Published on Jan 02, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत औऱ पाकिस्तान के रिश्तों में सम्भावित नई गरमाहट के बीच भारत-चीन सम्बन्धों को लेकर नई आस बंधी है।

चीन-पाक के साथ भारत के संबंधों की नए सिरे से पड़ताल

अर्जेन्टीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान एक ही साल में चौथी मुलाकात कर रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी औऱ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दोनों देशों के आपसी रिश्तों में “स्पष्ट सुधार” तथा डोकलाम गतिरोध के बाद चीन के वुहान शहर में उनकी पहली औपचारिक दो दिवसीय वार्ता के दौरान सृजित “वुहान भावना को बनाए रखने के लिए मिलकर काम करने” की बात कही। खबरों के अनुसार, दोनों नेताओं ने उसी स्थल पर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ बैठक के जरिए त्रिपक्षीय सम्बन्धों में भी नई ऊर्जा का संचार किया।

भारत औऱ पाकिस्तान के रिश्तों में सम्भावित नई गरमाहट के बीच भारत-चीन सम्बन्धों को लेकर नई आस बंधी है। हाल के दिनों में भारत और पाकिस्तान के रिश्तों के बारे में काफी कड़वी बातों के बीच, गृह मन्त्री राजनाथ सिंह ने जयपुर, राजस्थान में पाकिस्तान को आतंकवाद से निपटने के लिए भारत की ओर से सहायता देने की पेशकश की।

संसद के निचले सदन लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त ‘कट्टर राष्ट्रवादी समझे जाने वाले नेतृत्व’ के लिए अतीत या किसी सम्भावित भविष्य की बजाय देश के लिए किसी भी स्वीकार्य समाधान की मार्केटिंग करना सबसे बेहतर विकल्प होता, लेकिन डोकलाम और बीआरआई ने उस सम्भावना को खत्म कर दिया।

दो विपरीत दिशाओं से संबंधित पहलों को तर्कसंगत निष्कर्षों तक ले जाने पर उनमें भारत के जटिल सीमावर्ती क्षेत्रों के साथ सम्बन्धों को सामान्य बनाने की क्षमता मौजूद है, हालांकि यह कितना ही आसान और त्वरित क्यों न लगे, लेकिन यह उतना आसान और त्वरित है नहीं। आखिरकार, भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा संबंधी तनावों ने, विशेषकर भारत और पाकिस्तान द्वारा ऐसे सैन्य युद्ध की तैयारी के लिए बहुत ज्यादा खरीददारी करने में योगदान दिया है, जिसे शायद अब वे लड़ना भी नहीं चाहते।

इसी तरह, भारत और चीन के बीच, डोकलाम ने दोनों देशों को यह सबक​ सिखाया है कि किस तरह गतिरोध की शुरूआत नहीं करनी चाहिए। यदि और कुछ नहीं, बीते दौर ही पर गौर किया होता, तो चीन चाहे ​कितना ही गंभीर दिखना चाहता, एक बात समझ चुका होता कि 2018,कई मायनों में 1962 से अलग है — एक बिल्कुल स्पष्ट कारण तो यही है कि भारत को किसी भी तरीके से बातचीत के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, बल्कि संसद के निचले सदन लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त ‘कट्टर राष्ट्रवादी समझे जाने वाले नेतृत्व’ के लिए अतीत या किसी सम्भावित भविष्य की बजाय देश के लिए किसी भी स्वीकार्य समाधान की मार्केटिंग करना सबसे बेहतर विकल्प होता, लेकिन डोकलाम और बीआरआई ने उस सम्भावना को खत्म कर दिया।

दो-जमा-एक संबंध

ब्यूनस आयर्स में, प्रधानमंत्री मोदी ने कथित तौर पर चीन के राष्ट्रपति शी को बताया कि पिछले साल दोनों देशों के आपसी संबंधों में काफी प्रगति हुई और “ऐसी पहल (वुहान) प्रभाव बनाए रखने में मददगार है” साथ ही उन्होंने क्विंगदाओ और जोहानबर्ग की “दो समीक्षा बैठकों” — की ओर भी संकेत किया। चीन की मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, दोनों नेताओं ने वैश्विक मामलों में ‘व्यापक बहुपक्षवाद’ को बढ़ावा देने की जरूरत पर भी बल दिया।

