Author : Rasheed Kidwai

Published on Mar 26, 2019 Updated 0 Hours ago

महंगी शादियों के साथ बार-बार की उमरा यात्रा पर होने वाले खर्च का इस्तेमाल समाज के उत्थान के लिए करने की सलाह देने वाले अध्येता, आस्थावान व समर्पित मुसलमान हैं। वे इसे लेकर जागरूकता लाना चाहते हैं कि उमरा की यात्रा इस्लाम की अनिवार्य इबादतों में शामिल नहीं है और इसे हर साल किया जाना भी जरूरी नहीं है।

शादी-ब्याह व उमरे की रकम से मुस्लिम समाज की तस्वीर बदलने की कोशिश

मुस्लिम समाज का बुद्धिजीवी व जागरूक तबका शादी-ब्याह में बेजा खर्च के खिलाफ तो मुहिम चला ही रहा है, इसके साथ वह बार-बार उमरा करने वालों को भी समझाने की कोशिश कर रहा है। इन समाजसेवियों का कहना है कि इन कामों में खर्च होने वाली रकम को कौम की तालीम व भलाई के दीगर कामों में लगाना चाहिए, जिसकी इस बदहाल समुदाय को सख्त जरूरत है।

चैन्नई निवासी उर्दूभाषी फैजुर्रहमान, हॉर्मोनी इंडिया नामक संस्था के कार्यकारिणी सदस्य हैं। हॉर्मोनी इंडिया देश में धर्म निरपेक्षता और सांप्रदायिक एकता के लिए काम करने वाली संस्था है। प्रतिष्ठित पत्रकार व ‘द हिंदू’ अखबार के एडीटर-इन-चीफ एन. राम इस संस्था के प्रमुख हैं। फैजुर्रहमान इस्लाम में आधुनिक विचारों के समावेष को प्रोत्साहित करने वाली फोरम के संस्थापक सचिव भी हैं।

प्रख्यात लेखक व शोधकर्ता, बुद्धिजीवी डॉ. असलम परवेज वर्तमान में मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के वाइस चॉन्सलर हैं। फैजुर्रहमान और असलम परवेज दोनों मिल कर अपने महती मिशन के लिए पूरे देश का दौरा करते रहते हैं। मुल्क के विभिन्न हिस्सों में जा कर वे मुस्लिम समुदाय के स्थानीय प्रभावशाली लोगों से मिलते और उनसे गुजारिश करते हैं कि शादियों के भारी-भरकम बजट को कम किया जा कर इस रकम का इस्तेमाल रचनात्मक कार्यों में किया जाए।

इस्लाम में उमरा की इबादत स्वैच्छिक है। हज की तरह यह इबादत भी सऊदी अरब के शहर मक्का में ही अदा की जा सकती है।

उमरा असल में एक ‘लघु तीर्थ यात्रा’ है। मक्का में दाखिल होने के बाद उमरा किया जाता है। इस्लाम में उमरा की इबादत स्वैच्छिक है। हज की तरह यह इबादत भी सऊदी अरब के शहर मक्का में ही अदा की जा सकती है। हज की इबादत मालदार मुसलमानों के लिए कुछ शर्तों के साथ जिंदगी में एक बार फर्ज यानी अनिवार्य है। उमरा व हज की प्रक्रियाओं में कई समानताएं हैं। सो हज पर जाने वाले अहराम (हज अदा करने के लिए धारण किया जाने वाला विशेष लिबास) धारण करने के बाद उमरा कर लेते हैं। वैसे वे अलग से भी उमरा कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें उमरा करने की विशेष नीयत यानी दिल से इरादा करना होता है। उमरा करने के लिए वे मक्का स्थित पवित्र ‘काबा’ की सात बार परिक्रमा करते हैं। अगर मौका मिल जाए तो काबे की मस्जिद यानी ‘हरम शरीफ’ में रखे काले पत्थर ‘संगे-असवद’ को स्पर्श करते और सुअवसर हो तो उसे बोसा देते यानी चूमते भी हैं। ‘मुकामे-इब्राहीम’ नामक स्थान पर दुआएं करते हैं, जमजम का पाक पानी पीते और अपने ऊपर छिड़कते हैं। फिर से काले पत्थर को स्पर्श करते हैं। वैसे ये प्रक्रियाएं अत्याधिक के दर्जे में आती हैं। उमरा के लिए ‘सफा’ व ‘मर्वा’ नामक छोटी पहाड़ियों के बीच सात बार हल्की दौड़ भी लगाई जाती है, जिसे ‘सई’ कहते हैं। आखिर में मर्द तीर्थ यात्री मुंडन कराते हैं और उमरा की इबादत पूर्ण हो जाती है।

