Author : Shashi Tharoor

Published on Sep 02, 2020 Updated 0 Hours ago

अब यह सामने आ रहा है कि नाज़ी-विरोधी संघर्ष के महान नायक चर्चिल, फ़ासीवाद और तानाशाही के प्रशंसक रहे हैं. यहां तक कि लोकतंत्र कायम करने की दिशा में भी उन्होंने देर से हरकत दिखाई.

विंस्टन चर्चिल पर ‘पुनर्विचार’ भाग-1: शशि थरूर

विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि “इतिहास मेरे प्रति दयालु होगा क्योंकि मैंने ख़ुद इसे लिखने का फैसला किया है.” वो सही साबित हुए. बीसवीं सदी जनसंहार के प्रशंसक नेताओं से ओत-प्रोत है, और केवल चर्चिल ही हैं जो उस नफ़रत और अपमान से बचे रहे हैं, जो हिटलर और स्टालिन जैसे उनके समकक्ष दूसरे नेताओं को मिली. यहां तक कि चर्चिल को 1953 में नोबेल पुरस्कार मिला और 2018 में ऑस्कर भी.

हॉलीवुड ने इस बात की पुष्टि की है कि  हैरोल्ड इवांस ने जब चर्चिल को “सभ्यता की प्राचीर पर खड़ा एक ब्रितानी शेरदिल” कहा तो उनकी यह छवि, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान की गई बयानबाज़ी और जोश भरे हुंकार पर टिकी है. चर्चिल ने भव्य रूप से घोषणा की थी कि उनके पास “खून, मेहनत, आँसू और पसीने” के अलावा देने को और कुछ नहीं है. अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय देते हुए उन्होंने एक ऐसा वाक्यांश गढ़ा जो इतिहास में दर्ज हो गया. उन्होंने कहा “हम न तो झंडा फहराएंगे और न ही पराजित होंगे. हम अंत तक लड़ेंगे…हम उनसे समुद्र तटों पर लड़ेंगे, हम उनसे मैदानों में लड़ेंगे, हम उनसे खेतों में लड़ेंगे और सड़कों पर भी लड़ेंगे…हम कभी आत्मसमर्पण नहीं करेंगे.” (चर्चिल के इस उद्घोष को संशोधनवादी ब्रिटिश इतिहासकार जॉन चार्मले ने “उत्कृष्ट क्षेणी की बकवास” कहकर नकारा.)

चर्चिल को इस बात पर विश्वास था कि “केवल शब्द ही हैं जो हमेशा ज़िंदा रहते हैं.”

“आप पूछते हैं कि हमारा लक्ष्य क्या है? मैं एक शब्द में उत्तर दे सकता हूं: जीत, किसी भी कीमत पर जीत.” ये जीत, जैसा कि चार्मले ने कहा है, ब्रितानी साम्राज्य के अंत का कारण बनी. इसके चलते चर्चिल ख़ुद, युद्ध से थके ब्रिटेन और उसके लोगों द्वारा 1945 के चुनाव में बाहर निकाल दिए गए. यही वजह है कि हर कोई चर्चिल के इस उद्घोष और बयानबाज़ी का कायल नहीं है. ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री रॉबर्ट मेंज़ीस ने द्वितीय  विश्वयुद्ध के दौरान चर्चिल के बारे में कहा था कि: “उनकी सबसे बड़ी तानाशाही थी वो उद्घोष, वो सुनहरे अक्षरों में लिखा गया बयान, जो उनके दिमाग़ में इस तरह घर कर चुका था कि मुंह बाये खड़े तथ्य भी पीछे रह जाएं.”

ब्रितानी पुस्तकों और सिनेमा ने चर्चिल की छवि को एक अजेय बुलडॉग की छवि के साथ जोड़ दिया. एक ऐसी शख़्सियत जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन को अडिग रखा वो भी ऐसा समय में जब सत्ता और स्थापना से जुड़े बहुत सारे लोग शांति चाहते थे. 

