Published on Aug 01, 2023 Updated 0 Hours ago

हाल ही में जारी आईपीसीसी की रिपोर्ट में उन क़दमों पर ज़ोर दिया गया है जिन्हें जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कम करने के लक्ष्यों को हासिल करने और इसे पूरा करने की कोशिश के दौरान आने वाली रुकावटों के संदर्भ में उठाने की ज़रूरत है.

साल #2022 आईपीसीसी जलवायु रिपोर्ट: ग्लोबल वॉर्मिंग के 1.5 डिग्री लक्ष्य तक पहुंचने का हमारे लिये आख़िरी मौका!
साल #2022 आईपीसीसी जलवायु रिपोर्ट: ग्लोबल वॉर्मिंग के 1.5 डिग्री लक्ष्य तक पहुंचने का हमारे लिये आख़िरी मौका!

जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी समिति (आईपीसीसी) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट, जिसका शीर्षक ‘जलवायु परिवर्तन 2022: जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कम करना’ है, 4 अप्रैल 2022 को जारी की गई. ये रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कम करने के लक्ष्यों को हासिल करने में की गई प्रगति के बारे में विस्तृत रूप-रेखा खींचती है और इसके प्रभाव पर एक व्यापक चर्चा प्रस्तुत करती है. साथ ही जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कम करने की कोशिशों के सामने आने वाले चुनौतियों के बारे में भी बताती है. इस लेख में वैश्विक स्तर पर ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को लेकर प्रमुख रुझानों और इस उत्सर्जन में उद्योगों के योगदान के ज़रिए उन चर्चाओं की मुख्य बातों को पेश किया गया है. साथ ही औद्योगिक उत्सर्जन को कम करने के लिए समाधानों को भी स्पष्ट किया गया है.[i]

इस बात को लेकर जागरुकता बढ़ रही है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई का अवसर तेज़ी से ख़त्म होता जा रहा है. लेकिन इसके बावजूद पिछले दशक 2010-2019 के बीच मानव इतिहास में सबसे ज़्यादा ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) का उत्सर्जन देखा गया.

इस बात को लेकर जागरुकता बढ़ रही है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई का अवसर तेज़ी से ख़त्म होता जा रहा है. लेकिन इसके बावजूद पिछले दशक 2010-2019 के बीच मानव इतिहास में सबसे ज़्यादा ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) का उत्सर्जन देखा गया. ये स्थिति तब है जब कि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में औसत सालाना बढ़ोतरी पिछले दशक (2000-2009) के दौरान 2.1 प्रतिशत के मुक़ाबले इस दशक में कम (1.3 प्रतिशत) रही. इसका अर्थ ये निकलता है कि सबसे ज़्यादा उत्सर्जन को रोकने के लिए औसत सालाना बढ़ोतरी की दर में और कमी आनी होगी. यहां तक कि ताज़ा राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी)[ii] के बारे में भी कहा जा रहा है कि वो 1.5 डिग्री सेल्सियस के तापमान को लक्ष्य को पूरा करने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत है, उससे कम है. वैसे तो इस राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान को लागू करने से ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कमी आएगी लेकिन 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के साथ तय उत्सर्जन के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा होगा.

इससे भी बढ़कर बात ये है कि 2010-2019 के दशक में सभी तरह की ग्रीन हाउस गैस के लिए सबसे ज़्यादा औसत वार्षिक उत्सर्जन दर्ज किया गया. 1990 के स्तर के मुक़ाबले 2019 में जीवाश्म ईंधन और उद्योगों से CO2 उत्सर्जन में असाधारण बढ़ोतरी देखी गई. इसमें 15 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड (GtCO2-eq yr-1) और प्रतिशत के मामले में 67 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई जो कि सभी तरह की ग्रीन हाउस गैस में सबसे ज़्यादा और प्रतिशत के मामले में दूसरा सबसे ज़्यादा है. वैश्विक स्तर पर प्रति व्यक्ति जीडीपी और जनसंख्या में बढ़ोतरी की पहचान कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में बढ़ोतरी के मुख्य स्रोत के तौर पर की गई है. ये उत्सर्जन 2010-2019 के दौरान जीवाश्म ईंधन के जलने का नतीजा है.

