गाज़ा पट्टी में युद्ध छिड़े हुए सात महीने हो चले हैं और अभी भी इसका कोई दूरगामी समाधान निकलता नहीं दिख रहा है. हालांकि गाज़ा के युद्ध को लेकर अफ़ग़ानिस्तान की इस्लामिक अमीरात (IEA) में तालिबान की ‘कार्यवाहक’ सरकार का रवैया एक दिलचस्प केस स्टडी बन सकता है. तालिबान ने अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान पर दोबारा क़ब्ज़ा किया था. इस घटना को लगभग तीन साल हो गए हैं, और उसके बाद से ही तालिबान ने अपने पड़ोसी देशों, संगठनों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ साथ कुछ मुद्दों पर बेहद हल्के फुल्के कूटनीतिक और ग़ैर कूटनीतिक संबंध विकसित करने में सफलता प्राप्त की है.
तालिबान के नंबर दो नेता और कार्यवाहक गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक़्क़ानी ने ज़ोर देकर कहा था कि उन्हें ‘मज़हब के आधार पर’ तो फ़िलिस्तीनियों से हमदर्दी ज़रूर है. लेकिन, वो किसी अन्य देश के अंदरूनी मामले में दख़ल देने से बचेंगे.
वैसे तो गाज़ा के संकट को लेकर तालिबान के रवैये पर बहुत ज़्यादा रोशनी नहीं डाली गई है. लेकिन, इस समूह ने गाज़ा को लेकर दूरी बनाने की बड़ी स्पष्ट नीति को अपनाया है. 2 अप्रैल को कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी की अगुवाई में तालिबान द्वारा संचालित अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने सीरिया की राजधानी दमिश्क में ईरान के कूटनीतिक मिशन पर इज़राइल के उस हमले की कड़ी निंदा की थी, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि इसके ज़रिए, ईरान के वाणिज्य दूतावास को निशाना बनाया गया. हालांकि, तालिबान के इस बयान का असल मक़सद जवाबी कार्रवाई में ईरान के साथ खड़े होते दिखाना था. बयान में कहा गया था कि, ‘अफ़ग़ानिस्तान की इस्लामिक अमीरात दुनिया और इस इलाक़े के सभी प्रभावशाली देशों से मांग करती है कि वो यहूदी हुकूमत के अपराधों पर लगाम लगाएं.’
गाज़ा को लेकर तालिबान की प्रतिक्रिया
ईरान ने जब 14 अप्रैल को इज़राइल के ख़िलाफ़ ड्रोन और मिसाइलों के झुंड के ज़रिए हमला किया, तो अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता, अब्दुल क़हार बलख़ी ने ईरान की जवाबी कार्रवाई को, ‘आत्मरक्षा में उठाया गया वाजिब हक़’ करार दिया था. तालिबान ने इज़राइल पर इल्ज़ाम लगाया कि गाज़ा की जनता का वो जो ‘नरसंहार’ कर रहा है, उसी से ध्यान भटकाने और इस क्षेत्र को अस्थिर बनाने के लिए ही अन्य देशों की हवाई सीमा का उल्लंघन कर रहा है. जब पिछले साल अक्टूबर में गाज़ा में संकट की शुरुआत हुई थी, तब ये अटकलें लगाई जा रही थीं कि तालिबान शायद, लड़ाई के लिए अपने मुजाहिदीन को गाज़ा भेजेगा. ऐसी ख़बरें भी आई थीं कि अफ़ग़ानिस्तान की इस्लामिक अमीरात ने ईरान और इराक़ दोनों से गुज़ारिश की है कि वो तालिबान के लड़ाकों को गाज़ा तक पहुंचने के लिए अपने यहां से रास्ता दें. हालांकि, तालिबान ने इन ख़बरों का खंडन किया था. तालिबान के नंबर दो नेता और कार्यवाहक गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक़्क़ानी ने ज़ोर देकर कहा था कि उन्हें ‘मज़हब के आधार पर’ तो फ़िलिस्तीनियों से हमदर्दी ज़रूर है. लेकिन, वो किसी अन्य देश के अंदरूनी मामले में दख़ल देने से बचेंगे.
