेकिन अब भारत ने जता दिया कि आतंकवाद के खिलाफ जंग में वह सीमा पार करने से भी गुरेज नहीं करेगा। पाकिस्तान पर फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) का भी शिकंजा बढ़ता जा रहा है। इस संगठन ने जब उसे अपनी ‘ग्रे लिस्ट’ में डाला था, तो उसने मुख्यत: लश्कर-ए-तैयबा का जिक्र किया था, मगर पुलवामा हमले के बाद एफएटीएफ की बैठक में जैश-ए-मोहम्मद सहित कई अन्य आतंकी तंजीमों का नाम भी लिया गया है। हुक्मरान पर एक बड़ा दबाव अर्थव्यवस्था का भी है, क्योंकि पाकिस्तान की आर्थिक सेहत इतनी खस्ता है कि वह जंग क्या, जंगी माहौल भी नहीं संभाल सकता।

बेशक ‘एयर स्ट्राइक’ के बाद उसने यही दिखाने की कोशिश की कि पूरी दुनिया उसकी हिमायत है, लेकिन असलियत में उस पर आतंक का खेल बंद करने का भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव है।

बावजूद इसके पाकिस्तान अपनी चालाकी से बाज नहीं आ रहा। गिरफ्तार किए गए दहशतगर्दों के खिलाफ उसने वही रुख अपनाया है, जो कभी हाफिज सईद के खिलाफ अपनाया गया था। लश्कर-ए-तैयबा के इस सरगना को भी ‘एहतियातन’ हिरासत में लिया गया था। इसके तहत तीन महीने तक काल कोठरी में रखा जा सकता है, जिसे अतिरिक्त तीन महीने तक ही बढ़ाया जा सकता है। हिरासत की अवधि बढ़ने पर हाफिज सईद स्वाभाविक रूप से अदालत में गया, जहां जिरह के दौरान पाक सरकार ने बताया कि चूंकि संगठन प्रतिबंधित है, इसलिए इसके मुखिया को हिरासत में रखना जरूरी है। मगर जब अदालत ने इस बाबत जारी ‘नोटिफिकेशन’ के बारे में पूछा, तो सरकारी पक्ष एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। असल में, पाकिस्तान ने इस संगठन को प्रतिबंधित तो घोषित कर दिया था, लेकिन इसके लिए जरूरी अधिसूचना जारी करना वह ‘भूल’ गया था। जाहिर है, यह गलती कोई नासमझी में नहीं हुई होगी।

पाकिस्तान के ऐसे कदम दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के लिए होते हैं। जैश-ए-मोहम्मद को लेकर भी उसने कहा है कि यह संगठन पहले से प्रतिबंधित है। यदि यह संस्था पहले ही काली सूची में डाली जा चुकी है, तो फिर यह किस हैसियत से अब तक वजूद में थी? इतना ही नहीं, यह लड़ाकों की भर्ती कर रही थी, कैंप चला रही थी, इदारें बना रही थीं और इसके सरगना खुलेआम भड़काऊ तकरीरें दे रहे थे। यह सब बिना सरकारी सहयोग से संभव नहीं दिखता।

जब रियासत आतंकी तंजीमों को बचाने में जुट जाए, तो वह अदालत का भी इस्तेमाल करने से नहीं हिचकती। वहां अदालत को ढ़ाल बनाया जाता है।

जब पाकिस्तानी रियासत को कोई कार्रवाई करनी होती है, तो वह बिना कोर्ट-कचहरी के करती है। इसका बड़ा उदाहरण सुन्नी दहशतगर्द मलिक इशाक है, जो कभी लश्कर-ए-झांगवी का सरगना हुआ करता था। उसने खुद 100 के करीब शियाओं के कत्ल का एलान किया था लेकिन वह पाकिस्तानी हुक्मरान के लिए ‘काम’ का था, इसलिए उस पर कभी कोई आंच नहीं आई। करीब 20 वर्षों तक जेल में रहने के बाद भी उसका जलवा कायम रहा। मगर जब वह रियासत के लिए नाकाबिल हो गया, तो पूरे कुनबे के साथ उसका एनकाउंटर कर दिया गया। एक ही रात में पूरी तंजीम मिटा दी गई। कुछ यही कहानी तहरीक-ए-लब्बैक की भी है, जिसके खिलाफ कुछ ऐसी ही कार्रवाई की गई थी। आज यह संगठन भी चूं तक नहीं करता।

मगर जब रियासत आतंकी तंजीमों को बचाने में जुट जाए, तो वह अदालत का भी इस्तेमाल करने से नहीं हिचकती। वहां अदालत को ढ़ाल बनाया जाता है। अव्वल तो सरकार अदालत में अपना पक्ष ईमानदारी से नहीं रखती, और जब अदालत इन दहशतगर्दों को रिहा कर देती है, तो वह ‘आजाद न्यायपालिका’ का हवाला देकर दुनिया के सामने अपनी बेचारगी जाहिर करती है।

ऐसे में, पाक सरकार के हालिया दावे की जांच इससे नहीं होगी कि वह मुकदमा चला रही है या आतंकियों की संपत्ति जब्त कर रही है। उसकी सच्चाई दो पैमानों पर मापी जाएगी। पहला पैमाना यही होगा कि क्या इन आतंकी तंजीमों के शीर्ष सरगनाओं का वह एनकाउंटर करेगी? और दूसरा, जिनका वह एनकाउंटर नहीं करेगी, उनके खिलाफ मुकदमा क्या फौजी अदालत में ही चलाएगी? असल में, पाकिस्तान की सामान्य अदालत में मामलों को उलझाया जाता है, जबकि फौजी अदालत तुरंत फैसला सुनाने के लिए विख्यात है। इसके खिलाफ अपील भी कारगर नहीं मानी जाती, क्योंकि आमतौर पर इसका फैसला बरकरार रखा जाता है। लिहाजा यदि फौजी अदालत इन आतंकियों पर फैसला सुनाने लगेगी, तो उसका संदेश यही होगा कि फौज अब इन आतंकियों पर से अपना हाथ झटक रही है। हालांकि इसमें एक पेच यह है कि फौजी अदालत की अवधि इसी महीने समाप्त हो रही है। दो साल की इसकी अवधि थी, जिसे बढ़ाने को लेकर फिलहाल पाकिस्तान में चर्चा गरम है। ऐसे में, पाकिस्तान के अगले कदम से ही यह तय हो सकेगा कि वह पुरानी चालें चल रहा है या सचमुच में वहां कुछ बदलाव आया है।


यह लेख मूल रूप से हिन्दुस्तान अखबार में प्रकाशित हो चुका है।

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