द्विपक्षीय संबंधों के बारे में मीडिया को जानकारी देते हुए विदेश सचिव विजय गोखले ने भी बताया कि दोनों नेताओं ने इस बात पर सहमति प्रकट की है कि “सीमा प्रबंधन में सकारात्मक सुधार हुआ है,” जो 1962 के भारत-चीन संघर्ष के बाद से तनाव का प्रमुख कारण रहा है। “दोनों पक्षों ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि अफगानिस्तान में शुरु हुआ पहला आपसी सहयोग — अफगान राजनयिकों का प्रशिक्षण — सफल रहा है और वे भविष्य में ऐसे और अवसरों का इंतजार करेंगे।” जानकारी पीटीआई ने अर्जेंटीना की राजधानी से गोखले के हवाले से दी।

यदि ऐसा है, तो भी प्रगति की रफ्तार धीमी हो सकती है तथा भारत और चीन को उन अंतनिर्हित संदेहों पर काबू पाना होगा, जिनकी छाया उनके आपसी संबंधों पर कम से कम कुछ और अर्से के लिए तो मंडरा ही सकती है।

उल्लेखनीय है कि चीन ने हाल ही में पड़ोसी देश मालदीव को एक अन्य देश के तौर पर साथ जोड़ा है, जहां दोनों देश मिलकर किसी तीसरे, छोटे देश की भलाई के लिए काम कर सकते हैं। यदि ऐसा है, तो भी प्रगति की रफ्तार धीमी हो सकती है तथा भारत और चीन को उन अंतनिर्हित संदेहों पर काबू पाना होगा, जिनकी छाया उनके आपसी संबंधों पर कम से कम कुछ और अर्से के लिए तो मंडरा ही सकती है।

शायद, चीन ने प्रतिष्ठित बीआरआई योजना राजनीतिक-आर्थिक पहल के तौर पर तैयार होगी, जिसमें विशाल फ्रेमवर्क के दायरे में ऐसा सहयोग संभव बनाया जा सकता हो। हालांकि, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर(पीओके)के रास्ते बीआरआई मार्ग को अंतिम रूप देते समय भारत की परम्परागत चिंताओं के प्रति असंवेदनशीलता बरतने का आशय यह है कि भारत, चीन के प्रस्ताव की खूबियों के आधार पर भी, उस पर विचार करने में समर्थ नहीं हो सकेगा, यदि कोई खूबियों हो तो। बीआरआई प्रारंभ करने से पहले वुहान जैसी बैठक शायद मददगार हो सकती ​थी या इस समय ऐसा लग रहा है।

सीमा पर वार्ता

ब्यूनस आयर्स में मुलाकात से पहले, दोनों देशों के बीच सीमा के मामले पर उच्च स्तरीय बैठक भी हुई। इस बैठक में भारत के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल और चीन के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व उसके विदेश मंत्री वेंग यी ने किया। चीन के चेंगदू में सीमा मामले पर चर्चा और ब्यूनस आयर्स की बैठक के बाद भारत के वक्तव्यों पर गौर करें तो इस बारे में कुछ प्रगति तो हुई है, लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि क्या चीन, द्विपक्षीय मामलों को द्विपक्षीय स्तर पर ही सीमित रखने संबंधी भारत के रुख को स्वीकार कर सका है या नहीं।

अतीत में ऐसी धारणाएं रही हैं कि चीन चाहता है कि भारत विशेषकर कश्मीर सीमा के बारे में द्विपक्षीय वार्ता ‘त्रिपक्षीय’ स्तर पर करे, क्योंकि पाकिस्तान ने ऐतिहासिक स्थितियों का हवाला देते हुए पीओके का अक्साई चिन हिस्सा चीन को ‘सौंप’ दिया है, यह बात भारत को मंजूर नहीं है। चीन को यह भी अच्छे से समझना होगा कि भारत-पाकिस्तान के मामले जितने राजनीतिक-सैन्य प्रकृति के हैं, उतने ही भावनात्मक भी हैं और निकट भविष्य में यदि किसी भी मोर्चे पर कोई हल भी संभव हुआ, तो भी उसे भारत-चीन सीमा विवाद के साथ नहीं जोड़ा जा सकता।

