Author : Nilanjan Ghosh

Published on Oct 15, 2020 Updated 0 Hours ago

एक ऐसी व्यवस्था जहां पर सामाजिक सुरक्षा पारंपरिक तौर पर नाकाम रही है, वहां सिर्फ़ क़ुदरत की हिफ़ाज़त के नाम पर नैतिकता वाले विकास के पथ को चुनना कहां तक संभव है?

भारत की आर्थिक प्रगति के संदर्भ में ‘ग्रीन ग्रोथ’ और अन्य आयामों का विश्लेषण

वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में 23.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई. हालांकि, इसकी अपेक्षा पहले से ही थी. क्योंकि कोविड-19 महामारी की रोकथाम के लिए लॉकडाउन लगाया गया था. आर्थिक वृद्धि में कमी आई तो इसी दौरान पर्यावरण के तमाम संकेतकों ने सुधार का इशारा किया. इससे साफ़ हो गया कि जब आर्थिक गतिविधियां रुक जाती हैं, तो प्राकृतिक स्थितियों में सुधार आता है. इसे हम इस तरह माप सकते हैं कि हरित क्षेत्र में वृद्धि हुई. शहरी क्षेत्रों में हवा की क्वालिटी में सुधार आया. जल और ज़मीन दोनों जगह पर रहने वाले जीवों की प्रजनन की गतिविधियों में परिवर्तन दर्ज किया गया. नदियों में पानी का बहाव भी अच्छा हुआ. लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण में सुधार के सभी संकेतकों में सुधार का अर्थ है कि हमारी आब-ओ-हवा की क्वॉलिटी भी बेहतर हुई. मात्रा भी बढ़ी और अन्य मानकों में भी सुधार देखा गया. लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण में आया सुधार इस बात का इशारा करता है कि भारत में अभी भी पर्यावरण के कुज़नेट्स कर्व में उभार वाला देश है. (अगर ये कर्व है तो)

यहां एक और सवाल उठता है कि ‘ग्रीन ग्रोथ’ और ‘डिग्रोथ’ को लेकर जो दृष्टिकोण दिए जा रहे हैं, वो कहां तक उचित हैं. बहुत से विकसित देशों में पहले ही इस बात पर लगभग आम राय बन चुकी है कि विकास की मौजूदा दर को बनाए रखने के चलते प्राकृतिक इकोसिस्टम का क्षरण हो रहा है. क़ुदरती संसाधनों को नुक़सान पहुंच रहा है. आर्थिक तरक़्क़ी के चलते न केवल इको-सिस्टम संबंधी सेवाओं को नुक़सान पहुंचता है. बल्कि, बहुत से देशों की हर जीव को समान अधिकार देने वाली पारंपरिक सोच को भी क्षति पहुंचती है. यहां पर आधुनिकता की तुलना उपभोक्तावाद से की जाती है. जहां पर बेलगाम विकास और बेहिसाब खपत होती है, जिसे पूरा करना प्रकृति के लिए संभव नहीं है. दुनिया के अमीर देशों में बेहिसाब खपत की भावना के चलते प्राकृतिक इको-सिस्टम को कितना नुक़सान पहुंच रहा है, ये बात यहां दोहराने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन, यहां हम इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते हैं कि विकास दर को बढ़ाने की जो चाह है, उससे भी प्राकृतिक संसाधन और परिस्थितियों को बहुत नुक़सान पहुंचा है. विकास दर को लेकर हमारे इस पूर्वाग्रह का ज़िक्र मैं पहले भी कई बार अपने लेखों में कर चुका हूं. विकासशील और अविकसित देशों में ये अवधारणा है कि विकास की प्रक्रिया एक ही दिशा में, और एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चलती है. यानी जीडीपी ग्रोथ रेट पर ही ज़ोर दिया जाता है. और इसके लिए अन्य प्रमुख विषयों जैसे कि समानता और टिकाऊ विकास के बारे में नहीं सोचा जाता है. पर हम इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते हैं कि आमदनी का विकास, मानव के आर्थिक अस्तित्व का एक अटूट अंग है. इसीलिए, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ साथ पर्यावरण संतुलन बनाने के लिए अब ‘हरित विकास’ या Green Growth के विचार को बढ़ावा दिया जा रहा है. माना जाता है कि इस तरह से हम विकास की ज़रूरतों को पूरा करने के साथ साथ प्रकृति के संरक्षण का काम भी कर सकेंगे.

