Author : Anchal Vohra

Published on Apr 02, 2020 Updated 0 Hours ago

आज ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड और हिज़्बुल्लाह आपसी तालमेल से अपनी तमाम शाखाओं के एकीकरण में जुटे हैं, ताकि इराक़ से अमेरिका को निकाल कर बाहर फेंक सकें. हो सकता है कि वो इसमें सफल न हो सकें. लेकिन, इससे ईरान के उन शिया लड़ाकों का हौसला तो ज़रूर बढ़ेगा.

सुलेमानी की हत्या के बाद अपने सहयोगी हिज़्बुल्लाह के भरोसे है ईरान!

तीन जनवरी 2020 को अमेरिका ने ईरान के एक टॉप जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या कर दी थी. अमेरिका ने एक ड्रोन हमले के ज़रिये जनरल सुलेमानी को निशाना बनाया था. और बाद में कहा कि जनरल सुलेमानी से अमेरिका की सुरक्षा को फ़ौरी तौर पर ख़तरा था. जनरल सुलेमानी की हत्या को लगभग तीन महीने हो चले हैं. लेकिन, अमेरिका की डोनाल्ड ट्रंप सरकार, उनकी हत्या के अपने तर्क को सही ठहराने के लिए एक भी भरोसे लायक़ सबूत नहीं पेश कर सकी है. इसके बजाय, जनरल सुलेमानी की हत्या को, ईरान के ऊपर अधिकतम दबाव बनाने वाली रणनीति के हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है. अपनी इस नीति के माध्यम से अमेरिका, मध्य-पूर्व में इज़राइल के आस-पास के क्षेत्रों में ईरान के बढ़ते प्रभाव को नियंत्रित करना चाहता है.

जनरल सुलेमानी, ईरान के सबसे महत्वपूर्ण सेनापतियों में से एक थे. उन्हें, तेहरान से इराक़ और सीरिया से होते हुए भू-मध्य सागर तक, ईरान का प्रभाव क्षेत्र विकसित करने का उत्तरदायित्व दिया गया था. सुलेमानी ने इराक़, सीरिया, यमन और लेबनान में शिया लड़ाकों के कई संगठन खड़े किए थे, जो ईरान के इशारे पर काम करते थे. और अक्सर, जनरल सुलेमानी, आपस में लड़ रहे ईरान समर्थक संगठनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका भी अदा करते थे. जनरल सुलेमानी, ईरान की सेना की मशहूर इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) के प्रमुख थे. और क़ुद्स फ़ोर्स के भी कमांडर थे. क़ुद्स फ़ोर्स, ईरान की सेना का ऐसा दस्ता है, जो देश में ग़ैर पारंपरिक युद्धों और ख़ुफ़िया अभियानों का नेतृत्व करता है.

इस ख़ुफ़िया जनरल की हत्या करके अमरीका ने ईरान के पूरे आईआरजीसी और गोपनीय तंत्र को ये संदेश दिया है कि अगला निशाना कोई भी हो सकता है. जनरल सुलेमानी ऐसे कमांडर थे, जिन्होंने पूरे मध्य-पूर्व में शिया अर्धसैनिक दस्तों का ऐसा जाल बुना था, जिन्होंने इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ जीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया. अपने काम के सिलसिले में जनरल सुलेमानी अक्सर पूरे क्षेत्र में बड़े गोपनीय तरीक़े से आवागमन करते थे. जिसके बारे में किसी को कानो-कान ख़बर नहीं हो पाती थी. बग़दाद हवाई अड्डे पर 3 जनवरी को रात क़रीब एक बजे ड्रोन हमले से जो धमाका हुआ, उसने सिर्फ़ सुलेमानी की हत्या ही नहीं की. बल्कि, इस धमाके का प्रभाव पूरे मध्य-पूर्व के कोने-कोने में पड़ा. और इसका सबसे अधिक असर ईरान और उसके दोस्तों पर देखने को मिला.

