अफ़ग़ानिस्तान में अब लगभग तालिबान का शासन है. अमेरिका की ज़्यादातर लड़ाकू फ़ौजी टुकड़ियां अफ़ग़ानिस्तान से वापस लौट चुकी हैं. बाक़ी बचे फ़ौजियों की भी अगस्त के अंत तक वापसी तय है. अमेरिकी सैनिकों की वापसी की इस प्रक्रिया के साथ कई तरह की चिंताएं जुड़ी हुई हैं. इनमें से एक चिंता है सैनिकों की वापसी के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान में बरकरार रहने वाले राजनयिकों की सुरक्षा. दरअसल, अमेरिका अपने सैनिकों की वापसी के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपना जुड़ाव जारी रखना चाहता है. ऐसे में वहां राजनयिकों की मौजूदगी बनाए रखना निहायत ज़रूरी है. हालांकि अमेरिका की इन कोशिशों के पीछे इन राजनयिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त रणनीति का अभाव साफ़ झलकता है. ऐसे में अमेरिका को इनकी सुरक्षा को लेकर अनेक पहेलियों का सामना करना पड़ रहा है. ये पूरा मसला बेहद पेचीदा है. इन समस्याओं का कोई सरल समाधान नहीं है. अमेरिका को अपने राजनयिकों की सुरक्षा से जुड़े मसले का अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य के व्यापक हितों के साथ संतुलन साधने वाला समाधान निकालना होगा. इस वक़्त ये बेहद मुश्किल और लगभग नामुमकिन सा जान पड़ता है.
दूतावास के कमर्चारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और काबुल के साथ जुड़ाव
काबुल स्थित अमेरिकी दूतावास दुनिया के सबसे बड़े दूतावासों में से एक है. अफ़ग़ान सरकार और दूसरे मित्र देशों के साथ संपर्क बनाए रखने के लिए अमेरिका का यही मुख्य दफ़्तर है. इतना ही नहीं, राजनीतिक और रक्षा से जुड़े घटनाक्रम पर भी यहीं से निगाह रखी जाती है. सबसे अहम बात ये है कि इसी दूतावास से अफ़ग़ानिस्तान को सहायता के तौर पर दी जाने वाली अरबों डॉलर की रकम और उसके इस्तेमाल पर भी निगरानी रखी जाती है. 2002 से लेकर अबतक अमेरिका सुरक्षा सहायता के तौर पर अफ़ग़ानिस्तान को तक़रीबन 88 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम मुहैया करा चुका है. इसके अलावा नागरिक सहायता के रूप में 36 अरब अमेरिकी डॉलर की धनराशि दी जा चुकी है. इसमें से 78.7 करोड़ अमेरिकी डॉलर ख़ासतौर से अफ़ग़ान महिलाओं और लड़कियों की मदद के तौर पर दी गई है. इसके अलावा मानवीय मदद के रूप में तक़रीबन 3.9 अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता मुहैया कराई गई है. इतना ही नहीं अमेरिका ने ये भी कहा है कि भविष्य के अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए वो कोवैक्स अभियान के तहत कोविड-19 के टीके उपलब्ध कराता रहेगा. इसके साथ ही कोविड-19 संकट से निपटने के लिए ज़रूरी आपात मेडिकल सुविधाएं भी अफ़ग़ानिस्तान को मिलती रहेंगी. महामारी के प्रभावों से पार पाने, ज़रूरतमंद अफ़ग़ानियों की जीवन-रक्षा से जुड़ी मानवीय सहायता और देश के भीतर हर प्रकार की हिंसक गतिविधियों से निपटने के लिए सुरक्षा सहायता के तौर पर उसे अमेरिकी आर्थिक मदद जारी रहेगी. ग़ौरतलब है कि अमेरिकी कॉन्ग्रेस ने 2021 में अफ़ग़ान सुरक्षा बल कोष के लिए 3 अरब अमेरिकी डॉलर की मंज़ूरी दी है.
अमेरिका को अपने राजनयिकों की सुरक्षा से जुड़े मसले का अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य के व्यापक हितों के साथ संतुलन साधने वाला समाधान निकालना होगा. इस वक़्त ये बेहद मुश्किल और लगभग नामुमकिन सा जान पड़ता है.