हरित विकास की परिकल्पना की बुनियाद इस बात पर टिकी है कि क़ुदरती संसाधनों के उपयोग को आर्थिक वृद्धि से अलग किया जाना चाहिए. इसका अर्थ ये है कि आर्थिक विकास के लिए हम जिन प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हैं, उनकी जगह नए संसाधन विकसित करने की व्यवस्था भी साथ साथ किए जाने की ज़रूरत है. यानी आर्थिक विकास के लक्ष्य के साथ साथ प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के टारगेट भी तय किए जाने चाहिए. इसके लिए अक्सर तकनीकी और संस्थागत आविष्कारों का लाभ उठाने का तर्क दिया जाता है. कहा जाता है कि नई तकनीक से उत्पादन में कार्यकुशलता को हासिल किया जा सकता है. लेकिन, यहां पर पर मैं इस कारक को थॉमस होमर-डिक्सन के शब्द, ‘कुशल प्रयोग’ कहना चाहूंगा. भले ही कुशल प्रयोग को हम कितने भी शक्तिशाली तरीक़े से इस्तेमाल कर लें. एक हक़ीकत ये भी है कि मानव आज तरक़्क़ी के जिस मुकाम पर है, उसके पीछे एक पूंजी के सर्वाधिक इस्तेमाल का सबसे बड़ा योगदान है. और ये है प्राकृतिक संसाधनों की पूंजी. प्राचीन काल में पूंजी के बुनियादी स्वरूप को ज़मीन के रूप में इस्तेमाल किया गया. इस संदर्भ में ये कहना उचित होगा कि विकास दर और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को पूरी तरह से अलग कर पाना लगभग असंभव है. वार्ड और उनके साथियों ने इस बात को 2016 में अपने रिसर्च पेपर के ज़रिए बख़ूबी पेश किया था. इस लेख में विद्वानों ने विकास के व्यापक मॉडल का इस्तेमाल करते हुए ये कहा था कि, ‘जीडीपी की विकास दर को संसाधनों और ऊर्जा के इस्तेमाल से अलग किया जाना संभव नहीं है.’ साफ़ है कि विकास दर को हमेशा ही उच्च स्तर पर बनाए रखना संभव नहीं है. ऐसे में उच्च विकास की दर हासिल करने के लिए कोई ऐसी नीति बनाना संभव नहीं है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को अलग किया जा सके. लेकिन, यहां ये बात समझना भी ज़रूरी है कि सिर्फ़ जीडीपी बेहतर करने से समाज का कल्याण नहीं होता. वैसे भी जीडीपी को समाज का कल्याण मापने के सूचकांक के तौर पर ईजाद नहीं किया गया था. इसीलिए, लंबी अवधि के लिए किसी भी समाज की ख़ुशहाली और बेहतरी का लक्ष्य हासिल करने के लिए सिर्फ़ जीडीपी विकास दर को पैमाना बनाना ठीक नहीं. लेकिन, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से विकास दर हासिल करने के बजाय दोनों को अलग-अलग करके तरक़्क़ी हासिल कर पाना बेकार की कोशिश है. ये संभव नहीं होगा.

हरित विकास की परिकल्पना की बुनियाद इस बात पर टिकी है कि क़ुदरती संसाधनों के उपयोग को आर्थिक वृद्धि से अलग किया जाना चाहिए. इसका अर्थ ये है कि आर्थिक विकास के लिए हम जिन प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हैं, उनकी जगह नए संसाधन विकसित करने की व्यवस्था भी साथ साथ किए जाने की ज़रूरत है. 

