Author : Harsha Kakar

Published on Jun 05, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या पाक सैन्य अधिकारियों का रुख भारत के प्रति बदल गया है यां फिर उनके हालिया बयान उनकी मंशा से उलट हैं

क्या बातचीत के लिए पाक सेना प्रमुख का प्रस्ताव गंभीर है?

पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा ने अभी हाल में पाकिस्तान के सैन्य अकादमी में पासिंग आउट पैरेड के दौरान कहा कि ‘हमारा संजीदगी से यह मानना है कि कश्मीर समेत भारत पाकिस्तान विवाद के शांतिपूर्ण समाधान का रास्ता व्यापक और सार्थक संवाद के जरिये ही निकल सकता है। उन्होंने यह भी कहा: “हालांकि ऐसी बातचीत किसी भी पक्ष के प्रति कोई एहसान नहीं है, लेकिन पूरे क्षेत्र में अमन चैन के लिए यह अपरिहार्य रूप से जरुरी है।”

उन्होंने दूसरी बार इस प्रकार का बयान दिया है। पहली बार उन्होंने पिछले वर्ष दिसंबर में सीनेट को संबोधित करते हुए ऐसा बयान दिया था। उस अवसर पर उन्होंने कहा था कि, “सेना भारत के साथ रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए राजनीतिक नेतृत्व का समर्थन करने के लिए तैयार है।”

ऐसा संभवतः पहली बार हुआ है कि पाकिस्तानी सेना के किसी सेवारत सेनाध्यक्ष ने कई अवसरों पर भारत के साथ बातचीत करने को लेकर टिप्पणियां की हों, खासकर, तक जब उनकी सेना को ताकत भारत से और भारतीय धमकियों से ही मिलती है। कई सैन्य प्रमुख तानाशाही अपना लेने या राष्ट्रपति बन जाने के बाद भारत के साथ बातचीत शुरु करने की बात करते हैं, बहैसियत सेनाध्यक्ष नहीं करते।

पिछले दिनों भ्रमण पर आए दक्षिण एशियाई देशों के पत्रकारों के एक समूह को संबोधित करते हुए पाकिस्तान की सेना के प्रवक्ता जनरल गफूर ने अपने सेना प्रमुख की भावनाओं को ही आवाज दी थी और कहा था कि सेना औपचारिक रूप से भारत के साथ किसी भी संवाद प्रक्रिया को शुरु करने के प्रति खुद को तैयार कर चुकी है। उन्होंने यहां तक कहा था कि देानों देशों के बीच भरोसे की कमी है और अब समय आ गया है कि मतभेदों को भुला कर आगे बढ़ा जाए। उन्होंने कहा कि अगर सार्क को पुनर्जीवित किया जाए तो यह सबसे प्रभावी फोरम बन सकता है। पाकिस्तान पिछले कुछ समय से लगातार सार्क की बात उठा रहा है क्योंकि यह संगठन तभी से ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है जब से अपने घनिष्ठ सहयोगी देशों के साथ भारत ने 2016 में इस्लामाबाद में हुई बैठक में भाग लेने से इंकार कर दिया था। जनरल गफूर के अल्फाज उनके प्रमुख के लफ्जों से मेल खा रहे थे और यह उम्मीद करते हुए कि भारत पहला कदम उठाएगा, उनका लक्ष्य सेनाप्रमुख के संदेशों को प्रेषित करना था।

पाकिस्तानी सेना अपनी सभी दुश्वारियों के लिए भारत पर तोहमत लगाती रही है, चाहे यह उनकी जमीन से उपजा आतंकी समूह टीटीपी, एफएटीए या बलूचिस्तान में अराजकता हो या अमेरिका का वर्तमान में उनके प्रति नजरिया हो। यहां तक कि शांतिपूर्ण होने के बावजूद पीटीएम के बढ़ते आंदोलन के पीछे भी वह भारत के समर्थन का ही आरोप लगा रही है। अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी उनके लिए अभिशाप है। उन्होंने कभी भी भारत के प्रति अपने दृष्टिकोण में कोई भी बदलाव प्रदर्शित नहीं किया है, चाहे यह अंतरराष्ट्रीय आतंकियों, जो भारत विरोधी समूहों की अगुवाई करते हैं, को समर्थन घटाने का मामला हो, घुसपैठ युद्धविराम उल्लंघनों में कमी लाने का मसला हो या फिर हुर्रियत को मिलने वाली फंडिंग को नियंत्रित करने का हो।

बाजवा की टिप्पणियां कि ऐसा संवाद केवल मर्यादा और सम्मान के आधार पर ही हो सकता है, की कलई उनकी भारत विरोधी गतिविधियों से ही खुल जाती है। मोदी की लाहौर यात्रा और परिणामस्वरूप पठानकोट की घटना के बाद से ही भारत के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। भारत अपने इस रुख पर अडिग रहा है कि ‘बातचीत और आतंक- साथ साथ नहीं चल सकते। भारत अपने रुख पर अडिग है और उसे अडिग रहना भी चाहिए।

भारत ने नियंत्रण रेखा और कश्मीर की अराजकता पर काफी हद तक काबू पा लिया है। एक वार्ताकार की नियुक्ति और रमजान के दौरान युद्धविराम की घोषणा से हालात पर नियंत्रण के प्रति सरकार के भीतर का विश्वास झलकता है।

