Published on Oct 23, 2020 Updated 0 Hours ago

ट्रेड यूनियनों और त्रिपक्षीय समझौतों की संभावनाओं को मज़बूत किया जाना चाहिए और सभी हितधारकों के लाभ को सुनिश्चित करने के लिए उचित रूप से इन संस्थाओं का उपयोग किया जाना चाहिए.

भारत-फिलीपींस के ट्रेड यूनियनों की पड़ताल: सामाजिक सुरक्षा और उत्पादकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका

बीते कई सालों में ट्रेड यूनियनों की आलोचना ऐसे एजेंटों के रूप में की गई है, जो अपने हितों (मज़दूरी और काम करने की परिस्थितियों में सुधार व अधिक से अधिक स्थाई रोज़गार पैदा करने) की रक्षा के लिए, अक्सर श्रम बाज़ार के नियंत्रण और उदारीकरण की नीतियों के तहत किए गए फ़ैसलों, का विरोध करते हैं, क्योंकि यह क़दम उनके उद्देश्यों को बाधित कर सकते हैं. हालांकि, ट्रेड यूनियनों को लेकर बने इस नज़रिए के आधार पर अपनी समझ विकसित करना, श्रमिक संस्थानों और संगठनों के प्रति संकीर्ण दृष्टि को बढ़ावा दे सकता है, क्योंकि ये संगठन सरकारों के साथ मिलकर इस मसले पर त्रिपक्षीय सामाजिक संवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं, और श्रमिकों के अधिकारों और उनकी सामाजिक सुरक्षा को हासिल करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यूनियनों और नियोक्ताओं यानी नौकरी देने वाली कंपनियों के बीच होने वाले सामूहिक समझौते यानी सभी संबंधित पक्षों द्वारा मिलकर की जाने वाली सौदेबाज़ी, एक अन्य रूप में भी सकारात्मक सिद्ध होती है. यह सभी पक्षों के प्रतिनिधित्व को संभव बनाती है और इन पक्षों के बीच संघर्ष को कम कर उनके बीच विश्वास क़ायम करने का काम करती है. इस रूप में यह परिस्थिति सभी पक्षों के लिए लाभकारी साबित हो सकती है. इस तरह के विचार को मध्य यूरोपीय और नॉर्डिक देशों का समर्थन प्राप्त है, क्योंकि उनके अनुभव दिखाते हैं कि यूनियनों की बढ़ती ताक़त और समूह के रूप में सौदेबाज़ी के मॉडल, अधिक उत्पादकता और कम से कम हड़ताल वाली स्थितियां पैदा करते हैं.

यूनियनों और नियोक्ताओं यानी नौकरी देने वाली कंपनियों के बीच होने वाले सामूहिक समझौते यानी सभी संबंधित पक्षों द्वारा मिलकर की जाने वाली सौदेबाज़ी, एक अन्य रूप में भी सकारात्मक सिद्ध होती है. यह सभी पक्षों के प्रतिनिधित्व को संभव बनाती है और इन पक्षों के बीच संघर्ष को कम कर उनके बीच विश्वास क़ायम करने का काम करती है.

यूनियनों और नियोक्ताओं यानी नौकरी देने वाली कंपनियों के बीच होने वाले सामूहिक समझौते यानी सभी संबंधित पक्षों द्वारा मिलकर की जाने वाली सौदेबाज़ी, एक अन्य रूप में भी सकारात्मक सिद्ध होती है. यह सभी पक्षों के प्रतिनिधित्व को संभव बनाती है और इन पक्षों के बीच संघर्ष को कम कर उनके बीच विश्वास क़ायम करने का काम करती है.

विभिन्न ट्रेड यूनियनों के ज़रिए, श्रमिकों और नियोक्ताओं के लिए सकारात्मक परिणाम उत्पन्न होने की संभावना ज़रूरी रूप से उन विकसित देशों तक ही सीमित नहीं है जहां बड़ी संख्या में ट्रेड यूनियन मौजूद हैं, और हर क्षेत्र व हर तरह के कामकाज में जुटे लोग, ट्रेड यूनियनों का हिस्सा हैं. भारत और फिलीपींस जैसे देशों में बड़ी संख्या में लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं. अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों को परंपरागत रूप से सामाजिक सुरक्षा और बीमा की सुविधा मुहैया नहीं होती. भले ही इन देशों में ट्रेड यूनियनों की संख्या कम हो, लेकिन ट्रेड यूनियन बड़ी संख्या में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों को संरक्षित रोज़गार मुहैया कराने और सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. इसके अलावा, न्यूनतम मज़दूरी के संबंध में नियोक्ताओं को कानून के दायरे में लाने और उसका अनुपालन सुनिश्चित करने में भी इन यूनियनों की प्रमुख भूमिका हो सकती है, ताकि मज़दूरों को काम पर रखने वाली हर कंपनी और हर संगठन न्यूनतम मज़दूरी और काम करने का सहूलियत भरा वातावरण उपलब्ध कराए.

