Author : Varya Srivastava

Published on Sep 29, 2018 Updated 0 Hours ago

9 मई को हुए चुनावों के नतीजों से दक्षिण पूर्व एशिया में लोकतंत्र को लेकर आम सोच पर सकारात्‍मक असर पड़ा है, ख़ासकर के मलेशिया की राजनीति पर।

मलेशिया चुनाव के नतीजे दक्षिण पूर्व एशिया में लोकतंत्र को नया जीवन देने के लिए क्‍यों अहम?

उदार लोकतंत्र व्‍यवस्था अराजकता और कमज़ोर होने की स्थिति में है। 2017 की फ्रीडम हाउस रिपोर्ट के मुताबिक 2006 के बाद से लगातार ये (2017) 12वां साल है जब लोकतंत्र में गिरावट आई है। 113 देश ऐसे हैं जिनके लोकतंत्र में गिरावट देखी गई। इस गिरावट में एक इलाक़ा है जो ध्‍यान खींचता है, वो है दक्षिण पूर्व एशिया। इस इलाक़े में लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट देखी गई जैसे कंबोडिया में निरंकुश सत्ता, म्‍यांमार में मानवाधिकार का संकट और थाइलैंड में सेना का तख़्तापलट। लोकतंत्र के लिए इस तरह के निराशाजनक माहौल में इन देशों के लोग लोकतांत्रिक क़ायदों की बहाली, बोलने की आज़ादी, आज़ाद मीडिया, निष्‍पक्ष चुनाव और अल्‍पसंख्‍यकों के अधिकार चाहते हैं। ऐसे में मलेशिया में हुए चुनाव के नतीजे उम्‍मीद की नई लौ जगाते हैं। म‍ले‍शिया में 6 दशक से चला आ रहा एक पार्टी का राज ख़त्‍म हो गया है और चुनाव बिना हिंसा के हो गया। इस बार 1969 के दौरान हुए चुनाव जैसी हिंसा नहीं हुई। 9 मई को हुए इन चुनावों के नतीजों से दक्षिण पूर्व एशिया में लोकतंत्र को लेकर आम सोच पर सकारात्‍मक असर पड़ा है, ख़ासकर के मलेशिया की राजनीति पर।

ये चुनाव और उसका घटनाक्रम कम से कम कहने के लिए नाटकीय रहा।

घरेलू राजनीति

यूनाइटेड मलय नेशनल ऑर्गेनाइजेशन (अब मलेशिया की प्रमुख विपक्षी पार्टी) 6 दशक से ज़्यादा समय तक मलेशिया की सत्‍ता पर क़ाबिज़ रही। सत्‍ता को बरक़रार रखने के लिए यूनाइटेड मलय नेशनल ऑर्गेनाइजेशन और बरसिन गठबंधन ने वो हर काम किया जो वो कर सकते थे। 2018 के चुनाव में सत्‍ताधारी नजीब रज़ाक के नेतृत्व की सरकार ने इस बात के भरसक प्रयास किए कि चुनाव के नतीजे उनके पक्ष में रहें। इसकी शुरुआत स्‍वतंत्र संस्‍थाओं के दुरूपयोग से हुई, जिसमें न्‍यायपालिका, चुनाव आयोग, पुलिस, ख़ुफ़ि‍या एजेंसी को अपने पक्ष में करने की कोशिश की गई। इसका स्‍पष्‍ट उदाहरण था चुनाव के कुछ महीने पहले ‘फ़ेक न्‍यूज़’ बिल लेकर आना, जिसके तहत फ़ेक न्‍यूज़ फैलाने वाले किसी भी शख़्स को जेल भेजा जा सकता था। ये ताक़त सरकार के पास थी कि वो तय करे कि क्‍या फेक न्‍यूज़ है क्‍या नहीं? इसके बाद संस्थागत और वैधानिक जालसाज़ी के तहत फ़ायदा उठाने के मक़सद से निर्वाचन क्षेत्रों का निर्धारण कराया गया। चुनावी क्षेत्रों के परिसीमन का काम चुनाव से महज दो महीने पहले मार्च में किया गया। ये बदलाव पश्चिमी मलेशिया की 165 सीटों में से 98 में किए गए, उसके बाद यूनाइटेड मलय नेशनल ऑर्गेनाइजेशन और बारिसन नेशनल गठबंधन ने अपने सबसे शक्तिशाली हथियार का इस्‍तेमाल किया, ये हथियार था नस्‍ल और धर्म के नाम पर मलेशिया के समाज को बांटना। इसके पीछे मकसद था सरकार पर लग रहे भ्रष्‍टाचार के आरोपों और ग़लत कामों से लोगों का ध्‍यान भटकाना। इसके बावजूद देश ने महातिर मोहम्‍मद और पकातान हरापान पार्टी का उदय देखा। पकातान हरापान पार्टी 2018 में विपक्षी दलों का एक अस्‍त-व्‍यस्‍त सा गठबंधन बना। 92 साल के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्‍मद अपने रिटायरमेंट के बाद इस कमज़ोर लग रहे गठबंधन का नेतृत्‍व करने सामने आए और खलबली मचा देने वाली जीत हासिल की। इसके साथ ही यूनाइटेड मलय नेशनल र्गेनाइजेशन के 61 साल के शासन का अंत हो गया। दिलचस्‍प बात ये है कि वो महातिर ही थे जिन्‍होंने 22 साल यूनाइटेड मलय नेशनल ऑर्गेनाइजेशन का नेतृत्‍व किया। वो तब 1981 से 2003 तक प्रधानमंत्री रहे। मज़ेदार बात ये है कि ‘1 मलेशिया डेवलपमेंट बरहाद’ में घोटाला करने वाली नजीब सरकार को गिराने के लिए महातिर ने अनवर इब्राहिम को साथ लिया जिन्‍हें खुद महातिर ने भ्रष्‍टाचार और एक सहयोगी मर्द से शारिरिक संबंध बनाने के आरोप में जेल भिजवाया था, इब्राहिम के अलावा उन्‍होंने उनकी पत्नी वन अज़ीज़ा वन इस्‍माइल को साथ लेकर मज़बूत बारिसन गठबंधन के सामने एक संयुक्‍त मोर्चा बनाया।

