Published on Jan 28, 2021 Updated 0 Hours ago

दुनियाभर में पैदा हो रहे शीत युद्ध का यह दौर, चीन और दुनिया के बाक़ी देशों के बीच व्यापार संबंधों को लेकर, अनिवार्य रूप से डीकपलिंग यानी चीन पर आर्थिक निर्भरता को कम करने का महत्वपूर्ण घटनाक्रम लेकर आएगा.

चीन की दबाव की राजनीति के ख़िलाफ़, ज़रूरत है दबाव विरोधी गठबंधन की

चीन द्वारा विश्व के लगभग सभी देशों पर बनाए जा रहे व्यापारिक दबाव से पीड़ित देशों में ऑस्ट्रेलिया सब से नया देश है. बहुत हद तक संभव है कि कैनबरा चीन के इस दबाव के आगे झुकेगा नहीं, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में एक अन्य बात और भी अधिक महत्वपूर्ण है. चीन की ओर से दबाव की इस राजनीति और रणनीति का उपयोग करने में उस का उद्देश्य, ऑस्ट्रेलिया को झुकाने से कहीं अधिक आगे जाता है. इस घटनाक्रम का मक़सद दूसरे देशों को चीन की आक्रामकता का संदेश देना है, और उन्हें यह बताना है कि अगर वह बीजिंग की अवहेलना करते हैं तो ऑस्ट्रेलिया की तर्ज पर उन्हें भी विपरीत परिस्थितियों से गुज़रना होगा और कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आएगा. ऑस्ट्रेलिया, चीन के हाथों पीड़ित होने वाले देशों में अंतिम नहीं होगा, जब तक कि अन्य सभी देश, रक्षात्मक प्रतिक्रिया के रूप में एक ऐसा जवाबी गठबंधन बनाने के लिए साथ नहीं आते हैं, जो उन देशों को परस्पर सहयोग उपलब्ध कराए जिन पर राजनीतिक दबाव बनाने के लिए चीन व्यापार संबंधी रणनीतियों का उपयोग करता है. ध्यान रहे कि इस सब के बीच चीन ने दशकों पहले इस्तेमाल की जाने वाली सांस्कृतिक दबाव की रणनीति को एक बार फिर लागू करते हुए विदेशी नागरिकों को बंधक बनाने की शुरुआत भी कर दी है.

अलग-अलग देशों के बीच व्यापार से संबंधित विवाद जहां सामान्य बात हैं, वहीं चीन जो कर रहा है वह मौलिक रूप से एक अलग तरह की रणनीति है, क्योंकि वह स्पष्ट रूप से राजनीतिक लक्ष्यों से की गई कार्रवाई है. यह एक कोशिश है, उस स्थिति और तथ्य का फ़ायदा उठाने की जिस के तहत चीन इस बात को समझता है कि चीन के साथ ऑस्ट्रेलिया के आर्थिक संबंध, ऑस्ट्रेलिया के लिए जितने महत्वपूर्ण हैं उतने चीन के लिए नहीं. यानी आर्थिक मामलों को लेकर चीन पर ऑस्ट्रेलिया की निर्भरता, ऑस्ट्रेलिया से चीन को मिल रहे फ़ायदे से अधिक है. यह एक ऐसी स्थिति है जो कई दूसरे देशों के लिए भी समान है और चीन इन परिस्थितियों का फ़ायदा उठाने को तत्पर है. उदाहरण के लिए, चीन द्वारा “अनाधिकारिक रूप से” ऑस्ट्रेलिया के सामने रखी गई 14 मांगों की सूची में ज़्यादातर वो चीज़ें शामिल हैं जो ऑस्ट्रेलियाई आर्थिक तंत्र या व्यापार नीतियों से बाहर हैं. यह स्पष्ट रूप से राजनीतिक मांगों का एक समूह है, जिसमें कैनबरा को अपने शिक्षाविदों और स्वतंत्र प्रेस पर लगाम लगाने और चीन के विरोध में कुछ भी कहने से रोकने के लिए कहा गया है. इनमें विभिन्न मुद्दों पर बीजिंग की नीतियों पर ऑस्ट्रेलियाई शिक्षाविदों और प्रेस की टिप्पणियां शामिल हैं. ये मांग, भले ही असामान्य रूप से व्यापक है, लेकिन यह रणनीति नई नहीं है. चीन, पिछले एक दशक में कई बार इस तरह की रणनीतियों और तौर तरीक़ों का इस्तेमाल करता रहा है, लेकिन आमतौर पर किसी एक ही मुद्दे को लेकर.