गुजरात में स्थित महिलाओं का श्रमिक संघ ‘SEWA’- द सेल्फ एमप्लाइड वुमेंस एसोसिएशन, लेबर यूनियन का एक अच्छा उदाहरण है, जिसके ज्यादातर सदस्य अनौपचारिक क्षेत्र से आते हैं. सेवा के कामकाज का तरीका इस बात का बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करता है कि यूनियनें सदस्यों के साथ सीधे तौर पर जुड़ कर, किस तरह हर किसी को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में ला सकती हैं, ताकि व्यापक स्तर पर श्रमिकों का लाभ हो. महिलाओं के संगठन SEWA की अपनी स्वैच्छिक बीमा योजना है, जो एक बीमा कंपनी के साथ साझेदारी में चलाई जाती है और जिसके तहत सदस्यों को बहुत कम प्रीमियम यानी भुगतान के ज़रिए जीवन, दुर्घटना, संपत्ति की हानि और स्वास्थ्य क्षेत्र में बीमा मिल सकता है. पूर्णकालिक रूप से SEWA के लिए काम करने वाले वह लोग जो संस्था के लिए ज़मीनी स्तर पर काम करते हैं, बीमा को बढ़ावा देते हैं, और नियमित रूप से सदस्यों से प्रीमियम इकट्ठा करते हैं.

महिलाओं के संगठन SEWA की अपनी स्वैच्छिक बीमा योजना है, जो एक बीमा कंपनी के साथ साझेदारी में चलाई जाती है और जिसके तहत सदस्यों को बहुत कम प्रीमियम यानी भुगतान के ज़रिए जीवन, दुर्घटना, संपत्ति की हानि और स्वास्थ्य क्षेत्र में बीमा मिल सकता है. 

अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों की यूनियन का एक अन्य उदाहरण, महाराष्ट्र कामगार संगठन (LMKS) है, जो महाराष्ट्र में स्थित, राज्य स्तर की एक ट्रेड यूनियन है. यह उन लोगों का संघ है जो घरों में रहकर काम करते हैं या फिर कपड़ा बनाने के कारख़ानों में नियुक्त हैं. ख़ुद को व्यवस्थित कर, यह कार्यकर्ता बेहतर सामाजिक सुरक्षा के लिए अपनी मांगों को सामने रख पाते हैं, और कानूनी रूप से पंजीकृत ट्रेड यूनियन के रूप में अपनी संस्थागत महत्ता का उपयोग कर नियोक्ताओं के साथ बातचीत करते हैं. इस यूनियन ने श्रमिकों को सीधे कपड़ा उत्पादकों से बात करने और अपने उत्पादों के लिए अधिक कमाई करने की अनुमति दी है. यह काम इस क्षेत्र में मौजूद बिचौलियों को हटाकर किया गया है, जो अपना कमीशन लेने के अलावा, नियोक्ताओं से अधिक दाम लेकर श्रमिकों को कम से कम दाम देते थे. समय के साथ, LMKS सार्वजनिक अस्पतालों, स्वंय सेवी संस्थाओं और धर्मार्थ ट्रस्टों के साथ एक नेटवर्क बनाने में सक्षम हो गया है, जो श्रमिकों को मुफ्त स्वास्थ्य जांच व दवाएं, व्यावसायिक प्रशिक्षण और सामाजिक सुरक्षा संबंधी सहायता प्रदान करते हैं. इसके परिणामस्वरूप, सदस्य अब वास्तविक रूप से अधिक कमाते हैं, और बेहतर रूप से सामाजिक सुरक्षा के दायरे में हैं. यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये सुधार, श्रमिकों के बीच संगठनात्मक एकता और नियोक्ताओं की ओर से आवश्यक किसी भी समझौते के लिए संघ द्वारा बनाए गए संस्थानों का उपयोग करने के परिणामस्वरूप ही हो पाए हैं.

