संतुलन से साथ देने तक
कोरिया के युद्ध से लेकर शीत युद्ध ख़त्म होने तक दक्षिण कोरिया अपनी सुरक्षा नीति को लेकर मुख्य रूप से अमेरिका पर निर्भर रहा. लेकिन शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद दक्षिण कोरिया ने ऐसी विदेश नीति अपनाई जिसने अमेरिका और चीन के बीच उसकी आर्थिक और सुरक्षा ज़रूरतों को संतुलित किया. इस संदर्भ में दक्षिण कोरिया ने चीन के साथ आर्थिक स्तर पर भागीदारी के महत्व को स्वीकार किया क्योंकि चीन कोरियाई प्रायद्वीप में शांति को बढ़ावा देने में एक बड़ा भागीदार है. वैसे तो दक्षिण कोरिया के कूटनीतिक और आर्थिक रूप से चीन के साथ जुड़ने की वजह से उस समय उत्तर कोरिया के ख़तरे को कम करने में मदद मिली लेकिन उस वक़्त से हालात अब ख़राब हो चुके हैं. उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम और दक्षिणी चीन सागर एवं पूर्वी चीन सागर में चीन का ज़िद्दी व्यवहार दक्षिण कोरिया की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है. इस हालात के लिए दक्षिण कोरिया की कूटनीतिक ग़लतियों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. इन ग़लतियों में उत्तर कोरिया के ख़तरे से पार पाने के लिए अमेरिका पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता से लेकर चीन के साथ भागीदारी का फ़ैसला शामिल हैं. इस तरह शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के साथ जुड़ना हो या 90 के दशक के बाद अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बैठाने के लिए ज़्यादा मिले-जुले नज़रिये को अपनाना हो, दक्षिण कोरिया की सामरिक तरजीह उम्मीद के मुताबिक़ नतीजा हासिल करने में नाकाम साबित हुई है.
उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम और दक्षिणी चीन सागर एवं पूर्वी चीन सागर में चीन का ज़िद्दी व्यवहार दक्षिण कोरिया की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है. इस हालात के लिए दक्षिण कोरिया की कूटनीतिक ग़लतियों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.
मौजूदा समय में दक्षिण कोरिया अपने गठबंधन और स्वायत्तता को संतुलित करने में जूझ रहा है और अपनी विदेश नीति की पसंद को स्वतंत्र ढंग से चलाने में सक्षम नहीं है. लेकिन इस क्षेत्र में अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते मुक़ाबले की पृष्ठभूमि में और उनकी दुश्मनी के बीच फंसने से बचने के लिए दक्षिण कोरिया ने दोनों देशों पर अपनी निर्भरता कम करने की कोशिश की है. इस मक़सद को पूरा करने के लिए दक्षिण कोरिया ने 2017 में नई दक्षिणी नीति (NSP यानी न्यू सदर्न पॉलिसी) की शुरुआत की जिसका उद्देश्य अपने आर्थिक, सामरिक, सुरक्षा और कूटनीतिक संबंधों को भारत और आसियान देशों तक फैलाना है. नई दक्षिणी नीति लाने के बाद दक्षिण कोरिया इंडो-पैसिफिक रणनीति लेकर आया जो कि दक्षिण कोरिया को एक ईमानदार बीच की ताक़त के तौर पर पेश करने की कोशिश है. इसके लिए अमेरिका के साथ दक्षिण कोरिया के सुरक्षा गठबंधन को मज़बूत बनाने, दक्षिण कोरिया की सुरक्षा साझेदारी का विस्तार करने और एक मुक्त, शांतिपूर्ण और समृद्ध इंडो-पैसिफिक की वक़ालत करने का सहारा लिया गया.
अमेरिका पर अपनी निर्भरता कम करने और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में दूसरे देशों के साथ अपने संबंधों को जोड़ने की दक्षिण कोरिया की कोशिशों के बावजूद उसकी सामरिक प्राथमिकता ने अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बनाने को दिखाना जारी रखा है. दक्षिण कोरिया ने फ्री एंड ओपन इंडो-पैसिफिक (FOIP) शब्द का इस्तेमाल करने से परहेज किया है और उसकी इंडो-पैसिफिक रणनीति के दस्तावेज़ में चीन का महज़ ज़िक्र हुआ है. इससे ये संकेत मिलता है कि दक्षिण कोरिया चीन के हितों से तालमेल बैठाने की इच्छा रखता है. इस नज़रिए ने दक्षिण कोरिया की भूमिका को मुख्य रूप से ग़ैर-परंपरागत सुरक्षा ख़तरों तक सीमित कर दिया है जो कि उसकी सबसे बड़ी कमी बनी हुई है. हालांकि, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून सुक-योल अपने देश की अलग-अलग नीतियों को लेकर मुखर रहे हैं और उन्होंने क्वॉड के ढांचे का हिस्सा बनने, अपना परमाणु हथियार तैयार करने और ताक़त के ज़रिए यथास्थिति में किसी भी तरह के एकतरफ़ा बदलाव को ठुकराने के बारे में अपनी इच्छा जताई है. लेकिन इन घटनाओं ने दक्षिण कोरिया को अपने सुरक्षा उद्देश्यों को पूरा करने के लिए क़दम उठाने को तैयार किया है जो पिछले दिनों वॉशिंगटन घोषणापत्र में दिखा है.