यह सही है कि सुनहरे अक्षरों में लिखे जाने वाले चर्चिल के बयान उनके सबसे बड़े पैरोकार थे. वो बयानबाज़ी करने और विवादास्पद बातों से कभी नहीं चूके. चर्चिल मानते थे कि “केवल शब्द ही हैं जो हमेशा ज़िंदा रहते हैं,” अपने बयानों के चलते, पिछले कुछ सालों में चर्चिल को जिस महाकाव्यात्मक तरीके से याद किया गया है, उसे देखकर लगता है कि वो सही थे. अंतत: चर्चिल के समर्थकों और चाहने वालों के पास शब्दों का ही सहारा है. उनके फैसले या उनके द्वारा किए गए काम कोई दूसरी ही कहानी कहते हैं. ब्रितानी किताबों और सिनेमा में चर्चिल की

ब्रितानी पुस्तकों और सिनेमा ने चर्चिल की छवि को एक अजेय बुलडॉग की छवि के साथ जोड़ दिया. एक ऐसी शख़्सियत जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन को अडिग रखा वो भी ऐसा समय में जब सत्ता और स्थापना से जुड़े बहुत सारे लोग शांति चाहते थे. चर्चिल तीक्ष्ण बुद्धि और वाक-पटुता से लैस वो सांसद थे जो उस समय राजनीति पर हावी थे जब ब्रिटेन दुनियाभर में साम्राज्य का केंद्र था. द्वितीय विश्वयुद्ध को लेकर चर्चिल ने आसक्ति और प्रशंसा से ओत-प्रोत जो ऐतिहासिक संस्करण लिखे उनसे प्रभावित होकर उस नोबेल समिति ने, जो तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में उन्हें शांति का नोबेल नहीं दे सकती थी, उन्हें साहित्य का नोबेल दे डाला. इस पुरस्कार ने चर्चिल की काल्पनिक और अवास्तविक खूबियों और उपलब्धियों को श्रद्धांजलि देने का काम किया.

लेकिन जिन कुरूप तथ्यों की ओर मेंज़ीस ने इशारा किया उनके बारे में कम ही चर्चा हुई है. इस फ़ेहरिस्त की शुरुआत होती है चर्चिल के अक्खड़ राजनीतिक जीवन से. कैबिनेट मीटिंग में उनके अंहकार और हेकड़ी को देखते हुए प्रथम विश्वयुद्ध के महानिदेशक पोस्टमास्टर चार्ल्स हॉबहाउस ने उन्हें, अशिष्ट, बड़बोला, अनैतिक और बिना किसी विशेष खूबी वाले व्यक्ति के रूप में उल्लेखित किया.

यह सही है कि चर्चिल के पास शर्मिंदा होने के कई कारण थे. सैन्य मामलों पर उनके विनाशकारी निर्णय, 1915 में गैलीपोली में हुई भयंकर हार जब वो फर्स्ट लॉर्ड ऑफ एडमिरल्टी नियुक्त थे और 1940 में नॉर्वे में एक बार फिर कुछ ऐसा ही सामने आया. चर्चिल के नेतृत्व ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जीत दिलवाई यह विचार, इस आकलन के सामने ध्वस्त हो जाता है कि 1943 में उन्होंने यूरोप के पूर्वनियोजित आक्रमण को टालकर 1942 में गैर-ज़रूरी रूप से उत्तर-अफ्रीका में अभियान शुरु किया (जिसके चलते एलाइड-सेना को इटली में हार का सामना करना पड़ा, जहां के ज़मीनी हालात पूरी तरह से दूसरी सेना के पक्ष में थे) एक सैन्य रणनीतिकार के रूप में, चर्चिल अक्सर ग़लती करते थे लेकिन कभी दुविधा में नहीं पड़े. खून बहाने के प्रति उनकी तत्परता उतनी ही थी जितना शब्दाडंबर और बयानबाज़ी के प्रति उनका लगाव.

साल 1910 में गृह सचिव के रूप में, उन्होंने दक्षिण वेल्स के टोनिपेंडी में हड़ताली खनिकों पर हमला करने के लिए, लंदन से पुलिस की बटालियनों को भेजा और कार्डिफ़ में सैनिकों की एक अतिरिक्त टुकड़ी तैनात की ताकि पुलिस अगर कम पड़ जाए तो खनिकों पर कार्रवाई के लिए सैनिकों को रवाना किया जा सके. ऐसा करके उन्होंने खनिकों के बजाय खदान और कंपनी मालिकों के हित में काम किया. यह एक ऐसा फैसला था जिसे वेल्स में आज भी एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है. “टोनिपैंडी” का नाम एक कलंक बन चुका है और इसी के चलते लेबर पार्टी के नेता जॉन मैकडोनाल्ड ने “राक्षस” कहकर चर्चिल की निंदा की.