फिलीपींस से मिले साक्ष्य और अनुभव यह दिखाते हैं कि श्रमिकों की आवश्यकताओं के साथ समझौता किए बिना और उन्हें बेहतर लाभ उपलब्ध करवाते हुए भी, नियोक्ता उत्पादन क्षमता को बेहतर बनाने और अपने लाभ सुनिश्चित करने की दिशा में कम कर सकते हैं. साल 2008 के श्रम और रोज़गार सांख्यिकी ब्यूरो (बीएलईएस) के सर्वेक्षण के परिणाम बताते हैं कि प्रोत्साहन योजनाओं (जैसे लाभ-साझाकरण) और योग्यता व कौशल-आधारित वेतन योजनाएं, उन व्यापारिक इकाइयों में अधिक तेज़ी से अपनाई जाती हैं जहां यूनियन स्थित हों. ऐसी योजनाएं श्रमिकों को बेहतर प्रयास करने और उत्पादकता में सुधार करने के लिए प्रेरित करने की क्षमता रखती है, जो अंततः नियोक्ताओं को लाभान्वित करता है. मज़बूत यूनियनों की उपस्थिति यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकती है कि श्रमिकों को बढ़ी हुई उत्पादकता से होने वाले लाभों का उचित हिस्सा मिल सके. यह भी देखा गया है कि संघीकृत फर्में अपने श्रमिकों को स्वास्थ्य देखभाल लाभ उपलब्ध करवाने और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में अधिक ध्यान देती हैं. उत्पादकता आधारित प्रोत्साहन योजनाओं और मज़दूरी पर अंतरराष्ट्रीय लेबर संगठन (ILO) का अध्ययन कई आशाजनक अंतर्दृष्टियां भी प्रदान करता है. यह देखा गया है कि यूनियनों से लैस कंपनियों ने, उत्पादकता में सुधार और बेहतर मज़दूरी की आकांक्षा का समन्वय कर, गैर-संघीकृत इकाइयों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया. आसा इसलिए हो पाया क्योंकि यूनियनों के माध्यम से श्रमिकों के बीच, बेहतर उत्पादन के ज़रिए बेहतर मज़दूरी पाने का प्रोत्साहन बना. कई मामलों में संघ के प्रतिनिधियों ने कंपनी प्रबंधन के साथ मिलकर एक ‘उत्पादकता समिति’ का गठन किया, जिसने श्रमिकों को खराब प्रदर्शन के लिए मार्गदर्शन और सहायता दी गई और बेहतर प्रदर्शन करने वाले मज़दूरों को सीधे लाभ मिला. इसके चलते साल 2012 से 2013 के बीच उत्पादकता 86 प्रतिशत तक बढ़ाई जा सकी और साल 2013 और 2014 के बीच यह बढ़कर 87 प्रतिशत तक हो गई. यह देखा गया कि श्रमिकों को दिए गए लाभ और प्रोत्साहन से उनकी उपस्थिति में भी सुधार हुआ. यह एक ऐसा संकेत है, जो बताता है कि सरल संस्थागत बदलाव और यूनियनों व उत्पादकों के बीच अधिक से अधिक सहयोग, अंतत: दोनों पक्षों के लिए, पारस्परिक लाभ सुनिश्चित कर सकता है.

इस यूनियन ने श्रमिकों को सीधे कपड़ा उत्पादकों से बात करने और अपने उत्पादों के लिए अधिक कमाई करने की अनुमति दी है. यह काम इस क्षेत्र में मौजूद बिचौलियों को हटाकर किया गया है, जो अपना कमीशन लेने के अलावा, नियोक्ताओं से अधिक दाम लेकर श्रमिकों को कम से कम दाम देते थे.

