27-28 जुलाई 2023 को दूसरा रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित हुआ. शुरू में ये शिखर सम्मेलन अक्टूबर 2022 में इथियोपिया के आदिस अबाबा में होना था. लेकिन उस वक्त सम्मेलन टल गया. माना जाता है कि रूस-यूक्रेन संघर्ष की वजह से पैदा हुई उलझनों के कारण सम्मेलन को टालना पड़ा. सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित समिट में अफ्रीका के 54 में से 49 देशों की मौजूदगी के बावजूद केवल 17 राष्ट्र प्रमुख और 10 प्रधानमंत्री शामिल हुए. ये भागीदारी 2019 में आयोजित सम्मेलन से पूरी तरह अलग थी जब अफ्रीका के 43 राष्ट्र प्रमुख और दो उपराष्ट्रपति आए थे. उनके साथ 109 मंत्री और अफ्रीकन यूनियन (AU) कमीशन, अफ्रीकन आयात-निर्यात बैंक एवं कई क्षेत्रीय आर्थिक समुदायों के प्रमुख भी शामिल हुए थे.
पिछले समिट की तरह इस साल के शिखर सम्मेलन के एजेंडे में भी टेक्नोल़ॉजी ट्रांसफर एवं अफ्रीका में उद्योग और महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास; पावर इंजीनियरिंग, कृषि एवं खनिज के खनन को विकसित करना और खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करना शामिल था. चूंकि 2023 के शिखर सम्मेलन में एजेंडे का विस्तार करके मानवीय तत्वों को शामिल किया गया था, ऐसे में समिट के समानांतर एक आर्थिक एवं मानवीय मंच का भी आयोजन किया गया. इसके अतिरिक्त वहां प्रदर्शनी और कारोबारी बैठक आयोजित करने के लिए एक मंच भी था.
समिट के आख़िर में दोनों पक्ष सुरक्षा, व्यापार और पर्यावरण पर सहयोग के लिए 74 बिंदुओं के साझा घोषणापत्र के लिए सहमत हुए. लेकिन नव-उपनिवेशवाद, नव-नाज़ीवाद, नव-फासीवाद, रूसोफोबिया, अवैध प्रतिबंध, आयात प्रतिस्थापन (सब्सीट्यूशन) और परंपरागत मूल्यों जैसे शब्दों के बार-बार के इस्तेमाल के साथ ये दस्तावेज़ यूक्रेन युद्ध के लिए रूस के औचित्य को अफ्रीका की निर्विवाद मंज़ूरी जैसा दिखता है. वास्तव में 4,000 से ज़्यादा शब्दों के इस दस्तावेज़ में कई ऐसे बयान हैं जो यूक्रेन के संघर्ष में रूस के रुख का साथ देने के लिए चालाकी से अफ्रीका को बढ़ावा देते हैं.
पिछले समिट की तरह इस साल के शिखर सम्मेलन के एजेंडे में भी टेक्नोल़ॉजी ट्रांसफर एवं अफ्रीका में उद्योग और महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास; पावर इंजीनियरिंग, कृषि एवं खनिज के खनन को विकसित करना और खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करना शामिल था.
शिखर सम्मेलन के मद्देनज़र खाद्य सुरक्षा की बिगड़ती स्थिति अफ्रीका के नीति निर्माताओं के लिए प्रमुख चिंता थी. 17 जुलाई को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने काला सागर अनाज पहल (ब्लैक सी ग्रेन इनिशिएटिव या BSGI) से अलग होने का फैसला लिया. इस पहल पर लगभग एक साल पहले तुर्किए के इस्तांबुल में हस्ताक्षर किया गया था. BSGI का उद्देश्य रूस की तरफ से घेराबंदी में ढील के ज़रिए यूक्रेन को अफ्रीका तक अनाज के निर्यात की अनुमति देना था. समिट के दौरान दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा, मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी और अफ्रीकी शांति पहल का हिस्सा रहे पांच अन्य नेताओं ने राष्ट्रपति पुतिन से अनुरोध किया कि वो अपना रवैया बदलें. लेकिन उनके अनुरोध को दृढ़ता से ठुकरा दिया गया. इसके बदले घोषणापत्र में अनाज की कमी के लिए पूरी तरह पश्चिमी देशों की पाबंदी को ज़िम्मेदार ठहराया गया.
हालांकि राष्ट्रपति पुतिन के द्वारा छह देशों- बुर्किना फासो, ज़िम्बाब्वे, माली, सोमालिया, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक और इरीट्रिया- को 25,000 से लेकर 50,000 टन मुफ्त अनाज पहुंचाने का संकल्प इन ग़रीब देशों के लिए उत्साहित करने वाला है. लेकिन ये संकल्प तुरंत पूरा नहीं होगा बल्कि इसमें तीन या चार महीने लगेंगे जो कि 54 देशों वाले महादेश के लिए बहुत छोटी राहत है.