जनरल सुलेमानी की हत्या से, शिया बहुल इराक़ कमोबेश अमेरिका के साथ युद्ध की स्थिति में पहुंच गया. इराक़ में, ईरान समर्थित शिया लड़ाकों के कई बड़े संगठन सक्रिय हैं. 2003 में इराक़ पर अमेरिकी हमले और सद्दाम हुसैन की हुक़ूमत के ख़ात्मे का सबसे अधिक लाभ ईरान को ही हुआ था. क्योंकि, सद्दाम हुसैन के बाद इराक़ में जो भी सरकार बनी, उसके अगुवा वो शिया नेता ही थे, जिन्हें ईरान बरसों से पाल-पोस रहा था. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में मध्य-पूर्व में ईरान का बढ़ता प्रभाव, अमेरिका के कट्टरपंथियों को खटकने भी लगा था. ये वो अमेरिकी तबक़ा था, जो बेक़ाबू होते ईरान को नियंत्रित करने की वक़ालत कर रहे थे. हालांकि, अधिकतर इराक़ी नागरिक न तो अमेरिका के पक्ष में थे और न ही ईरान के. सच तो ये है कि तेल के संसाधनों से भरपूर इराक़ लंबे समय से संघर्षों का शिकार है. यहां हाल ही में हुए जनता के विद्रोह की प्रमुख मांग यही थी कि इराक़ में विदेशी ताक़तों का हस्तक्षेप समाप्त हो.

अब ईरान को इस बात की चिंता सता रही है कि जनरल सुलेमानी की ग़ैर मौजूदगी में ये शिया लड़ाके आपस में लड़ कर बिखर न जाएं. इससे ईरान के हाथ से वो सारे जीते हुए इलाक़े निकल जाएंगे, जिन पर अभी उसका नियंत्रण है

लेकिन, ईरान के पाले हुए ये लड़ाके, इराक़ में सबसे ताक़तवर सैन्य दस्ते हैं. और इनका 2016 में इराक़ की सेना में विलय हो गया था. और, हालांकि आईएसआईएस के विरुद्ध संघर्ष के दौरान ये सभी शिया सैन्य संगठन आपस में एकजुट थे. लेकिन, इस्लामिक स्टेट की पराजय के बाद ये सभी शिया लड़ाकू दस्ते आपस में संघर्ष करने में लिप्त हैं. इसकी वजह, सरकार के प्रमुख पदों और विभागों पर क़ब्ज़े की लड़ाई है. जिससे कि अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके. जनरल सुलेमानी अक्सर इन शिया लड़ाकों के बीच मध्यस्थ की भूमिका अदा करते थे और ऐसे समाधान निकालते थे, जिससे इन संगठनों के प्रमुखों के व्यक्तिगत अहं को शांति मिले. और ईरान के हितों का भी संरक्षण होता रहे. लेकिन, सुलेमानी और उनके साथ ही इस हमले में एक प्रमुख शिया सेना के नेता अबू अल-मुहांदिस के मारे जाने से इराक़ के शिया दस्तों के बीच का टकराव और बढ़ गया है. अब ईरान को इस बात की चिंता सता रही है कि जनरल सुलेमानी की ग़ैर मौजूदगी में ये शिया लड़ाके आपस में लड़ कर बिखर न जाएं. इससे ईरान के हाथ से वो सारे जीते हुए इलाक़े निकल जाएंगे, जिन पर अभी उसका नियंत्रण है.

सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद के विरुद्ध संघर्षरत बाग़ियों से निपटने के लिए ईरान के एक और परोक्ष सैन्य संगठन ने ज़मीनी मोर्चा संभाला हुआ है. जबकि, रूस की वायुसेना, आसमान से असद की सेना की मदद कर रही है. जनरल सुलेमानी, सीरिया में इस संघर्ष के संयोजक की भूमिका अदा कर रहे थे. अब सीरिया में सुलेमानी की ग़ैर मौजूदगी में ईरान की चिंता ये है कि रूस उसकी स्थिति पर क़ाबिज़ न हो जाए. क्योंकि हो सकता है कि रूस इस संघर्ष का बिल्कुल अलग ही नतीजा निकालना चाहता हो. रूस के इज़राइल से भी अच्छे संबंध हैं. और, रूस ने इज़राइल को सीरिया में स्थित ईरान के ठिकानों पर बमबारी की भी इजाज़त दी है. जबकि ईरान की दृष्टि में इज़राइल उसके अस्तित्व के लिए ही ख़तरा है.

सुलेमानी की हत्या से पहले से ही ईरान की स्थिति अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण बहुत ख़राब थी. 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ वो परमाणु समझौता या ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (JCPOA)को तोड़ दिया था, जो ओबामा के शासन काल में हुआ था. ईरान को अपनी शर्तें मानने के लिए बाध्य करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उन आठ देशों को मिलने वाली छूट भी समाप्त कर दी थी, जो ईरान से तेल ख़रीद रहे थे. और जिनके कारण ईरान को अपनी अर्थव्यवस्था को चलाने में काफ़ी मदद मिल रही थी. ट्रंप का ईरान के लिए संदेश साफ़ था. उसने, इज़राइल के इर्द-गिर्द जो अपना प्रभाव क्षेत्र विकसित किया था, उनसे वो पीछे हट जाए.