अमेरिकी दूतावास के अधिकारी बिगड़ते सुरक्षा माहौल के मद्देनज़र कॉन्ट्रैक्टरों और दूसरे कर्मचारियों की तादाद में बड़ी कटौती करने की योजना बना रहे हैं. चूंकि अफ़ग़ानिस्तान को मुहैया कराई जाने वाली तमाम सहायता दूतावास के ज़रिए ही संचालित की जाएंगी, लिहाज़ा अमेरिका को ज़मीनी स्तर पर दूतावास में मौजूदगी बनाए रखनी होगी. वैसे ताज़ा घटनाक्रम में तालिबान लड़ाके अफ़ग़ान राजधानी काबुल के भीतर तक घुस आए हैं. ऐसे में अमेरिकी अधिकारी अपने राजनयिकों को दूतावास से हेलिकॉप्टर के ज़रिए निकालकर सुरक्षित स्थानों पर ले जा रहे हैं. ऐसी भी ख़बरें हैं कि अमेरिकी टीम के प्रमुख सदस्य काबुल एयरपोर्ट से कामकाज कर रहे हैं. बहरहाल, अफ़ग़ानिस्तान में राजनयिक स्तर पर अमेरिकी मौजूदगी बनाए रखने में नाकामी का अंजाम अफ़ग़ान नागरिकों के जीवन स्तर में गिरावट के तौर पर सामने आएगी. इतना ही नहीं चूंकि अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक विदेशी सहायता पर निर्भर है, लिहाज़ा उसकी हालत और चौपट हो जाएगी. अगर ऐसा होता है तो अमेरिका को और भी ज़्यादा आलोचनाओं का सामना करना होगा. दरअसल 2001 के बाद से ही अफ़ग़ानिस्तान की दुर्गति के लिए अमेरिका को तमाम तरह की आलोचनाएं झेलनी पड़ रही हैं. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान में हालात और बदतर हुए तो इसका अमेरिका के राष्ट्रीय हितों पर भी बेहद विपरीत असर होगा.
अमेरिका राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए अफ़ग़ानिस्तान की मदद जारी रखने का महत्व समझता है. इसके साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में तैनात अपने राजनयिकों की सुरक्षा का सवाल भी अमेरिका के लिए बेहद अहम है. इन्हीं बातों के चलते अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपनी फ़ौज की वापसी के बाद भी सीमित संख्या में अपने फ़ौजियों को वहीं बनाए रखने का फ़ैसला किया है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने नागरिकों और सैन्य कर्मियों की तादाद में “व्यवस्थित और सुरक्षित तरीके से” कटौती करने और उन्हें अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकालने के लिए 5 हज़ार अमेरिकी फ़ौजियों की तैनाती को मंज़ूरी दी है. बहरहाल तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने चेताया है कि अमेरिका द्वारा अपने फ़ौजी बरकरार रखना 2020 के दोहा समझौते का उल्लंघन होगा. अगर अमेरिका ऐसा करता है तो तालिबानी नेतृत्व को अपने हिसाब से उसका मुनासिब जवाब देने के बहाने मिल जाएंगे. वैसे तो शाहीन ने कहा है कि राजनयिकों, ग़ैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और दूसरे नागरिकों पर तालिबान कभी भी हमले नहीं करेगा.
अमेरिकी दूतावास के अधिकारी बिगड़ते सुरक्षा माहौल के मद्देनज़र कॉन्ट्रैक्टरों और दूसरे कर्मचारियों की तादाद में बड़ी कटौती करने की योजना बना रहे हैं. चूंकि अफ़ग़ानिस्तान को मुहैया कराई जाने वाली तमाम सहायता दूतावास के ज़रिए ही संचालित की जाएंगी, लिहाज़ा अमेरिका को ज़मीनी स्तर पर दूतावास में मौजूदगी बनाए रखनी होगी.
