यूक्रेन संकट, रूस और अमेरिका के बीच नए सिरे से गहराता तनाव और यूरोप की अंदरुनी तनातनियां, वैश्विक भूराजनीतिक विमर्श पर मज़बूत पकड़ बनाए हुए हैं. ऐसे में पश्चिमी एशिया में घट रही घटनाएं, हमेशा की तरह भारत के लिए निरंतर उभरते क्षेत्रीय समीकरण की दिलचस्प झलक पेश कर रही हैं.
फ़िलहाल यूरोप विश्व की दिलचस्पी का केंद्र बना हुआ है, लेकिन सऊदी अरब और ईरान के बीच हाल ही में वार्ताओं को मुल्तवी किए जाने की घटना भी ग़ौर करने लायक़ है. बग़दाद में इन वार्ताओं की मेज़बानी इराक़ कर रहा था. वार्ताओं की ये क़वायद कई वजहों से अहम थी. इनमें से कुछ वजहें तो क़ुदरती तौर पर अंतरराष्ट्रीय थीं, जो महज़ इलाक़ाई रस्साकशियों और तनातनियों तक ही सीमित नहीं थीं.
भारत को तेल की आपूर्ति करने के मामले में इराक़ एक लंबे अर्से से सऊदी अरब के साथ शीर्ष के 2 देशों में शुमार रहा है. भारत की ऊर्जा सुरक्षा से जुड़े आकलन में इराक़ की अहमियत कोई नई बात नहीं है.
भारत को तेल की आपूर्ति करने के मामले में इराक़ एक लंबे अर्से से सऊदी अरब के साथ शीर्ष के 2 देशों में शुमार रहा है. भारत की ऊर्जा सुरक्षा से जुड़े आकलन में इराक़ की अहमियत कोई नई बात नहीं है. दरअसल कारोबारी या लेन-देने से जुड़े मिज़ाज के चलते भूराजनीतिक तौर पर इन रिश्तों की हमेशा से ही काफ़ी कम चर्चा होती रही है. यूक्रेन संघर्ष के बीच भी भारत सस्ते तेल की ख़रीद के लिए रूस के साथ निरंतर व्यापार करता आ रहा है. पश्चिमी जगत में कई लोग इसपर हैरानी जताते रहे हैं. दरअसल ऊर्जा सुरक्षा भारत की घरेलू स्थिरता का प्रमुख कारक है, लिहाज़ा वो इस पर ख़ासा ज़ोर देता है. भारत तेल की अपनी सालाना ज़रूरत का 80 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा आयात करता है. ऐसे में भारत की चिंता समझी जा सकती है. इराक़ के पूर्व तानाशाह सद्दाम हुसैन और भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री इंद्र कुमार गुजराल के बीच 1990 में गले लगने की उस बदनाम घटना के पीछे ठीक यही वजह काम कर रही थी. ग़ौरतलब है कि उसी वक़्त इराक़ ने अपने पड़ोसी मुल्क कुवैत पर हमला कर दिया था जिससे खाड़ी युद्ध का आग़ाज़ हो गया था. उस वक़्त भोले-भाले हिंदुस्तान के लिए हुसैन से जुड़ाव का मतलब किसी का पक्ष लेना नहीं था. दरअसल भारत तो उस इलाक़े से वाजिब वित्तीय लागत पर तेल की सुरक्षित आपूर्ति सुनिश्चित करना चाहता था. साथ ही खाड़ी में काम करने वाली अपनी विशाल और आर्थिक रूप से नाज़ुक प्रवासी आबादी को वहां से निकालना चाह रहा था.
सियासी दुनिया की एक मशहूर कहावत है ‘राजनीति में एक हफ़्ता भी लंबा वक़्त होता है’. यूनाइटेड किंगडम के पूर्व प्रधानमंत्री हैरॉल्ड विल्सन को इस जुमले का जन्मदाता माना जाता है.