दूसरी तरफ, पाकिस्तान तेजी से बढ़ते पीटीएम आंदोलन एवं टीटीपी के लगातार हमलों से खतरा महसूस कर रहा है। इसके अतिरिक्त, इसकी अर्थव्यव्स्था की खराब हालत, चीन द्वारा भारत के साथ अपने संबंधों को सामान्य करने की कोशिशें, बढ़ती पारंपरिक असमानता और भारत की अफगानिस्तान में बढ़ती मौजूदगी भी उसे बेचैन कर रही है। बेल्ट रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) में शामिल होने से भारत के इंकार करने से सीपीईसी की आमदनी घट जाती है, जिससे पाकिस्तान का आर्थिक घाटा बढ़ जाएगा। पाकिस्तान पर आतंकी समूहों के खिलाफ और सख्त कदम उठाने तथा भारत के साथ अपने संबंधों को सुधारने का लगातार अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता जा रहा है। इसलिए, हालात अभी भारत के पक्ष में ज्यादा झुके हुए हैं।

पिछले कुछ वर्षों से, भारत भी अपनी विदेश नीति के लिहाज से लगातार गलतियां कर रहा है। पहली बात कि, इसने हमेशा ही बातचीत के लिए पाकिस्तान के नागरिक नेतृत्व को शामिल किया है, और उम्मीद की है कि इसका असर अधिक दूरगामी होगा। ऐसा कभी नहीं हो पाया और जब कभी आपसी संबंधों में सुधार की कुछ सुगबुगाहट सुनाई दी, इसका नतीजा आतंकी हमलों के रूप में सामने आया। दूसरी बात कि, जहां दूसरे सभी देश, यह समझते हुए कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख के पास ही सत्ता या ताकत की असली कुंजी है, सेना को बातचीत में शामिल करते हैं, भारत ने हमेशा ही उनकी उपेक्षा की है। भारत द्वारा उन्हें नजरअंदाज करने का संभवतः एक कारण यह हो सकता है कि वह अपने सेना प्रमुख को भी ऐसा ही महत्व देने से बचने की कोशिश करता है।

तीसरी बात यह कि भारत ने हमेशा ही सैन्य कूटनीति की उपेक्षा करते हुए असैनिक प्रभुत्व वाली विदेश नीति का अनुसरण किया है। इस प्रकार, पाकिस्तान में सत्ता के असली केंद्र के साथ उसकी न तो बातचीत हुई है और न ही उसे संबोधित ही किया गया है। सैन्य शिष्टमंडलों को किसी तटस्थ स्थान पर भेज कर सेना से सेना की बातचीत में सक्षम बनाने की प्रक्रिया से दोनों देशों के बीच गतिरोध खत्म हो सकता है। बहरहाल, नौकरशाही इस डर के मारे कि कहीं सैन्य कूटनीति में सफलता न मिल जाए, पाकिस्तान के साथ संबंधों का कटु रहना पसंद करेंगे बजाये इसका जोखिम मोल लेने के।

वर्तमान उदाहरण में, सरकार यह महसूस करने में विफल रही है कि जनरल बाजवा एवं भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने कांगों में एक साथ एक ही मिशन में काम किया है। जहां जनरल रावत के पास उत्तरी किवू ब्रिगेड का कमान था, जनरल बाजवा के पास दक्षिणी किवू ब्रिगेड का कमान था। दोनों ही भारत के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह के अधीन थे और इसलिए एक दूसरे को जानते थे।

भारत इसलिए अतिरिक्त सावधानी बरत रहा है क्योंकि वह कई अवसरों पर पाकिस्तान से धोखा खा चुका है। इसके अतिरिक्त, 2019 में देश में आम चुनाव के निर्धारित होने के कारण, पाकिस्तान के साथ बातचीत की कोई कोशिश और बदले में अगर कोई आतंकी हमला हो गया तो इसका प्रभाव वर्तमान सरकार की स्थिति पर पड़ेगा और विपक्ष इसका लाभ उठाएंगे। इसलिए, इसने पाकिस्तान के सेना प्रमुुख के प्रस्ताव पर टिप्पणी नहीं की है। इस प्रस्ताव को जम्मू एवं कश्मीर के स्थानीय दलों-पीडीपी एवं एनसी नेतृत्व से जरुर समर्थन प्राप्त हुआ। हालांकि दोनों ही एनएसए लगातार संपर्क में बने हुए हैं, पर इस मामले में आगे कोई भी प्रगति नहीं हो पाई है।

जहां भारत ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की, अगर पाकिस्तान संजीदा होता तो उसे भी इस प्रकार की घोषणा करनी चाहिए थी और अपने नायब आतंकी समूहों को इसकी पुनरावृति करने के लिए मजबूर करना चाहिए था।

ऐसे किसी भी कदम से यह संदेश जाता कि उसके इरादे सच्चे हैं, जिससे भारत को इस पर गौर करने को बाध्य होना होता। इसके विपरीत, रमजान के पहले कुछ दिनों में ही, युद्धविराम उल्लंघनों की घटना में काफी तेजी आ गई जिसके परिणामस्वरूप दोनों ही पक्षों में कई नागरिक हताहत हुए।

पाकिस्तान को निश्चित रूप से आपसी भरोसे में इजाफा करनी चाहिए क्योंकि पिछले अनुभवों से प्रभावित भारत केवल लफ्जों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, भले ही वे पाकिस्तान के सेना प्रमुख द्वारा ही क्यों न व्यक्त किए जा रहे हों। जबतक पाकिस्तान से सकारात्मक संकेत प्राप्त नहीं होते, कुछ भी नहीं बदलेगा। भारत आर्थिक रूप से आगे बढ़ता रहेगा जबकि पाकिस्तान छटपटाता रहेगा। भारत अपनी सैन्यशक्ति में बढोतरी करने में सक्षम है जबकि पाकिस्तान ऐसा अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक नुकसान का जोखिम उठा कर ही कर सकता है। इसलिए, भारत हमेशा ही आगे बना रहेगा।

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