यहां पर मैं ये कहना चाहूंगा कि हरित विकास की परिकल्पना असल में एक अलंकार है. विकास का रंग वास्तविक रूप में ‘भूरा’ ही होता है. जो प्रदूषण का प्रतीक है. इसी तरह से ये कहना भी उचित होगा कि अगर हम लगातार सिर्फ़ विकास के उस पथ पर चलेंगे जहां तरक़्क़ी सिर्फ़ प्रदूषण पैदा करेगी और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करेगी, तो आगे चलकर प्राकृतिक पूंजी कम से कमतर होती जाएगी. नतीजा ये होगा कि उत्पादों की क़ीमत बढ़ेगी. प्रदूषण हमें बहुत महंगा पड़ेगा. इसीलिए आज मानवता के सामने जो सबसे बड़ा सवाल है, वो ये है कि क्या, डिग्रोथ या विकास न करना ही दुनिया की समस्याओं का समाधान है? यहां पर हम ये देखते हैं कि हरित विकास या डिग्रोथ, दोनों ही सिद्धांतों का प्रचार करने वाले एक बात पर सहमत हैं. और वो ये है कि क़ुदरती संसाधनों के संरक्षण के लिए जो लक्ष्य तय किए गए हैं, उन्हें हासिल किया जाए. पर्यावरण का संरक्षण किया जाए. इको-सिस्टम के ढांचे को बनाए रखा जाए. इसके अलावा ये दोनों ही ये तर्क देते हैं कि विकास दर के मौजूदा स्तर को बनाए रखने के लिए हमें नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के ऐसे संसाधन विकसित करने होंगे, जिससे प्रदूषण को कम किया जा सके. लेकिन, दो ऐसे विषय भी हैं, जहां पर हरित विकास और डिग्रोथ के अनुयायी एक दूसरे के विपरीत राय रखते हैं. पहला तो ये कि विकास और संरक्षण के लक्ष्यों को एक साथ हासिल किया जा सकता है. और दूसरा ये कि पारिस्थितिकी को बचाए रखने की प्रक्रिया के साथ साथ हम आर्थिक विकास की दर के स्तर को भी हासिल कर सकते हैं. डिग्रोथ की परिकल्पना में विकास दर घटाने की बात की जाती है, न कि विकास दर बढ़ाने की. इसके समर्थकों का कहना है कि धरती पर जीवन, क़ुदरत की बुनियाद पर ही टिका है. इस संदर्भ में हम ये कह सकते हैं कि डिग्रोथ थ्योरी के समर्थक कॉनविवियालिस्ट मैनिफेस्टो के बेहद क़रीब हैं. ये वो विचार है जिसमें फ्रांस के कुछ विद्वानों और बुद्धिजीवियों ने तर्क दिया था कि मानव के विकास का पथ ऐसा होना चाहिए जिसमें वो क़ुदरती संसाधनों के संरक्षण के साथ साथ तरक़्क़ी कर सके. और दोनों ही चीज़ें ख़ुशी ख़ुशी साथ रह सकें. इसके लिए ये सभी विद्वान हमारे मौजूदा रहन-सहन में बदलाव का सुझाव देते हैं. मौजूदा आर्थिक गतिविधियों में बदलाव की मांग करते हैं. इन विद्वानों का कहना है कि विकसित देशों में विकास और आर्थिक समृद्धि की जो मौजूदा सोच है, उसे बदलने की ज़रूरत है. हम समाज की बेहतरी को सिर्फ़ उच्च आर्थिक विकास की दर के माध्यम से नहीं हासिल कर सकते हैं. फ्रांस के इन विद्वानों का तर्क ये है कि अगर विकसित देश ऐसा कर पाते हैं, तो फिर विकासशील और अविकसित देशों में भी आर्थिक विकास और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को अलग-अलग किया जा सकेगा. इससे विकासशील देशों में नए सिरे से सामाजिक गठन हो सकेगा.

जीडीपी को समाज का कल्याण मापने के सूचकांक के तौर पर ईजाद नहीं किया गया था. इसीलिए, लंबी अवधि के लिए किसी भी समाज की ख़ुशहाली और बेहतरी का लक्ष्य हासिल करने के लिए सिर्फ़ जीडीपी विकास दर को पैमाना बनाना ठीक नहीं. 

भारत की ज़रूरतें

यहां पर सबसे बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि क्या भारत जैसा विकासशील देश विकास के अलावा किसी और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास कर सकता है. बहुत से अर्थशास्त्री ये तर्क देते हैं कि डिग्रोथ एक पश्चिमी विचार है. और इसे वहीं अपनाया जा सकता है, जहां पर एक हद तक विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा चुका है. जिन देशों की अर्थव्यवस्थाएं विकास के उस स्तर पर नहीं पहुंच सकी हैं, वहां इस मॉडल को लागू कर पाना संभव नहीं है. भारत में आर्थिक लॉकडाउन से अप्रवासी मज़दूरों की तकलीफ़ें खुलकर सामने आईं. हमने छोटे और सूक्ष्म उद्योंगों और ग़रीबों को भी इसके कारण बहुत मुश्किल में पड़ते देखा. इसका मतलब ये है कि देश के एक बड़े तबक़े को जो सामाजिक सुरक्षा सरकार के बजाय बाज़ार के माध्यम से मिलती थी, वो लॉकडाउन के कारण ख़त्म हो गई. ये सरकारी नीतियों की नाकामी है. वितरण और समानता के विचार की नाकामी एकदम खुलकर हमारे सामने आ गई. ऐसे में सवाल ये है कि एक ऐसी व्यवस्था जहां पर सामाजिक सुरक्षा पारंपरिक तौर पर नाकाम रही है, वहां सिर्फ़ क़ुदरत की हिफ़ाज़त के नाम पर नैतिकता वाले विकास के पथ को चुनना कहां तक संभव है? ज़ाहिर है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में बाज़ार की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है. और बाज़ार की ताक़तों को चलाने के लिए विकास दर एक अहम कारक है. उसे इकोसिस्टम की बेहतरी और स्थायी विकास के लक्ष्यों से कोई मतलब नहीं है.