जनसंख्या में वृद्धि के बाद कुल मांग में बढ़ोतरी और आमदनी बढ़ाने की ज़रूरत, कुछ मामलों में तो एक संतोषजनक जीवन स्तर स्तर हासिल करने के लिए तो कुछ मामलों में बहुत ज़्यादा अमीर बनने की कोशिश के तहत, जलवायु परिवर्तन और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार हैं. बेशक़ मीथेन और उसके साथ-साथ नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जनों से ज़िम्मेदारियों को जोड़े जाने की दरकार है. हम इससे मुंह नहीं मोड़ सकते.

ये महत्वपूर्ण है कि एक स्पष्ट दिशा-निर्देश पेश किया जाए, ऐसा दिशा-निर्देश जिसमें इस बाक़ी कार्बन बजट का इस्तेमाल ग़रीबों और वंचितों के उत्थान के साथ-साथ आमदनी, लिंग और दूसरी असमानतों को कम करने, स्वास्थ्य और शैक्षणिक परिणामों को सुधारने के लिए खर्च बढ़ाने और दूसरे सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में असर डालने वाली बाधाओं से पार पाने के लिए हो.

सबसे ज़्यादा आमदनी वाला वर्ग वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 36-45 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार है. एक दीर्घकालिक लाइफस्टाइल के दृष्टिकोण से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में रहने वाले मध्यम आमदनी और ग़रीब वर्गों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली चीज़ों से होने वाला उत्सर्जन विकसित देशों के मध्यम और ग़रीब वर्गों के द्वारा उत्सर्जन से 5-15 गुना कम है.

एक स्पष्ट दिशा-निर्देश पेश करने की ज़रूरत

अलग-अलग आमदनी वाले समूहों के बीच कार्बन बजट के वितरण में ये असमानता बेहद साफ़ और अनुचित है. अगर ये असमानता जारी रहती है तो बाक़ी कार्बन बजट का इस्तेमाल टिकाऊ विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को हासिल करने से नहीं जुड़ा रहेगा. ये महत्वपूर्ण है कि एक स्पष्ट दिशा-निर्देश पेश किया जाए, ऐसा दिशा-निर्देश जिसमें इस बाक़ी कार्बन बजट का इस्तेमाल ग़रीबों और वंचितों के उत्थान के साथ-साथ आमदनी, लिंग और दूसरी असमानतों को कम करने, स्वास्थ्य और शैक्षणिक परिणामों को सुधारने के लिए खर्च बढ़ाने और दूसरे सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में असर डालने वाली बाधाओं से पार पाने के लिए हो.

कार्बन बजट के वितरण में असमानता ज़िम्मेदारी से खपत और उत्पादन के एसडीजी 12 पर ध्यान देने की ज़रूरत पर ज़ोर देती है, ख़ास तौर पर विकसित देशों के लिए. आईपीसीसी की रिपोर्ट में उन रास्तों की पहचान की गई है जिनके ज़रिए इस एसडीजी को हासिल किया जा सकता है जिसे मांग पक्ष में गंभीरता कम करने का विकल्प कहा गया है. इस तरह की रणनीति के उदाहरणों में हवाई यात्रा से परहेज करना, कम कार्बन उत्सर्जन वाले आवागमन के साधनों जैसे टहलना, साइकिल चलाना, इलेक्ट्रिक गाड़ियों एवं सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल, पौधों पर आधारित भोजन की तरफ़ बदलाव और इमारतों के संदर्भ में ऊर्जा दक्ष तकनीकों का इस्तेमाल बढ़ाना शामिल हैं. इस तरह की मांग आधारित रणनीति से 2050 तक ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 40-70 प्रतिशत तक की कमी की जा सकती है.

अगर दुनिया में 2025 से पहले अधिकतम उत्सर्जन तक पहुंचना है, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 2030 तक लगभग आधा करना है और 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना है तो भारत समेत अलग-अलग देशों को अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान और शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य में संशोधन करना पड़ेगा.

