जब से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा किया है, तब से एक विशाल अनिश्चितता बनी हुई है कि नयी सत्ता के साथ कैसा व्यवहार किया जाए. हालांकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने पुराने स्वरूप वाले तालिबान से अपनी सुरक्षित दूरी बना ली है, उन्होंने उसमें सुधार लाने के लिए प्रतिरोधी कूटनीति को अपनाया है. फिर भी, इन प्रतिरोधी रणनीतियों से मनचाहे नतीजे हासिल नहीं हो पाये हैं क्योंकि वो तालिबान के लिए बड़ी कीमत रखते हैं जबकि संगठन के लिए कम राजनीतिक जोख़िम वाले हैं. इसके अलावा, मंडराते मानवीय विपदा के साथ ही, यह जोख़िम भी है कि तालिबान इन रणनीतियों को महत्व नहीं देगा.
सत्ता में करीब 100 दिन पूरे कर चुके तालिबान ने बहुत कम प्रगति हासिल की है. कट्टरपंथियों के पास समेकित शक्तियां होने के कारण यह असंभव भी प्रतीत हो रहा है, जिनमें से 14 यूएनएससी के ब्लैकलिस्टेड आतंकियों में शामिल हैं.
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के बाद, कई देशों ने मान्यता देने के फैसले से पहले रुको-और-देखो की नीति अपनाई है. तालिबान को समावेशी सरकार बनाने के लिए राज़ी करने और उन्हें आतंकवादियों और तस्करी के नेटवर्क को पनाह देने से रोकने की उम्मीद के साथ उन्होंने प्रतिबंध, अवरुद्ध परिसंपत्ति, और प्रत्यक्ष मदद को स्थगित करने जैसी प्रतिरोधी रणनीतियां भी अपनाई है. हालांकि, यह प्रतिरोधी कूटनीति अब तक सफल नहीं हो पायी है. सत्ता में करीब 100 दिन पूरे कर चुके तालिबान ने बहुत कम प्रगति हासिल की है. कट्टरपंथियों के पास समेकित शक्तियां होने के कारण यह असंभव भी प्रतीत हो रहा है, जिनमें से 14 यूएनएससी के ब्लैकलिस्टेड आतंकियों में शामिल हैं. इसके अतिरिक्त, तालिबान का अल्पसंख्यकों पर हमला, सरकारी और सार्वजनिक स्थानों से महिलाओं को दूर रखना, और आतंकवादियों और अंतरराष्ट्रीय तस्करों के साथ संबंध को बनाये रखना जारी है.
आमतौर पर, प्रतिबंध और प्रतिरोधी रणनीतियों को अपने परिणामों को हासिल करने में सालों लग जाते हैं. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान एक असामान्य छूट है. अधिकांश तौर पर, अफ़ग़ानिस्तान एक असफल अर्थव्यवस्था है जो अस्तित्व बनाये रखने और जीवित रहने के लिए मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय सहायता पर निर्भर है. लिहाज़ा अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा सहायता, संपत्ति और वित्तीय संबंधों को रोके जाने से अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यस्था कमज़ोर हो गई है और उसके लोग असुरक्षित हो गए हैं. वर्तमान समय में, 18.4 मिलियन से अधिक अफ़ग़ानों को मानवीय मदद की ज़रूरत है, 23 मिलियन खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे हैं, और 72 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं. यह भी माना जा रहा है कि अर्थव्यवस्था 2022 में 30 प्रतिशत तक और सिमट जाएगी.
. महिलाओं की शिक्षा और रोज़गार, मानवाधिकार, और आत्मघाती बमबारी जैसे मुद्दे भी उनके लिए व्यापक रूप से विभाजनकारी और विवादास्पद रहे हैं. नतीजतन, शीर्ष लीडरशिप ने अपनी अंदरूनी एकता बनाये रखने के लिए अपने कार्यकर्ताओं के बीच एक नाज़ुक संतुलन बनाया हुआ है.
समानांतर दुनिया में, इन भीषण नतीजों और प्रतिरोधी रणनीतियों ने तालिबान को अब तक संयमित कर दिया होता. लेकिन, इस व्यावहारिक राजनीतिक दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. तो आखिर क्यों यह प्रतिरोधी कूटनीति विफल हो गई है?