महंगी शादियों के साथ बार-बार की उमरा यात्रा पर होने वाले खर्च का इस्तेमाल समाज के उत्थान के लिए करने की सलाह देने वाले अध्येता, आस्थावान व समर्पित मुसलमान हैं। वे इसे लेकर जागरूकता लाना चाहते हैं कि उमरा की यात्रा इस्लाम की अनिवार्य इबादतों में शामिल नहीं है और इसे हर साल किया जाना भी जरूरी नहीं है। इसके बजाय इन कामों में खर्च होने वाली राशि मुस्लिम समुदाय के सामाजिक-आर्थिक उत्थान में लगाई जा सकती है, जिसकी मुसलमानों को बहुत जरूरत है। असंगठित क्षेत्र में राष्ट्रीय उद्यम आयोग (एनसीईयूएस) की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में मुसलमानों की 84 प्रतिशत आबादी की दैनिक आय 50 रुपए से भी कम है। यानी हम कह सकते हैं कि 150 मिलियन मुसलमान रोजाना 50 रुपए भी नहीं कमा पाते। वे पूछते हैं कि इसे देखते हुए धनवान या समर्थ मुसलमानों का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वे इस दयनीय स्थिति को सुधारने के उपाय करें?

इसे याद रखने की जरूरत है कि इस्लाम में ‘हुकूकुल्लाह’ यानी अल्लाह के अधिकारों पर ‘हुकूकुल्इबाद’ (मानवतावाद) आसान शब्दों में कहें तो बंदे के अधिकारों को प्रमुखता दी गई है। बदकिस्मती से मुसलमानों का बड़ा तबका इस बात की अनदेखी कर जाता है। किसी भी मुस्लिम से पूछिए कि उमरा करने क्यों जा रहे हैं, तो लगभग सब से एक ही जवाब मिलेगा ‘सवाब के लिए।’ लेकिन हम में से कितने जानते हैं कि यह सवाब यानी पुण्य यहां भारत के जरूरतमंदों की मदद कर के भी कमाया जा सकता है, वह भी एक उमरा के लिए किए जाने वाले खर्च में से आधा खर्च कर के। यह जानना जरूरी है कि अल्लाह तआला को किसी की निफ्ल यानी ऐच्छिक इबादतों की कोई ऐसी खास जरूरत है नहीं, वह भी 150 मिलियन लोगों को गरीबी के दलदल में धंसा हुआ छोड़ देने की कीमत पर।

इसे याद रखने की जरूरत है कि इस्लाम में ‘हुकूकुल्लाह’ यानी अल्लाह के अधिकारों पर ‘हुकूकुल्इबाद’ (मानवतावाद) आसान शब्दों में कहें तो बंदे के अधिकारों को प्रमुखता दी गई है।

एक साधारण अनुमान के मुताबिक कोई ढाई लाख मुसलमान हर साल उमरा अदा करने के लिए मक्का-मदीना का सफर करते हैं। इस पर 1 लाख 40 हजार से दो लाख रुपए प्रति व्यक्ति खर्च आता है। इस तरह साल भर में मुसलमान सिर्फ उमरा करने के लिए 4,100 करोड़ रुपए की भारी भरकम राशि खर्च कर देते हैं। जबकि बीते साल तक भारत सरकार के अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय का बजट 2832 करोड़ रुपए था। सन् 2017-18 में इसे बढ़ा कर 4535 करोड़ रुपए किया गया है। यह एक सर्वग्यात तथ्य है कि भारत में केवल मुसलमान ही अल्पसंख्यक नहीं हैं। अन्य समुदाय भी अल्पसंख्यकों की श्रेणी में शामिल हैं, इस तरह यह बजट केवल मुसलमानों के लिए ही हो, ऐसा नहीं है। इसमें से वे 80 प्रतिशत ही हासिल कर पाते होंगे। जबकि उमरा के लिए वह हर साल 4 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम खर्च कर देते हैं।

