यह लेख निबंध श्रृंखला “करगिल@25: विरासत और उससे आगे” का हिस्सा है.
करगिल युद्ध देखा जाए तो भारत का पहला ऐसा युद्ध था, जिसका टेलीविज़न पर व्यापक स्तर पर प्रसारण किया गया था. टीवी पर युद्ध की इतने बड़े स्तर पर कवरेज कहीं न कहीं दक्षिण एशियाई में लड़ी जाने वाली जंगों में मीडिया की भागीदारी के दृष्टिकोण से बेहद अहम साबित हुई. नम्रता जोशी ने 26 जुलाई 1999 को इंडिया टुडे में अपने लेख में लिखा था:
“करगिल की लड़ाई ने भारतीयों के लिए युद्ध के मायने बदल दिए, देशवासियों ने पहले कभी इस प्रकार युद्ध की खबरें टीवी पर नहीं देखी थी. तोपों और गोलियां की आवाज़, पहाड़ी इलाक़ों में इधर-उधर भागते सैनिकों, यानी करगिल में हफ्तों तक चली इस जंग की हर हलचल के मीडिया कवरेज ने युद्ध को देखने के हमारे नज़रिए को ही बदल दिया. करगिल युद्ध जब शुरू हुआ था, तब वहां देखा जाए तो कुछ ख़ास नहीं था. मीडिया में गरजती बोफोर्स तोपों और अपना मोर्चा संभालने के लिए दौड़ते-भागते सैनिकों और बार-बार होने वाली प्रेस वार्ताओं की तस्वीरें ही दिखाई देती थीं. लेकिन जैसे-जैसे करगिल युद्ध आगे बढ़ा तो मीडिया में ऐसी ख़बरें आने लगीं, जो साहस, शौर्य और रोमांच से भरपूर थीं, यानी जिनमें दुर्गम इलाकों में होने वाले हमलों और धमाकों की तस्वीरें थीं. पहाड़ों पर बदहवास हालत में भागते टीवी रिपोर्टरों का जोश-ख़रोश करगिल युद्ध की कवरेज में उत्तेजना को बढ़ा रहा था.”
भारत 1999 के करगिल युद्ध से पहले पाकिस्तान के साथ 1948, 1965 और 1971 में तीन जंग लड़ चुका था, लेकिन करगिल जंग की तस्वीरें आज भी देशवासियों के दिलो-दिमाग में बसी हुई हैं. ज़ाहिर है कि यह सब मीडिया की वजह से ही हुआ है. उदाहरण के तौर पर लेफ्टिनेंट कैप्टन विक्रम बत्रा ने द्रास सेक्टर में प्वाइंट 5140 नाम की एक महत्वपूर्ण चोटी को पाकिस्तान के कब्ज़े से छुड़ाकर दोबारा हासिल करने बाद एनडीटीवी की रिपोर्टर बरखा दत्त के साथ एक इंटरव्यू में जो कुछ कहा था, देशवासी आज भी उन बातों को भूल नहीं पाए हैं. इस इंटरव्यू में कैप्टन बत्रा ने कहा था, “मेरी टुकड़ी को प्रेरित करने वाला नारा था ‘ये दिल मांगे मोर’. इस नारे ने जवानों में ज़बरदस्त उत्साह का संचार किया और उन्होंने दुश्मनों को बंकरों में खोज-खोज कर निशाना बनाया.”