चुनावी क्षेत्रों के परिसीमन का काम चुनाव से महज दो महीने पहले मार्च में किया गया। ये बदलाव पश्चिमी मलेशिया की 165 सीटों में से 98 में किए गए, उसके बाद यूनाइटेड मलय नेशनल ऑर्गेनाइजेशन और बारिसन नेशनल गठबंधन ने अपने सबसे शक्तिशाली हथियार का इस्‍तेमाल किया, ये हथियार था नस्‍ल और धर्म के नाम पर मलेशिया के समाज को बांटना।

आगे की चुनौतियां

पकातान हरापान की अप्रत्‍याशित जीत ने लोगों की उम्‍मीदों को बढ़ा दिया है और ये उम्‍मीदें इतनी ज़्यादा हैं जितनी शायद कभी नहीं थीं। इन नतीजों को मलेशिया के इतिहास में नाकाम होने से रोकने के लिए सरकार को तेज़ी से ज़मीन पर काम करना होगा और जटिल समस्‍याओं का हल करना होगा यानी सरकार के आगे कई चुनौतियां हैं।

पहली सबसे अहम चुनौती है देश पर चढ़े भारी क़र्ज़ से मुक्ति दिलाना। मलेशिया पर क़रीब 251 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ है और इसे चुकाना इसलिए बेहद ज़रूरी है क्‍यों कि ये सीधे तौर पर लोगों को प्रभावित करता है। बढ़ते क़र्ज़ को कम करने के वादे ने महातिर की जीत में अहम भूमिका निभाई है। इसमें महातिर की मलेशियाई अर्थव्यवस्था को खड़ा करने और तेज़ी से आधुनिकीकरण करने की छवि काम आई। सत्ता में आते ही सरकार ने निवेश और क़र्ज़ की समीक्षा शुरू कर दी है, ख़ासकर के चीन से आए निवेश की और इसके चलते 22 बिलियन डॉलर के तीन चीनी प्रोजेक्‍ट रद्द कर दिए गए हैं। सरकार ने ये कदम इसलिए उठाए हैं ताकि आर्थि‍क विकास को प्रभावित किए बिना क़र्ज़ को कम किया जा सके। मलेशियाई सरकार अब चीन के अलावा दूसरे निवेशकों की तरफ़ देख रही है, इसके साथ ही उसकी कोशिश है कि वो दुनिया में आर्थिक तौर पर अलग-थलग न पड़ जाए।

नई सरकार का दूसरा एजेंडा है चीन के उभार को ध्‍यान में रखकर दुनिया में मलेशिया को फि‍र से स्थापित करना। पहले की बारिसन नेशनल गठबंधन की सरकार ने दुनिया से देश के संबंध को चीन और चीन के वन बेल्‍ट वन रोड की पहल तक सीमित कर लिया था। अब नई सरकार नए रिश्‍ते बना रही है और इसके साथ ही पुराने रिश्‍तों में फि‍र से जान डाल रही है ताकि मलेशिया को फि‍र से दूसरे देशों से जोड़ा जा सके।

इसके साथ ही जो तीसरी चुनौती है वो पहली चुनौती से जुड़ी हुई है। तीसरा काम है घरेलू अर्थव्यवस्था को विकसित करना और बढ़ रही आबादी के हिसाब से नौकरियां पैदा करना। इसके साथ ही विकास इस तरह से करना होगा कि उसका फ़ायदा ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को मिले। मौजूदा दौर में एक छोटी सी चीनी आबादी आर्थिक तौर पर मज़बूत है जिससे सबका विकास नहीं हो रहा है और इसके चलते मले‍शियाई समाज में नाराज़गी है।