इस तथ्य को दूसरे तरीके से देखें तो हम पाते हैं कि मुसलमान एक ऐच्छिक इबादत के लिए कई सौ करोड़ रुपए उससे ज्यादा खर्च कर रहे हैं, जितनी रकम भारत सरकार अपने सारे अल्पसंख्यकों के लिए बजट में रख रही है। इसमें बार-बार किए जाने वाले हज का खर्चा नहीं जोड़ा गया है, वरना यह रकम और बढ़ जाएगी। इस भारी-भरकम खर्च को देखते हुए अगर इसका 50 प्रतिशत भी मुस्लिम कौम की तामीर व तरक्की के लिए खर्च कर दिया जाए तो इंकलाबी तब्दीली देखने को मिल सकती है।

फैजुर्रहमान कहते हैं कि मुसलमानों के जरिये खर्च की जाने वाली इस रकम का फायदा फिलहाल टूर ऑपरेटर्स, हवाई कंपनियां और तेल की दौलत से मालामाल सऊदी अर्थ व्यवस्था को पहुंच रहा है। ऐसे में जबकि सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी भारतीय मुसलमानों की सामाजिक व आर्थिक दुर्दशा को जग-जाहिर कर चुकी है, एक भारी राशि इस तरह खर्च की जाना समझ से परे है।

रहमान एक आसान सा सवाल पूछते हैं कि “अल्लाह न करे किसी के घर में उसके माता-पिता या बेटे में से कोई सख्त बीमार हो, ऐसी स्थिति में वह विदेश घूमने या उमरा करने जाएगा?” अगर इसका जवाब नहीं में है, तो उन्हें जानना चाहिए कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक हमारी कौम के 95 फीसदी लोग बेहद बुरी हालत में हैं। यह वक्त उन्हें छोड़ कर जिंदगी के मजे लूटने का नहीं है। मुझे यकीन है कि हम सब ने पैगंबरे-इस्लाम हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की वह हदीस (पैगंबर सल्ल. का कथन) जरूर सुनी होगी, जिसमें उन्होंने पूरी उम्मत (हजरत मुहम्मद के अनुयायी) को एक मानव शरीर से संज्ञा देते हुए कहा है कि उम्मत के छोटे से हिस्से को भी कष्ट पहुंचता है तो पूरे समुदाय को उसका दर्द महसूस करना चाहिए।

जकात का उमरा से कोई लेना-देना नहीं है।

इस बाबत एक विचारधारा वालों का मानना है कि जकात अदा करने के बाद उन्हें अपना माल अपनी मर्जी से खर्च करने की इजाजत मिल गई है। नियमित रूप से उमरा करने वाले इसी विचार का सहारा लेते हैं। जबकि यह पूरी तरह नकारात्मक सोच है। जकात का उमरा से कोई लेना-देना नहीं है। वह इस्लाम के पांच आधार स्तंभों में से एक है। सालाना एक निश्चित राशि से ज्यादा कमाने वाले मालदार मुसलमानों के लिए वह अनिवार्य टैक्स का दर्जा रखता है। समूची बचत पर सालाना 2.5 प्रतिशत जकात आपको अदा करनी ही है। यह बचत चाहे नकद राशि के रूप में हो, चाहे बैंक बैलेंस, बॉन्ड्स या धन के अन्य रूप जैसे सोना, चांदी या हीरा।