चीन के चेंगदू में सीमा मामले पर चर्चा और ब्यूनस आयर्स की बैठक के बाद भारत के वक्तव्यों पर गौर करें तो इस बारे में कुछ प्रगति तो हुई है, लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि क्या चीन, द्विपक्षीय मामलों को द्विपक्षीय स्तर पर ही सीमित रखने संबंधी भारत के रुख को स्वीकार कर सका है या नहीं।

यदि और कुछ नहीं, तो भारत में रणनीतिक समुदाय का एक वर्ग ऐसा है, जिसके भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाली द्विपक्षीय सीमा वार्ता में चीन के शामिल होने पर चीन की ईमानदारी और गैर-पक्षपाती रवैये पर संदेह करने की पूरी संभावना है। इसका कारण चीन द्वारा पाकिस्तान को पसंद किए जाने का लम्बा इतिहास है, जिसका आधार भारत को ले​कर उनकी अपनी-अपनी दिक्कते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 1972 के शिमला समझौते के बाद द्विपक्षीय संवाद का ही रुख बरकरार है, भारत की किसी भी सरकार को, देश में या विदेश में इस ​रुख से पीछे हटते नहीं देखा गया है। विशेषकर शीत युद्ध के बाद, क्षेत्र की भू-सामरिक जटिलताओं के मद्देनजर, इसके अलावा कुछ और हो भी नहीं सकता।

आतंकवाद पर दोबारा चर्चा

एक तरह से देखा जाए, तो जयपुर में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की ओर से की गई पाकिस्तान को आतंकवाद से निपटने में सहायता देने के लिए उसके साथ मिलकर काम करने की पेशकश, भारत द्वारा लगभग दो दशक पुरानी वाजपेयी सरकार जैसी स्थिति पर नए सिरे से चर्चा करने के समान है। 2001 में विफल आगरा शिखर बैठक से पहले नई दिल्ली में पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से मुलाकात कर तत्कालीन गृह मंत्री एल के आडवाणी ने उन्हें वांछित 20 आतंकवादियों के नाम की सूची सौंपते हुए कहा था कि जब तक पाकिस्तान इस बारे में भारत की मांगों पर सकारात्मक कदम नहीं उठाएगा, तब तक द्विपक्षीय सम्बन्धों में कोई प्रगति नहीं हो सकती।

उस समय, मुशर्रफ ने इस बात पर विशेष बल दिया था कि पाकिस्तान भी भारत की ही तरह लम्बे अरसे से आतंकवाद से ग्रसित है। उसके बाद से, न तो उन्होंने न ही उनके उत्तराधिकारियों ने भारत द्वारा वांछित 20 आतंकवादियों को सौंपे जाने के अनुरोध पर गौर किया, जो इस बारे में पाकिस्तान की गम्भीरता का प्रमाण हो सकता था। 26/11 के भारत के अनुभवों और 2015 में प्रधानमंत्री मोदी की लाहौर यात्रा के बाद हुए आतंकी हमलों के बावजूद ऐसा लगता है कि भारत, पाकिस्तान के साथ शांति को एक और मौका देना चाहता है। हालांकि भारत हमेशा से ‘सतर्क आशावाद’ का रवैया बरकरार रखे हुए है।

यूँ तो गृह मंत्री राजनाथ सिंह की जयपुर टिप्पणी से हफ्ता भर पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि उनके देश के सभी वर्ग भारत के साथ रिश्ते सुधारना चाहते हैं, लेकिन अनुभव दर्शाते हैं कि जब भी दोनों देशों के नागरिक नेतृत्व ने किसी न किसी रूप में शान्ति की बात की, पाकिस्तानी आईएसआई और उस देश में मौजूद भारत विरोधी आतंकवादी यह सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय हो गए कि कहीं शांति स्थापना की दिशा में कोई प्रगति न हो जाए। जनवरी 2016 में हुआ ‘पठानकोट आतंकी हमला’ ऐसी ही ताजा तरीन घटना है, जिसे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनके जन्म दिन की बधाई देने के लिए नरेन्द्र मोदी द्वारा अचानक की गई लाहौर यात्रा के बाद अंजाम दिया गया था।