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की लोकप्रियता और लाइव कवरेज
भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की लोकप्रियता बढ़ने में करगिल युद्ध का बहुत बड़ा योगदान है. इस युद्ध के दौरान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा न सिर्फ़ लाइव कवरेज का प्रसारण किया गया था, बल्कि भारत और पाकिस्तान जैसे दो परमाणु संपन्न राष्ट्रों को बीच छिड़ी जंग का विस्तार से विश्लेषण भी किया गया था. मीडिया समीक्षक सुधीश पचौरी ने तब कहा था, कि "28 वर्षों के बाद अब हमारे पास एक ऐसा युद्ध है जो 'टीवी द्वारा और टीवी देखने वाली पीढ़ी के लिए लड़ा जा रहा' है." भारत सरकार ने वर्ष 1992 में ब्रॉडकास्टिंग इंडस्ट्री के उदारीकरण समेत तमाम आर्थिक सुधार किए थे. इसके साथ ही केबल टीवी के प्रसारण के लिए रास्ते खोल दिए थे. भारत सरकार के इस क़दम की वजह से सीएनएन और स्टार टीवी नेटवर्क जैसी कई अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने भारतीय बाज़ार में दस्तक दी. इसके बाद, ज़ी टीवी पहला भारतीय निजी चैनल बना, जिसका प्रसारण केबल पर किया गया था. ज़ी न्यूज़ को वर्ष 1995 में शुरू किया गया था, जबकि स्टार टीवी ने 1998 में स्टार न्यूज़ की शुरुआत की थी. इन दोनों न्यूज़ चैनलों ने करगिल युद्ध के विस्तृत कवरेज में अहम भूमिका निभाई थी.
करगिल युद्ध के दौरान ऐसा पहली बार हुआ था, जब बड़ी संख्या में पत्रकारों को लड़ाई के अग्रिम मोर्चों पर भेजा गया था.
करगिल युद्ध के दौरान ऐसा पहली बार हुआ था, जब बड़ी संख्या में पत्रकारों को लड़ाई के अग्रिम मोर्चों पर भेजा गया था. लड़ाई के इन मोर्चों पर पत्रकारों ने सीधे तौर पर सैन्य अधिकारियों से बातचीत की और अपने कैमरों में युद्ध की तस्वीरों को कैद किया. करगिल में रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार विक्रम चंद्रा ने अपने अनुभव को साझा करते हुए बताया,“करगिल युद्ध के दौरान, मैं सेना के हेलीकॉप्टर पर सवार होकर टाइगर हिल, जुबार हिल और बटालिक क्षेत्र के ऊपर से गुजरा था. जिस समय मैं वहां से गुजर रहा था, नीचे पहाड़ियों पर जंग चल रही थी. मैंने सैटेलाइट के ज़रिए फुटेज भेजी और फिर अगले दिन मुश्कोह घाटी में ज़मीन से फोन पर लाइव रिपोर्टिंग की.”
इस प्रकार से देखा जाए तो करगिल का युद्ध भारत के साथ-साथ दक्षिण एशिया के लिए ऐसा पहला ‘लाइव युद्ध’ बन गया, जिसकी व्यापक स्तर पर मीडिया कवरेज हुई थी. भारत सरकार ने समाचार पत्रों और टीवी चैनलों को करगिल से ‘लाइव’ रिपोर्टिंग करने की अनुमति दी थी. वरिष्ठ पत्रकार वी सी नटराजन के मुताबिक़, “जब करगिल जंग छिड़ी तो प्रेस के लोगों को युद्ध के अग्रिम मोर्चों पर जाने की अनुमति दी गई. इस दौरान मीडिया ने युद्ध की पल-पल की रिपोर्टिंग की. सबसे बड़ी बात है कि सेना के शीर्ष अधिकारियों और नौकरशाहों की ओर से मीडिया को युद्ध की लाइव रिपोर्टिंग करने से रोकने को लिए कोई कोशिश नहीं की गई.”
