Author : Sunjoy Joshi

Published on Nov 20, 2021 Updated 0 Hours ago

COP26 जैसे आयोजनों की तैयारी काफी पहले शुरू की जाती है. इस बार कई परिस्थितियां ऐसी जुड़ीं, मसलन कोविड, अमेरिका-चीन का व्यापार युद्ध, आदि जिन से COP26 की सजधज थोड़ी फीकी रहीं. 

‘COP26: जलवायु परिवर्तन कोई गिल्ली-डंडे का खेल नहीं’

COP26 की गहमा-गहमी 

100 से ज्य़ादा देशों की लगातार दो हफ़्ते तक ग्लासगो के COP-26 सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर लंबी गहमा-गहमी हुई. सम्मेलन समाप्ति पर तनिक विचार करें कि आख़िर इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन से दुनिया को क्या हाथ लगा. 

आमतौर पर COP26 जैसे आयोजनों की तैयारी काफी पहले शुरू की जाती है. इस बार कई परिस्थितियां ऐसी जुड़ीं, मसलन कोविड, अमेरिका-चीन का व्यापार युद्ध, आदि जिन से    COP26 की सजधज थोड़ी फीकी रहीं. सभवत: इस सम्मेलन की नाकामी का ठीकरा कुछ हद तक इसकी तैयारी में हुई कमियों पर भी फोड़ा जा सकता है. पिछले दो साल से संपूर्ण विश्व कोविड की चपेट में है, चीन और अमेरिका की तना-तनी थमने का नाम नहीं लेती और फिर रही-सही वाट गैस और कोयले की किल्लत और कीमतों में भयानक उछाल ने पूरी कर दी. Fossil इंधनों पर सब्सिडी हटाने पर शोर मचाते यूरोपीय देश खुद सब्सिडी की आस लगाते दिखे. COP26 और जलवायु परिवर्तन के ख़तरे से ध्यान बंटना ही था. 

COP26 के सम्मेलन से वास्तव में स्पष्ट हो गया कि COP सम्मेलन जलवायु परिवर्तन को रोकने की कवायद के बारे में कम, सियासी भू-राजनीति के बारे में अधिक बन गए हैं.

COP26 के परिणामों से COP अध्यक्ष, ब्रिटेन के आलोक शर्मा जी, स्वयं खासे निराश नजर आए. बस किसी तरह से डूबते को तिनके का सहारा मिला. पेरिस समझौते की 1.5 डिग्री वॉर्मिंग की सीमा की सांस भर बरकरार रही, वह भी वेंटिलेटर पर. बचने की उम्मीद न के बराबर. 

COP26 के सम्मेलन से वास्तव में स्पष्ट हो गया कि COP सम्मेलन जलवायु परिवर्तन को रोकने की कवायद के बारे में कम, सियासी भू-राजनीति के बारे में अधिक बन गए हैं.  ग्लासगो में देखा गया कि हमेशा की तरह अधिकतर चर्चाओं में विकसित देश ही तमाम COP पर हावी रहे. लेकिन यहाँ आख़िरी दिन मसौदे में हुए परिवर्तन ऐसे थे कि लगा की, शायद बाज़ी पलटी है. 

विकसित और विकासशील का अंतर

सब लोग तूल दे रहे हैं कोयले को “phase out” करने की बजाय “phase down” करने की शब्दावली परिवर्तन पर. किन्तु मेरे विचार में इससे अधिक महत्वपूर्ण रहा इससे अगला हस्तक्षेप जिसने भारत के दख़ल से अंतिम मसौदे में घुसपैठ कर लिया. बात कोयले के phase out या phase down के विवाद की नहीं है. वास्तव में असली मुद्दा तो यह है की विकासशील देश गैर-कार्बन युग की नयी ऊर्जा व्यवस्था की संस्थापना करें तो किस प्रकार? परिवर्तित मसौदा ने स्पष्ट कर दिया की यह परिवर्तन विकासशील देशों की राष्ट्रीय परिस्थितियों और उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप, कमजोर तबकों को सहायता मुहैया कराने की साथ किया जाएगा. जो जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक आहत हो सकते हैं – उनकी राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप तर्कसंगत व न्यायसंगत परिवर्तन अनिवार्य है.

जलवायु परिवर्तन का असली कारण वातावरण में समस्त एकत्रित कार्बन है जिसकी सर्वाधिक ज़िम्मेदारी अमीर देशों पर ही पड़ती है. अब तक एकत्रित कार्बन पर विकसित देश बात करना ही नहीं चाहते.

