रूस-यूक्रेन युद्ध को प्रारंभ हुए एक वर्ष पूरा हो चुका है. इस युद्ध की वजह से वैश्विक स्तर पर खाने-पीने की चीज़ों और ऊर्जा की क़ीमतों में ज़बरदस्तबढ़ोतरी हुई है, साथ ही कई देशों को इस युद्ध के प्रभाव से रूबरू होना पड़ा और विपरीत परिस्थितियों से जूझना पड़ा है. युद्ध वाले इलाक़े से मीलों दूरहोने के बावज़ूद अफ्रीकी देश भी फूड, कृषि उत्पादों और जीवन यापन की बढ़ती क़ीमतों का ख़मियाजा भुगतने को मज़बूर हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध के प्रतिज़्यादातर अफ्रीकी देशों के तटस्थ रुख को लेकर पश्चिमी देशों की हैरानी ना केवल आज के दौर की जटिल भू-राजनीतिक वास्तविकताओं का सामनेलाती है, बल्कि वैश्विक मामलों में पश्चिमी वर्चस्व के विरुद्ध अफ्रीकी देशों की ऐतिहासिक नाराज़गी को भी उजागर करता है.
पेट्रोलियम उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान और जीवन यापन की लागत में बढ़ोतरी एवं ईंधन के दामों में वृद्धि ने कुल मिलाकर पिछले वर्ष के दौरान अफ्रीका के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लचीलेपन को परखने का काम किया है.
यूक्रेन में जारी युद्ध ने आम अफ्रीकी नागरिकों के जीवन को प्रभावित करने का काम किया है. उदाहरण के तौर पर, अफ्रीकी डेवलपमेंट वर्ल्ड बैंक केमुताबिक इस युद्ध के कारण पूरे महाद्वीप में मुख्य भोजन गेहूं की कमी हो गई है और इस वजह से गेहूं की क़ीमतों में लगभग 60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुईहै. रूस और यूक्रेन दोनों ही देशों में गेहूं का उत्पादन होता है और यह दोनों देश कई दूसरे देशों को गेहूं का निर्यात करते हैं. देखा जाए तो रूस और यूक्रेन नेवर्ष 2018 और 2020 के बीच अफ्रीका की गेहूं की 44 प्रतिशत ज़रूरत को पूरा किया था. ज़ाहिर है कि इस युद्ध के शुरू होने के बाद गेहूं और ब्रेड केदामों में अचानक बढ़ोतरी ने आम अफ्रीकियों के जीवन को प्रभावित करने का काम किया है. इससे उर्वरक के दामों में तेज़ी के साथ ही मक्का और अन्यअनाजों की क़ीमतों में भी उछाल आया है. पेट्रोलियम उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान और जीवन यापन की लागत में बढ़ोतरी एवं ईंधन के दामोंमें वृद्धि ने कुल मिलाकर पिछले वर्ष के दौरान अफ्रीका के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लचीलेपन को परखने का काम किया है. अब मौज़ूदापरिस्थितियों में जो सबसे बड़ा सवाल है, वो यह है कि अफ्रीकी देश इन नाज़ुक हालातों से निपटने के लिए ख़ुद को किस प्रकार से तैयार कर सकते हैं?
जहां तक अफ्रीका की बात है, तो रूस-यूक्रेन संकट ने वहां संभावित तौर पर आर्थिक और सामाजिक रूप से काफ़ी उथल-पुथल मचाई है. ऐसे मेंअफ्रीका में छद्म संघर्षों के दोबारा शुरू होने, लोकतंत्रीकरण को लेकर प्रतिबद्धता के कमज़ोर होने और अफ्रीकी बहुपक्षवाद के कमज़ोर पड़ने का ख़तरामंडरा रहा है. जब से यह युद्ध शुरू हुआ है, तभी से अमेरिका, यूरोपीय और अन्य पश्चिमी देशों की सरकारें इस संघर्ष को लेकर अफ्रीका की प्रतिक्रिया औरउसकी स्थिति पर अपनी नज़रें गड़ाए बैठी हैं. युद्ध पर संयुक्त राष्ट्र (UN) में अफ्रीकी वोटों ने स्पष्ट रूप से विभाजन को दर्शाया है. कुछ अफ्रीकी देशों नेजहां रूसी हमले की निंदा की है, तो कुछ अन्य देशों ने 'गुट-निरपेक्ष' स्थिति का सहारा लिया और जिनमें से कई देश मतदान से दूर रहे.
अप्रैल 2021 में असंवैधानिक बदलाव के पश्चात कुछ अफ्रीकी देशों ने चाड को AU से निलंबित करने पर ज़ोर दिया, जबकि यही अफ्रीकी देश वर्ष 2018 के तख़्तापलट के बाद ज़िम्बाब्वे के निलंबन के ख़िलाफ़ थे, इस तख़्तापलट में ज़िम्बाब्वे के दिवंगत राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे को अपदस्थ कर दिया गया था.
