Author : Abhishek Mishra

Published on Mar 29, 2024 Updated 0 Hours ago

चीन की ओर से लगातार बनाए जा रहे इस दबाव के चलते, वर्तमान में केवल 15 देश ताइवान के साथ राजनयिक संबंध बनाए हुए हैं और अफ्रीकी महाद्वीप में एस्वाटीनी एक मात्र ऐसा राज्य है, जो ताइपे का भागीदार है.

आख़िर क्यों चीन की नज़रों में खटक रही है ताइवान और अफ्रीका की दोस्ती?

इस साल 26 फरवरी को हुए एक समझौते के आधार पर, 17 अगस्त को रिपब्लिक ऑफ चाइना (ताइवान) ने सोमालीलैंड की राजधानी हार्गेसा में एक प्रतिनिधि कार्यालय खोला. सोमालीलैंड सोमालिया गणराज्य के भीतर एक स्व-घोषित स्वायत्त क्षेत्र है, जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त नहीं है. पारस्परिक रूप से इसी तर्ज पर सोमालीलैंड भी सितंबर में ताइपे में “सोमालीलैंड प्रतिनिधि कार्यालय” स्थापित करेगा. साल 2016 में राष्ट्रप्रति साई इंग-वेन के पदभार संभालाने के दौरान, ताइवान के प्रभावहीन राजनयिक संबंधों को देखते हुए यह घटनाक्रम अब एक नई दिशा की ओर संकेत करते है. सीधे तौर पर देखें तो, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग ऐतिहासिक पहचान और स्थिति के बावजूद, ताइवान और सोमालीलैंड अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने को तत्पर दो राजनीतिक इकाई हैं.

इसमें कोई हैरत नहीं कि इस घटनाक्रम ने दो स्तरों पर एक कूटनीतिक विवाद को जन्म दिया है. पहला चीन की तरफ से जो ताइवान क्षेत्र को चीन का अभिन्न हिस्सा मानता है, और दूसरा सोमालिया की ओर से, जो सोमालीलैंड को उसी नज़रिए से देखता है. पिछले पचास वर्षों से भी ज़्यादा समय से चीनी सरकार ने लगातार ‘वन चाइना’ सिद्धांत का पालन किया है, और ताइवान को चीन से अलग करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया है. चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिजियान झाओ ने ताइवान क्षेत्र और सोमालीलैंड के बीच किसी भी तरह के आधिकारिक या राजनीतिक संपर्क का विरोध किया है. इस संबंध में बयान जारी करते हुए उन्होंने ताइवान को चेतावनी देते हुए कहा कि:

“ऐसी परिस्थितियों में मानमानी छूट लेने की ग़लती न करें, क्योंकि ये छूट नहीं दी गई है. ‘वन-चाइना’ के सिद्धांत के ख़िलाफ़ जाने वाले अपना हाथ जला बैठेगें और उन्हें कड़वे नतीजे भुगतने होंगे.” इसी तरह, सोमालिया ने भी ताइवान को सोमालिया की एकता और अखंडता में दख़ल देने के ख़िलाफ़ चेताया और आधिकारिक माध्यमों को दरकिनार न करने की चेतावनी दी. अगर जरूरत पड़ी तो सोमालिया गणराज्य, देश की अखंडता की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और आवश्यक उपायों का सहारा लेगा.

पिछले पचास वर्षों से भी ज़्यादा समय से चीनी सरकार ने लगातार ‘वन चाइना’ सिद्धांत का पालन किया है, और ताइवान को चीन से अलग करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया है.

अपनी ओर से, ताइवान के विदेश मंत्रालय ने बीजिंग की निंदा की और हार्गेसा में प्रतिनिधि कार्यालय स्थापित करने के अपने क़दम का बचाव करते हुए कहा कि ताइवान, लोकतंत्र व शांति को महत्व देने वाले हर देश के साथ बेहतर संबंध विकसित करना चाहता है, और ताइवान-सोमालीलैंड साझेदारी, समान आदर्शों, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, न्याय, और कानून के शासन संबंधी मूल्यों से बंधी हुई है.