गाज़ा में युद्ध के शुरुआती महीनों में तालिबान ने बहुत संभलकर प्रतिक्रिया दी थी. इससे ये सोच बनी कि आज जब तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान पर अपनी पकड़ को मज़बूत बनाने की कोशिश कर रहे हैं, तो वो अमेरिका या किसी अन्य देश को नाराज़ नहीं करना चाहते हैं, और इसी वजह से वो गाज़ा के मसले पर बहुत सावधानी बरत रहे हैं. तालिबान ने कभी भी हमास का खुलकर समर्थन नहीं किया और शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब तालिबान के नेताओं की ज़ुबान पर हमास का नाम आया हो. हालांकि, दोनों संगठनों के बीच संपर्क होता रहा है. अप्रैल 2023 में क़तर में तालिबान के दूत ने दोहा में एक इफ़्तार पार्टी के दौरान हमास के सियासी ब्यूरो के प्रमुख इस्माइल हानिया से मुलाक़ात की थी. अगस्त 2021 में जब अमेरिकी सैनिकों की आख़िरी टुकड़ी ने अफ़ग़ानिस्तान छोड़ा था तो, हमास उन पहले संगठनों में से था, जिसने तालिबान को विदेशी ‘क़ब्ज़ा’ ख़त्म करने में कामयाबी के लिए मुबारकबाद दी थी. उस वक़्त इस्माइल हानिया ने कहा था कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की विदाई, दूसरे देशों पर अवैध क़ब्ज़ा करने वाली सारी ताक़तों के अंत का आग़ाज़ था, जिनमें सबसे पहला नंबर फिलिस्तीन पर अवैध क़ब्ज़ा करने वाले इज़राइल का होगा. इस्माइल हानिया से पहले हमास के दूसरे वरिष्ठ नेताओं जैसे कि मूसा अबु मारज़ूक ने भी तालिबान की ‘विजय’ को हौसला बढ़ाने वाली कामयाबी बताया था और अमेरिका से समझौता करने के बजाय उससे मुक़ाबला करने के लिए तालिबान की तारीफ़ की थी.
तालिबान की हुकूमत ने पश्चिमी तट पर इजरायल द्वारा यहूदियों की और बस्तियां बसाने और पूरे क्षेत्र में उसकी ‘इकतरफ़ा’ कार्रवाइयों को लेकर अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के असरदार होने, ख़ास तौर से अंतरराष्ट्रीय मानवीय क़ानूनों की नाकामी पर सवाल खड़े किए हैं.
उसके बाद से तालिबान, फ़िलिस्तीनी लोगों की मांग को अपना समर्थन बार बार दोहराता आया है. लेकिन, पिछले कुछ महीनों के दौरान अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान हुकूमत ने फ़िलिस्तीनी मसले का इस्तेमाल दो तरह से किया है: वैसे तो तालिबान गाज़ा और वेस्ट बैंक के बाशिंदों पर ढाए जा रहे ज़ुल्मों की निंदा करता रहा है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय और ‘प्रभावशाली देशों’ से ये अपील करता रहा है कि वो आगे बढ़ें और इज़राइल को ये ज़ुल्म ढाने से रोकें. इसके साथ साथ तालिबान उन्हीं ज़ुल्मों और फ़िलिस्तीनियों की मौत रोक पाने में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नाकामी के बहाने से इस बात की तरफ़ भी इशारा करता रहा है कि दुनिया ने अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर कैसी नाइंसाफ़ी की है. अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी के लफ़्ज़ों में ये ‘भयानक विरोधाभासों का युग’ है. जब दिसंबर 2023 में गाज़ा में युद्ध विराम के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को अमेरिका ने वीटो कर दिया था, तब तालिबान ने फ़िलिस्तीनियों पर ज़ुल्म के लिए अमेरिका को बराबर का ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसकी आलोचना की थी, और उस बात को एक बार फिर दोहराया था जिसका ज़िक्र तालिबान के बयानों में बार बार होता रहा है कि, अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय समुदाय मानव अधिकारों का इस्तेमाल अपने ‘सियासी हित’ साधने के लिए एक ‘हथियार’ के तौर पर करते हैं.