अलग-अलग देशों के बीच व्यापार से संबंधित विवाद जहां सामान्य बात हैं, वहीं चीन जो कर रहा है वह मौलिक रूप से एक अलग तरह की रणनीति है, क्योंकि वह स्पष्ट रूप से राजनीतिक लक्ष्यों से की गई कार्रवाई है. यह एक कोशिश है, उस स्थिति और तथ्य का फ़ायदा उठाने की जिस के तहत चीन इस बात को समझता है कि चीन के साथ ऑस्ट्रेलिया के आर्थिक संबंध, ऑस्ट्रेलिया के लिए जितने महत्वपूर्ण हैं उतने चीन के लिए नहीं. 

इनमें चीन की ख़िलाफ़त करने वाली चीनी कार्यकर्ता लियू शियाबो  को नोबेल शांति पुरस्कार देने के लिए नॉर्वे को दंडित करना, दक्षिण कोरिया पर थाड मिसाइल रक्षा प्रणाली (THAAD, Air defense system) की तैनाती नहीं करने के लिए दबाव बनाना, क्योंकि थाड मिसाइल रक्षा प्रणाली एक उन्नत रडार सिस्टम है, जो चीन की सैन्य गतिविधियों पर नज़र रखने में सक्षम है और कनाडा के नागरिकों को बंधक बनाने के ज़रिए, हुआवेई के संस्थापक की बेटी और कंपनी के कार्यकारी के रूप में मेंग वानझू को छोड़ने के लिए कनाडा को मजबूर करने का प्रयास शामिल है. चीन ने कई अन्य देशों में भी इस तरह की कार्रवाइयों को अंजाम दिया है. ऑस्ट्रेलिया के मामले में, इनमें से किसी भी परिदृश्य का व्यापार संबंधी असहमति से कोई लेना-देना नहीं था. चीन के माध्यम से रखी गई सभी मांगे राजनीतिक थीं. वहीं अन्य देशों के मामले में भी इन देशों की व्यापार क्षेत्र में कमज़ोरी का फ़ायदा उठाने की एक कोशिश थी, जिनके तहत विदेशों नागरिकों को बंधक तक बनाया गया. चीन द्वारा किए गए इस तरह के कई प्रयास असफल रहे हैं, लेकिन जब यह विफल हो जाते हैं, तब भी चीन की ओर से यह संकेत जाता है कि किसी भी देश को चीन का विरोध करने की एक क़ीमत चुकानी होगी. इस तरह की ज़बरदस्ती चीन के लिए बिना किसी लागत एक आसान रणनीति है, और यही एक वजह है कि चीन बार बार इसका इस्तेमाल करता है, और पीड़ित देशों को इस रणनीति का जवाब देने के लिए हर तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

कई देश, विशेष रूप से वह देश जो पश्चिमी उदार व्यापार प्रणाली का हिस्सा हैं, इस रणनीति का सामना करने को लेकर व्यवस्था जनित रूप से कमज़ोर हैं. इसका पहला कारण यह है कि ऑस्ट्रेलिया की तरह, उनके पास मज़बूत घरेलू व्यवसाय लॉबी है, जो अपने फ़ायदे के तौर पर इस तरह के दबाव के आगे झुकने के लिए सरकारों पर दबाव डालती है. ऑस्ट्रेलिया में इन दिनों हम व्यापक स्तर पर जो आंतरिक लड़ाई देख रहे हैं उसके तहत व्यापारिक समुदाय, व्यापार से जुड़े प्रभुत्वशाली वर्ग और अन्य रणनीतिक इकाईयों का जिस तरह सरकार से सामना हो रहा है, वह इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण है. इन व्यापारिक समुदायों के उलट, आमतौर पर सरकारें ही चीन के व्यवहार को लेकर अधिक से अधिक चिंतित होती हैं.

