ये लेख रायसीना एडिट 2023 सीरीज़ का हिस्सा है
अमेरिका और पाकिस्तान के दशकों पुराने रिश्तों में अमेरिका अपने कई सामरिक प्रयासों में पाकिस्तान की मदद पर भरोसा करता रहा है. इनमें, सबसे हाल में अफ़ग़ानिस्तान को स्थिर बनाने और आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध भी शामिल है. पाकिस्तान ने इन सभी कोशिशों में ज़्यादा से ज़्यादा यही किया है कि उसने आंशिक रूप से अमेरिकी हितों से साझेदारी की है. अक्सर वो ऊपरी तौर पर तो अमेरिकी प्रयासों और हितों में सहयोग का दावा करता रहा है. मगर, वास्तविकता में उसका बर्ताव अमेरिका के दुश्मनों जैसा रहा है. [i]
सत्ता में आने के बाद बाइडेन प्रशासन ने भी मोटा-मोटी पाकिस्तान को अनदेखा किया. हालांकि, अभी ऐसा लग रहा है कि अमेरिका अपना रवैया बदल रहा है और दोनों देशों के रिश्तों में कुछ सुधार आया है. इसका मुख्य बिंदु, F-16 विमानों के रख-रखाव के लिए अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को 45 करोड़ डॉलर की सहायता देना है.
उदाहरण के लिए 1947 में अपने जन्म के बाद से ही पाकिस्तान दहशतगर्दों और आतंकवादी संगठनों का इस्तेमाल करने को अपनी राष्ट्रीय नीति का एक औज़ार बनाता आया है. इससे पाकिस्तान को दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सीमाओं को चुनौती देने में मदद मिली है, और इस काम के लिए उसे अपनी फ़ौज के इस्तेमाल का जोखिम भी नहीं उठाना पड़ा है. [ii] 9/11 के हमलों के बाद जब अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता स्थापित करने के प्रयास कर रहा था, तो भी पाकिस्तान उसके ख़िलाफ़ ही काम कर रहा था और तालिबान और उससे जुड़े आतंकवादी संगठनों को मदद दे रहा था. जबकि पाकिस्तान को अमेरिका ने अपने प्रमुख गैर नाटो दोस्त का दर्जा दिया हुआ था. अमेरिका के पूरे अभियान के दौरान तालिबान और उसके साथी दहशतगर्दों को पाकिस्तान के समर्थन में कोई नई बात नहीं थी. 1990 के दशक के मध्य में भी पाकिस्तान ने काफ़ी सैन्य, लॉजिस्टिक और कूटनीतिक मदद से तालिबान को शुरुआती दौर में अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने में मदद की थी.
एक तरफ़ तो वो भारत के साथ सहयोग को बढ़ावा दे रहा है. वहीं दूसरी ओर वो भारत के कट्टर दुश्मन की मदद भी कर रहा है.
ट्रंप प्रशासन के दौर में अमेरिका ने आतंकवाद को लंबे समय से समर्थन देते आ रहे पाकिस्तान से दूरी बना ली थी. 2017 में अपनी दक्षिण एशिया रणनीति में अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया था कि पाकिस्तान और अमेरिका के संबंध अब पहले की तरह जारी नहीं रह सकते हैं. इसके बाद ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान को दी जाने वाली 1.3 अरब डॉलर की सुरक्षा सहायता रोक दी थी और उसे फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) की ग्रे लिस्ट में शामिल किए जाने का समर्थन किया था. अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया था कि जब तक पाकिस्तान अपना बर्ताव नहीं सुधारता तब तक ऐसे उपाय जारी रहेंगे.