भारत सरकार ने एक तरफ भारतीय मीडिया को तो करगिल युद्ध की रिपोर्टिंग करने की अनुमति दी, लेकिन दूसरी तरफ पाकिस्तानी मीडिया पर अस्थाई पाबंदी लगा दी थी. करगिल युद्ध के समय भारत सरकार ने डॉन अख़बार के ऑनलाइन संस्करणों के साथ-साथ पाकिस्तान के सरकारी चैनल पीटीवी के प्रसारण पर भी रोक लगा दी थी. भारत के इस क़दम की पाकिस्तानी मीडिया द्वारा आलोचना की गई थी, जबकि भारतीय मीडिया ने सरकार के इस फैसले को देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में बताया. भारत द्वारा मीडिया के इस्तेमाल का आकलन करते हुए, RAND पब्लिकेशन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि "करगिल युद्ध के दौरान नई दिल्ली ने विभिन्न मीडिया माध्यमों (जैसे कि टेलीविजन, प्रिंट, रेडियो, इंटरनेट) का काफ़ी सक्रियता और सूझबूझ के साथ उपयोग करते हुए भारतीय पक्ष को प्रसारित करने और नियंत्रित करने का काम किया. भारत ने ऐसा करके घरेलू स्तर पर और वैश्विक स्तर पर इस युद्ध को लेकर चल रहे विचार-विमर्श को अपने मुताबिक़ ढालने की कोशिश की."
लोकतंत्र में ‘मीडिया’ को चौथा स्तंभ माना जाता है. यानी मीडिया को कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का सहयोगी माना जाता है. मीडिया लोगों को शिक्षित करता है, जानकारी उपलब्ध कराता है और उनका मनोरंजन करता है. इस प्रकार से देखा जाए तो मीडिया पब्लिक एजेंडे को आकार देने और जनमत का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाता है. तो सवाल यही है कि करगिल युद्ध के दौरान मीडिया ने अपनी कौन सी भूमिका निभाई?
मीडिया ने करगिल युद्ध के दौरान क्या किया?
मीडिया ने करगिल युद्ध के दौरान क्या किया, तो सबसे बड़ी बात तो यह है कि मीडिया ने करगिल युद्ध की तस्वीरों को भारत के घर-घर तक पहुंचाने का काम किया. भारत के नौ शहरों यानी दिल्ली, कानपुर, कोलकाता, मुंबई, अहमदाबाद, चेन्नई, बेंगलुरू हैदराबाद और कोचीन में करगिल युद्ध के दौरान घरों में देखे जाने वाले कार्यक्रमों की टेलीविजन ऑडियंस मेजरमेंट (TAM) रेटिंग से ज़ाहिर होता है कि लोगों ने युद्ध से जुड़ी ख़बरों को जमकर देखा था. करगिल युद्ध के दौरान पांच जून को समाप्त हफ्ते में आजतक के दर्शकों की संख्या का जो आंकड़ा 16,19,659 था, वो 26 जून को समाप्त हफ्ते में बढ़कर 19,52,000 हो गया था. इसी अवधि में स्टार न्यूज़ (अंग्रेजी) के दर्शकों की संख्या 1,08,000 से बढ़कर 1,39,000 हो गई थी और स्टार न्यूज़ (हिंदी) के दर्शकों की संख्या 1,15,742 से बढ़कर 1,22,000 हो गई थी.
सबसे बड़ी बात तो यह है कि मीडिया ने करगिल युद्ध की तस्वीरों को भारत के घर-घर तक पहुंचाने का काम किया.