ऐसी स्थिती में कुरआन ने जिसकी आलोचना की हो, ऐसे भारी-भरकम अतिरिक्त खर्च को कैसे स्वीकार किया जा सकता है? उसे अनिवार्य रूप से दी जाने वाली सहायता राशि पर कैसे तरजीह दी जा सकती है? हमारी कौम की पस्त हालत देख कर मात्र ढाई प्रतिशत जकात अदा करना काफी नहीं है। हमें चाहिए कि कम-अज-कम 10 प्रतिशत रकम तब तक अपनी कौम के लिए लगाते रहें, जब तक कि 126 मिलियन यानी साढ़े बारह करोड़ से ज्यादा मुसलमानों की समाजी व माली हालत ठीकठाक न हो जाए। उन मुसलमानों की जिनकी औसत आमदनी रोजाना 50 रुपए से भी कम हो। इस बाबत हमें सहाबा (हजरत मुहम्मद सल्ल. के साथी) की कुर्बानियों को याद रखने की जरूरत है। याद कीजिए कि गजवा-ए-तबूक का मौका था। हजरत उमर (रजि.) ने उसके लिए अपनी आधी दौलत पेश कर दी। वे सोच रहे थे कि अब इससे ज्यादा कोई क्या करेगा? लेकिन हजरत अबु बक्र उनसे बढ़ कर निकले, जिन्होंने अपनी पूरी दौलत राहे-खुदा में पेश की।

शादियों पर भी मुसलमान बहुत ज्यादा खर्च करने लगे हैं। हर साल शादियों पर वह इतनी रकम खर्च कर रहे हैं, जो उमरा पर की जाने वाली रकम से कहीं ज्यादा है। इस बाबत इन मोटे-मोटे आंकड़ों पर गौर करेंगे तो आंखें खुली की खुली रह जाएंगी।

  • दुल्हन की तरफ के महमान – 300
  • दूल्हे की तरफ के महमान – 300
  • 600 लोगों के लिए निकाह के वक्त दिया जाने वाला खाना। 200 रुपए प्रति व्यक्ति के मान से – 1.2 लाख रुपए
  • 600 लोगों के लिए वलीमे की दावत, उसी मान से – 1.2 लाख रुपए
  • दुल्हन वालों की ओर से औसतन खरीदे जाने वाले जेवरात – 2 लाख रुपए
  • दूल्हा वालों के ओर से औसतन खरीदे जाने वाले जेवरात – 1 लाख रुपए
  • निकाह के लिए हॉल वगैरा – 1 लाख रुपए
  • दावते-वलीमा के लिए हॉल वगैरा – 1 लाख रुपए
  • विभिन्न छोटे-मोटे खर्च 50 हजार रुपए

एक शादी पर औसतन 8 लाख रुपए खर्च हो जाते हैं।

अनुमानतः भारत की 15 करोड़ मुस्लिम आबादी में से मध्यमवर्गीय परिवारों की कम-अज-कम 15 लाख (15 करोड़ का 0.001 प्रतिशत) शादियां हर साल होती हैं। इनमें से एक शादी पर औसतन 8 लाख रुपए खर्च होने की तफसील हम देख चुके हैं।

इस तरह 15 लाख शादियों में 8 लाख रुपए एक शादी पर खर्च होने की कुल रकम 12 हजार करोड़ रुपए बनती है। इनमें 4,100 करोड़ रुपए उमरा व 800 करोड़ रुपए छुट्टियां मनाने की सैरो-तफरीह में एक गरीब कौम का ‘पैसे वाला’ तबका हर साल खर्च कर रहा है। यह सारी रकम जोड़ लें तो आंकड़ा लगभग 17 हजार करोड़ रुपए प्रतिवर्ष को छू रहा है। यह सारी रकम दिखावे के लिए फूंकी जा रही है, जिसमें महंगी शादी, ऐच्छिक जियारत के सफर या गैर-जरूरी सैर-सपाटा शामिल है। इसे दूसरे शब्दों में फिजूलखर्ची करार दिया जा सकता है, जिसका इस्लाम ने सख्ती से मना किया है।