शिखर सम्मेलन की उपलब्धियों को डिकोड करना
वर्तमान में अफ्रीका रूस को जितना निर्यात करता है उसका पांच गुना आयात करता है जिसकी वजह से दोनों पक्षों के बीच 12 अरब अमेरिकी डॉलर का व्यापार असंतुलन है. 2019 के रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन के बाद राष्ट्रपति पुतिन ने पांच वर्षों के भीतर सालाना व्यापार को लगभग 16.8 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 40 अरब अमेरिकी डॉलर करने की योजना बनाई. लेकिन ऐसा होने के बदले व्यापार अभी सालाना लगभग 18 अरब अमेरिकी डॉलर पर अटका हुआ है या महादेश के कुल व्यापार का लगभग 2 प्रतिशत. इसके अलावा कुल व्यापार का 70 प्रतिशत चार देशों- अल्जीरिया, मिस्र, मोरक्को और दक्षिण अफ्रीका- तक सीमित है. पहले समिट के दौरान आयोजकों ने दर्जनों समझौतों, जिनकी अनुमानित लागत 15 अरब अमेरिकी डॉलर थी, पर हस्ताक्षर की डींग हांकी थी लेकिन कुछ रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से ज़्यादातर समझौता ज्ञापन (MoU) थे जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं होते. इसके अलावा अफ्रीका में रूस का प्रत्यक्ष निवेश वर्तमान में कुल निवेश का लगभग एक प्रतिशत है.
पुतिन ने ये भी कहा कि उनकी सरकार अफ्रीका के देशों के अनुरोध पर विकास के काम के लिए 90 मिलियन अमेरिकी डॉलर भी देगी. अंतिम लेकिन महत्वपूर्ण बात ये कि रूस ने एलान किया है कि वो अफ्रीका में स्वास्थ्य देखभाल की प्रणाली पर “बड़े पैमाने की सहायता” के लिए लगभग 13 मिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च करेगा.
रूस ने अफ्रीका के देशों को दिए गए अपने कर्ज़ के एक बड़े हिस्से पर अपना दावा छोड़ दिया है जिसका मूल्य 23 अरब अमेरिकी डॉलर है. ये अफ्रीका में रूस के कुल कर्ज का लगभग 90 प्रतिशत है. राष्ट्रपति पुतिन के अनुसार, इस कदम से अफ्रीका के ऊपर रूस का कोई “सीधा” कर्ज़ नहीं रह गया है, बस कुछ वित्तीय दायित्व हैं. लेकिन ये देखते हुए कि अफ्रीका पर रूस का कर्ज़ उसके कुल लोन का महज़ छोटा सा हिस्सा है, इस कदम का अत्यधिक ऋण के बोझ से दबे अफ्रीका पर बहुत कम असर होगा. पुतिन ने ये भी कहा कि उनकी सरकार अफ्रीका के देशों के अनुरोध पर विकास के काम के लिए 90 मिलियन अमेरिकी डॉलर भी देगी. अंतिम लेकिन महत्वपूर्ण बात ये कि रूस ने एलान किया है कि वो अफ्रीका में स्वास्थ्य देखभाल की प्रणाली पर “बड़े पैमाने की सहायता” के लिए लगभग 13 मिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च करेगा.
वास्तव में रूस के पास उतने संसाधन नहीं हैं कि वो द्विपक्षीय विकास के लिए दान के मामले में अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और जापान या चीन के साथ मुकाबला कर सके. लेकिन उसके पास खेलने के लिए कुछ पत्ते ज़रूर हैं. पिछले साल रूस अफ्रीका में फर्टिलाइज़र के सप्लाई का सबसे बड़ा स्रोत था और उसने 5,00,000 टन फर्टिलाइज़र की सप्लाई की थी. तेल, गैस और खनन के क्षेत्र में भी रूस एक महत्वपूर्ण ताकत है. अफ्रीका के साथ अपने रिश्तों को मज़बूत बनाने की रूस की एक और अहम कोशिश है शिक्षा के लिए उसकी प्रतिबद्धता. 2023 में रूस ने अफ्रीका के छात्रों को रिकॉर्ड 4,700 स्कॉलरशिप की पेशकश की है जो कि 2019 में 1,900 छात्रों को दी गई स्कॉलरशिप से काफी ज़्यादा है. वर्तमान में लगभग 35,000 अफ्रीकी छात्र रूस में पढ़ाई कर रहे हैं जिनमें से 6,000 अलग-अलग सरकारी स्कॉलरशिप का फायदा उठा रहे हैं.
हथियारों का व्यापार अफ्रीका के साथ रूस के पारंपरिक व्यापार का सबसे सफल स्तंभ है. ये व्यापार अधिकतर सरकार के द्वारा नियंत्रित एजेंसी रोसोबोरोनएक्सपोर्ट के द्वारा किया जाता है. 2017 से 2021 के बीच अफ्रीका के द्वारा बड़े हथियारों के आयात में रूस का हिस्सा 44 प्रतिशत है. ये दूसरे बड़े किरदारों जैसे कि अमेरिका (17 प्रतिशत), चीन (10 प्रतिशत) और फ्रांस (6.1 प्रतिशत) से बहुत अधिक है. अंगोला में हीरे की परियोजनाओं पर काम करने वाली और जिम्बाब्वे में संभावना तलाशने वाली कंपनी अलरोसा; गिनी में बॉक्साइट का खनन करने वाली रूसाल और मिस्र में परमाणु बिजली स्टेशन का निर्माण करने वाली रोसातोम कुछ अन्य रूसी कंपनियां हैं जिनका अफ्रीका में महत्वपूर्ण हित है. ताज़ा समिट के दौरान इथियोपिया और ज़िम्बाब्वे ने रोसातोम के साथ परमाणु विकास समझौतों पर हस्ताक्षर किए.