करगिल युद्ध के समय जिस प्रकार से भारतीय मीडिया में ख़बरों को दिखाया गया, उसने देखा जाए तो देशवासियों पर व्यापक रूप से प्रभाव डाला और युद्ध के मैदान पर लड़ने वाले सैनिकों के साथ एक भावनात्मक रिश्ता क़ायम करने में बड़ी भूमिका निभाई. मीडिया में की गई युद्ध की व्यापक कवरेज, लड़ाई के मैदान में दुर्गम परिस्थितियों से जूझते सैनिकों के संघर्ष और उनके द्वारा देश के लिए किए जा रहे त्याग और बलिदान की कहानियों ने जहां एक तरफ देशवासियों में राष्ट्रवादी जज़्बे को बढ़ाने का काम किया, वहीं दूसरी तरफ भारतीय सैनिकों के लिए आम नागरिकों के समर्थन में भी बढ़ोतरी की. करगिल में जंग के मैदान से की गई लाइव रिपोर्टिंग ने आम लोगों की युद्ध के बारे में समझबूझ को बदल दिया. इसके अलावा, लाइव रिपोर्टिंग से पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत द्वारा की जा रही सैन्य कार्रवाई को भी देशभर में ज़बरदस्त समर्थन हासिल करने में मदद मिली. इतना ही नहीं, जंग के अग्रिम मोर्चे पर पत्रकारों द्वारा की गई रिपोर्टिंग ने मीडिया-मिलिट्री रिश्तों को भी गहरा करने का काम किया, यानी मीडिया और सेना के बीच ऐसे प्रगाढ़ संबध बने, जिसकी मिसाल पहले कभी नहीं देखी गई थी. पत्रकार रजत शर्मा के मुताबिक़, “इससे न सिर्फ़ एकता और एकजुटता की भावना पैदा हुई, बल्कि इससे समाज में जागरूकता की भावना भी फैली और इसके चलते बड़ी संख्या में लोगों ने सेना की मदद करने के लिए हाथ आगे बढ़ाए.”
निसंदेह तौर पर इस प्रकार से मीडिया ने देश में ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी लोगों की सोच और विचार को बदलने एवं उन्हें भारत के पक्ष में ढालने में अहम भूमिका निभाई. उस दौरान करगिल युद्ध को लेकर टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट जैसे कई विदेशी अख़बारों में ख़बरें प्रकाशित की गई थीं और उनमें भारतीय पक्ष को दमदार तरीक़े से रखा गया था. इसके अतिरिक्त, भारत की मीडिया एजेंसियों ने इंटरनेट के माध्यम से www.indiainfo.com, www.kargilonline.com और www.vijayinkargil.org जैसी कई वेबसाइटों पर युद्ध के मोर्चे पर घटित होने वाली ताज़ा गतिविधियों से जुड़ी ख़बरों को बगैर समय गंवाए प्रकाशित किया और इस प्रकार से घरेलू स्तर पर लोगों को जंग की हर अपडेट मिली, जिससे देशवासियों का समर्थन जुटाने में मदद मिली.
युद्ध के दौरान मीडिया
कुल मिलाकर देखें, तो करगिल युद्ध के दौरान मीडिया ने कहीं न कहीं सेना और सरकार दोनों को ही ताक़त देने का काम किया. इसकी वजह यह है कि मीडिया के ज़रिए ही भारत ने युद्ध के दौरान अपने पक्ष और आधिकारिक बयानों को घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों के बीच पहुंचाया और इस तरह से उसे कूटनीतिक लाभ भी हासिल हुआ. करगिल युद्ध को लेकर की गई मीडिया कवरेज से भारत को अपनी कार्रवाई को लेकर वैश्विक स्तर पर समर्थन हासिल करने में सहायता मिली. ज़ाहिर है कि भारतीय मीडिया ने अपनी ख़बरों में इस लड़ाई में पाकिस्तान की मिलीभगत और उसकी सेनाओं की भारतीय इलाक़ों में घुसपैठ को पूरी दुनिया के सामने रख दिया था. देखा जाए तो ज़मीनी हक़ीक़त से जुड़ी इन ख़बरों ने युद्ध को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सोच और उनकी राय को प्रभावित किया. करगिल रिव्यू कमेटी रिपोर्ट में भी इसका जिक्र किया गया है. इस रिपोर्ट में कहा गया है:
“युद्ध में मीडिया एक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण माध्यम साबित हो सकता है. प्रॉक्सी वार यानी छद्म युद्ध के दौरान भी दिल और दिमाग को जीतना सबसे अहम है. गोला-बारूद से जीती गई जंग का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि अगर जनता का समर्थन हासिल नहीं हो तो यह युद्ध हारने के ही बराबर है.”