फिलीपींस के सेवा क्षेत्र (service sector) में 16 संघीकृत फर्मों के बीच हुए एक सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि श्रमिकों की मानव पूंजी यानी कौशल को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण सुविधाओं व कौशल निर्माण कार्यक्रमों को, पारस्परिक लाभ के प्रावधानों के रूप में भी लागू किया जा सकता है. इसका मतलब है कि यूनियनों और नियोक्ताओं के बीच बातचीत के ज़रिए इस तरह के समझौते हों जो प्रशिक्षण सुविधाओं व कौशल निर्माण कार्यक्रमों की एवज़ में दोनों पक्षों के लिए लाभ के अवसर पैदा करें. इस तरह की परिपाटी में काम करने वाले नियोक्ता और श्रमिक यूनियन, ऐसे लाभ सुरक्षित करने में सक्षम रही हैं, जो कानून के अंतर्गत आवश्यक नहीं थे, जैसे कि प्रशिक्षण के अवसर, प्रदर्शन बोनस, वेतन सहित छुट्टियां, मातृत्व लाभ और विकलांगता और स्वास्थ्य बीमा. इसके बदले में, यूनियनों को अपने सामूहित समझौतों में, ‘नो स्ट्राइक’ और ‘नो लॉकआउट’ जैसे अनुबंधों पर सहमति जतानी होती है, ताकि कंपनी मालिकों को भी उचित लाभ मिल सके. हड़ताल और काम रुकना, ट्रेड यूनियनों के साथ जुड़ी कुछ सबसे बड़ी चिंताएं हैं, लेकिन सर्वेक्षण में शामिल हुई फर्मों ने अपने श्रमिकों की बुनियादी ज़रूरतों का ध्यान रखते हुए ‘नो स्ट्राइक’ और ‘नो लॉकआउट’ जैसे अनुबंधों के ज़रिए हड़ताल की समस्या को दूर करने में क़ामयाबी हासिल की है. इस तरह के उपाय, श्रमिकों के बीच विश्वास को बढ़ावा देते हैं, कंपनी के प्रति उनकी निष्ठा को बढ़ाते हैं और अंततः अधिक उत्पादकता के जरिए, नियोक्ताओं के लिए सकारात्मक परिणाम सामने रखते हैं. इस प्रकार यह ज़रूरी नहीं कि यूनियनों के ज़रिए होने वाली सामूहिक सौदेबाज़ी, हमेशा घाटे का सौदा (Zero-sum game) हो.

इन उदाहरणों के ज़रिए भले ही कोई व्यापक निष्कर्ष न निकल पाएं, लेकिन यह एक महत्वपूर्ण बिंदु को स्पष्ट करते हैं, कि ट्रेड यूनियन केवल बाधा उत्पन्न करने का काम नहीं करतीं, बल्कि श्रमिकों और नियोक्ताओं दोनों को लाभान्वित कर सकती हैं. दूसरी ओर अगर श्रम संस्थान और यूनियनें कमजोर होती हैं, तो ऐसे में लाभ के अवसर ज़रूर खो सकते हैं. भारत में हाल के रुझानों ने इस संबंध में एक चिंताजनक उदाहरण स्थापित किया है, और यदि वे एक मानक बन जाते हैं तो यह नुकसान, स्थायी भी हो सकता है.

फिलीपींस से मिले साक्ष्य और अनुभव यह दिखाते हैं कि श्रमिकों की आवश्यकताओं के साथ समझौता किए बिना और उन्हें बेहतर लाभ उपलब्ध करवाते हुए भी, नियोक्ता उत्पादन क्षमता को बेहतर बनाने और अपने लाभ सुनिश्चित करने की दिशा में कम कर सकते हैं. 

भारत में, यूनियनों की सदस्यता का विकल्प कामकाजी आबादी के 10 प्रतिशत से भी कम हिस्से को उपलब्ध है, और यह ज़्यादातर संगठित क्षेत्र तक ही सीमित है. संगठित विनिर्माण क्षेत्र में वेतन और मज़दूरी में आई गिरावट व संगठित क्षेत्र के भीतर कांट्रेक्ट आधारित नौकरियों का बढ़ता अनुपात, श्रमिक हितों की रक्षा करने में यूनियनों के विफल रहने की ओर इशारा करता है. फिलीपींस में निजी क्षेत्र के उद्यमों में सामूहिक सौदेबाज़ी से होने वाले समझौतों और यूनियनों से लैस इकाईयों की संख्या में आई गिरावट (जो साल 2003 में कुल रोज़गार का लगभग पांचवां हिस्सा थी और साल 2014 में घटकर दसवां हिस्सा हो गई) को भी यूनियनों की विफलता और अनौपचारिक रोज़गार, आकस्मिक रोज़गार और अल्पकालिक रोज़गार का विरोध करने की उनकी अक्षमता का परिणाम माना जा रहा है.