फिर भी, अमेरिका से हर तरह का दबाव पड़ने के बावजूद ईरान अब भी प्रतिबंधों के आगे नहीं झुका है और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लगातार प्रयास कर रहा है. जनरल सुलेमानी की हत्या के एक दिन बाद ही, ईरान ने उनके डिप्टी, जनरल इस्माइल घानी को उनकी जगह क़ुद्स फ़ोर्स का प्रमुख नियुक्त किया. सैन्य संघर्षों और काउंटर इंटेलिजेंस में सुलेमानी जैसी महारत रखने वाले जनरल घानी को सुलेमानी की बराबरी का करिश्माई कमांडर नहीं माना जाता. और इस क्षेत्र में ईरान अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने का जो व्यापक अभियान चला रहा है, उसमें करिश्माई व्यक्तित्व होना ज़रूरी शर्त है. ताकि, अलग अलग हितों के लिए काम करने वाले ईरान के सभी छद्म संगठन, उसके इशारे पर एक व्यापक हित के लिए काम करें. इससे भी अधिक परेशानी की बात ये है कि जनरल इस्माइल घानी को अफ़ग़ानिस्तान का विशेषज्ञ माना जाता है. और वो अरबी ज़बान भी नहीं बोल पाते.

लेबनान की पिछली सरकार जिस गठबंधन की थी, उसका नेतृत्व हिज़्बुल्लाह के ही हाथों में था. और वहां अभी पिछले वर्ष अक्टूबर की बग़ावत के बाद जिस सरकार ने सत्ता संभाली है, उसे भी हिज़्बुल्लाह का समर्थन प्राप्त है

ऐसे में लग तो ये रहा है कि ईरान ने जनरल सुलेमानी के अधिकतर उत्तरदायित्व हसन नसरल्लाह को सौंप दिए हैं. नसरल्लाह, लेबनान के राजनीतिक और अर्ध सैनिक संगठन हिज़्बुल्लाह के महासचिव हैं. और वो इकलौते ऐसे नेता हैं जिनको जनरल सुलेमानी जैसा तजुर्बा भी है और उन्हें शिया अर्धसैनिक बलों के बीच सुलेमानी जैसा ही सम्मान भी प्राप्त है. हसन नसरल्लाह के नेतृत्व में हिज़्बुल्ला ने 2006 में न केवल इज़राइल की सेना को पीछे जाने को मजबूर किया था. बल्कि उन्होंने वर्ष 2008 में पहले ज़मीनी लड़ाई में सरकारी बलों को पराजित किया और फिर लेबनान की संसद पर भी क़ाबिज़ हो गए थे. लेबनान की पिछली सरकार जिस गठबंधन की थी, उसका नेतृत्व हिज़्बुल्लाह के ही हाथों में था. और वहां अभी पिछले वर्ष अक्टूबर की बग़ावत के बाद जिस सरकार ने सत्ता संभाली है, उसे भी हिज़्बुल्लाह का समर्थन प्राप्त है.

हिज़्बुल्लाह पिछले काफ़ी समय से इराक़ में ईरान द्वारा तैयार किए जा रहे ज़मीनी लड़ाकों को प्रशिक्षण देता आ रहा है. इसके अलावा वो अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में नाख़ुश शियाओं को ईरान के साथ जोड़ने में मदद कर रहा था. साथ ही साथ, इस क्षेत्र में अमेरिका की रणनीति का जवाब कैसे दिया जाए, ये सामरिक नीति बनाने में भी हिज़्बुल्लाह की बड़ी भूमिका थी. आज, हिज़्बुल्लाह को ईरान का छद्म संगठन माने जाने के बजाय बड़े सहयोगी के तौर पर देखा जा रहा है. और ये भी है कि आज ईरान की क्षेत्रीय लड़ाका सेनाओं के बीच हिज़्बुल्लाह के नेता हसन नसरल्लाह ही हैं, जो जनरल सुलेमानी की लोकप्रियता का मुक़ाबला कर सकते हैं. आज ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड और हिज़्बुल्लाह आपसी तालमेल से अपनी तमाम शाखाओं के एकीकरण में जुटे हैं, ताकि इराक़ से अमेरिका को निकाल कर बाहर फेंक सकें. हो सकता है कि वो इसमें सफल न हो सकें. लेकिन, इससे ईरान के उन शिया लड़ाकों का हौसला तो ज़रूर बढ़ेगा, जिनके सबसे कद्दावर नेता की अमेरिका ने हत्या कर दी.

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