शायद यही वजह है कि अफ्रीका के कई देशों के राष्ट्र प्रमुखों और मंत्रियों ने समिट से दूरी बनाते हुए अपने प्रतिनिधियों को भेजा. शिखर सम्मेलन के दौरान अफ्रीका के प्रतिनिधित्व को इस महादेश के रुख के तौर पर देखा जा सकता है.
हथियारों का आयात करने के अलावा कई अफ्रीकी देशों ने रूस के भाड़े के सैनिकों को भी काम पर रखा है. ये रूसी भाड़े के सैनिक अफ्रीका में वागनर ग्रुप के तहत काम करते हैं और वागनर ग्रुप येवगेनी प्रिगोज़िन से जुड़ा है जो कुछ महीने पहले तक व्लादिमीर पुतिन के करीबी दोस्त थे. जहां तक बात अफ्रीका में वागनर ग्रुप के भविष्य को लेकर है, ख़ास तौर पर वागनर ग्रुप के द्वारा विद्रोह की पृष्ठभूमि में, तो रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव और वागनर के चीफ येवगेनी प्रिगोज़िन ने अलग-अलग बयानों में सफाई दी थी कि उनका ग्रुप अफ्रीका के देशों में काम करता रहेगा. अपनी मौत से पहले समिट के दौरान प्रिगोज़िन की छोटी सी मौजूदगी और नाइजर में सैन्य विद्रोह को लेकर उनके जश्न वाले बयान साफ करते हैं कि वागनर ग्रुप अफ्रीका में अपना विस्तार जारी रखेगा.
निष्कर्ष के बदले में मूल्यांकन
रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के द्वारा इस साल अफ्रीका के तीन दौरों के साथ रूस ने अफ्रीका के साथ भागीदारी को लेकर एक अनूठी प्रतिबद्धता दिखाई है. ये कूटनीतिक प्रयास रूस के द्वारा अफ्रीका के देशों के समर्थन को दिए जा रहे बढ़ते महत्व के बारे में बताते हैं. साफ तौर पर रूस पश्चिमी देशों के प्रभाव के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में अफ्रीका के कई पुराने और वफादार सहयोगियों के मज़बूत समर्थन के आधार को दिखाना चाहता है. इस परिप्रेक्ष्य में रूस-अफ्रीका सम्मेलन के दौरान जमा देशों की भीड़ ने रूस के मक़सद को पूरा किया. जहां तक बात अफ्रीका की है तो कुछ साधारण घोषणाओं के अलावा अफ्रीका के नेताओं को इस आयोजन से कुछ ख़ास नहीं मिला. लेकिन अफ्रीकी नेताओं के लिए भी दूसरी विदेशी ताकतों के सामने ये दिखाना महत्वपूर्ण था कि वो अलग-अलग विचारों को सुनने के लिए तैयार हैं.
अफ्रीका के नेता विदेशी नेताओं के द्वारा बड़े-बड़े वादे करने लेकिन उन्हें पूरा करने से पीछे हटने के आदी हैं. शिखर सम्मेलन के दौरान कम नेताओं की मौजूदगी बताती है कि अफ्रीकी नेता बहुध्रुवीय विश्व (मल्टीपोलर वर्ल्ड) में अपनी जगह में फेरबदल कर रहे हैं. उन्हें ये एहसास हो गया है कि बहुपक्षवाद (मल्टीलेटरलिज़्म) के नए ज़माने में पश्चिमी देशों या रूस के साथ अपने संबंधों को ख़तरे में डालना अच्छी कूटनीति नहीं है. लगभग सभी अफ्रीकी देश गुटनिरपेक्ष हैं, वैश्विक महाशक्तियों के गुट से परहेज़ करते हैं और पश्चिमी देशों के दबाव से नाराज़ होते हैं. शायद यही वजह है कि अफ्रीका के कई देशों के राष्ट्र प्रमुखों और मंत्रियों ने समिट से दूरी बनाते हुए अपने प्रतिनिधियों को भेजा. शिखर सम्मेलन के दौरान अफ्रीका के प्रतिनिधित्व को इस महादेश के रुख के तौर पर देखा जा सकता है: किसी एक देश के प्रति आंख मूंदकर वफादारी का ज़माना अब नहीं रह गया है. इसलिए सम्मेलन से अफ्रीका को ज़्यादा फायदा नहीं होना मैकबेथ के अंधकार के अर्ध-सत्य के साधनों (हाफ-ट्रूथ इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ डार्कनेस) को दिखाता है: ये न तो एक सामान्य तथ्य है, न ही जानबूझकर बोला गया झूठ.
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