लेकिन, अपनी बयानबाज़ी में इज़ाफ़े के बावजूद तालिबान ने इस संकट में कोई ज़िम्मेदारी निभाने यानी इसमें ठोस तौर पर शामिल होने या फिर कोई सामरिक या रणनीतिक क़दम उठाने से परहेज़ किया है. तालिबान के विदेश मंत्रालय की तरफ़ से आने वाले ज़्यादातर बयानों में ज़िम्मेदारी का बोझ अन्य समूहों- प्रभावशाली देशों, क्षेत्रीय ताक़तों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और मानवाधिकार संगठनों पर डाल दिया है और उन पर दबाव बनाया है कि वो ज़बानी जमा ख़र्च के बजाय ठोस क़दम उठाएं. तालिबान ने इस क्षेत्र में इजरायल की इकतरफ़ा कार्रवाई को लेकर बहुपक्षीय संगठनों की भी आलोचना की है, और ये कहा है कि इससे मौजूदा विश्व व्यवस्था की फ़ौरन मरम्मत करने की ज़रूरत ज़ाहिर होती है. तालिबान की हुकूमत ने पश्चिमी तट पर इजरायल द्वारा यहूदियों की और बस्तियां बसाने और पूरे क्षेत्र में उसकी ‘इकतरफ़ा’ कार्रवाइयों को लेकर अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के असरदार होने, ख़ास तौर से अंतरराष्ट्रीय मानवीय क़ानूनों की नाकामी पर सवाल खड़े किए हैं. अन्य देशों की हवाई सीमा के उल्लंघन को लेकर तालिबान की चिंता, हाल ही में पाकिस्तान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान पर किए गए हवाई हमलों, और अमेरिका द्वारा 2022 में अफ़ग़ानिस्तान में अल क़ायदा के नेता अयमन अल ज़वाहिरी को निशाना बनाने से जुड़ी हुई है.
तालिबान का रुख़
तालिबान को इस बात का बख़ूबी अंदाज़ा है कि उसे अपने वैचारिक आधार और अपनी राजनीतिक और सरकारी प्राथमिकताओं के बीच संतुलन बनाना ही होगा. ज़ाहिर है कि ये बात कहना जितना आसान है, उससे ज़्यादा मुश्किल इसे लागू करना है. अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार ने बहुत से स्तरों पर ये स्वीकार किया है कि हुकूमत चलाने की अपनी पेचीदगियां हैं. वैसे तो बहुत से लोगों का ये मानना है कि एक हद के बाद ‘नया अफ़ग़ानिस्तान’ इस बात को लेकर बहुत फ़िक्रमंद नहीं है कि उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलें. हालांकि, ये बात आंशिक रूप से ही सच है.
भारत समेत कई देश अब नियमित रूप से तालिबान से संपर्क कर रहे हैं. चीन जैसे देश तो इससे भी एक क़दम आगे बढ़ गए हैं. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बीजिंग में तालिबान द्वारा नियुक्त राजदूत असदुल्लाह बिलाल करीमी की नियुक्ति को स्वीकार किया था. 2022 तक 35 से ज़्यादा देशों ने तालिबान के साथ बातचीत के दरवाज़े खोल दिए थे. जहां चीन और रूस के साथ तालिबान के नज़दीकी रिश्तों को बड़ी ताक़तों के बीच होड़ के चश्मे से देखा जाता है. वहीं, मध्य पूर्व, दक्षिणी पूर्वी एशिया और मध्य एशिया के मुस्लिम देशों के साथ तालिबान की बातचीत में जटिलताओं की कई परतें जुड़ी हुई हैं कि किस तरह राजनीति को लेकर चर्चा होती है और इसको लेकर क्या रुख़ रहता है. जेद्दाह स्थित इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) के प्रतिनिधियों ने हाल ही में तालिबान हुकूमत के अधिकारियों से काबुल में मिलकर अफ़ग़ान नागरिकों के अधिकारों और विकास को लेकर चर्चा की थी. इस बातचीत में लड़कियों की पढ़ाई का विवादित मसला भी शामिल था. तालिबान के भीतर मतभेदों की वजह से ही लड़कियों की पढ़ाई के मुद्दे पर कोई प्रगति नहीं हो पा रही है. वैसे तो तालिबान सार्वजनिक रूप से जातीय विभाजनों से इनकार करता है और यहां तक कि बहुलता को समर्थन देने की बात करता है. इसमें ये बात भी शामिल है कि तालिबान ने हिंदुओं और सिखों जैसे अल्पसंख्यकों की संपत्तियां उनको वापस करने की बात भी कही है. हालांकि, ज़मीनी हक़ीक़त इससे कहीं ज़्यादा अलग है.
इस सच्चाई के बावजूद होगा कि अल क़ायदा ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का हुक्म मानना शुरू कर दिया है, ताकि तालिबान की सरकार को सियासी वैधता हासिल करने में मदद मिल सके.