इसके बाद पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के अमेरिका के प्रयासों में मदद की और उसे तालिबान के साथ बातचीत करने में सहयोग दिया था. हालांकि, इस मदद के बाद भी पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्ते तनावपूर्ण बने रहे. जबकि पाकिस्तान ने आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई भी की और लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख मुफ्ती मुहम्मद हाफ़िज़ सईद और दूसरे आतंकवादियों को गिरफ़्तार करके जेल भेजा. हालांकि लश्कर-ए-तैयबा (LeT) के बड़े आतंकवादी अब भी पाकिस्तान के भीतर खुलेआम घूम रहे हैं. ये साफ़ नहीं था कि पाकिस्तान की नीति में कोई गहराई भी है, या ये लंबे समय तक चलेगी या नहीं.
अमेरिका अपना रवैया बदल रहा है ?
सत्ता में आने के बाद बाइडेन प्रशासन ने भी मोटा-मोटी पाकिस्तान को अनदेखा किया. हालांकि, अभी ऐसा लग रहा है कि अमेरिका अपना रवैया बदल रहा है और दोनों देशों के रिश्तों में कुछ सुधार आया है. इसका मुख्य बिंदु, F-16 विमानों के रख-रखाव के लिए अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को 45 करोड़ डॉलर की सहायता देना है. हाल के दिनों में ऐसा भी हुआ जब पाकिस्तान के आर्मी चीफ, लगभग तीन साल के बाद अमेरिका के दौरे पर गए. इसके साथ साथ अमेरिका और पाकिस्तान ने संभावित आतंकवाद निरोधक (CT) अभियानों और आर्थिक, ऊर्जा और पर्यावरण के क्षेत्र में सहयोग पर भी चर्चा की.
अमेरिकी नेताओं को पाकिस्तान और अपने देश के सामरिक हितों का मेल कराने का दशकों पुराना ख़्वाब देखना अब छोड़ देना चाहिए. इसके बजाय सुरक्षा सहयोग का दायरा बढ़ाकर इस लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिशें सफल नहीं होंगी.
ख़ास तौर से सुरक्षा के क्षेत्र में ऐसे बदलाव, भारत और अमेरिका के सामरिक हितों और सहयोग को नुक़सान पहुंचा सकते हैं. विशेष रूप से ये क़दम भारत के पश्चिमी सीमा पर ख़तरे को बढ़ा देंगे, और इससे चीन से संतुलन बिठाने के काम से भारत का ध्यान भंग होगा. इससे भारत को ये संदेश भी मिलेगा कि अमेरिका भरोसेमंद साझीदार नहीं है. एक तरफ़ तो वो भारत के साथ सहयोग को बढ़ावा दे रहा है. वहीं दूसरी ओर वो भारत के कट्टर दुश्मन की मदद भी कर रहा है. इन समस्याओं को देखते हुए आख़िर क्या वजह है कि अमेरिका, F-16 विमानों के रख-रखाव जैसे काम में पाकिस्तान को मदद क्यों दे रहा है? इसकी कई वजहें हो सकती हैं. हालांकि बारीक़ी से पड़ताल करने पर इनमें से कोई कारण बहुत यक़ीन दिलाने वाला नहीं लगता है.