आईपीसीसी की रिपोर्ट का एक प्रमुख निष्कर्ष ये है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान के लक्ष्य को हासिल करना बेहद मुश्किल तो है लेकिन ये संभव है. इसके लिए तुरंत क़दम उठाने की ज़रूरत है. इसका ये अर्थ है कि अगर दुनिया में 2025 से पहले अधिकतम उत्सर्जन तक पहुंचना है, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 2030 तक लगभग आधा करना है और 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना है तो भारत समेत अलग-अलग देशों को अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान और शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य में संशोधन करना पड़ेगा. ये भारत जैसे देश के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है जिसे अपनी प्रति व्यक्ति जीडीपी बढ़ाने की ज़रूरत है और जहां 2050 तक जनसंख्या में वृद्धि होती रहेगी और ये दोनों बातें कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ाने में बड़ा योगदान देती हैं. इस चुनौती का एक पहलू जलवायु वित्त की उपलब्धता और इस वित्त का असरदार ढंग से इस्तेमाल करने के लिए देश की क्षमता के मामले में है. परिवर्तन की आवश्यक गति के साथ जुड़ी एक और चिंता ये है कि इस तरह का तेज़ परिवर्तन न्यायसंगत होने के साथ कितना उपयुक्त होगा. ये भी महत्वपूर्ण है कि जहां निवेश जलवायु के लिए अनुकूल हैं, वहीं उसे सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की आवश्यकता का भी ध्यान रखना होगा. इसलिए निवेशों को एक ही समय पर पर्यावरणीय और सामाजिक- दोनों लक्ष्यों को पाने की कोशिश करनी होगी. इसकी वजह से ऐसे वित्त को पाना और भी कठिन हो जाता है. भारत को इन सभी चिंताओं का समाधान करना होगा और इसके लिए एक ऐसी योजना बनानी होगी जो पेरिस समझौते और 2030 के एजेंडे की आवश्यकताओं का संपूर्ण रूप से ध्यान रखे.

प्रति व्यक्ति जीडीपी और जनसंख्या में वृद्धि की वजह से न सिर्फ़ CO2 उत्सर्जन में बढ़ोतरी हो रही है बल्कि ये सालाना क्रमश: 2.3 प्रतिशत और 1.2 प्रतिशत उत्सर्जन में बढ़ोतरी के लिए भी ज़िम्मेदार हैं. उत्सर्जन में ये बढ़ोतरी जीडीपी की ऊर्जा तीव्रता और कार्बन तीव्रता में दर्ज कमी के मुक़ाबले ज़्यादा है जो क्रमश: -2 प्रतिशत प्रति वर्ष और -0.3 प्रतिशत प्रति वर्ष है. संसाधन और ऊर्जा दक्षता के साथ-साथ कार्बन कम करने की कोशिशों का वैश्विक स्तर पर कुल मांग की वजह से लाभ नहीं मिल रहा है और इसके कारण ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन बढ़ रहा है. लेकिन इसके बावजूद इन कोशिशों की वजह से लगता है कि ऊर्जा आपूर्ति से सालाना ग्रीन हाउस गैस का औसत उत्सर्जन 2000-2009 के 2.3 प्रतिशत के मुक़ाबले कम होकर 2010-2019 में एक प्रतिशत रह गया है. इसके अलावा उद्योग से उत्सर्जन की दर भी 2000-2009 के 3.4 प्रतिशत से गिरकर 2010-2019 के बीच 1.4 प्रतिशत रह गई है.

महत्वपूर्ण सवाल

हालांकि, महत्वपूर्ण सवाल ये है कि कौन से क्षेत्र ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में वृद्धि को बढ़ा रहे हैं. वैसे तो सभी क्षेत्रों जैसे कि ऊर्जा, कृषि, वानिकी, ज़मीन के दूसरे इस्तेमाल, परिवहन, उद्योग और इमारत ने ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में बढ़ोतरी दर्ज की लेकिन 34 प्रतिशत के साथ ऊर्जा क्षेत्र ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में सबसे ज़्यादा हिस्से के लिए ज़िम्मेदार है. इसके बाद 24 प्रतिशत के साथ उद्योग, 22 प्रतिशत के साथ कृषि, वानिकी और ज़मीन के दूसरे इस्तेमाल, 15 प्रतिशत के साथ परिवहन और 5.6 प्रतिशत के साथ इमारत हैं. अगर ऊर्जा के इस्तेमाल से अप्रत्यक्ष उत्सर्जन को जोड़ दिया जाए तो उत्सर्जन में उद्योग का हिस्सा बढ़कर लगभग 34 प्रतिशत और इमारत का हिस्सा बढ़कर क़रीब 17 प्रतिशत हो जाता है. इसके अलावा उत्सर्जन में बढ़ोतरी की ये गति परिवहन (2 प्रतिशत प्रति वर्ष) और उद्योग (1.4 प्रतिशत प्रति वर्ष) क्षेत्र में सबसे ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी है.