रूस की निंदा करते हुए 2 मार्च, 2022 को संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग के दौरान 17 अफ्रीकी देशों ने उसमें हिस्सा नहीं लिया. अफ्रीकी देशों की यह संख्या 7 अप्रैल, 2022 को तब और बढ़ गई, जब नाइज़ीरिया जैसे पावर हाउस समेत 22 अफ्रीकी देश इसमें शामिल हो गए और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकारपरिषद से रूस को निलंबित करने के लिए कराए गए मतदान में भाग नहीं लिया. इसी प्रकार, 12 अक्टूबर 2022 को भारत, चीन और 19 अफ्रीकी देशोंसहित कुल 35 राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर हुए मतदान में हिस्सा नहीं लिया. इस प्रस्ताव में अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मॉस्को के किसी भीदावे को मान्यता नहीं देने का आह्वान किया गया था.
अफ्रीकी देशों के अलग-अलग वोटिंग पैटर्न के निहितार्थ क्या हैं?
यह मानना सरासर ग़लत है कि राजनीतिक तौर पर अफ्रीका अचल और अटूट है. जहां तक शांति और सुरक्षा का मुद्दा है, तो ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जोयह साफ तौर पर बताते हैं कि पूर्व में भी अफीक्री देशों के रुख अलग-अलग रह चुके हैं. जैसे कि वर्ष 2011 में हुए लीबिया विद्रोह और उत्तरी अटलांटिकसंधि संगठन (NATO) द्वारा लीबिया के नेता मुअम्मर गद्दाफ़ी को बाहर करने के मुद्दे पर. इतना ही नहीं वर्ष 2015 में मेजबान सरकार की सहमति के बगैरअफ्रीकन मिशन फॉर प्रिवेंशन एंड प्रोटेक्शन इन बुरुंडी (MAPROBU) को तैनात करने के ज़रिए सैन्य हस्तक्षेप के लिए अफ्रीकी यूनियन (AU) पीसएंड सिक्योरिटी काउंसिल (PSC) के निर्णय को रद्द करने के दौरान भी अफ्रीकी देशों में इसी प्रकार के पारस्परिक मतभेद उभर कर सामने आए थे. ऐसे हीअन्य उदाहरणों में केन्या और सोमालिया के बीच समुद्री विवाद के मुद्दे पर PSC की दुविधापूर्ण स्थिति और AU की सदस्यता से निलंबित करने केसवाल पर अफ्रीकी देशों की पारस्परिक विरोधाभासी स्थिति शामिल है. उदाहरण के लिए, अप्रैल 2021 में असंवैधानिक बदलाव के पश्चात कुछअफ्रीकी देशों ने चाड को AU से निलंबित करने पर ज़ोर दिया, जबकि यही अफ्रीकी देश वर्ष 2018 के तख़्तापलट के बाद ज़िम्बाब्वे के निलंबन केख़िलाफ़ थे, इस तख़्तापलट में ज़िम्बाब्वे के दिवंगत राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे को अपदस्थ कर दिया गया था.
इस पर भी ग़ौर करना बेहद ज़रूरी है कि अलग-अलग अफ्रीकी देशों के आदर्श और मूल्य भी भिन्न-भिन्न हैं. कुछ अफ्रीकी देश एक नियम-क़ानून परआधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के पक्ष में हैं, जबकि कुछ अफ्रीकी देश रूस जैसे राष्ट्र के प्रति अपनी सहानुभूति रखते हैं, जो कि इस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था कोखुलेआम चुनौती दे रहा है. लेकिन ऐसे विरोधाभासों से क्या पता चलता है? क्या यह बहुपक्षवाद के संकट को प्रदर्शित करते हैं, वर्तमान में जिसकाअफ्रीकी देश सामना कर रहे हैं? उल्लेखनीय है कि तख़्तापलट के बाद उपजे हालातों का प्रबंधन करने में AU की विफलता, AU बनाम अफ्रीका कीरीजनल इकोनॉमिक कम्युनिटी (RECs) की ज़िम्मेदारियों को लेकर भ्रम की स्थिति और प्रतिबंधों एवं निलंबन से जुड़ी शासन व्यवस्थाओं की मुश्किलें, अफ्रीकी बहुपक्षवाद के संकट की ओर इशारा करती हैं.
जुलाई 2023 में सेंट पीटर्सबर्ग में रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन आयोजित होने वाला है, ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि मॉस्को और अफ्रीका के पेचीदा संबंध किस करवट बैठते हैं.
