हाल ही में महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए हैं. इसके अलावा 17 राज्यों की 51 विधानसभा सीटों और दो लोकसभा सीटों पर भी उप चुनाव हुए. एक तरह से देखें तो ये चुनाव, देश के संघीय मिज़ाज पर मिनी जनमत संग्रह थे. ऐसा लगता है कि इन चुनावों के नतीजों ने साफ़ संदेश दिया है कि क्षेत्रवाद अभी भी मज़बूत स्थिति में है. और, केवल राष्ट्रवाद का शोर मचाकर इसे परास्त नहीं किया जा सकता है.
हरियाणा और महाराष्ट्र में पिछले पांच साल से बीजेपी की सरकार थी. इनके मुख्यमंत्रियों, मनोहर लाल खट्टर और देवेंद्र फड़णवीस का चुनाव ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने किया था. सत्ताधारी पार्टी के आला कमान ने इन दोनों ही मुख्यमंत्रियों को इस चुनाव में फिर से मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश किया. पार्टी का दावा था कि ये नेता ही एक मज़बूत, कार्य-कुशल और कामयाब भारत के राज्यों की सरकारों की अगुवाई कर सकते हैं.
2014 में बीजेपी को हरियाणा में स्पष्ट बहुमत मिला था. पार्टी ने राज्य की 90 में से 47 विधानसभा सीटें पिछली बार जीती थीं. सारी बातें बीजेपी के हक़ में ही थीं. राज्य के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल पूरी तरह से बिखरे हुए थे. लेकिन, ऐसा लगता है कि हरियाणा की जनता ने आरएसएस के कट्टर राष्ट्रवाद वाले विज़न को नकार दिया है. चुनाव के नतीजों ने बीजेपी को उन ताक़तों से हाथ मिलाने को मजबूर कर दिया, जिनके ख़ात्मे की क़समें पार्टी दिन और रात खाती रहती थी. हरियाणा में बीजेपी केवल 40 सीटें जीत सकी, जो बहुमत से पांच सीटें कम हैं. जबकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने हरियाणा की सभी 10 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी.
बीजेपी के ज़ख़्मों पर नमक डालते हुए, हरियाणा के मतदाताओं ने कांग्रेस को 31 सीटों पर जीत दिला दी. ये वो पार्टी है, जिससे देश को मुक्त कराना मोदी की ख़्वाहिश है. कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने, राज्य के दो बार मुख्यमंत्री रहे भूपिंदर हुड्डा को हरियाणा में अपने तरीक़े से चुनाव लड़ने की पूरी छूट दे दी थी. राज्य स्तर पर कांग्रेस में बहुत विरोधाभास था. तमाम नेताओं के आपसी मतभेद खुल कर सामने आए थे. पूर्व सांसद और एक दलित नेता अशोक तंवर, जो कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भी हैं, ने चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस को अलविदा कह दिया. तंवर ने हुड्डा को सीधी चुनौती दे डाली थी. लेकिन, हरियाणा के ताक़तवर जाट समुदाय ने दलित नेता अशोक तंवर की जगह भूपिंदर हुड्डा को तरज़ीह दी. तंवर के बाग़ी तेवर किसी काम नहीं आए. क्योंकि राज्य के ज़्यादातर दलित मतदाताओं ने उनसे दूरी बना ली.
एनसीपी को मिली सीटें इस बात का स्पष्ट संदेश देती हैं कि क्षेत्रीय दलों को हल्के में लेना और उन्हें ख़ारिज करना बहुत बड़ी भूल होगी.
हरियाणा में बीजेपी को सत्ता में बने रहने के लिए महज़ 11 महीने पुरानी जननायक जनता पार्टी के दुष्यंत चौटाला को उप मुख्यमंत्री का पद देना पड़ा. दुष्यंत चौटाला के पिता अजय चौटाला और दादा ओम प्रकाश चौटाला 2013 से ही जेल में हैं. उन्हें दिल्ली हाई कोर्ट ने 3 हज़ार अध्यापकों की भर्ती में घोटाले के जुर्म में सज़ा सुनाई है. बीजेपी और जननायक जनता पार्टी के बीच समझौते के कुछ घंटों बाद ही दुष्यंत चौटाला के पिता अजय चौटाला दो हफ़्ते के फरलो पर जेल से बाहर भी आ गए. जननायक जनता पार्टी, पूर्व उप प्रधानमंत्री और प्रमुख जाट नेता देवी लाल की राजनीतिक विरासत की नुमाइंदगी करती है. देवी लाल का परिवार कई दशक तक सत्ता में रहा है. देवी लाल का ख़ानदान विरासत की सियासत का शानदार नमूना है.