इस संबंध में दोनों तरफ से किए गए ट्वीट्स और जारी की गई प्रेस रिलीज़ सावधानीपूर्वक तैयार की गई हैं, अपने कलेवर में अस्पष्ट भी हैं और द्वयर्थक भी. ध्यान देने योग्य बात यह है कि यद्यपि एक-दूसरे के राज्य-क्षेत्र को लेकर एक तरह की ‘मान्यता’ इन संदेशों में झलकती है, फिर भी ताइवान और सोमालीलैंड द्वारा सीधे तौर पर राजनीतिक मान्यता संबंधी कोई भी बात नहीं कही गई है. इससे यह पता चलता है कि यह दोनों ही इस मामले में पूरी सावधानी बरत रहे हैं, और वो अपने संबंधों को लेकर धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहते हैं, बिना पहचान या औपचारिक मान्यता संबंधी कोई भी चर्चा छेड़े.

धीमी गति से क़दम उठाते हुए, दोनों इस तरह आगे बढ़ रहे हैं कि उनकी किसी भी हरकत से चीन के साथ उनके संबंध दुश्मनी की क़गार पर न पहुंचे. ताइवान और सोमालीलैंड के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित होना बाकी है, सच ये है कि मान्यता संबंधी चर्चा और राजनयिक संबंध साथ-साथ नहीं चल सकते. राजनीतिक संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए यह समझना ज़रूरी है कि ये दोनों अलग प्रक्रियाएं हैं. ऐसे में दोनों राज्यों द्वारा स्थापित प्रतिनिधि कार्यालय ‘दूतावास’ नहीं हैं, लेकिन द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने के लिए एक राजनयिक तंत्र ज़रूर हैं. प्रतिनिधि कार्यालयों के आदान-प्रदान को किसी भी रूप में राजनयिक मान्यता के रूप में सुनिश्चित नहीं किया जा सकता.

ताइपे के लिए उन देशों में भी व्यापार कार्यालय और वाणिज्यिक प्रतिनिधि होना एक आम बात है, जिन देशों से उसके कोई राजनयिक संबंध नहीं है. अफ्रीका, जिसने ताइपे को स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता नहीं दी है, वहां ताइपे के पांच व्यापार कार्यालय हैं, ख़ासतौर पर दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया में जो अफ्रीका की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं. साल 2019 में, ताइवान के उन देशों में 93 प्रतिनिधि कार्यालय थे जिनके साथ उसके कोई औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं थे. इसलिए, प्रतिनिधि कार्यालयों की स्थापना को सोमालीलैंड और ताइवान अगर केवल व्यावसायिक संबंधों तक ही सीमित रखते हैं, बजाय किसी भी तरह के राजनीतिक या कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के, तो यह बहुत मुमकिन है कि बीजिंग, सोमालीलैंड और अफ्रीका के दूसरे इलाकों में ताइवान की वाणिज्यिक उपस्थिति को स्वीकृति दे दे.

प्रतिनिधि कार्यालयों की स्थापना को सोमालीलैंड और ताइवान अगर केवल व्यावसायिक संबंधों तक ही सीमित रखते हैं, बजाय किसी भी तरह के राजनीतिक या कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के, तो यह बहुत मुमकिन है कि बीजिंग, सोमालीलैंड और अफ्रीका के दूसरे इलाकों में ताइवान की वाणिज्यिक उपस्थिति को स्वीकृति दे दे.

साल 2000 के बाद से, चीन अफ्रीका सहयोग मंच (एफओसीएसी) के माध्यम से अफ्रीकी देशों ने ताइवान को दरकिनार कर चीन को बढ़-चढ़ कर मान्यता दी है. एक के बाद एक लाइबेरिया, चाड, सेनेगल, मलावी, गाम्बिया, साओ टोम व प्रिंसिप और बुर्किना फासो जैसे देशों ने ताइवान को छोड़कर चीन के साथ गठजोड़ करने का चुनाव किया है. अफ्रीकी दृष्टिकोण से देखें तो चीन के साथ संबंध पबरू तरह से व्यावहारिक और आर्थिक दृष्टि से प्रेरित हैं. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, चीन के साथ संबंध विकसित करना, अफ्रीकी देशों को पश्चिम में पूर्ववर्ती औपनिवेशिक शक्तियों का एक विकल्प प्रदान करता है. ‘ग्लोबल साउथ’ के एक प्रमुख सदस्य के रूप में बीजिंग की साख भी इस मामले में उसके लिए सकारात्मक साबित होती है. बीजिंग ने ताइपे के राजनयिक संबंधों को धता बताने, एक राष्ट्र-राज्य के रूप में उसकी स्थिति को कम करने और ताइवान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अलग कर, ताइवान की सरकार को बातचीत के लिए मजबूर करने के उद्देश्य से, अफ्रीका के विकासशील देशों को अपनी वित्तीय ताकत का लोहा मनवाते हुए, आर्थिक सहायता की पेशकश की है. चीन की ओर से लगातार बनाए जा रहे इस दबाव के चलते, वर्तमान में केवल 15 देश ताइवान के साथ राजनयिक संबंध बनाए हुए हैं और अफ्रीकी महाद्वीप में एस्वाटीनी (Kingdom of Eswatini) एक मात्र ऐसा राज्य है, जो ताइपे का भागीदार है.