एक अन्य कारण यह है कि इनमें से अधिकांश देशों ने उस विचारधारा को पूरी तरह अपना लिया है जो राजनीति और अर्थशास्त्र के बीच बेहद महीन फ़र्क रखती है. इन देशों के लिए उदार व्यापार का मॉडल अब हर रूप में उनकी आंतरिक व्यवस्था का हिस्सा है. एक रणनीति के रूप में यह प्रणाली राजनीतिक व आर्थिक फलक में एक कृत्रिम भेद रखती है. जबकि ज़मीनी स्तर पर राजनीति और आर्थिक नीतियों में यह भेद संभव नहीं है. तार्किक रूप से यह कभी भी सच नहीं था, लेकिन यह एक बेहतर और आसान तरीका था जिसने इस व्यवस्था में शामिल सभी लोगों को तब तक समृद्ध होने की अनुमति दी जब तक कि इन भागीदारों के बीच कोई राजनीतिक असहमति पैदा नहीं हुई. व्यापार हमेशा केवल राजनीतिक समर्थन के साथ ही फलता-फूलता रहा है, और स्थितियों के बदलने के साथ यह सहयोग व समर्थन भी बदल सकता है. ऐसा कई बार हो चुका है, लेकिन यह एक ऐसा सबक है, जिसे एक बार फिर से सीखने और लगातार याद रखे जाने की ज़रूरत है.

दूसरी ओर, यही एक कारण है कि भारत, चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाने और अपने निवेश को प्रतिबंधित कर, चीन की आक्रामकता का प्रतिकार करने की आसान रणनीति अपनाने में सक्षम रहा है. भारत भले ही उदारवादी व्यापार मंत्र का उच्चारण करता है, लेकिन वह इस दौड़ में नया है और संकुचित इच्छाशक्ति के साथ ही उदार व्यापारिक नीतियों को अपनाने के क्षेत्र में उतरा है. इस मामले में भारत की सहज स्थिति ‘प्रबंधित’ व्यापार को लेकर है. यही वजह है कि वह देश जिन्होंने राजनीति मुक्त उदार व्यापार को सहज रूप से अपनाया था उन्हें चीन की रणनीतियों को समझने और उनका जवाब देने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है.

चीनी दबाव से निपटने की रणनीति

अब तक, चीन के दबाव को झेल रहे लगभग हर देश ने इस मामले में अकेले ही चीन के साथ बातचीत की है और इन मामलों से निपटने कोशिश की है. यह ठीक वैसा ही जैसा दो व्यापार करने वाले राज्यों के बीच किसी व्यापार विवाद के दौरान होता है. ऑस्ट्रेलिया के मामले में विश्व के अन्य देशों के बीच उसके लिए समर्थन लगातार बढ़ रहा है और यह एक ऐसा नैतिक उपाय है जो ऑस्ट्रेलिया या किसी भी अन्य लक्षित देश को किसी व्यावहारिक राहत के मुक़ाबले कहीं अधिक सहायता प्रदान करेगा. इस परिप्रेक्ष्य में यह जानना ज़रूरी है कि चीन को आर्थिक रूप से अलग-थलग करने को लेकर कुछ चर्चाएं हुई हैं, हालांकि, जैसा कि मैंने कहीं और भी कहा है, कि दुनियाभर में एक नए तरह के शीत युद्ध की शुरुआत के इस दौर में, इस तरह की डिकंपलिंग यानी आर्थिक रूप से चीन पर निर्भरता को कम करना लगभग ज़रूरी है, लेकिन यह बहुत तेज़ी किया जाना संभव नहीं है. चीन के साथ अनिवार्य रूप से औपनिवेशिक-प्रकार के संबंध रखने वाली अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्गठन करना यानी कच्चे माल का निर्यात और निर्मित वस्तुओं का आयात, आसान नहीं होगा. ऐसे में राजनीतिक ज़बरदस्ती के रूप में व्यापार को दबाव की रणनीति की तरह इस्तेमाल करने की चीन की कार्रवाई से निपटने के लिए एक नई तरह की त्वरित प्रतिक्रिया की ज़रूरत है.