यह राक्षसी प्रवृत्ति ही थी कि मालिकों के हक में चर्चिल, हत्याएं करने के लिए तैयार थे, और उनके हित सुरक्षित करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश राज्य की पूरी सैन्य ताकत लगा दी गृह सचिव के रूप में वो निजी रूप से सेना को निर्देश देना और उस पर नियंत्रण करना पसंद करते थे. स्टेपनी में हथियारबंद लातवियाई बागियों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान उन्होंने पुलिस की कमान संभाली और जिस कमरे में बाग़ी फंसे थे वहां आग लगाकर उन्हें ज़िंदा जलाने का फैसला किया.

चर्चिल रूस की क्रांति के दमन के लिए मिलिट्री की मदद लिए जाने के पैरोकार थे. जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कम्यूनिस्टों और उनका साथ देने वालों को ‘अंतरराष्ट्रीय यहूदी’ कहा और दुनिया को उनसे होने वाले ख़तरों के बारे में बढ़-चढ़कर लिखा.

हालांकि, वह गृह सचिव की नौकरी में बहुत लंबे समय तक नहीं रहे, लेकिन इस पद ने आगे चलकर उन्हें ऐसे लोगों की हत्या के लिए प्रशिक्षित किया जिन्हें वो “नस्ल के रूप में कमतर” मानते थे. उन्होंने कहा था, “मैं स्वीकार नहीं करता,” कि “अमेरिका के रेड इंडियंस या ऑस्ट्रेलिया के अश्वेत लोगों के साथ कुछ गलत हुआ है, क्योंकि एक ऊंची और अधिक ताकतवर नस्ल ने उनकी जगह कमान संभाली है.” कुछ ही समय बाद 1918-23 में आयरिश स्वतंत्रता के लिए लड़ाई के दौरान, आयरिश प्रदर्शनकारियों पर हवाई बमबारी के पक्ष में मत रखने वाले ब्रिटिश अधिकारियों में से एक विंस्टन चर्चिल थे, जिन्होंने उड्डयन मंत्री के रूप में सुझाव दिया था कि प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए हवाई जहाज़ों को “मशीनगन फायर बमों” का इस्तेमाल करना चाहिए.

चर्चिल रूस की क्रांति के दमन के लिए मिलिट्री की मदद लिए जाने के पैरोकार थे. जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कम्यूनिस्टों और उनका साथ देने वालों को ‘अंतरराष्ट्रीय यहूदी’ कहा और दुनिया को उनसे होने वाले ख़तरों के बारे में बढ़-चढ़कर लिखा. (उनका मानना था कि इस ‘अंतरराष्ट्रीय यहूदी’ समुदाय से निपटने के लिए राष्ट्रीय यहूदियों की फ़ौज खड़ी करना ज़रूरी है, जिसे यहूदीवाद के रूप में समझा जाता है.) रूस के बोल्शेविक यानी क्रांतिकारी साम्यवादियों पर ज़हरीली गैस का इस्तेमाल करने के बाद उन्होंने इराक़ में भी ऐसा करने की पैरवी की. साल 1921 में मेसोपोटामिया में अशांति से निपटते हुए, उपनिवेशों के राज्य सचिव के रूप में, चर्चिल ने ख़ुद को एक युद्ध साबित करते हुए कहा कि: “मैं दृढ़ता से असभ्य जनजातियों के खिलाफ ज़हरीली गैस का उपयोग करने के पक्ष में हूं; यह आतंक का एक जीवंत उदाहरण पेश करेगा.” उन्होंने मेसोपोटामिया में बड़े पैमाने पर बमबारी का आदेश दिया, जिससे 45 मिनट में पूरा गांव उजड़ गया. इसी तरह, जब भारत में कुछ अधिकारियों ने “मूल निवासियों के खिलाफ ज़हरीली गैस के उपयोग” के उनके प्रस्ताव पर आपत्ति जताई, तो उन्होंने ये आपत्ति अतार्किक और “अनुचित” लगी. उन्होंने तर्क दिया कि ज़हरीली गैस उनका पूरी तरह सफाया करने से अधिक मानवीय कदम है. उन्होंने कहा: “नैतिक प्रभाव इतना बेहतर होना चाहिए कि जीवन का नुकसान कम से कम हो.”