हालांकि, तालिबान के लिए मुसलमानों के लिए बेहद अहम फ़िलिस्तीन के मसले से ज़्यादा दूरी बनाना, जितना दिख रहा है, उससे कहीं अधिक मुश्किल है. लगभग तीन दशक तक वैचारिक रट्टा लगवाने के बाद तालिबान का रुख़ बदलना, इसके लड़ाकों को मुजाहिदीन से अधिकारी, कर्मचारी रिशेप्सनिस्ट और एकाउंटेंट बनाना इतना आसान काम भी नहीं है. सोशल मीडिया पर तालिबानी लड़ाकों के ऐसे कई वीडियो आए हैं, जिनमें वो इज़राइल और अमेरिका से जंग लड़ने की क़समें खाते दिख रहे हैं. ईरान जैसे देशों ने पहले भी अफ़ग़ानिस्तान के शिया लोगों को फातेमियून ब्रिगेड के झंडे तले एकजुट करके लड़ने के लिए सीरिया भेजा था. अगर फ़िलिस्तीन का संकट और लंबा खिंचता है, तो राजनीतिक और जातीय स्तर पर बंटे हुए अलग अलग समूह भी इस बड़े मक़सद के लिए साथ आ सकते हैं. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों में अक्सर इस सच्चाई को दोहराया गया है कि अल क़ायदा जैसे आतंकवादी संगठन अभी भी अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय हैं. वहीं ज़्यादा बड़बोड़े इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश) की तरफ़ से फ़िलिस्तीन (हालांकि, हमास और तालिबान दोनों ही दाएश की आलोचना करते हैं) को आज़ाद कराने का नैरेटिव बनाने से अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और मध्य एशिया में हथियारबंद आतंकवादियों की भर्ती की नई मुहिम शुरू हो सकती है. इस सच्चाई के बावजूद होगा कि अल क़ायदा ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का हुक्म मानना शुरू कर दिया है, ताकि तालिबान की सरकार को सियासी वैधता हासिल करने में मदद मिल सके. इसका एक उदाहरण इस बात से दिया जा सकता है कि अलकायदा ने 2022 में अमेरिकी के एक ड्रोन हमले में अयमान अल जवाहिरी की मौत की ख़बर तक की पुष्टि नहीं की थी. इससे तालिबान को ये स्टैंड ले पाने में आसानी हो जाती है कि अफ़ग़ानिस्तान में अलकायदा के आतंकवादी मौजूद नहीं हैं.
तालिबान के राजनीतिक नेताओं के लिए अंदरूनी तालमेल बनाना ही इकलौता एजेंडा है क्योंकि उनके पास चुनौतियों की लंबी फ़ेहरिस्त तो पहले से ही मौजूद है.
तालिबान के कुछ लड़ाकों ने सोशल मीडिया पर सार्वजनिक रूप से बयान जारी किए हैं, जिसमें वो निजी तौर पर तालिबान के सर्वोच्च नेता हिबतुल्लाह अख़ुंदज़ादा और कार्यवाहक रक्षा मंत्री मुल्ला याक़ूब, जो मुल्ला उमर का बेटा है, उससे ये अपील कर रहे हैं कि वो उन्हें गाज़ा में लड़ने जाने की इजाज़त दे दें. कई दशकों से अब तक सिर्फ़ विचारधारा के नाम पर लड़ते आए तालिबान के आम लड़ाकों के बीच ये ख़्वाहिश कितनी गहरी है, इसका वास्तविक तौर पर अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है. हां, इससे एक अनजान ख़तरे की मौजूदगी का पता ज़रूर चलता है.
निष्कर्ष
गाज़ा युद्ध को लेकर तालिबान बहुत खुलकर बयानबाज़ी नहीं कर रहा है. इसके उलट, तालिबान ने अपने बयानों से अपना रुख़ तो साफ़ कर दिया है. लेकिन, वो न तो खुलकर ईरान के साथ खड़ा दिखता है, न अरब देशों के ही साथ. तालिबान जैसे समूह के लिए एक नियंत्रित ‘सामरिक स्वायत्तता’ बनाने की जटिलताएं, काबुल में इसके सियासी नेतृत्व और कंधार में तालिबान के वैचारिक नेतृत्व यानी मुल्ला अख़ुंदज़ादा के लिए एक बड़ी चुनौती होगी. तालिबान के राजनीतिक नेताओं के लिए अंदरूनी तालमेल बनाना ही इकलौता एजेंडा है क्योंकि उनके पास चुनौतियों की लंबी फ़ेहरिस्त तो पहले से ही मौजूद है. हालांकि, तालिबान के लड़ाकों के अगुवा शायद बिल्कुल ही अलग ख़यालात रखते हों. और, अगर उनके वैचारिक ख़यालात को राजनीतिक नेतृत्व अब पूरा नहीं कर सकता, तो फिर तालिबान के आंदोलन की सीमाओं और दीवारों से दूसरे विकल्पों की तलाश करने लगेंगे. हमने 1970 और 1980 के दशक आख़िर में ऐसा होते देखा भी था.
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