इससे पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन में भारत का पंचामृत अर्पण किया – कैसे भारत जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए अग्रसर है. साथ ही सीख दी उन विकसित देशों को, जो विश्व के सीमित कार्बन बजट पर पाँव पसार कर कब्ज़ा जमा, दूसरों को इंच भर भी जगह देने को तैयार नहीं. ख़ुद लगातार वातावरण में भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन आज भी पैदा किए जा रहे हैं, थमने का नाम नहीं लेते और विकासशील देशों से बार-बार नसीहत देने पर आमादा हैं कि कोयला बंद करो, फॉसिल फ्यूल्स बंद कर.

द्वंद तो कई बरस से जारी था, लेकिन COP26 में पहली बार डंके की चोट पर कहा गया कि- lifestyle for environment can be the foundation. हमारी लाइफ़ स्टाइल या जीवन पद्धति में भारी अंतर है. ये लाइफस्टाइल जब तक समान नहीं होंगी– तब तक सस्टेनेबल कैसे बनेंगी? 

अब करें COP26 की नाकामियों की बात. सबसे बड़ी नाकामी फाइनेंसिंग को लेकर है जिस पर हमेशा विवाद रहा है. अमीर देशों ने fossil ईंधन फूँक कर भारी कार्बन उत्सर्जन किया जिसका असर आज जलवायु परिवर्तन पर साफ़ दिख रहा है. जलवायु परिवर्तन का असली कारण वातावरण में समस्त एकत्रित कार्बन है जिसकी सर्वाधिक ज़िम्मेदारी अमीर देशों पर ही पड़ती है. अब तक एकत्रित कार्बन पर विकसित देश बात करना ही नहीं चाहते. वे नहीं चाहते की इस मुद्दे पर किसी मोलभाव या समझौते की नौबत आए.

वास्तव में अमीर देशों ने मिलकर पर्यावरण में जो गंद फैलायी है उसको हटाने या कम करने के लिये ये लोग उसका एक-बटा सौंवा हिस्सा भी देने को तैयार नहीं है. 

पर आंकड़े दर्शाते हैं की आज समस्त कार्बन स्पेस के चौथाई भाग पर कब्ज़ा अमेरिका का है, 22% ईयू के हिस्से में है, और चीन अब 11% पर काबिज है. भारत तो मात्र 3% पर कोने में कहीं सिमटा खड़ा है. तो भारत को जलवायु प्रदूषण के लिए कौन किस मुंह से ज़िम्मेदार ठहरा सकता है? और भारत के बाद कई और छोटे-बड़े देश हैं जिनकी तो कोई गिनती ही नहीं है. इनकी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं की गयी तो इनका कैसे विकास होगा?

और गौर करें की इस 25% अमेरिकी आंकड़े में embedded कार्बन यानी कि सप्लाई चेन्स या प्रोडक्शन में निहित कार्बन की संख्या शामिल तक नहीं है. वास्तव में विकसित उपभोक्ता देशों के बाज़ारों में बिकने वाली भौतिक उपभोग की समस्त वस्तुएँ, चाहे जूते, मोज़े, लिबास, कंप्यूटर – सब का निर्माण तो दूसरे देशों में हो रहा है. उनके उत्पाद-जनित कार्बन की ज़िम्मेदारी वास्तव में अमेरिकी उपभोक्ताओं के खाते में ही दर्ज होनी चाहिए न की निर्माता देशों के.  

तात्पर्य यह की COP में लगातार विकासशील देश मानो कह रहे हैं कि हम तो इस रेल के डिब्बे में यथास्थान पाँव पसार कायम हैं, आपको निश्चित करना है की इस सफर को आप  लटक कर या छत पर बैठकर तय करेंगे – खड़े रहने तक की जगह हम तो नहीं दे सकते. 

अंततः बहस lifestyle के मुद्दे पर ही आकार सहम जाती है.

और क्लाइमेट फाइनेंस को लेकर तो मसला और भी विचित्र है. कोविड-19 के आघात के बाद इन्हीं देशों ने मात्र अपनी जनता को मदद पहुंचाने में, वैक्सीन लगवाने में सालभर में 14 ट्रिलियन डॉलर बहा डाले. लेकिन जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए पेरिस समझौते में तय होने के बावजूद इस राशि के सौंवे हिस्से से भी कम, यानी कि 100 बिलयन डॉलर सालाना, भी आज तक इनके हाथ से नहीं छूट पा रहे हैं. वास्तव में अमीर देशों ने मिलकर पर्यावरण में जो गंद फैलायी है उसको हटाने या कम करने के लिये ये लोग उसका एक-बटा सौंवा हिस्सा भी देने को तैयार नहीं है. 