1960 के शुरुआती दशक में, जब अफ्रीकी देशों ने स्वतंत्रता प्राप्त की, बीजिंग और ताइपे ने अपने-अपने स्तर पर अफ्रीकी राजनीतिक आंदोलनों का समर्थन कर इन देशों से मान्यता प्राप्त करने और उनके साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने की कोशिशें कीं. ताइवान ने शुरुआत में अफ्रीकी किसानों की ओर ध्यान दिया और कृषि सहायता और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के ज़रिए उनके साथ जानकारी साझा कर उन्हें तकनीकी मदद की पेशकश की. इसका मकसद था अफ्रीकी किसानों को चावल में उगाने मदद करना और कृषि की दृष्टि से उन्हें आत्मनिर्भर बनाना. इस दौरान अफ्रीकी देशों द्वारा प्रतिनिधिमंडलों की मेज़बानी से जुड़े कई कार्यक्रमों को ताइवान ने आर्थिक रूप से सहायता दी. हालांकि, यह संबंध समय के साथ फीके पड़ते गए और विकास के लिए की गई यह आर्थिक मदद राजनयिक संबंधों में नहीं बदल पाई. इसके चलते साल 1971 में ताइवान को संयुक्त राष्ट्र से निकलना पड़ा. उस समय, 27 अफ्रीकी देशों ने ताइवान को बेदखल किए जाने संबंधी प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया था, जिसे एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में ताइवान की वैधता को नकारे जाने के रूप में देखा गया. तब से चीन लगातार फ़ायदेमंद स्थिति में रहा है, और उसने अफ्रीकी महाद्वीप में अपनी राजनीतिक, राजनयिक और आर्थिक उपस्थिति को सफलतापूर्वक मज़बूत किया है.

1960 के शुरुआती दशक में, जब अफ्रीकी देशों ने स्वतंत्रता प्राप्त की, बीजिंग और ताइपे ने अपने-अपने स्तर पर अफ्रीकी राजनीतिक आंदोलनों का समर्थन कर इन देशों से मान्यता प्राप्त करने और उनके साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने की कोशिशें कीं

अफ्रीकी देशों ने लगातार इस बात पर ज़ोर दिया है कि वो शीत युद्ध के ऐसे परिदृश्य में नहीं फंसना चाहते, जहां उन्हें अमेरिका और चीन के बीच किसी एक को चुनने या किसी एक का पक्ष लेने के लिए मजबूर होना पड़े. मूल रूप से उनका उद्देश्य अफ्रीकी राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना और अपने नागरिकों को बढ़ावा देना है. हालांकि, चीन कुछ मुद्दों को लेकर बेहद संवेदनशील है. चीन-अफ्रीका परियोजना के सह-संस्थापक एरिक ओलिंएडर के शब्दों में इन मुद्दों को “4THKXJ” के संक्षिप्त सिद्धांत के रूप में समझा जा सकता है.

T #1: थियानमेन स्क्वायर (Tiananmen Square)

T #2: द कम्युनिस्ट पार्टी (The Communist Party)

T #3: ताइवान (Taiwan)

T #4: तिब्बत (Tibet)

हॉगकॉग (Hong Kong)

शिनजियांग (Xinjiang)

यह छह संवेदनशील मुद्दे चीन की तथाकथित “लाल रेखाएं” (red lines) हैं, जो यदि पार की जाएं तो चीन की ओर से तत्काल प्रतिक्रिया होगी और द्विपक्षीय संबंधों पर सीधा और नकारात्मक असर पड़ेगा. अफ्रीकी हितधारक जितनी जल्दी, अपने चीनी समकक्षों की इन प्राथमिकताओं को समझ जाएं और उन्हें बातचीत के पटल पर ले आएं, चीन-अफ्रीका साझेदारी के लिए उतना ही बेहतर होगा.