अब यह देखना बाकी है कि क्या मोदी-इमरान की ‘करतारपुर पहल’का हश्र भी वाजपेयी-शरीफ की ‘लाहौर बस कूटनीति’ वाला होगा या वह वास्तव में कोई प्रगति कर पाएगी। आखिरकार बस कूटनीति का जवाब तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल मुशर्रफ के नेतृत्व में पाकिस्तानी सशस्त्र बलों ने दिया था। उन्होंने अपने प्रधानमंत्री की दो देशों के बीच स्थाई शान्ति कायम करने की कोशिश में की गई राजनीतिक पहल का जवाब कारगिल युद्ध से दिया था।

अब यह देखना बाकी है कि क्या मोदी-इमरान की ‘करतारपुर पहल’ का हश्र भी वाजपेयी-शरीफ की ‘लाहौर बस कूटनीति’ वाला होगा या वह वास्तव में कोई प्रगति कर पाएगी।

यह देखना बाकी है कि प्रधानमंत्री इमरान खान भारत की पहल को कैसे आगे ले जायेंगे या अपने वादे के मुताबिक,क्या वह समूचे देश को अपने साथ लेकर चलने में कामयाब हो भी पाते हैं या नहीं। आखिरकार, भारत में स्थानीय स्तर पर पनपने वाला आतंकवाद, चाहे उसका वर्गीकरण कैसे भी किया जाए, वास्तव में राष्ट्र के खिलाफ ही है, लेकिन सरहद के पार दोनों ही हैं — भारत को खास तौर पर निशाना बनाने वाली आईएसआई तथा धर्म। धर्म अकेला ऐसा है, जो पाकिस्तान को भी प्रभावित करता है। जब पाकिस्तानी सरहद के पार भारत-विरोधी आतंकवाद की बात आती है, तो आईएसआई आतंकवाद को कवर करने के लिए धर्म का भी इस्तेमाल किया जाता है और भारत की ओर से किसी भी मदद को, अगर तर्कसंगत निष्कर्ष तक ले जाया जाए, उसमें पाकिस्तान की एक को दूसरे से अलग करने तथा जहां अकेले कार्रवाई की जा सके, वहां कार्रवाई करने की इच्छा होना शामिल होगी।

बहुपक्षवाद को नए सिरे से परिभाषित करना

कुल मिलाकर देखा जाए, तो शीत-युद्ध खत्म होने के बाद की अवधि में चीन की ओर से लगातार किया जा रहे ‘बहुपक्षवाद’ के उल्लेख का संबंध दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से विश्व अर्थव्यवस्था को अमेरिकी नेतृत्व वाले ग्लोबल वेस्ट की कथित बैसाखियों से मुक्त कराने से है। जहां एक ओर चीन जी-18 ‘मार्शल प्लान” देशों के खिलाफ 80 से ज्यादा देशों की भागीदारी से बीआरआई आरंभ करने में सफल रहा है, लेकिन वह एक तरह की “एकपक्षीयता” को दूसरी तरह की एकपक्षीयता से बदलने का प्रयास नहीं कर सकता और उसके ‘बहुपक्षीय’ होने का दावा नहीं सकता। विशेषकर इसे देखते हुए कि बीआरआई हर तरह से चीन की पहल है और उसके ज्यादातर लाभा​र्थी छोटे और सीमांत देश हैं, जिन्हें बदले में केवल अपनी सम्प्रभुता और क्षेत्रीय एकता का ही तो सम​र्पण करना है।