दबाव विरोधी गठबंधन एक कारगर उपाय

इस तरह की त्वरित प्रतिक्रिया उन देशों को एक साथ लाने को लेकर हो सकती है जिन्होंने चीन के व्यापार संबंधी दबाव का सामना किया है या फिर वह इस तरह के दबाव का अगला पड़ाव हो सकते हैं. इस तरह का एक जवाबी गठबंधन को स्थापित करना, जो चीन की दबाव की राजनीति व रणनीति का सामना करे (counter-coercion coalition) आसान और त्वरित हो सकता है. उदाहरण के लिए, चतुर्भुज सुरक्षा वार्ता जिसे ‘क्वॉड’ यानी क्वाड्रिलेटरल-सिक्योरिटी डायलॉग (Quadrilateral security dialogue) के नाम से जाना जाता है, के माध्यम से चर्चा का एक नया प्रारूप खोजाना. विस्तृत आदर्शवादी सिद्धांतों के समर्थन में इस तरह के गठबंधनों को अस्तित्व में लाना कोई नई बात नहीं है. उदाहरण के लिए, परमाणु अप्रसार व्यवस्था (nuclear non-proliferation regime) को एनएसजी समूह यानी परमाणु आपूर्तिकर्ता विनिमय समूह (Nuclear Suppliers’ Group) और एमटीसीआर यानी मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (Missile Technology Control Regime) जैसे कई देशों के मिलेजुले छोटे समूह ने टक्कर दी थी. इस के अलावा कोकॉम (Coordinating Committee for Multilateral Export, COCOM ) नामक एक संगठन, जो उन पश्चिमी देशों का एक समूह था जिन्होंने शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ को उच्च प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को सीमित करने का काम किया, इस श्रेणी में एक और उदाहरण है.

सैद्धांतिक रूप में, यह बात ग़लत नहीं कि इस तरह के अनौपचारिक गठबंधन को अन्य क्षेत्रों जैसे व्यापार से संबंधित मामलों में दखल के लिए इस्तेमाल किया जाए. यह गठबंधन उस वक्त साथ खड़े रहने और मिलकर काम करने का निर्णय ले सकता है, जब चीन व्यापार के ज़रिए किसी देश को धमकाने या उस पर दबाव बनाने का काम करे. 

सैद्धांतिक रूप में, यह बात ग़लत नहीं कि इस तरह के अनौपचारिक गठबंधन को अन्य क्षेत्रों जैसे व्यापार से संबंधित मामलों में दखल के लिए इस्तेमाल किया जाए. यह गठबंधन उस वक्त साथ खड़े रहने और मिलकर काम करने का निर्णय ले सकता है, जब चीन व्यापार के ज़रिए किसी देश को धमकाने या उस पर दबाव बनाने का काम करे. ऐसे में गठबंधन को पीड़ित देश के समर्थन में संयुक्त घोषणाएं करनी चाहिए जो इस बात का निर्धारण करें कि राजनीतिक ज़बरदस्ती के जवाब में किस तरह की कार्रवाई की जानी चाहिए. लेकिन इसके अलावा गठबंधन के सदस्य देशों को पीड़ित देश की भौतिक रूप से भी मदद करनी होगी. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गठबंधन को चीन के खिलाफ संयुक्त कार्रवाई करनी चाहिए, जैसे कि चीनी निर्यात या अन्य उपायों पर दण्डात्मक प्रतिशोधी शुल्क (punitive retaliatory tariffs) लगाना.

इस तरह का गठबंधन उन देशों को यह बताएगा जो चीन का अगला लक्ष्य हो सकते हैं कि वो अकेले नहीं हैं और यह गठबंधन और इसके सदस्य उनके साथ खड़े होंगे. यह चीन को भी इस बात का अहसास कराएगा कि वह किसी भी देश को व्यक्तिगत रूप से सज़ा का भागी नहीं बना सकता या उस पर निशाना नहीं साध सकता और ऐसा किए जाने पर वह गठबंधन से सामूहिक प्रतिक्रिया का हक़दार होगा. इस गठबंधन का संयुक्त प्रयास यह ज़ाहिर करना होगा कि बीजिंग के इस तरह के प्रयास सफल नहीं होंगे. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह गठबंधन इस बात को साबित करेगा कि व्यापार संबंधी दबाव और कमज़ोरियां राजनीतिक दबाव का कारण नहीं बन सकतीं.