इस बीच, अफ्रीका में ताइवान-सोमालीलैंड समझौते को लेकर अलग-अलग और विपरीत धारणाएं उभरने लगी हैं. कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि अमेरिका और चीन के बीच उभरते तनावों के मद्देनज़र सोमालीलैंड एक प्रमुख केंद्र बन कर उभरेगा, वह अदन की खाड़ी में विदेशी ताक़तों को आकर्षित करेगा और अफ्रीका के मौजूदा राजनीतिक हालात को और जटिल बनाएगा, वहीं दूसरे जानकार यह मानते हैं कि चीन को धता बताने के ख़तरों को जानते हुए, और यह समझते हुए कि चीन को नाराज़ करने के क्या राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं, सोमालीलैंड का अपनी शर्तों और अपने बलबूते पर आगे बढ़ना एक सरहानीय क़दम है.

ताइवान आर्थिक रूप से एक महत्वपूर्ण इकाई है, और इस समझौते के माध्यम से वह कृषि, ऊर्जा, मत्स्य पालन, खनन, जन-स्वास्थ्य, शिक्षा और सूचना और संचार प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में निवेश करके सोमालीलैंड की अर्थव्यवस्था को विकसित करने में मदद कर सकता है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि ताइवान और सोमालीलैंड दोनों निश्चित रूप से अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपने लिए मान्यता चाहते हैं और इस संबंध में उठाए गए किसी भी क़दम का वो स्वागत करेंगे. हालांकि, इस परिदृश्य में वो न तो एक दूसरे की इस इच्छा को पूरा कर सकते हैं, और न ही व्यापक रूप से अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस संबंध में प्रभावित या प्रेरित कर सकते हैं. मान्यता को लेकर अनावश्यक तनाव पैदा करना उनके लिए सही क़दम नहीं है. ऐसे में ताइवान और सोमालीलैंड के बीच समझौते से मिलने वाले लाभ विशुद्ध रूप से आर्थिक हैं. ताइवान आर्थिक रूप से एक महत्वपूर्ण इकाई है, और इस समझौते के माध्यम से वह कृषि, ऊर्जा, मत्स्य पालन, खनन, जन-स्वास्थ्य, शिक्षा और सूचना और संचार प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में निवेश करके सोमालीलैंड की अर्थव्यवस्था को विकसित करने में मदद कर सकता है. इसी तरह, लाल सागर और उसके प्राकृतिक संसाधनों पर सोमालीलैंड की रणनीतिक पकड़, ताइवान को अफ्रीकी महाद्वीप में पैठ बनाने में मदद कर सकती है.

औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त करने का विचार भले ही बेहद सुखद हो, ख़ासतौर पर उन लोगों के लिए जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गैर मान्यता प्राप्त क्षेत्रों में रह रहे हैं, लेकिन यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि कई लोग मानते हैं. अंततः रिश्तों की ज़मीनी हक़ीकत और असल ज़िंदगी में उनका बेहतर होना ही मायने रखता है, बजाय इसके कि केवल औपचारिक दृष्टि से वो परिमार्जित हों. जो बात असल में मायने रखती है वह है सहयोग की भावना, जो देशों के बीच संबंधों को लंबे समय तक कायम रखती है, और जिसके आधार पर यह तय किया जाता है कि दोनों देश एक दूसरे के लिए भविष्य में किस तरह के ठोस कदम उठाएंगे. ताइवान का सोमालीलैंड में निवेश और सोमालीलैंड द्वारा ताइवान को आर्थिक रूप से अफ्रीका में पैर जमाने का अवसर देना, ताइवान और सोमालीलैंड दोनों के लिए परस्पर रूप से लाभकारी और समझौतावादी क़दम है. मौजूदा स्थिति और इस स्तर पर, यह ताइवान और सोमालीलैंड दोनों के लिए, किसी भी औपचारिक और पारस्परिक मान्यता से अधिक महत्वपूर्ण और सार्थक है.

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