हालांकि, इसके उलट हक़ीक़त यही है कि 2020 के शांति करार के बाद से लेकर अब तक तालिबान ने ऐसी वचनबद्धता दर्शाने के लिए शायद ही कोई ठोस क़दम उठाए हैं. तालिबान अब भी अल-क़ायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ अपने रिश्ते जारी रखे हुए है. उसने अहम शांति वार्ताओं का बहिष्कार किया. इतना ही नहीं उसने अफ़ग़ानिस्तान के कोने-कोने में हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा दिया है. पिछले कुछ हफ़्तों से तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के अलग-अलग ज़िलों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया है. ख़बरों के मुताबिक अब तालिबान का काबुल समेत मुल्क के ज़्यादातर हिस्सों पर कब्ज़ा है. इन बातों के मद्देनज़र भले ही तालिबान अमेरिका को कितने ही आश्वासन दे, अमेरिकी राजनयिकों को बग़ैर किसी सैनिक सुरक्षा के केवल तालिबान के आश्वासनों के भरोसे छोड़ना बेहद जोख़िम भरा साबित हो सकता है. हालांकि, किसी भी तरह की सैन्य मौजूदगी के ख़िलाफ़ तालिबान की खुली धमकी का मतलब यही है कि वो शांति समझौते के तहत किए गए वायदों का उल्लंघन जारी रखेगा. नतीजतन हिंसा में और बढ़ोतरी होने की आशंका है. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान और अधिक अस्थिरता और अफ़रातफ़री वाले दौर में पहुंच जाएगा. ग़ौरतलब है कि 2012 में लीबिया में अज्ञात भीड़ के हमले में पूर्व अमेरिकी राजदूत क्रिस स्टीवंस और तीन अन्य अमेरिकी राजनयिकों की मौत हो गई थी. ये हमला बेंग़ाज़ी स्थित अमेरिकी दूतावास पर हुआ था. उस समय वहां सुरक्षा की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं थी. अतीत में हुई ये घटना अमेरिका के मौजूदा प्रशासन द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में अपने दूतावासों या कूटनीतिक मिशनों को बिना किसी सुरक्षा-व्यवस्था या बेहद लचर सुरक्षा के भरोसे छोड़ने से जुड़े किसी फ़ैसले से रोकने का काम करेगा. बहरहाल जैसा कि ऊपर बताया गया है काबुल में तालिबान के कब्ज़े के बाद अमेरिका, यूरोपीय संघ समेत दुनिया के ज़्यादातर देश अपने राजनयिकों को निकालकर सुरक्षित स्थानों पर भेज रहे हैं.
काबुल हवाई अड्डे की सुरक्षा
अफ़ग़ानिस्तान में कूटनीतिक मौजूदगी और उनकी सुरक्षा से जुड़ी क़वायद के अलावा अमेरिका के सामने फ़िलहाल एक और बड़ी चुनौती है- हामिद करज़ई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की सुरक्षा. अगर काबुल एयरपोर्ट पर तालिबान का कब्ज़ा हो जाता है तो किसी तरह की आपात स्थिति में अमेरिका और उसके मित्र देशों के कर्मियों के लिए अफ़ग़ानिस्तान से सुरक्षित तरीके से बाहर निकल पाना नामुमकिन हो जाएगा. अमेरिकी सैन्य अधिकारियों ने भी कहा है कि एक सुरक्षित हवाई अड्डे के बग़ैर काबुल में अमेरिकी दूतावास परिसर को बंद करना पड़ेगा और वहां के सभी कर्मियों को अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर वापस लौटना पड़ेगा. काबुल हवाई अड्डे की सुरक्षा के लिए अमेरिका फ़िलहाल तुर्की के साथ बातचीत कर रहा है. तुर्की ने लंबे समय तक अफ़ग़ानिस्तान में नाटो मिशन के लिए हवाई अड्डों को सुरक्षित रखने में योगदान दिया है. तुर्की ने भी कहा है कि हवाई अड्डे की सुरक्षा के लिए वो काबुल में अपने सुरक्षा बलों की तैनाती बनाए रखने को तैयार है. हालांकि तालिबान ने तुर्की को ऐसा करने पर गंभीर परिणामों के लिए तैयार रहने की चेतावनी दी है. तालिबान ने कहा है कि अगर तुर्की ऐसा कुछ करता है तो उसे अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता पर हमला माना जाएगा. तालिबान के मुताबिक किसी भी देश की ऐसी हरकत को अफ़ग़ानिस्तान पर दूसरी ताक़तों का कब्ज़ा बरकरार रखना माना जाएगा. ये बात साफ़ है कि तालिबान अब काबुल के भीतर तक घुस आया है. उसने अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े इलाक़े को अपने कब्ज़े में ले लिया है. इनमें कई अहम प्रांतों की राजधानियां भी शामिल हैं. ऐसे हालात में अमेरिका का बेहद चिंतित होना लाजिमी है. ताज़ा घटनाक्रम से वहां ज़मीनी स्तर पर मौजूद अमेरिकियों की सुरक्षा को लेकर ख़तरा पैदा हो गया है. चूंकि इन लोगों की जान-माल की सुरक्षा के लिए अमेरिका ही ज़िम्मेदार है. ख़बरों के मुताबिक अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा है कि काबुल में अमेरिकी दूतावास परिसर को काबुल एयरपोर्ट पर शिफ़्ट किया जा रहा है.