चौथी चुनौती है मलेशिया में नाज़ुक नस्‍ली संबंध, जिसका इस्‍तेमाल चुनाव प्रचार में भी हुआ। मलेशिया के समाज में 3 नस्‍लें हैं — मलय (भूमिपुत्र) (68%), चीनी (30%) और भारतीय (7%)। इसमें से आर्थिक ताक़त चीनियों के पास है और राजनीतिक ताक़त मलय के पास है, दशकों से इस तरह के बंटवारे के चलते नस्‍ली भेदभाव और दुश्‍मनी की भावना बढ़ी है।

इस वजह से बड़ी युवा आबादी वाले मलेशियाई समाज (69.7%) में असमान विकास हुआ है और वो विकास की दिशा को लेकर ख़ासे नाराज़ हैं। ऐसे में ये एक क्षेत्र है जहां महातिर को अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षा और लोकतांत्रिक कसौटी के साथ ही सामाजिक बदलाव को मज़बूती देने के अपने दायित्‍व में संतुलन स्थापति करना होगा।

चौथी चुनौती है मलेशिया में नाज़ुक नस्‍ली संबंध, जिसका इस्‍तेमाल चुनाव प्रचार में भी हुआ। मलेशिया के समाज में 3 नस्‍लें हैं — मलय (भूमिपुत्र) (68%), चीनी (30%) और भारतीय (7%)। इसमें से आर्थिक ताक़त चीनियों के पास है और राजनीतिक ताक़त मलय के पास है, दशकों से इस तरह के बंटवारे के चलते नस्‍ली भेदभाव और दुश्‍मनी की भावना बढ़ी है। 1971 की आर्थिक नीतियां भी नस्लों को लेकर भेदभाव के मद्देनज़र तैयार की गईं। जिसके तहत भू‍मिपुत्रों को पब्लिक सेक्‍टर में निवेश का अधिकार दिया गया, सब्सिडी दी गई, नौकरियों और शिक्षा में कोटा दिया गया। इस तरह नस्‍ली बंटवारे का इस्‍तेमाल बारिसन नेशनल गठबंधन की सरकार ने जमकर किया। हांलाकि 2018 के चुनाव में देश ने नस्‍ली बंटवारे से ऊपर उठकर वोट दिया, युवाओं की बड़ी तादाद ने जता दिया कि वो नस्‍लीय बंटवारे से मुक्‍त समाज चाहते हैं। हांलाकि सरकार के लिए ऐसा समाज बना पाना चुनौती होगी।

पांचवी चुनौती घरेलू मोर्चे की है। इस चुनाव ने पार्टी सिस्‍टम को तहस-नहस कर दिया है। एक पार्टी का शासन ख़त्‍म हो गया है और देश में पार्टी बनाने की प्रक्रिया को मंथन के दौर से गुज़रना होगा, सत्‍ताधारी पकातान हरापान में महातिर और इब्राहिम के बीच पावर शेयरिंग (सत्‍ता की ताक़त को आपस में साझा करना ) का संबंध जटिल है। वहीं नई सरकार को ध्‍यान में रखते हुए बारिसन नेशनल में भी बदलाव देखने को मिलेंगे। इस बात की भी संभावना है कि देश में एक और नई तीसरी राजनीतिक शक्ति पैदा हो।

अब आखिरी और सबसे मुश्किल चुनौती है देश में इस्‍लामिक कट्टरपंथ का बढ़ता स्‍तर।

बारिसन नेशनल ने चुनाव में नस्‍ली बंटवारे के साथ-साथ धर्म का कार्ड भी खेला। इसकी वजह से पार्टियों ने इस्‍लामिक कट्टरपंथी नेता ज़ाकिर नाइक और पैन मलेशियन इस्‍लामिक पार्टी का समर्थन किया। भविष्‍य में ध्रुवीकरण को रोकने के लिए पकातान हरापान सरकार को विकल्‍प के तौर पर धर्म निरपेक्ष और सबको साथ लेकर चलने वाली विचारधारा को बढ़ावा देना होगा। इसके साथ-साथ कट्टरता को बढ़ने से भी रोकना होगा। लोकतांत्रिक बदलाव के इस अहम पड़ाव पर समाज की प्रकृति को समझते हुए बड़े नाज़ुक तरीके से इन मसलों पर आगे बढ़ना होगा। नस्‍लों के बीच संबंध, प्रेस की भूमिका, अल्‍पसंख्‍यकों के अधिकार, आर्थिक बराबरी, इंसाफ़ मिलना और क़ानून को अमल में लाने जैसी बातों पर ध्‍यान देकर दक्षिणापंथी कट्टरता से लोहा लेना होगा।

इसके लिए सिविल सोसायटी और आज़ाद संस्थानों को मज़बूत करना होगा, जिससे दक्षिण पूर्व एशिया में में बढ़ रहे दक्षिणपंथी कट्टरपंथ, तानाशाही और इस्‍लामिक कट्टरता का मुक़ाबला नए लोकतांत्रिक अनुभव से किया जा सके।

कई मायनों में मलेशिया के चुनाव इलाक़े के लोकतंत्र को फि‍र से बहाल करने के लिए उम्‍मीद की एक नई किरण जगाते हैं।


लेखक ORF नई दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं।

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