औद्योगिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के स्रोत हैं ईंधन का जलना, कच्चे माल के रसायन में बदलने की प्रक्रिया, उत्पाद का उपयोग एवं कूड़ा, और बिजली एवं तापमान का पैदा होना. उद्योग में इस्तेमाल होने वाले सामान में बढ़ोतरी की रफ़्तार वर्ष 2000 से प्रति व्यक्ति जीडीपी की रफ़्तार से आगे बढ़ रही है.

उद्योग क्षेत्र पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है जो कि ऊर्जा क्षेत्र की तरह ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में योगदान देता है यानी 34 प्रतिशत (जब अप्रत्यक्ष उत्सर्जन को जोड़ दिया जाए) और इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत तेज़ रफ़्तार से भी उत्सर्जन बढ़ा है. वैश्विक स्तर पर कुल मांग में बढ़ोतरी का एक आवश्यक परिणाम औद्योगीकरण है. मांग को पूरा करने की वजह से औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलेगा. बुनियादी सामानों और तैयार उत्पाद की मांग में तेज़ बढ़ोतरी औद्योगिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है.

वैसे तो औद्योगिक क्षेत्र के संदर्भ में ऊर्जा दक्षता में सुधार दिख रहा है लेकिन कार्बन तीव्रता अभी भी एक समस्या बनी हुई है. वर्ष 2000 से औद्योगिक क्षेत्र से उत्सर्जन किसी भी दूसरे क्षेत्र के उत्सर्जन के मुक़ाबले तेज़ी से बढ़ रहा है. औद्योगिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के स्रोत हैं ईंधन का जलना, कच्चे माल के रसायन में बदलने की प्रक्रिया, उत्पाद का उपयोग एवं कूड़ा, और बिजली एवं तापमान का पैदा होना. उद्योग में इस्तेमाल होने वाले सामान में बढ़ोतरी की रफ़्तार वर्ष 2000 से प्रति व्यक्ति जीडीपी की रफ़्तार से आगे बढ़ रही है. इस्पात, सीमेंट, प्लास्टिक, लुगदी और कागज़ जैसी सामग्रियों और रसायन, जिनमें न्यूनतम से लेकर शून्य ग्रीन हाउस गैस ऊर्जा वाहक और कच्चे सामान की ज़रूरत होती है, की प्राथमिक उत्पादन प्रक्रिया में बदलाव से औद्योगिक उत्सर्जन में कमी आ सकती है और बदलाव से ऐसे प्राथमिक उत्पादन की आवश्यकता को कम किया जा सकता है. प्राथमिक उत्पादन प्रक्रिया में बदलाव में शामिल हैं ऐसी प्रक्रियाओं की तरफ़ परिवर्तन जिनमें बिजली, हाइड्रोजन, जैव ईंधन, इत्यादि का इस्तेमाल होता है. बिजली के सीधे इस्तेमाल या हाइड्रोजन के उपयोग के ज़रिए अप्रत्यक्ष विद्युतीकरण ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीति बनती जा रही है. प्राथमिक उत्पादन की आवश्यकता को कम करने के लिए सामानों की मांग को कम करना, सामानों की दक्षता और वृत्तीय अर्थव्यवस्था के हस्तक्षेप शामिल हैं.

राह में अड़चनें

उत्सर्जन कम करने के लिए ऊपर जिस रणनीति की बात की गई है, उसमें कुछ बाधाएं भी हैं. जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा वाहक और कच्चे माल, जैव ईंधन या बिजली आधारित विकल्पों के मुक़ाबले अपेक्षाकृत कम खर्चीले हैं. आईपीसीसी की रिपोर्ट में ये माना गया है कि सभी औद्योगिक क्षेत्रों में जहां न्यूनतम से लेकर शून्य उत्सर्जन की तकनीकें मौजूद हैं वहीं लागत और उत्सर्जन में कमी के संबंध में उनका फ़ायदा उठाने के लिए ‘5-15 वर्ष तक काफ़ी ज़्यादा इनोवेशन, उनके व्यावसायिक इस्तेमाल और नीति’ की आवश्यकता है. ऐसा करने से प्राथमिक उत्पादन की उत्सर्जन तीव्रता के लिए आवश्यक हस्तक्षेप को बढ़ावा मिल सकता है और प्राथमिक उत्पादन की ज़रूरत को भी कम किया जा सकता है. लेकिन इससे बुनियादी सामग्रियों जैसे इस्पात, सीमेंट, प्लास्टिक, लुगदी एवं कागज़, और रसायन की उत्पादन लागत में उल्लेखनीय बढ़ोतरी होगी.