एक तरह से, यह पश्चिम, विशेषकर अमेरिका की ओर से दूसरे विश्व युद्ध के बाद से राजनीतिक प्रभाव के लिए और/या मेजबान देशों, विशेषकर छोटे, गरीब और शक्तिहीन देशों में सैन्य ठिकाने बनाने के लिए आईएमएफ-विश्व बैंक के प्रकार की द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहायता का इस्तेमाल कर कथित तौर पर उठाए गए कदम के समान है। एक तरह से, चीन के विकास संबंधी निवेशों के बारे में पश्चिम की धारणाएं श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह के बारे में अपनाई गई उसकी ‘कर्ज — के बदले समान हिस्से’ की नीति के समान हैं , जो शायद अतीत की उसी की पद्धतियों से ग्रहण की गई हो सकती है। ऐसे दावों का विरोध करने के बावजूद, चीन ने इन आरोपों को झुठलाने के लिए कुछ खास नहीं किया गया है। भारत के बारे में, यदि चीन ने कुछ किया है, तो उसने “स्ट्रिंग आफ पर्ल्स” के संबंध में पश्चिमी विचारकों को सही साबित किया है।

जहां एक ओर चीन जी-18 ‘मार्शल प्लान’ देशों के खिलाफ 80 से ज्यादा देशों की भागीदारी से बीआरआई आरंभ करने में सफल रहा है, लेकिन वह एक तरह की “एकपक्षीयता” को दूसरी तरह की एकपक्षीयता से बदलने का प्रयास नहीं कर सकता और उसके ‘बहुपक्षीय’ होने का दावा नहीं सकता।

द्विपक्षीय संबंधों को सामान्य बनाने और रूस, ईरान और अफगानिस्तान को शामिल करके पूरे क्षेत्र में नया भूसामरिक वातावरण तैयार करने के प्रयासों के तहत बीआरआई और भारत के साथ सीमा-विवाद पर नए सिरे से गौर किया जाए, तो शायद चीन भी ब्रिक्स जैसी संस्थाओं को महत्व देने पर नए सिरे से विचार कर सकता है, जिनमें ब्राजील के राष्ट्रपति जाएर मेसियास बोलसोनारो के विचार वर्तमान अमेरिकी चिंतन के ज्यादा करीब हैं। बीते साल में उन्होंने चीन का नहीं, बल्कि ताइवान का दौरा किया और घोषणा ​की कि वह द्विपक्षीय संबंधों (चीन सहित, जिसके साथ उनके देश का बहुत बड़ा कारोबार है?) की जगह बहुपक्षीय संस्थाओं (ब्रिक्स जैसी?) को ज्यादा अहमियत देते हैं।

ऐसी तमाम जटिलताओं के विरुद्ध, भारत के साथ चीन की ज्यादातर समस्याएं द्विपक्षीय किस्म की हैं और इस संबंध में विश्वास कायम करने पर भारत की रणनीतिक बिरादरी को चीन की महत्वपूर्ण स्थिति और वैश्विक/बहुपक्षीय परिदृश्य में महत्वाकांक्षी भूमिका समझ में आ सकती है। दोनों देश 4,000 किलोमीटर लम्बी सीमा साझा करते हैं, जहां उन्हें 1962 के बाद के समय से एक दूसरे के साथ मध्यावधि और दीर्घावधि, अल्पावधि के लिए रहना पड़ रहा है।

भारत के साथ सीमा विवाद को, भावी दलाई लामा के बारे में भारत की संभावित सोच के बारे में अपनी धारणाओं से जोड़कर तथा पीओके और अक्साई चिन के जरिए पाकिस्तानी दृष्टिकोण को बीच में लाकर, चीन ने भारत के साथ मामले को केवल और ज्यादा उलझाया ही है। किसी भी अन्य हितधारक से बढ़कर, मौजूदा दलाई लामा ने वर्षों पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि कार्यालय के धार्मिक समारोह और उनके द्वारा निभाई जाने वाली राजनीतिक भूमिका अलग-अलग रहेंगे।

इसका आशय है कि भावी दलाई लामा की कोई राजनीतिक भूमिका नहीं होगी। राजनीतिक भूमिका केवल भारत के पश्चिमोत्तर राज्य हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में स्थित ‘निर्वासित तिब्बत सरकार’ द्वारा निभाई जाएगी। उल्लेखनीय है कि भारत ने मौजूदा दलाई लामा को शरण देने की पेशकश की थी, जो तिब्बितयों के धार्मिक और राजनीतिक दोनों तरह के नेता थे और उनके द्वारा दोनों संस्थाओं को अलग किया जाना इस संदर्भ में काफी मायने रखता है।

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