मिसाल के तौर पर अमेरिका के रक्षा मंत्रालय ने दावा किया कि F-16 लड़ाकू जहाज़ों के रख-रखाव के लिए पाकिस्तान को दिया जाने वाला अमेरिकी पैकेज उसे आतंकवाद निरोधक अभियानों में बेहतर सहयोग लायक़ बनाएगा. लेकिन, आतंकवाद निरोधक अभियानों के लिए पाकिस्तान पर भरोसा करना, उसके आतंकवाद को बढ़ावा देने के लंबे इतिहास की अनदेखी करना है. इसके बजाय तो अमेरिका को चाहिए कि आतंकवाद निरोधक अभियान के लिए वो क्षेत्र के दूसरे देशों को तैयार करे, भले ही ये मुश्किल या महंगा क्यों न पड़े. हो सकता है कि अमेरिका को ये उम्मीद हो कि पाकिस्तान को सैन्य मदद देने से भारतीय उप-महाद्वीप में सामरिक स्थिरता आएगी और कमज़ोर पाकिस्तान को ताक़तवर भारत से संतुलन बैठाने में मदद मिलेगी. लेकिन, अमेरिका को चाहिए कि वो भारत और पाकिस्तान को समान नज़रों से न देखे. इसके बजाय अमेरिका को अपने साझीदार भारत को मज़बूत बनाने पर ध्यान देना चाहिए, ताकि चीन की बढ़ती ताक़त से मुक़ाबला किया जा सके. हो सकता है कि पाकिस्तान को ये सैन्य मदद उसके द्वारा यूक्रेन को हथियार आपूर्ति करने के बदले में दी गई हो. लेकिन, भले ही पूर्वी यूरोप में अमेरिका के हित अहम हों, वो हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी हितों के बराबर महत्वपूर्ण नहीं हैं. अमेरिका को चाहिए कि वो किसी तीसरे देश द्वारा यूक्रेन को मदद के देने के बदले में भारत के साथ अपनी सामरिक साझेदारी को नुक़सान न पहुंचाए. आख़िर में ये हो सकता है कि पाकिस्तान को उसके F-16 विमानों के बेड़े को मज़बूत बनाने से चीन पर पाकिस्तान की ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता कम होगी. [iii] लेकिन, F-16 जंगी जहाज़ों के पाकिस्तानी बेड़े की मौजूदा स्थिति कुछ भी हो, पाकिस्तान पहले से ही चीन पर बहुत अधिक निर्भर है और उसे हर वक़्त बना रहने वाला दोस्त कहता है. F-16 विमानों के बेड़े को टिकाऊ बनाने से चीन और पाकिस्तान के रिश्तों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है.
विफल प्रयास
इसका ये मतलब नहीं है कि अमेरिका को पाकिस्तान की अनदेखी या उसे अलग थलग करना चाहिए. पाकिस्तान एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्ति है, जो परमाणु हथियारों से लैस है. हो सकता है कि कई मामलों में पाकिस्तान और अमेरिका के हित आपस में जुड़ते भी हों. इससे दोनों देशों के बीच कुछ ख़ास क्षेत्रों में सीमित सहयोग को वाजिब ठहराया जा सकता है. हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने के बाद, पिछले 20 सालों में आज अमेरिका को पाकिस्तान की सबसे कम ज़रूरत है. दोनों देशों के रिश्तों में मोटे तौर पर सुधार लाने के साथ ये शर्त भी जुड़ी होनी चाहिए कि पाकिस्तान आतंकवाद और दहशतगर्दी को मदद देना बंद करे. इसी दौरान अमेरिका और पाकिस्तान के वरिष्ठ नेताओं के बीच संवाद और सीमित आर्थिक पहलें होती रहने से मदद मिलेगी जैसे कि अमेरिका को पाकिस्तानी निर्यात के लिए व्यापार कर से मुक्त क्षेत्रों का निर्माण करना. लेकिन अमेरिकी नेताओं को पाकिस्तान और अपने देश के सामरिक हितों का मेल कराने का दशकों पुराना ख़्वाब देखना अब छोड़ देना चाहिए. इसके बजाय सुरक्षा सहयोग का दायरा बढ़ाकर इस लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिशें सफल नहीं होंगी. बल्कि, इससे तो दक्षिणी एशिया और हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के असली सामरिक हितों को नुक़सान पहुंचेगा.
[i] Hussain Haqqani, Magnificent Delusions: Pakistan, the United State and an Epic History of Misunderstanding, New York: Public Affairs, 2013.
[ii] S. Paul Kapur, Jihad as Grand Strategy: Islamist Militancy, National Security, and the Pakistani State (New York: Oxford University Press, 2016).
[iii] S. Paul Kapur, “A New Special Relationship?” National Interest (November/December 2021), p. 62.
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