तेल की बड़ी दौलत के बावजूद इराक़ को अब तक अपने सियासी सफ़र की मंज़िल नहीं मिल सकी है. सुन्नियों केमुल्क सऊदी अरब और शियाओं के देश ईरान के बीच इलाक़े में रस्साकशी तेज़ हो गई है. सियासी और मजहबी विचारों के आधार पर बंटी इन दोनों ताक़तों के बीच इराक़ नस्ली तौर पर बीचोंबीच खड़ा है. 1980 के दशक में लगभग दशक भर चले ईरान-इराक़ युद्धऔर आगे चलकर 9/11 आतंकी हमलों के बाद 2003 में अमेरिका द्वारा इराक़ पर किए गए विनाशकारी हमले ने इराक़ के लिए आर्थिक रफ़्तार और राजनीतिक स्थिरता हासिल करने की रही सही संभावनाओं पर पानी फेर दिया.ISIS (अरबी में दाएश) जैसे आतंकी समूहों के उभार ने इराक़ के उभार की उम्मीदों को और पलीता लगाया. कुछ अर्सा पहले ही भारतीय हितों को भी यहां चोट पहुंची थी. दरअसल इस्लामिक स्टेट के ख़ूनख़राबे भरे दौर में इराक़ में कार्यरत 39 भारतीय कामगार लापता हो गए थे. आगे चलकर 2018 में भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर इनमें से हरेक को मृत घोषित कर दिया. बताया जाता है कि इससे पहले 2014 में भारत ने 30 साल से कम उम्र वाले युवा मुस्लिमों को मजहबी मक़सद से इराक़ का दौरा करने से रोक दिया था. आतंक-निरोधी रणनीतिके तहत लिए गए इस फ़ैसले का लक्ष्य युवाओं पर नियंत्रण करना और उन्हें ISIS में शामिल होने से रोकना था. ग़ौरतलब है कि इराक़ के कर्बला और नजफ़ जैसे तीर्थस्थान भारतीय शिया मुसलमानों के लिए बेहद अहम हैं. भारत की कुल 1.4 अरब की आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 14 प्रतिशत है, जो इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी है. भारत की कुल मुस्लिम जनसंख्या में शिया मुसलमानों का हिस्सा 13 प्रतिशत है.
सऊदी अरब और ईरान संबंध
सऊदी अरब और ईरान को बातचीत की मेज़ पर लाने की इराक़ी कोशिशों को वहां के पूर्व प्रधानमंत्री मुस्तफ़ा अल-काधिमी आगे बढ़ा रहे थे. इन वार्ताओं को आगे बढ़ाने के पीछे अल-काधिमी का इरादा शांति-स्थापना दूत बनने का नहीं था. दरअसल इस क़वायद के पीछे तीनोंपक्षों के बीच हुई रज़ामंदी काम कर रही थी. इसमें भविष्य में इराक़ को मैदान-ए-जंग नहीं बनाने की कोशिशें करने की बात कही गई थी. अल-काधिमी के शुरुआती प्रयास कम से कम सतह पर रंग लाते दिख रहे थे. दोनों ही पक्षों ने वार्ताओं को सकारात्मक रोशनी में देखा. एक वक़्त पर ऐसी भी ख़बरें आई थीं कि सऊदी अरब तेहरान में अपना दूतावास दोबारा खोलने पर विचार कर सकता है. ये मिशन 2016 से बंद पड़ा है. बहरहाल दूतावास दोबारा खोले जाने की संभावनाएं धीरे-धीरे कम हो गईं. जनवरी 2022 में इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) के मातहत ईरानी नुमाइंदगी वाला दफ़्तरदोबारा खोलने के लिए ईरानी राजनयिकों के जेद्दा दौरे को सकारात्मक घटनाक्रम के तौर पर देखा गया.
सियासी दुनिया की एक मशहूर कहावत है ‘राजनीति में एक हफ़्ता भी लंबा वक़्त होता है’. यूनाइटेड किंगडम के पूर्व प्रधानमंत्री हैरॉल्ड विल्सन को इस जुमले का जन्मदाता माना जाता है. बहरहाल 2020 के दशक में विल्सन के इस विचार को शायद 24 घंटे की मियाद तक घटाया जा सकता है. अक्टूबर 2022 में इराक़ में नए राष्ट्रपति अब्दुल लतीफ़ राशिद और प्रधानमंत्री मोहम्मद शिया अल-सुदानी ने कार्यभार संभाला. इतिहास गवाह है कि बग़दाद का ताज किसके सिर सजेगा, इसपर हमेशा से सऊदीअरब, ईरान और अमेरिका का दख़ल रहा है. इराक़ी सियासी बंदोबस्त में एक कुर्द राष्ट्रपति, एक शिया प्रधानमंत्री और संसद के मुखिया के तौर पर सुन्नी नेता के चुने जानेका अनाधिकारिक ढांचा क़ायम रहा है. हालिया वक़्त में ईरान-समर्थक असरदार गुट इराक़ी राजनीतिक प्रक्रिया में मज़बूती से पांव जमाने की कोशिशें करते नज़र आए हैं. इनमें कातिब हिज़्बुल्लाह जैसे गुट भी शामिल हैं जिनपर इराक़ में अमेरिकी हितोंको निशाना बनाने का इल्ज़ाम है. उधर दूसरे प्रभावशाली स्थानीय सियासी आंदोलनों जैसे सदरियों (एक वक़्त लड़ाका नेता रहे मुक़्तदा अल-सदर इसकी अगुवाई कर रहे हैं) ने अपने पांव पीछे खींचते हुए नई सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया. इराक़ी प्रधानमंत्री अल सुदानीने हाल ही में तेहरान का दौरा किया. इस वक़्त चौतरफ़ा विरोध-प्रदर्शन झेल रही तेहरान की हुकूमत ने इराक़ पर ईरान के सामरिक हितोंकी दिशा में पहले से ज़्यादा सक्रियता से काम करने का दबाव बनाया है. इसके अलावा ईरान ने आर्थिक तौर पर भी इराक़ में पहले से ज़्यादा दबदबा जमाने की क़वायद तेज़ कर दी है.