वर्तमान में जो हालात हैं, उनमें अफ्रीका ने युद्ध से सुरक्षित दूरी बनाए रखने की कोशिश की है, फिर भी तटस्थ रहने की भी कुछ सीमाएं हैं. ऐसे समय में, अफ्रीकी नेताओं को अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखना चाहिए. इसकी तमाम व्यावहारिक वजहें हैं, जिनके चलते यूक्रेन की तुलना में रूस को अफ्रीकीदेशों से ज़्यादा समर्थन मिला है. सबसे पहली वजह यह है कि रूस का औपनिवेशिक अतीत अफ्रीका तक विस्तारित नहीं था. मॉस्को ने 1950 और1960 के दशक के दौरान महाद्वीप में कुछ आज़ादी के आंदोलनों का समर्थन भी किया और पश्चिमी विरोधी दुष्प्रचार के लिए मॉस्को ने लगातार कईतरीक़ों का इस्तेमाल किया. कई मायनों में देखा जाए तो, जब मॉस्को की बात आती है तब उसके साम्राज्यवाद विरोधी विचार और बातें अफ्रीकीनागरिकों एवं नेताओं की राय और उनकी सोच का मार्गदर्शन करती प्रतीत होती हैं. दूसरी वजह यह है कि रूस ने अफ्रीकी देशों के साथ आक्रामक रूप सेअपने सैन्य सहयोग को मज़बूत करने की कोशिश की है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) के मुताबिक़ वर्ष 2017 और 2021 केबीच अफ्रीकी देशों द्वारा ख़रीदे गए हथियारों में मॉस्को की हिस्सेदारी 44 प्रतिशत थी. सूडान, सीरिया, मोज़ाम्बिक, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, लीबियाऔर माली जैसे देशों में वैगनर ग्रुप जैसी किराए की सेनाओं के माध्यम से लगातार रूसी सैन्य समर्थन उसकी संलग्नता की एक खासियत रही है.
इस बीच, रूस और चीन के साथ चल रहे संयुक्त बहुपक्षीय समुद्री अभ्यास, एक्सरसाइज मोसी II में हिस्सा लेने के लिए दक्षिण अफ्रीका को ज़बरदस्तआलोचना का सामना करना पड़ा है. राजनीतिक और कूटनीतिक नज़रिए से देखा जाए, तो दक्षिण अफ्रीका के इस क़दम की समयावधि से अमेरिका औरपश्चिम देशों को इस क्षेत्र में बीजिंग के बढ़ते दबदबे का स्पष्ट संदेश मिल रहा है. यह रूस को अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को जारी रखने के लिए एक मंच भीप्रदान करता है और साथ ही एक साझा भविष्य के साथ एक महासागरीय समुदाय के निर्माण के चीनी मंसूबों को भी बढ़ावा देता है.
रूस-अफ्रीका संबंधों के लिए आगे क्या है?
अफ्रीकी महाद्वीप में रूस किस हद तक अपनी पहुंच स्थापित कर चुका है, इसके बारे में पता लगाना बेहद मुश्किल है, वो भी ख़ास तौर पर ज़मीनी स्तरपर रूसी पहुंच के बारे में पता लगाना. हालांकि, जैसे कि यूक्रेन पर रूस के हमले को एक साल पूरे हो चुके हैं, ऐसे में एक बात तो निश्चित है कि रूस एकबार फिर ख़ुद को पश्चिम से अलग-थलग महसूस करने लगा है. स्वाभाविक रूप से यह अफ्रीका के साथ क्रेमलिन के संबंध को उसकी विदेश नीति कीसफलता के लिए और अधिक महत्त्वपूर्ण बनाता है. जहां तक अफ्रीकी देशों की बात है, तो उनके लिए रूस-यूक्रेन युद्ध एक संवेदनशील मुद्दा बना हुआहै, दुष्प्रचार अभियानों के माध्यम से बदला लेने की आशंका के लिहाज से भी और बहुत अधिक आर्थिक निर्भरता के साथ ही रूसी राजनयिक एवं सैन्यप्रतिबद्धताओं के लिहाज से भी. इतना ही नहीं अफ्रीकी देशों के नेता और सरकारें रूस को लेकर घरेलू जनमत यानी अपने नागरिकों की राय कोसमायोजित करने के लिए लगातार दबाव में हैं
यह मान लेना हालांकि बहुत ज़ल्दबाज़ी होगी कि रूस को अफ्रीकी महाद्वीप पर हर तरफ़ से केवल सकारात्मक प्रतिक्रिया ही मिल रही है. अफ्रीकी देशोंके सोशल मीडिया आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले साउथ अफ्रीकन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स (SAIIA) जैसे अफ्रीकी थिंक टैंकों की रिसर्चके मुताबिक़ मॉस्को से जुड़ाव के मुद्दे पर सामान्य तौर पर अफ्रीकी नागरिकों का रवैया या तो उदासीन है, या फिर वो एक तरह से चुप्पी साधे हुए हैं याउनकी प्रतिक्रिया बहुत ही संयमित है. इस बीच, जुलाई 2023 में सेंट पीटर्सबर्ग में रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन आयोजित होने वाला है, ऐसे में यहदेखना दिलचस्प होगा कि मॉस्को और अफ्रीका के पेचीदा संबंध किस करवट बैठते हैं. हालांकि, जहां तक अफ्रीकी देशों की बात है, तो उनके लिएसबसे उचित यही होगा कि वे अपनी शांति की ज़रूरत पर शिद्दत के साथ डटे रहें और कूटनीति संबंधों को आगे बढ़ाना जारी रखें.
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