सवाल यह है कि अमीर देशों का रवैया जलवायु परिवर्तन को लेकर इतना ही नकारात्मक बना रहेगा तो फिर जलवायु परिवर्तन को रोकने की बात वे किस मुंह से कर सकते हैं. रवैया तो ऐसा है की समझ लो विकासशील देश पांडवों की तरह विनती कर रहे हैं कि आप हमें पांच गांव भर जमीन दे दें तो हम अपना गुजारा कर लें. उधर से जवाब यह की पाँच गाँव तो छोड़ हम तो सुई की नोक के बराबर भी जगह न दें. आखिर जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए यह कौन से महाभारत की तैयारी की जा रही है? 

COP26 में अर्पित भारतीय पंचामृत के तत्वों में से कुछ तत्व में भारत की रूपरेखा स्पष्ट है, कुछ में अभी स्पष्टता आनी बाकी है. नॉन-फॉसिल् एनर्जी को 2030 तक 500GW तक बढ़ाने के संबंध में साफ है कि तात्पर्य बिजली उत्पादन क्षमता से है.

अगर यही रवैया रहा तो COP सरीखे आयोजनों से पर्यावरण कार्यकर्ताओं की नाराज़गी वाजिब है. सिर्फ़ बातें होती हैं, काम नहीं.

नेट-ज़ीरो की दौड़ 

आइए नेट-जेरो की बात करें! वास्तव में नेट ज़ीरो तो सिर्फ़ गिल्ली-डंडा का खेल है. इस खेल में पैसे नहीं लगते. खूब खेलो, जम कर सियापा करो और जब मन हो गिल्ली दूर खेत में तड़ी-पार कर खो दो. जब मन करे फिर ढूंढ लो और शुरू कर दो क्लाइमेट-क्लाइमेट का खेल – कोई कहे 2050 में नेट-ज़ीरो हो जाएंगे, कोई कहे 2060 में तो तीसरा कहता है हमें तो 2070 लगेगा. ऐसे में नेट ज़ीरो का कोई मतलब नहीं रहा जाता है, क्योंकि नेट ज़ीरो असल में एक अकाउंटिंग एक्सरसाइज़ है जिसे किसी बहुत ही होशियार चार्टेड अकाउटेंट ने तैयार किया है. इस जलवायु परिवर्तन रोकने या कम करने से कोई संबंध नहीं है.

इसलिए COP26 की अगर एक बड़ी सफलता है तो वह यह कि भारत ने परिपक्वता दिखाते हुए इस मसले पर चीन जैसे विरोधी देश के साथ मिलकर विकासशील देशों के मुद्दे पर स्पष्ट किया कि विकसित देशों को विकासशील देशों की जायज अपेक्षाओं के मद्देनजर उनको उचित स्थान प्रदान करना होगा. 

भारत का पंचामृत

COP26 में अर्पित भारतीय पंचामृत के तत्वों में से कुछ तत्व में भारत की रूपरेखा स्पष्ट है, कुछ में अभी स्पष्टता आनी बाकी है. नॉन-फॉसिल् एनर्जी को 2030 तक 500GW तक बढ़ाने के संबंध में साफ है कि तात्पर्य बिजली उत्पादन क्षमता से है. अब तक भारत लगभग 100 GW अक्षय ऊर्जा प्रणाली स्थापित करने की बात कर रहा है. प्रश्न है उसे पांच गुना बढ़ाने का. सौर और अन्य अक्षय ऊर्जा स्रोतों में भारत ने काफ़ी तेज़ी से प्रगति की है. कोयले के फेज़डाउन-फेज़आउट के विवाद की बात छोड़िए, पिछले 8 वर्षों से भारत ने नये कोयला आधारित संयंत्र लगाए ही नहीं. पर हम ये नहीं कह सकते कि भविष्य में भी ऐसा नहीं करेंगे. 

सही है की भारत भारी मात्रा में आज भी कोयले पर निर्भर है. पर यदि हम कोयले की खपत का आंकड़ा देखें तो पाएंगे कि जितनी खपत एक भारतीय करता है उसके चार गुना कोयला हर जर्मन नागरिक फूंकता है, तिगुना अमेरिकी, और उतना ही चीनी नागरिक. तो कैसे कहा जाता है की भारत कोयला जनित कार्बन का ज़िम्मेदार है?

जहां तक  500GW तक बिजली उत्पादन क्षमता का प्रश्न है, उसके लिए अवश्य निवेश लगेगा, सहायता लगेगी, लेकिन 2030 तक ऐसा भारत अपने दम पर भी कर सकता है. लेकिन दूसरों के लिये भी लड़ाई लड़ना बेहद ज़रूरी है. भारत अपने साथ-साथ दूसरे छोटे और विकासशील देशों के लिये भी लड़ रहा है.