इसमें कोई शक नहीं है कि करगिल युद्ध में भारत द्वारा पाकिस्तान को धूल चटाने में मीडिया ने बेहद अहम भूमिका निभाई थी. इस बात की पुष्टि करगिल युद्ध में हार को लेकर पाकिस्तानी सेना की ग्रीन बुक में किए गए विश्लेषण से भी साफ होती है. इस ग्रीन बुक के विश्लेषण में स्पष्ट तौर पर लिखा गया है:
“हमारे प्रतिद्वंदी भारत ने मीडिया को ताक़तवर बनाने के लिए काफ़ी कुछ किया है और उसके द्वारा मीडिया की इस ताक़त का इस्तेमाल अपने पक्ष में बेहतर तरीक़े से किया जा रहा है. भारत में बड़ी संख्या में टीवी चैनल हैं और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी भारत ने ज़बरदस्त प्रगति की है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मामले में भारत बहुत आगे हैं और पाकिस्तान उसके सामने कहीं नहीं ठहरता है. करगिल की लड़ाई में भारतीय मीडिया ने जिस प्रकार से आक्रामकता दिखाई, पाकिस्तानी मीडिया उसके सामने कहीं नहीं टिक पाई और उसका सामना करने में बुरी तरह नाक़ाम रही. पाकिस्तानी मीडिया में न तो आक्रामकता दिखाई दी और न ही सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए ही उसके कुछ किया. भारतीय मीडिया द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार का सामना करने के लिए पाकिस्तानी मीडिया में योजना और मुद्दों की कमी बेहद कमी थी.”
ऐसा नहीं था कि करगिल युद्ध के दौरान भारतीय मीडिया को अपनी ख़बरों के लिए सिर्फ़ वाहवाही ही मिली है. भारतीय मीडिया को अपनी कवरेज के लिए कई बार आलोचना का भी सामना करना पड़ा.
हालांकि, ऐसा नहीं था कि करगिल युद्ध के दौरान भारतीय मीडिया को अपनी ख़बरों के लिए सिर्फ़ वाहवाही ही मिली है. भारतीय मीडिया को अपनी कवरेज के लिए कई बार आलोचना का भी सामना करना पड़ा. मीडिया को अपनी ख़बरों से सनसनी फैलानी, भ्रामक सूचना देने और इससे सैनिकों के मनोबल पर विपरीत असर पड़ने जैसे सवालों को लेकर आलोचना का भी सामना करना पड़ा. भारतीय सेना के गोपनीय 'टाइगर हिल' ऑपरेशन के दौरान टीवी रिपोर्टर बरखा दत्त द्वारा की गई लाइव रिपोर्टिंग की खूब आलोचना हुई थी और इसे बेहद गैरज़िम्मेदाराना माना गया. हालांकि, ऐसी कुछ घटनाओं को छोड़ दें, तो मीडिया ने करगिल युद्ध के दौरान कुल मिलाकर अपनी दमदार भूमिका निभाई और आम जनमानस के विचारों को निर्धारित करने में एवं युद्ध में भारतीय पक्ष को मज़बूती से दिखाने में अपनी क्षमता को बखूबी दिखाया. इतना ही नहीं, करगिल युद्ध के दौरान भारतीय मीडिया ने देशभक्ति की भावना को जगाया, जिसने संकट के वक़्त देशवासियों को एकजुट करने का काम किया. इसके अलावा, मीडिया और सेना के पारस्परिक रिश्तों के लिहाज़ से भी करगिल युद्ध मील का पत्थर साबित हुआ. उस दौर में मीडिया और सेना के बीच क़ायम हुए संबंध बाद के वर्षों में और प्रगाढ़ होते गए और उनके बीच सामंजस्य लगातार बढ़ता गया.
अमृता जश, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन (इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस), मणिपाल, भारत के भू-राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं.
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