महाराष्ट्र में हिंदुत्ववादी पार्टी शिवसेना बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी है. इसके प्रमुख प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव से पहले किया गया, सत्ता में 50:50 साझेदारी का वादा याद दिलाया है. जिसका मतलब ये है कि शिवसेना, पांच साल के कार्यकाल में आधे समय के लिए मुख्यमंत्री का पद चाहती है. शिवसेना की तरफ़ से ये मांग उस वक़्त आई, जब नतीजों से साफ़ हो गया कि बीजेपी को 2014 के मुक़ाबले इस बार 17 सीटें कम मिली हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व शिवसेना की मांग को लेकर दुविधा में है. और नतीजे आने के क़रीब दो हफ़्ते बाद भी महाराष्ट्र में सरकार का गठन नहीं हो सका है.
इन चुनावों में न केवल बीजेपी, बल्कि शिवसेना की सीटें भी कम हुई हैं. यानी 2014 के मुक़ाबले बीजेपी-शिवसेना के गठबंधन के प्रदर्शन की चमक फीकी पड़ी है. 2019 के लोकसभा चुनाव से तुलना करें, तो दोनों ही पार्टियों का वोट प्रतिशत भी कम हो गया है. वहीं, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस, दोनों की सीटों की संख्या भी बढ़ी है और वोट प्रतिशत भी. एनसीपी ने इस बार 56 सीटें जीती हैं. जबकि 2014 में पार्टी ने केवल 41 सीटें जीती थीं. वहीं, कांग्रेस ने इस बार, 2014 की 42 सीटों से दो ज़्यादा जीती हैं. एनसीपी के संस्थापक शरद पवार ने इस बार के चुनाव में पूरी ताक़त से प्रचार किया था. ऐसे में एनसीपी को मिली सीटें इस बात का स्पष्ट संदेश देती हैं कि क्षेत्रीय दलों को हल्के में लेना और उन्हें ख़ारिज करना बहुत बड़ी भूल होगी. साथ ही इन नतीजों से बीजेपी और संघ के अहंकार को भी झटका लगा है. लगातार दो आम चुनावों में जीत की वजह से बीजेपी और आरएसएस को ज़बरदस्त अहंकार हो गया है.
केवल उम्मीदवार बदलने और दूसरी पार्टियों के नेताओं को अपने साथ लाने भर से एंटी-इनकंबेंसी से पार नहीं पाया जा सकता है.
16 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी में 51 विधानसभा सीटों पर उप चुनाव भी हुए. बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने इन में से 30 सीटों पर जीत हासिल की. बाक़ी की 21 सीटें विपक्षी दलों और क्षेत्रीय पार्टियों के खाते में गईं. यानी इन उप चुनावों में भी क्षेत्रीय दलों ने भगवा दल को कड़ी टक्कर दी. कांग्रेस ने 51 में से 12 सीटें जीतीं. इन में से 3 सीटें गुजरात की हैं. पार्टी ने उस सीट पर भी जीत हासिल की, जो कांग्रेस छोड़ कर गए पिछड़े वर्ग के नेता अल्पेश ठाकोर की वजह से ख़ाली हुई थी. अल्पेश ठाकोर ने कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी का हाथ थामा था. लेकिन, वो इस उप चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी से हार गए.
विधानसभा सीटों के साथ बिहार की समस्तीपुर और महाराष्ट्र की सतारा लोकसभा सीट पर भी उप चुनाव कराए गए थे. इन दोनों सीटों पर भी क्षेत्रीय दलों ने ही क़ब्ज़ा किया. समस्तीपुर सीट, बीजेपी की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी ने जीती. तो सतारा सीट एनसीपी ने अपने पास ही बनाए रखी. यहां छत्रपति शिवाजी के वंशज, उदयनराजे भोंसले को एनसीपी उम्मीदवार ने हरा दिया. उदयन राजे ने 2019 के लोकसभा चुनाव में सतारा सीट एनसीपी के टिकट पर जीती थी. लेकिन, कुछ ही महीनों के भीतर उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया था. उनके इस्तीफ़े की वजह से ही ये उप चुनाव कराना पड़ा. जिस में बीजेपी प्रत्याशी के तौर पर उदयन राजे भोंसले को हार का सामना करना पड़ा.
इन दलों को मतदाताओं से जो संदेश मिला है, वो शायद ये है कि केवल उम्मीदवार बदलने और दूसरी पार्टियों के नेताओं को अपने साथ लाने भर से एंटी-इनकंबेंसी से पार नहीं पाया जा सकता है. और बीजेपी में शामिल होना जीत की गारंटी नहीं है.
इन चुनावों के नतीजों को देख कर साफ़ लगता है कि मोदी और शाह की जोड़ी अब अजेय नहीं रह गई है. अब ज़रूरत ये है विपक्ष मेहनत करने के लिए तैयार हो और बेरोज़गारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन और अच्छे प्रशासन जैसे मुद्दे उठा कर उनके लिए संघर्ष करने को तैयार हो. ऐसा लगता है कि जनता ने इन चुनावों के नतीजों से सियासी दलों को साफ़ संदेश दिया है कि अहंकार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और केवल खोखले वादों की अपनी सीमित मियाद होती है. और इसके परिणाम उन लोगों के लिए कड़वे और निराशाजनक होते हैं, जो ऐसे खोखले वादे करते हैं.
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