भारत का रुख
भारत के नज़रिए से देखें तो इराक़ की ज़्यादातर दुश्वारियों काशायद ही कभी ही दक्षिण (ख़ासतौर से बसरा जैसे इलाक़ों की ओर) दिशा की ओर प्रसार हुआ है. दरअसल इराक़ से तेल निर्यात का ज़्यादातर काम इसी इलाक़े से होता है. यहां से फ़ारस की खाड़ी और भारी उथल-पुथल भरे होर्मुज़ जलसंधि के ज़रिए तेल की ढुलाई की जाती है. भारत जैसे देश के लिए ऊर्जा सुरक्षा की क़वायद, विस्तृत और विविधतापूर्ण आपूर्ति श्रृंखला तैयार करने पर निर्भर करती है. बहरहाल ईरान, रूस और वेनेज़ुएला जैसे देशों पर लगी पाबंदियों के साथ-साथ हाल के तमाम भूराजनीतिक घटनाक्रमों से ऊर्जा के प्रति भारतीय अर्थव्यवस्था की भूख को पूरा कर पाने का काम बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकता है. परमाणु सौदे से जुड़ी वार्ताओं पर ईरान और अमेरिका के बीच तनाव उभरने के बाद भारत ने ईरान से तेल का आयात रोक दिया था. इससे इराक़ को ज़बरदस्त फ़ायदा हुआ. बढ़ते प्रतिबंधों और रूसी तेल की सीमित बिक्री की शर्तों के चलते आने वाले महीनों में तेल की आपूर्ति और क़ीमतों में उथल-पुथल और बढ़ने के आसार हैं. हो सकता है कि आने वाले कई सालों तक हालात ऐसे ही बने रहें.
ये भारत के लिए इराक़ के साथ अपने जुड़ावों का विस्तार करने का बेहतरीन मौक़ा है. ग़ौरतलब है कि भारत की ओर से आख़िरी बार इराक़ का शीर्ष स्तरीय अहम दौरा 2016 में हुआ था. उस वक़्त तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री एम जे अकबर ने बग़दाद जाकर इराक़ी नेतृत्व से मुलाक़ात की थी. बेशक़ सियासी तौर पर इराक़ अब भी एक पेचीदा मसला है, लेकिन भारत के लिए देश की ऊर्जा सुरक्षा से जुड़े हित बेहद अहम हैं. आने वाले दशकों तक इसकी अहमियत बरक़रार रहने वाली है. वैकल्पिक ईंधनों की ओर ऊर्जा से जुड़ी परिवर्तनकारी क़वायदों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में रफ़्तार भरने के लिहाज़ से हाइड्रोकार्बन की केंद्रीय भूमिका क़ायम रहने वाली है. इराक़ के साथ भारत के जुड़ाव ख़ामोश मिज़ाज वाले और लेन-देन के नज़रिए से संचालित होते रहे हैं. तेल के मामले में इराक़ अब हमारे तीन शीर्ष आपूर्तिकर्ताओं में शुमार हो गया है. उधर वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा में कई तरह की विपरीत परिस्थितियां आने की आशंका है. चीन भविष्य के लिए अपनी ऊर्जा सुरक्षा को मज़बूत बनाने के लिए धीमी गति से ही सही, मगर लगातार निवेश कर रहा है. ऐसे में वक़्त का तक़ाज़ा है कि भारत अपनी ओर से इराक़ के साथ नए सिरे से संपर्क क़ायम करने की क़वायद करे. ऐसी कोशिश बेहद उपयोगी साबित हो सकती है.
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