किस कीमत पर
मुख्य रूप से, लक्ष्य के लिए कीमत का मूल्यांकन करना आवश्यक है. अभी के लिए, लागू की गई रणनीतियों का मकसद तालिबान को उदारवादी बनाना और उनकी नीतियों को प्रभावित करना है. यह दंडात्मक प्रतिबंध नहीं हैं, और ना ही इसका लक्ष्य सीधे तौर पर सत्ता परिवर्तन है. हालांकि, तालिबान के लिए यह अन्यथा है. महिला अधिकारों के चाहे गए नीतिगत परिणाम, समावेश सरकार, और अन्य आंतकी संगठनों के साथ संपर्क समाप्त करना तालिबान और उसके अस्तित्व के लिए संवेदनशील मुद्दे हैं. तालिबान एक ही चरमपंथी विचारधारा के विभिन्न व्याख्याओं वाली सत्ताओं, समूहों, और उपसमूहों का एक मिश्रण है. जैसा कि विख्यात है, कि उदारवादी-चरमपंथी विभाजन इस शासन में पनप रहा है, जहां उदारवादी अंतरराष्ट्रीय मान्यता पर ज़ोर दे रहे हैं और चरमपंथी किसी भी सामाजिक परिवर्तन को रोकने के लिए तैयार हैं. महिलाओं की शिक्षा और रोज़गार, मानवाधिकार, और आत्मघाती बमबारी जैसे मुद्दे भी उनके लिए व्यापक रूप से विभाजनकारी और विवादास्पद रहे हैं. नतीजतन, शीर्ष लीडरशिप ने अपनी अंदरूनी एकता बनाये रखने के लिए अपने कार्यकर्ताओं के बीच एक नाज़ुक संतुलन बनाया हुआ है. प्रतीत होता है कि, देश के भविष्य और मानव और महिलाओं के अधिकारों के बारे में सवाल पूछे जाने पर उन्होंने इस्लामिक व्याख्या जैसे अस्पष्ट शब्दावली का इस्तेमाल किया था.
इसी तरह की दुविधा संगठन को परेशान करती है जब उन आतंकी संगठनों से दूरी बनाने और शरण देने की बात आती है जिन्होंने अमेरिका से लड़ाई में तालिबान की मदद की थी. हक्कानी जैसे आंतकी उत्प्रेरकों के साथ यह और भी मुश्किल साबित होगा जो सरकार में प्रमुख भागीदार बने हुए हैं. इसलिए, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मांगों को किसी भी तरह से मानना संगठनात्मक एकता और शासन को नुकसान पहुंचाने के साथ ही कट्टरपंथियों को चरमपंथी प्रतिद्वंद्वी- आईएसकेपी की ओर धकेलने का काम करेगा.
अंतरराष्ट्रीय समाज को पता है कि अफ़गान मानवीय संकट को वो अधिक दिनों तक नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं. इसलिए उन्होंने सरकार को मान्यता दिये बगैर अफ़ग़ानिस्तान की मदद करते हुए अंतरराष्ट्रीय प्रभावों को कम करना शुरू कर दिया है.
राजनीतिक दांव
यद्यपि प्रतिरोधी रणनीतियों का मक़सद तालिबान को सुधारना है, लेकिन अगर वो ऐसा करने में असफल रहता है तो भी उसके पास खोने के लिए कोई राजनीतिक दांव नहीं है. तालिबान एक गैर-लोकतांत्रिक शासन का नेतृत्व करते हैं और एकमात्र शासन प्रणाली जिससे उन्होंने खुद को परिचित करवाया है वो है डर, भ्रष्टाचार और हेरफेर के साथ आबादी को नियंत्रित किया जाए. वो ना ही निपुण हैं और ना ही अच्छी शासन प्रणाली को लेकर संवेदनशील हैं. कार्यकर्ताओं को जिहाद की लड़ाई और इस्लामिक अमीरात की स्थापना के लिए प्रशिक्षित किया गया है, और इसके आगे जो होता है वो उनके लिए शायद ही चिंता का सबब रहा है. इसलिए, उन्हें जनता के दबाव, मुश्किलों, और शासन प्रणाली से कोई लेना-देना नहीं है, और ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उनके कार्रवाइयों के लिए कोई राजनीतिक प्रतिक्रिया और विरोध नहीं है.
इसके विपरीत, अगर संगठन अंतरराष्ट्रीय दबावों का विरोध करे तो राजनीतिक दांव तालिबान के अनुकूल होंगे. अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा अफ़गानों को छोड़ने के बाद, जिस तरीके से उन्होंने ऐसा किया था, तालिबान ने अपनी राजनीतिक वाकपटुता के लिए इन प्रतिरोधी रणनीतियों का लाभ उठाना शुरू कर दिया है. इससे उन्हें यह कहकर समर्थन, राष्ट्रीय गौरव की भावना, और राष्ट्रवाद के निर्माण में मदद मिली है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय कभी भी अफ़गान लोगों के दोस्त नहीं थे और ना ही कभी होंगे. लिहाज़ा, सहानुभूति और वैधता जुटाने की कोशिश कर रहे हैं. इन प्रतिबंधों और अंतरराष्ट्रीय दबावों के खिलाफ़ खड़े होने से तालिबान को अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति के प्रति वफ़ादार और अंदरूनी एकजुटता बनाये रखते हुए भी फायदा पहुंचेगा. इसलिए, कम नुकसान और ज़्यादा फायदों को देखते हुए, तालिबान सुधार को लेकर किसी भी तरह के बाहरी दबावों का प्रतिरोध करता रहेगा.