तालिबान अमेरिका को कितने ही आश्वासन दे, अमेरिकी राजनयिकों को बग़ैर किसी सैनिक सुरक्षा के केवल तालिबान के आश्वासनों के भरोसे छोड़ना बेहद जोख़िम भरा साबित हो सकता है. हालांकि, किसी भी तरह की सैन्य मौजूदगी के ख़िलाफ़ तालिबान की खुली धमकी का मतलब यही है कि वो शांति समझौते के तहत किए गए वायदों का उल्लंघन जारी रखेगा.
अफ़ग़ानिस्तान के निकम्मे सुरक्षा बलों पर भरोसा
तालिबान ने कहा है कि विदेशी फ़ौजी टुकड़ियों की बजाए हवाई अड्डों और दूतावासों की सुरक्षा “अफ़ग़ानियों की ज़िम्मेदारी” होनी चाहिए. उसके इस रुख़ से साफ़ है कि वो चाहता है कि अफ़ग़ान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बलों की देश में अमन चैन की बहाली में प्रमुख भूमिका होनी चाहिए. इसके साथ ही अमेरिकियों की सुरक्षा ज़रूरतों को पूरा करने में भी उनकी भूमिका की बात को रेखांकित किया गया है. बहरहाल अमेरिका और नेटो द्वारा दो दशकों की ज़बरदस्त ट्रेनिंग और भारी-भरकम निवेश के बावजूद अफ़ग़ानी सुरक्षा बल बेहद नाकाबिल और भ्रष्टाचार में लिप्त संगठन है. इनके साथ काम कर चुके अमेरिकी, नेटो और अफ़ग़ानिस्तान के कई अधिकारियों के मुताबिक अफ़ग़ानी सुरक्षा बलों के जवानों में न तो कोई जोश है और न ही कोई जज़्बा. उनके प्रशिक्षण का स्तर बेहद लचर है और उनके बीच बाग़ी भरे पड़े हैं. हाल के हफ़्तों में अफ़ग़ान सुरक्षा बलों को झटके पर झटके लगे हैं. तालिबानी लड़ाकों ने देश के अलग-अलग इलाक़ों में अफ़ग़ानी सुरक्षा बलों पर आसानी से काबू पाकर एक के बाद एक कई ज़िलों को अपने कब्ज़े में कर लिया. तक़रीबन 1000 अफ़ग़ान सैनिक भागकर ताजिकिस्तान चले गए. ऐसे में दिन ब दिन और ज़्यादा हिंसक होते जा रहे तालिबानी लड़ाकों के मुक़ाबले भविष्य में अकेले अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के प्रभावी होने को लेकर ख़तरे की घंटी बज गई है. लाजिमी तौर पर अमेरिका अपने राजनयिकों की सुरक्षा के लिए अफ़ग़ानिस्तान के घरेलू सुरक्षा बलों के भरोसे नहीं रह सकता. साफ़ है कि उसके पास कोई भी आसान या स्वीकार्य विकल्प मौजूद नहीं है.