पंचामृत का दूसरा तत्व 50% ऊर्जा ज़रूरतें को अक्षय स्रोतों से पूरा करना है. कुल ऊर्जा का 50% परिवर्तित करना कठिन कार्य है जिसके लिए भारी मशक्कत करनी पड़ेगी. सवाल यह भी उठता है कि इसके लिये कितना पैसा या इनवेस्टमेंट आयेगा. इसलिये बार-बार मुद्दा लौटकर फाइनेंस और बैंकिंग पर आकर रुक जाती है. 

तीसरे और चौथे तत्व कार्बन 2030 तक कुल कार्बन उत्सर्जन को एक बिलयन टन घटाने, और साथ ही अपने विकास की कार्बन intensity को 45% कम करने से संबंधी हैं. दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं, और भारत की अब तक की प्रगति के अनुसार दोनों पूर्ण करने के लिए देश सही मार्ग पर है. 

अंतिम तत्व 2070 तक नेट-ज़ीरो को लेकर है, जिसके बारे में पहले ही मत दिया गया है.  नेट ज़ीरो की धारणा ही अपने आप में एक ग़लत ट्रैक पर है.      

जलवायु परिवर्तन रोकना या महज़ सियासत? 

वास्तव में जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये COP सम्मेलन climate action के बारे में कम और सियासी दांव पेंच के बारे में अधिक दिख रहे हैं. वे अब जियो-पॉलिटिक्स का हिस्सा बन गए है. 10 नवम्बर को, यानी की COP26 के समापन के ठीक 5 दिन पहले अमेरिका और चीन के बीच जलवायु परिवर्तन पर एक समझौता हुआ. ध्यान रहे इस मुद्दे पर समझौता करने की कोशिश बाइडेन प्रशासन काफी समय से कर रहा था. 

सितंबर-अक्टूबर के महीने में भी यह चर्चाएं दोनों के बीच चलती रहीं. और चर्चाएं टूट भी गयीं. चीन ने साफ़-साफ़ कह दिया कि पर्यावरण परिवर्तन का मुद्दा अपने में अकेले नहीं देखा जा सकता. अगर बात करनी है तो अमेरिका और चीन के बीच तमाम तनावी मुद्दों, जैसे व्यापार आदि की भी बात की जानी चाहिए. अकेले जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पृथक से कोई बात नहीं हो सकती. चीन के प्रधानमंत्री ने कहा कि एनर्जी ट्रांज़िशन sound and well placed होना चाहिये – अर्थात स्पष्ट है कि हम लंबे समय तक अभी कोयले का इस्तेमाल करते रहेंगे. 

वास्तव में जिस “फेज़ आउट” से “फेज़ डाउन” के शब्दावली परिवर्तन को लेकर भारत पर छींटाकशी की जा रही है, वह परिवर्तन तो चीन और अमेरिका हुए समझौते की शब्दावली है न की भारत का योगदान॰ उनके परस्पर समझौते में स्पष्ट है की दोनों ही देश इस परिवर्तन ले लिए 10 नवंबर को एकमत हुए.

प्रश्न अब है की इस समझौते के पीछे दोनों देशों के बीच बाकी मुद्दों को लेकर और क्या-क्या समझौते हुए किसी को नहीं मालूम. COP26 समाप्त होते ही चीन और अमेरिका के बीच शिखर सम्मेलन भी प्रारंभ हो चुका है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग और बाइडेन वीडियो कॉल पर मिल रहे हैं, आपस में मंत्रणा कर रहे हैं. देखिये नतीजा क्या निकलता है

जलवायु परिवर्तन रोकने पर चीन की योजना क्या है? 

जहां तक चीन का सवाल है, उसने अपने इरादे लिखित रूप में प्रस्तुत कर दिये हैं और अपनी स्ट्रैटेजी स्पष्ट की है. जहां भारत ने 2030 तक 500GW अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता की बात की है चीन ने 1200 GW की पेशकश राखी है. साथ ही 2060 तक नेट-जीरो होंने का दावा किया किया है। 

अधिक मत्वपूर्ण यह है की अक्षय ऊर्जा के अलावा चीन ने अपने action-plan में  न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी पर बहुत ज़ोर दिया है. उसके द्वारा इस क्षेत्र में तेज़ी से काम करने, तथा नयी टेक्नोलॉजी विकसित करने पर ज़ोर दिया है. छोटे-छोटे परमाणु ऊर्जा पर चलने वाले modular बिजली घरों की बात की गयी है. स्पष्ट है की चीन अपना base-load बिजली उत्पादन कोयले से हटा कर परमाणु ऊर्जा की ओर ले जाना चाहता है. इसके तहत वह कोयले का फेज़ डाउन करेगा. बाकी दुनिया परमाणु ऊर्जा के प्रति कुछ भी रुख़ अपनाए चीन इसे अपना आधारभूत ऊर्जा स्रोत बनाता दिखता है. 

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