कूटनीति दुविधा
आखिर में, तालिबान को यह मालूम है कि अफ़ग़ानिस्तान से होने वाली समस्याएं, जैसे शरणार्थी संकट, शासन करने में असमर्थता, अवैध तस्करी, समानांतर अर्थव्यवस्था, और आईएसआईएस, और अन्य आंतकी संगठनों की मौजूदगी, बाकी की दुनिया और क्षेत्र को प्रभावित करने की संभावना रखती हैं. इसलिए, इस लाभ को ध्यान में रखते हुए, तालिबान के अंदर एक आम धारणा है कि उनके सुधारों से बेपरवाह अंतरराष्ट्रीय मदद अपरिहार्य है. लिहाज़ा तालिबान ने वैश्विक समुदाय से अंतरराष्ट्रीय सहायता के साथ और प्रतिरोधी रणनीतियों को निरस्त करते हुए अपनी सरकार को मज़बूत बनाने की मांग की है.
दूसरी ओर, सर्दियों के मौसम में, पहले से ही अकाल की मार झेल रहे अफ़ग़ानिस्तान का हाल धरती पर नरक जैसा होगा. अंतरराष्ट्रीय समाज को पता है कि अफ़गान मानवीय संकट को वो अधिक दिनों तक नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं. इसलिए उन्होंने सरकार को मान्यता दिये बगैर अफ़ग़ानिस्तान की मदद करते हुए अंतरराष्ट्रीय प्रभावों को कम करना शुरू कर दिया है. अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय सहायता के लिए अमेरिका 474 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक प्रदान कर रहा है और साथ ही तालिबान के साथ सीमित तौर पर जुड़ने और लोगों को मानवीय सहायता उपलब्ध कारने की अनुमति देनी भी शुरू कर दी है. ईयू और यूके ने भी बड़ी संख्या में शरणार्थी आमद को रोकने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसियों को मदद देने की शुरुआत कर दी है. यहां तक की चीन, भारत, रूस और पाकिस्तान ने भी तालिबान सरकार को मान्यता दिये बिना मानवीय सहायता का वायदा किया है. हालांकि प्रतिबंधों और तालिबान सरकार की गैर-मान्यता के राजनीतिक और कानूनी आशयों के कारण यह सहायता कम प्रभावशाली साबित हो रही है, लेकिन इसने सहायता का अपरिहार्य होने की तालिबान की धारणा को कुछ मजबूती दी है. फलस्वरूप, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिरोधी कूटनीति एक चट्टान और कठिन जगह के बीच फंस गई है.
तालिबान अपनी गैरकानूनी और गुप्त फंडिंग के साथ परीक्षा की इस घड़ी को पार कर लेगा, जबकि लोग कष्ट सहते रहेंगे. इसलिए समय आ गया है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय अपने प्रतिरोधी रणनीतियों का पुनरीक्षण करते हुए अफ़गान के लोगों का सहयोग करें.
कुल मिलाकर, अंतराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिरोधी रणनीतियों ने मनचाहे परिणाम नहीं उत्पन्न किये हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि यह रणनीतियां तालिबान के लिए कम राजनीतिक ज़ोखिम वाले होते हुए महंगी साबित होंगी. इसके अतिरिक्त, तालिबान के बीच यह धारणा भी है कि अंतरराष्ट्रीय मदद अपरिहार्य है. यह संभव है कि तालिबान इन प्रतिरोधी रणनीतियों को गंभीरता से नहीं लेगा क्योंकि मानवीय संकट गहरा हो रहा है.
इसमें कोई शक नहीं है कि तालिबान अपनी गैरकानूनी और गुप्त फंडिंग के साथ परीक्षा की इस घड़ी को पार कर लेगा, जबकि लोग कष्ट सहते रहेंगे. इसलिए समय आ गया है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय अपने प्रतिरोधी रणनीतियों का पुनरीक्षण करते हुए अफ़गान के लोगों का सहयोग करें. उन्हें तालिबान के ख़िलाफ अपनी प्रतिरोधी रणनीति को स्थापित करते हुए गुप्त फंडिंग पर शिकंजा कसना होगा और ऊंची कीमत के बजाय प्रोत्साहन को प्राथमिकता देनी होगी. तालिबान को कई संस्थाओं की तरह मानने से और अपेक्षाकृत उदारवादी गुट को प्रोत्साहन देने से संगठन के अन्य दल भी सुधार के लिए प्रेरित हो सकते हैं.
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