15 लाख शादियों में 8 लाख रुपए एक शादी पर खर्च होने की कुल रकम 12 हजार करोड़ रुपए बनती है। इनमें 4,100 करोड़ रुपए उमरा व 800 करोड़ रुपए छुट्टियां मनाने की सैरो-तफरीह में एक गरीब कौम का ‘पैसे वाला’ तबका हर साल खर्च कर रहा है।

अब हम बच्चों की तालीम पर होने वाले खर्च की बात भी कर लेते हैं।

एलकेजी से बारहवीं तक एक बच्चे की औसत सालाना फीस 10 हजार रुपए मान लेने पर 14 साल में उस बच्चे पर 1 लाख 40 हजार रुपए खर्च हुए।

4 साल किसी प्रोफेशनल कोर्स के लिए 1 लाख रुपए प्रति वर्ष के मान से 4 लाख रुपए।

दोनों का जोड़ हो रहा है 5 लाख 40 हजार रुपए।

अब 17 हजार करोड़ रुपए को 5 लाख 40 हजार रुपए से विभाजित करने पर 3 लाख 14 हजार 814 आ रहा है।

इस तरह धनी मुसलमानों द्वारा एक ही साल उपरोक्त अनावश्यक कामों पर लगाम लगा दी जाए तो उस एक साल में बचने वाले खर्च से 3 लाख से ज्यादा बच्चों की 18 साल तक की तालीम का इंतजाम हो सकता है!

अगर हम इन आंकड़ों पर गौर करें तो पाते हैं कि मुसलमानों के शादी-ब्याह में ज्यादातर रकम हॉल के किराये, खाने और जेवरात पर खर्च की जाती है। इससे समाज के धनी तबके जैसे हॉल मालिक, केटरर्स और जूलर्स की ही और कमाई होती है। इसमें मात्र कुछ ही गरीबों को थोड़ा-बहुत मिल पाता है, जैसे महमानों को खाना परोसने वाले वेटर्स, खाना पकाने वाले और साफ-सफाई का काम देखने वाले। सब जानते हैं कि इस तरह के काम करने वाले मुश्किल से 200-300 रुपए रोजाना कमा पाते हैं। इसके अलावा महंगे होटलों में की जाने वाली ज्यादातर शादियों में सिर्फ अमीर रिश्तेदारों को ही बुलाया जाता है। इन हालात को देखते हुए आसानी से कहा जा सकता है कि मुसलमानों की शादियां अमीरों को और अमीर करती हैं, और उन्हें ही खिलाती हैं, जिनके पेट भरे हुए हैं। गरीब-गुरबा की इनमें कहीं जगह नहीं है। यह भी इस्लाम में नापसंदीदा है।

हैदराबाद स्थित नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के वाइस चॉन्सलर, निष्णात वैज्ञानिक और उर्दू मासिक ‘साइंस’ के संपादक डॉ. असलम परवेज ने इस सिलसिले में मुहिम छेड़ रखी है। पिछले 25 सालों से वे हर मंच से निवेदन कर रहे हैं कि मुसलमानों को ‘हुकूकुल्इबाद’ (मानवों के अधिकारों) पर अधिक तवज्जो देने की जरूरत है कि इस कौम की स्थिति अत्यंत दयनीय है। वे स्पष्ट कहते हैं कि अल्लाह को हमारे बार-बार के उमरा व हज की जरूरत नहीं है, अलबत्ता हमारे समुदाय को मानवीय मदद की बेहद जरूरत है। डॉ. परवेज का तर्क है कि इस दिशा में किसी भी तरह की मदद या सेवा कार्य, दूसरी बार हज या उमरा करने से कई गुना ज्यादा सवाब दिलाएगा।

इस बाबत वह मुसलमानों को हदीस की बुनियादी किताबों बुखारी व मुस्लिम शरीफ की वह हदीस भी याद दिलाते हैं, जिसमें पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया हैः “किसी बेचारी या विधवा औरत या किसी गरीब जरूरतमंद के लिए दौड़धूप करने वाला बंदा अल्लाह की राह में जिहाद करने वाले बंदे की तरह है।”

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.