अगर यह अजीब लगता है कि इस तरह के निंदनीय विचारों वाले व्यक्ति को आज लोकतंत्र का नायक माना जाना जा रहा है, तो यह भी जान लें कि: 1920 के दशक और 1930 के शुरुआती सालों में, चर्चिल मुसोलिनी के खुले प्रशंसक थे. साल 1920 में उन्होंने घोषणा की कि इतालवी फासीवादी आंदोलन ने पूरी दुनिया की मदद की है.” अगर आवश्यक हो तो वो ब्रिटेन में वो करने के लिए तैयार थे, जो मुसोलिनी ने इटली में किया था. उन्होंने कहा: “अगर मैं एक इतालवी होता तो मैं पूरी लगन के साथ आपके संघर्ष में शामिल होकर इसे इसके विजयी अंत तक पहुंचाता.” साल 1927 में रोम की यात्रा कर चर्चिल ने फासीवाद के प्रति अपने झुकाव को प्रकट करते हुए घोषणा की कि वो “दूसरे कई लोगों की तरह मुसोलिनी की नरमी और सादगी से प्रभावित हैं. वो इस बात के कायल हैं कि तमाम फैसलों के बोझ और ख़तरों के बाद भी मुसोलिनी शांत और स्थिर बने रहते हैं. इसके अलावा कोई भी यह देख और समझ सकता है कि वो हर हाल में केवल इतालवी लोगों का भला चाहते हैं.” (द टाइम्स, 21 जनवरी 1927)

नाज़ी-विरोधी संघर्ष का महान नायक, फ़ासीवाद और तानाशाही के प्रशंसक के रूप में सामने आया है. जहां तक लोकतंत्र का सवाल है, चर्चिल ने बहुत देर से इस विचार को अपनाया.

नाज़ी-विरोधी संघर्ष का महान नायक, फ़ासीवाद और तानाशाही के प्रशंसक के रूप में सामने आया है. जहां तक लोकतंत्र का सवाल है, चर्चिल ने बहुत देर से इस विचार को अपनाया. यहां तक कि साल 1931 में भारतीय प्रतिनिधियों के एक गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेते हुए, उन्होंने घोषणा की: “भारतीय कांग्रेस और इस आंदोलन से जुड़े अन्य तत्व संख्या, शक्ति या काबलियत के स्तर पर भारतीय लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. वे केवल उन भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने पश्चिमी सभ्यता को नज़दीक से देखा है और लोकतंत्र के बारे में उन किताबों को पढ़ा है, जिन्हें यूरोप अब ख़ुद त्यागने की तैयारी कर रहा है.” [आखिरी शब्दों पर जोर दिया गया है] दूसरे शब्दों में, लोकतंत्र एक ऐसा विचार था जिसे चर्चिल जैसे यूरोपीय लोग फासीवाद के सामने दरकिनार करने के लिए तैयार थे. जब ऐसी परिस्थितियां पैदा हुईं कि उन्हें लोकतंत्र के पुरोधा और आज़ादी के पैरोकार के रूप में सामने आना पड़ा, तब उन्हें इसे जनसंपर्क का अवसर मानते हुए ऐसा किया. लेकिन यह विचार कि चर्चिल हमेशा “लोकतंत्र, आज़ादी और पश्चिमी सभ्यता की अच्छाईयों के पक्ष में खड़े हुए,” जैसा कि एक उत्साही संवाददाता ने लिखा था, न तो उनकी सोच और विश्वास को दर्शाता है और न ही उनके द्वारा किए गए काम ऐसा कोई प्रमाण देते हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि नीतिगत रूप से चर्चिल एक चलती-फिरती असफ़लता थे. साल 1915 की गैलीपोली आपदा को गढ़ने वाले चर्चिल ने सोने के दाम और उसके मानकों के साथ खिलवाड़ कर अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को लगभग बर्बाद कर दिया. इसकी कीमत उन्होंने कैबिनेट से अपना पद गंवा कर चुकाई. साल 1931 तक वो पिछली पंक्ति में बैठने वाले ऐसे नेता बन चुके थे जो ओस्वॉल्ड मोसले जैसे ब्रिटेन के फासीवादी नेताओं के साथ थे. जर्मनी के कुछ खास लोगों ने तो उन्हें ब्रिटेन में नाज़ी समर्थन वाली “विशी” सरकार चलाने के सही उम्मीदवार के रूप में भी देखा था.


इस लेख के कुछ अंश डॉ. शशि थरूर के पुराने कॉलम Hero or War Criminal? Churchill in Retrospect ओपन पत्रिका 21 जून 2018; The Rest of Us Always Knew Churchill Was a Villain, ब्लूमबर्ग, 16 फरवरी 2019; और Hollywood Rewards a Mass Murderer, गल्फ़ न्यूज़, 14 मार्च 2018 में छप चुके हैं.

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