इस मामले में सरकार आरएंडडी (रिसर्च एंड डेवलपमेंट) को प्रोत्साहन देने, कर रियायत मुहैया कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. साथ ही सरकार उत्पादन और इन तकनीकों और हस्तक्षेप के व्यावसायिक इस्तेमाल को समर्थन देने के लिए उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन भी दे सकती है और दूसरी अनुकूल नीतियां बना सकती है जो बाज़ार में सफल होने में उत्पादकों और इन तकनीकों एवं हस्तक्षेप को अपनाने वालों की मदद करेगी.

आईपीसीसी की रिपोर्ट में ये माना गया है कि सभी औद्योगिक क्षेत्रों में जहां न्यूनतम से लेकर शून्य उत्सर्जन की तकनीकें मौजूद हैं वहीं लागत और उत्सर्जन में कमी के संबंध में उनका फ़ायदा उठाने के लिए ‘5-15 वर्ष तक काफ़ी ज़्यादा इनोवेशन, उनके व्यावसायिक इस्तेमाल और नीति’ की आवश्यकता है.

ऊर्जा दक्षता के लिए ज़रूरी हस्तक्षेपों के साथ भागीदारी में महत्वपूर्ण अनुभव को देखते हुए इन हस्तक्षेपों की विशेषता को अच्छी तरह समझा जा चुका है और जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य में इनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व है. लेकिन सामानों की दक्षता, वृत्तीय अर्थव्यवस्था और जीवाश्म ईंधन से मुक्त प्राथमिक प्रक्रिया से संबंधित हस्तक्षेपों के जटिल स्वभाव और उनकी लागत का अनुमान लगाने में कठिनाई को देखते हुए इन हस्तक्षेपों को जलवायु परिवर्तन के मॉडल में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. इसकी वजह से जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कम करने की लागत और वैकल्पिक हस्तक्षेपों की आवश्यकता के संबंध में अनुमान बिगड़ सकते हैं. हस्तक्षेपों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलने के बावजूद जलवायु परिवर्तन का मॉडल ऊर्जा दक्षता से ज़्यादा ध्यान अब सामग्रियों की दक्षता, जीवाश्म ईंधन से मुक्त ऊर्जा वाहकों एवं कच्चे माल पर निर्भरता और वृतीय अर्थव्यवस्था की रणनीतियों के रूप में बड़े सुधारों की तरफ़ बदलाव का संकेत देता है.

आगे की राह

इन बड़े बदलावों का बेहतर फ़ायदा उठाने के लिए ये महत्वपूर्ण है कि उनमें निवेश किया जाए और उनके साथ ज़्यादा संबंध रखा जाए. इस बात की आवश्यकता है कि इन बड़े बदलाव वाले हस्तक्षेपों को बेहतर ढंग से समझने पर रिसर्च की जाए और उनकी लागत का उचित अनुमान सही ढंग से लगाया जाए.

आख़िर में, ये लेख आईपीसीसी की ताज़ा रिपोर्ट में औद्योगिक उत्सर्जन पर ध्यान देने की ज़रूरत के बारे में दी गई दलील का सार प्रस्तुत करता है. आम तौर पर ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के मामले में चर्चा का केंद्र ऊर्जा क्षेत्र पर रहा है लेकिन शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य ये ज़रूरी बनाता है कि कुछ चर्चा औद्योगिक उत्सर्जन को लेकर भी हो. आईपीसीसी की रिपोर्ट ने औद्योगिक उत्सर्जन की गंभीरता को कम करने में आने वाले चुनौतियों और ऐसा करते समय आगे के रास्तों के बारे में बताया है. इस लेख ने उन आगे के रास्तों के ज़रिए इन चुनौतियों के समाधान की रूप-रेखा को प्रस्तुत किया है.


[i] This article is based on the technical summary of the report

[ii] Announced until 11th October 2021

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