विकास का रंग वास्तविक रूप में ‘भूरा’ ही होता है. जो प्रदूषण का प्रतीक है. इसी तरह से ये कहना भी उचित होगा कि अगर हम लगातार सिर्फ़ विकास के उस पथ पर चलेंगे जहां तरक़्क़ी सिर्फ़ प्रदूषण पैदा करेगी और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करेगी, तो आगे चलकर प्राकृतिक पूंजी कम से कमतर होती जाएगी. 

15 अप्रैल 2020 को फाइनेंशियल टाइम्स में छपे एक लेख में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन ने तर्क दिया था कि, ‘लॉकडाउन से एक बेहतर समाज विकसित हो सकता है.’ प्रोफ़ेसर सेन ने समाज में समानता और समृद्धि के उचित वितरण के माध्यम से विकास पर ज़ोर देते हुए कहा था कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैंड और वेल्श के लोगों की औसत आयु बढ़ गई थी. प्रोफ़ेसर सेन ने इस लेख में तर्क दिया था कि, ‘युद्ध के दौरान ग़रीबों और कमज़ोर तबक़े के लोगों को राहत देने की ओर अधिक ध्यान देने से ही इंग्लैंड में कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना विकसित हुई थी.’ भारत में लॉकडाउन के दौरान हमारे समाज की ढकी- छुपी कमियां खुलकर सामने आ गई थीं. इससे लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकारों के सामने ये अवसर भी आया है कि वो लोगों के बीच समृद्धि के समान वितरण की व्यवस्था और संस्थाएं विकसित कर सकें. फिर इनका इस्तेमाल वो महामारी के बाद की दुनिया में भी जारी रख सकें. हालांकि, प्रोफ़ेसर सेन ने इस बात पर अफ़सोस भी जताया था कि, ‘सोशल डिस्टेंसिंग के चलते वायरस का संक्रमण भी रुकता है.’ ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग के बदले मुआवजा देने की व्यवस्था भी होनी चाहिए. लॉकडाउन से तबाही के कगार पर खड़े लोगों के लिए आमदनी की व्यवस्था, खाने का इंतज़ाम, स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए. उन्होंने आगे लिखा था कि, ‘दुख की बात ये है कि जब हम महामारी का दौर बीत जाने के बाद इन बातों पर फिर से चर्चा कर रहे होंगे, तो भी हमारे सामने वही असमानता वाली दुनिया होगी, जिसमें आज हम जी रहे हैं.’

भूटान इन समस्याओं से अपने ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस (GNH) के फ्रेमवर्क के माध्यम से निपटता है. भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसे फ्रेमवर्क को लागू करना तो संभव नहीं है. लेकिन, भारत को अपने विकास के लक्ष्य हासिल करने के लिए एक नई सोच को विकसित करना होगा.

दिलचस्प बात ये है कि भले ही ज़्यादातर लोग डिग्रोथ को विकसित देशों की तरफ़ से आए एक फैशनेबल बयान से अधिक तवज्जो न देते हों. लेकिन यहां हमें इस बात का ख़्याल रखने की ज़रूरत है कि ये तर्क दुनिया के उस हिस्से से आया है, जहां विकासशील देशों के मुक़ाबले अधिक समानता वाला समाज है. जहां आम नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा का ढांचा बेहद मज़बूत है. और वो किसी संकट का दबाव झेल सकता है. ये ऐसे देश हैं जहां ऐसी नीतियां बनाई गई हैं, जिससे समृद्धि और न्यायिक व्यवस्था का समान रूप से वितरण हो सके. ये वो देश हैं जहां सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति बाज़ार की ताक़तों के भरोसे नहीं है. जबकि भारत में संपत्ति के वितरण और असमानता की समस्याएं आज़ादी के सात दशक बाद भी विद्यमान हैं. भारत में पर्यावरण की समस्या से इस वक़्त डिग्रोथ वाली सोच से नहीं निपटा जा सकता है. इसके बजाय भारत को इस समय ज़रूरत इस बात की है कि वो विकास के व्यापक आयाम को विकसित करे. जिसके माध्यम से इको-सिस्टम की ख़ामियां दूर की जा सकें और विकास के साथ साथ संपत्ति के वितरण की चुनौतियों से भी निपटा जा सके. भूटान इन समस्याओं से अपने ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस (GNH) के फ्रेमवर्क के माध्यम से निपटता है. भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसे फ्रेमवर्क को लागू करना तो संभव नहीं है. लेकिन, भारत को अपने विकास के लक्ष्य हासिल करने के लिए एक नई सोच को विकसित करना होगा. अब हम इस स्थिति में नहीं हैं कि जैसे चल रहा है, वैसे चलने दें वाली सोच के साथ आगे बढ़ सकें. हमें ज़रूरत इस बात की है कि हम आर्थिक कार्यकुशलता, समृद्धि के समान रूप से वितरण और पर्यावरण को टिकाऊ बनाने के लिए क़ानूनी ढांचा विकसित करें.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.