‘क्षितिज के पार’ रणनीति को वरीयता
शुरुआत में 2020 करार के हिस्से के तौर पर अमेरिका ने मई 2021 के अंत तक अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों की वापसी को लेकर प्रतिबद्धता जताई थी. हालांकि वार्ताओं के दौरान संबंधित पक्षों के बीच मतभेदों और तालिबान के बहिष्कार के चलते आई रुकावटों के चलते ये संभव नहीं हो पाया. मई की डेडलाइन के आगे खिसकने को तालिबान ने समझौते का गंभीर उल्लंघन माना और बदले में अपनी हिंसक गतिविधियां तेज़ कर दीं. इतना ही नहीं हाल ही में अमेरिका ने लड़खड़ाती अफ़ग़ान फ़ौज की मदद के तौर पर तालिबानी ठिकानों को लक्ष्य बनाकर कई हवाई हमलों को भी अंजाम दिया है. अमेरिकी हमलों का मकसद अफ़ग़ानिस्तान में आगे बढ़ते तालिबानी लड़ाकों की रफ़्तार को धीमा करना था. अमेरिकी सेंट्रल कमांड के प्रमुख जनरल केनेथ मैकेंज़ी ने भी कहा है कि अगर आने वाले हफ़्तों में भी तालिबान हिंसक गतिविधियां जारी रखता है तो अमेरिका अफ़ग़ान रक्षा बलों की मदद के तौर पर हवाई हमले और तेज़ करेगा. इन हमलों से तालिबान और भी बौखला गया है. उसने इन हवाई हमलों को पिछले साल हुए समझौते की “नाफ़रमानी” बताते हुए इसके बेहिसाब “नतीजों” की चेतावनी दी है. इस तरह की चेतावनियों से भविष्य में तालिबान द्वारा किए जाने वाले हमलों को लेकर आशंका का माहौल बन गया है. साफ़ है कि काबुल पर शुरू से ही संकट के बादल मंडराने लगे थे. अब अमेरिकी दूतावास और राजनयिकों की सुरक्षा को लेकर भी आशंका पैदा हो गई है. हालांकि तालिबान ने अतीत में उनको कोई भी नुकसान नहीं पहुंचाने का वादा किया है.
सौ बात की एक बात ये है कि अमेरिका एक बेहद हिंसक और बौखलाए तालिबान द्वारा अपने कर्मियों और दूतावास के लिए पेश किए जाने वाले गंभीर ख़तरों की अनदेखी नहीं कर सकता.
ये बात सच है कि अमेरिका अचानक अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने तमाम कूटनीतिक और मानवीय जुड़ाव तोड़ नहीं सकता. अगर अमेरिका ऐसा करता है तो अफ़ग़ानिस्तान के लिए इसके सामाजिक-आर्थिक और सुरक्षा के मोर्चों पर नतीजे भयावह होंगे. दूसरी ओर कूटनीतिक और मानवीय जुड़ावों को बरकरार रखने के लिए अफ़ग़ान सरज़मीं पर कर्मचारियों की मौजूदगी बनाए रखना ज़रूरी है. इन्हीं कर्मियों के ज़रिए इस तरह के रिश्तों को आगे बढ़ाया जा सकता है. सौ बात की एक बात ये है कि अमेरिका एक बेहद हिंसक और बौखलाए तालिबान द्वारा अपने कर्मियों और दूतावास के लिए पेश किए जाने वाले गंभीर ख़तरों की अनदेखी नहीं कर सकता. बुनियादी तौर पर अमेरिका के पास दो विकल्प हैं: या तो वो नाटो या तुर्की की फ़ौजी टुकड़ियों को बरकरार रखने के लिए तालिबान के साथ सौदेबाज़ी करे या फिर अपने दूतावास और कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए पूरी तरह से अफ़ग़ान रक्षा बलों पर निर्भर रहे. इनमें से पहला विकल्प लगभग असंभव जान पड़ता है जबकि दूसरा विकल्प ऐतिहासिक और समसामयिक अनुभवों के आधार पर बेहद अपर्याप्त मालूम होता है. लाज़िमी तौर पर इस पहेली का मतलब यही है कि अफ़ग़ानिस्तान का भविष्य एक दोधारी तलवार पर अटका है. इसे देखते हुए उस मुल्क के भविष्य को लेकर किसी भी तरह की उम्मीद पालने का विकल्प दिखाई नहीं देता.
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