हाल के दिनों में, सरकार और यूनियनों के बीच सामाजिक संवाद कम हुआ है, भले ही भारत ने त्रिपक्षीय बातचीत और समझौतों को लेकर आईएलओ के कन्वेंशन 144 के प्रति सहमति दर्ज की हो. औद्योगिक संबंध संहिता (Industrial Relations Code) 2019 की कुछ विशेषताओं (चार नए श्रम कोडों में से एक, जिसे मौजूदा कई श्रम क़ानूनों को समाहित करने के लिए तैयार किया जा रहा है) ने एक महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी है. हड़ताल करने के लिए बेहद सख़्त ‘आवश्यकताओं’ और औद्योगिक इकाइयों से सौदेबाज़ी करने के लिए श्रमिकों और कर्मचारियों का ’75 प्रतिशत प्रतिनिधित्व हासिल होने’ संबंधी नियमों और शर्तों को, यूनियनों द्वारा उनकी स्थिति को कमज़ोर बनाने के प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है.

भारत और फिलीपींस मौजूदा, सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के मामले में लगातार खराब प्रदर्शन करते रहे हैं, और श्रम अधिकारों को कम करने से इस स्थिति में सुधार नहीं होगा. 

विश्व के अधिकतर देशों में, श्रमिक संगठनों के अधिकारों का सिलसिलेवार ढंग से क्षरण हुआ है और समय के साथ श्रमिक संगठनों के अधिकार और ताक़त कम होने की सच्चाई, केवल भारत तक सीमित नहीं है. पिछले कुछ दशकों में यह माना गया है कि फिलीपींस में औद्योगिक क्षेत्र में श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच मतभेदों व समस्याओं का शांतिपूर्वक हल निकलना मुख्य रूप से, विवादों के समाधान के प्रभावी तरीकों और बेहतर मध्यस्थता के ज़रिए संभव हो पाया है; हालांकि, हाल की कुछ घटनाओं ने इस बात की सटीकता पर संदेह पैदा किया है, और सभी पक्षों के लिए यह चिंता का विषय है. आलोचकों का मानना है कि, श्रमिकों के हड़ताल संबंधी अधिकारों का खत्म होना, इस तरह के सामूहिक आंदोलनों पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून और यूनियनों के खिलाफ हिंसा का उपयोग ही वास्तव में हड़ताल की कम होती घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार है. साल 2010 और 2016 के बीच, फिलीपींस में ट्रेड यूनियनों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन के 545 मामले सामने आए. वहीं भारत को भी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ बल प्रयोग को लेकर कई बार आलोचना का सामना करना पड़ा है.

समय के साथ, सामाजिक संवाद के मंचों में आई गिरावट और भारत व फिलीपींस जैसे देशों में मज़दूरों के लिए हड़ताल कर अपनी मांगों को सामने रखने या संगठित होकर अपनी बात कहने के विकल्पों का कानूनी रूप से कम होना, चिंता का विषय है. ये दोनों ही देश, 2020 में हुए अंतरराष्ट्रीय ट्रेड यूनियन परिसंघ के सूचकांक में- कर्मचारियों के काम करने के माहौल के आधार पर दुनिया के दस सबसे ख़राब देशों में शामिल हैं. यह सूची श्रमिकों के क्रूर दमन और उनके ख़िलाफ हुई हिंसा की घटनाओं के आधार पर बनाई जाती है. भारत और फिलीपींस मौजूदा, सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के मामले में लगातार खराब प्रदर्शन करते रहे हैं, और श्रम अधिकारों को कम करने से इस स्थिति में सुधार नहीं होगा. श्रमिकों की आवाज़ सुने जाने के बेहतर मंच और उनके उचित प्रतिनिधित्व के अभाव में, यदि शक्ति का संतुलन नियोक्ताओं के पक्ष में झुकता है, तो श्रमिक हित (सामाजिक सुरक्षा में सुधार, काम की बेहतर स्थिति, वेतन क़ानूनों का पालन) पिछड़ सकते हैं और व्यापारिक इकाइयों को भी विपरीत परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं. कमज़ोर श्रमिक संस्थान, यूनियनों और नियोक्ताओं से सहयोग से मिलने वाले परस्पर लाभ की संभावना को कम कर देते हैं, जिनके बारे में ऊपर हमने विस्तार से बात की. इसलिए, ट्रेड यूनियनों और त्रिपक्षीय समझौतों की संभावनाओं को मज़बूत किया जाना चाहिए और सभी हितधारकों के लाभ को सुनिश्चित करने के लिए उचित रूप से इन संस्थाओं का उपयोग किया जाना चाहिए.


Arka Chakrabarti कोलकाता स्थित ORF में इंटर्न है.

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