फिर भी, ऐसे खतरे हैं जिनसे बचने की ज़रूरत है. यह ज़्यादातर ऐसे प्रलोभनों के बारे में जिन्हें इस तरह के कार्यों को नियोजित करते समय पूरी तरह दूर रखा जाना चाहिए. सबसे पहला यह कि, इसका उपयोग केवल प्रतिक्रियात्मक रूप से किया जाना चाहिए, अन्य देशों में चीन की ज़बरदस्ती या दबाव की कार्रवाइयों के जवाब में. इसकी वजह है कि यह नहीं भुलाया जा सकता कि भले ही यह गठबंधन एक प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई है, फिर भी यह चीन के आगे के निर्णयों को प्रभावित करेगी क्योंकि वह अपने अगले क़दम को इस गठबंधन के मिलजुले फ़ैसलों के आधार पर तय करेगा. इसी तरह यह तथ्य कि इस तरह की कार्रवाई से होने वाले असर को झेलने को लेकर कोई देश अकेला नहीं होगा, गठबंधन के सदस्य देशों के रवैये को भी बदलेगा. यह दोनों ही महत्वपूर्ण उद्देश्य हैं.

गठबंधन रक्षात्मक होना चाहिए

दूसरा, इस गठबंधन को रक्षात्मक होना चाहिए. इस तरह के गठबंधन का उपयोग चीन के विभिन्न देशों के साथ होने वाले सामान्य व्यापार विवादों के लिए नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इसे एक अपमानजनक कार्रवाई माना जाएगा. उदाहरण के लिए, कई देशों के सामने चीनी बाज़ार तक पहुंच सुनिश्चित करने की समस्या है. भारत ने लंबे समय से चीनी बाज़ार में भारतीय फार्मास्यूटिकल्स यानी दवा कंपनियों पर प्रतिबंधों को ले कर शिकायत की है. इसके अलावा कई विदेशी व्यवसायों ने चीन में घरेलू स्तर पर कड़े विनियमन की समस्या का सामना किया है, जैसे विदेशी व्यवसायों को चीन की घरेलू कंपनियों को अनिवार्य रूप से भागीदार बनाने के लिए मजबूर करना. भले ही यह तौर तरीक़े समस्याग्रस्त और आपत्तिजनक हैं, लेकिन यह अन्य देशों में चीन द्वारा व्यापार को राजनीतिक उपकरण का रूप में इस्तेमाल किए जाने से अलग हैं. चीनी दबाव से निपटने की प्रतिक्रिया के रूप में बनाए गए गठबंधन को इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए इस्तेमाल करना या उस का विस्तार करना अवांछित होगा और अंततः अपने लक्ष्य से भटकने वाली कार्रवाई के रूप में साबित होगा क्योंकि यह ‘विरोध’ के बजाय, ‘दबाव’ का प्रतिनिधित्व करेगा.

यह विशेष रूप से इस तरह के समूहों द्वारा राजनीतिक समस्याओं को संबोधित करने की आकांक्षा पर लागू होता है. इस संगठन के सदस्य इस तरह के उपायों के ज़रिए चीन में मौजूद अन्य समस्याओं जैसे कि मानवाधिकारों का उल्लंघन, या ताइवान को धमकाने की कार्रवाई के ख़िलाफ़ एकजुट होने और काम करने को तत्पर हो सकते हैं, खासकर अगर ऐसे गठबंधन को कुछ शुरुआती सफलता मिलती है. लेकिन इस तरह की तत्परता दिखाना एक ग़लती होगी, क्योंकि यह इस संगठन के मूल प्रयोजन और उसके दायरे से बाहर जाने की कार्रवाई होगी. इसके अलावा, चीन द्वारा किए जा रहे इस तरह के व्यवहार, जिसे सभ्य दुनिया के अधिकांश हिस्सों में घृणित माना जाता है, से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर अन्य उपकरण और मंच मौजूद हैं,

दुनियाभर में पैदा हो रहे शीत युद्ध का यह दौर, चीन और दुनिया के बाक़ी देशों के बीच व्यापार संबंधों को लेकर, अनिवार्य रूप से डीकपलिंग यानी चीन पर आर्थिक निर्भरता को कम करने का महत्वपूर्ण घटनाक्रम लेकर आएगा. बीजिंग की अदूरदर्शिता और इस मामले को लेकर उसका अतिवाद इस प्रक्रिया को और तेज़ कर रहा है. ऐसे में चीन जो भी बहाना बनाए, लेकिन हर देश के पास ख़ुद को सुरक्षित रखने का अधिकार है. मौजूदा परिस्थितियों में ऐसा करने का सबसे बेहतर तरीक़ा है, एकजुट हो कर यह काम करना.

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