वॉशिंगटन घोषणापत्र और क्वॉड के तले एकजुटता
ऐसा लगता है कि रूस-यूक्रेन संघर्ष की वजह से तनाव ज़्यादा है और ताइवान पर हमले की चीन की नई धमकी की वजह से इसमें और बढ़ोतरी हुई है. ताइवान पर चीन के संभावित हमले की स्थिति में चीन उत्तर कोरिया की सैन्य क्षमता का फ़ायदा उठाकर एक और मोर्चा खोल सकता है और ये दक्षिण कोरिया और अमेरिका- दोनों के सामने एक ख़तरा हो सकता है. इस तरह चीन अमेरिका को ताइवान संघर्ष में हस्तक्षेप करने से रोक सकता है. इसके अलावा चीन के द्वारा दक्षिण कोरिया में टर्मिनल हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस (THAAD) की तैनाती के खुले विरोध ने दक्षिण कोरिया की अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने की क्षमता काफ़ी कम की है. इसलिए अपनी बिगड़ती सुरक्षा स्थिति को देखते हुए दक्षिण कोरिया ने अमेरिका के साथ वॉशिंगटन घोषणापत्र के ज़रिए एक ऐतिहासिक सुरक्षा समझौता किया है. इस समझौते के ज़रिए वो उत्तर कोरिया के परमाणु ख़तरे का मुक़ाबला करेगा. ये घोषणापत्र उत्तर कोरिया के परमाणु ख़तरे का मुक़ाबला करने के लिए अमेरिका के साथ द्विपक्षीय सहयोग को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण क़दम का उदाहरण है. समझौते के तहत अमेरिका समय-समय पर दक्षिण कोरिया में परमाणु हथियार से लैस पनडुब्बियों को तैनात करेगा और परमाणु योजना से जुड़े अपने अभियानों में दक्षिण कोरिया को भी शामिल करेगा. इसके बदले में दक्षिण कोरिया इस बात के लिए तैयार हुआ है कि वो अपनी परमाणु मिसाइल विकसित नहीं करेगा.
अमेरिका के राष्ट्रपति ने वादा किया है कि अगर उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर हमला किया तो किम जोंग उन के शासन को ख़त्म कर देंगे. वॉशिंगटन घोषणापत्र में ताइवान स्ट्रेट में शांति बरकरार रखने की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया गया है.
दोनों देशों के नेताओं ने वॉशिंगटन घोषणापत्र को रक्षा सहयोग बढ़ाने और अमेरिका के सहयोगियों को परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने से बचाने के लिए एक “अभूतपूर्व” भरोसे के तौर पर स्वागत किया है. अमेरिका के राष्ट्रपति ने वादा किया है कि अगर उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर हमला किया तो किम जोंग उन के शासन को ख़त्म कर देंगे. वॉशिंगटन घोषणापत्र में ताइवान स्ट्रेट में शांति बरकरार रखने की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया गया है. इसकी वजह से चीन इस समझौते को लेकर चिंता में हैं और उसने “जानबूझकर तनाव बढ़ाने, संघर्ष को उकसाने और ख़तरे को बढ़ाने” के ख़िलाफ़ चेतावनी दी है. इसके अलावा उत्तर कोरिया ने भी दक्षिण कोरिया और अमेरिका को उनके क़दमों के बारे में गंभीर नतीजे भुगतने की चेतावनी दी है. इसलिए चीन और उत्तर कोरिया के इस बढ़ते ख़तरे के बीच ये महत्वपूर्ण है कि दक्षिण कोरिया क्वॉड से जुड़ने पर विचार करे जो इस दोहरे ख़तरे का समाधान करने में उसकी मदद कर सकता है.
उधर क्वॉड का मक़सद फ्री एंड ओपन इंडो-पैसिफिक (FOIP) और इससे जुड़ी गतिविधियों के बारे में है. वैसे तो क्वॉड इंडो-पैसिफिक में चीन की मौजूदगी का मुक़ाबला करने के लिए बना कोई सैन्य गठजोड़ नहीं है लेकिन उसे इसी तरह देखा जाता है. दक्षिण कोरिया के ख़िलाफ़ उत्तर कोरिया एक तात्कालिक और महत्वपूर्ण ख़तरा है लेकिन क्वॉड इसे काफ़ी हद तक एक क्षेत्रीय ख़तरा मानता है वहीं क्वॉड के लिए चीन एक वैश्विक चिंता है. दक्षिण कोरिया प्रमुख सहयोगियों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत कर रहा है. इन सहयोगियों में ऑस्ट्रेलिया, भारत, अमेरिका और जापान (हाल में इसके साथ संबंध सामान्य हुए हैं) शामिल हैं. इससे सहयोग की संभावना में बढ़ोतरी होती है. इसके अलावा दक्षिण कोरिया धीरे-धीरे चीन की अर्थव्यवस्था के साथ अपनी भागीदारी को कम कर रहा है जिससे संबंधों को बनाने में उसे छूट की इजाज़त मिलती है. क्वॉड के शिखर सम्मेलनों में उत्तर कोरिया को लेकर चर्चा बढ़ रही है. क्वॉड ने 2022 में उत्तर कोरिया के द्वारा मिसाइल लॉन्च करने और धमकाने की कूटनीति की निंदा की थी. इसके साथ-साथ उत्तर कोरिया को परमाणु हथियार से दूर रखने का वादा किया गया था. फिर भी अगर क्वॉड उत्तर कोरिया को लेकर धीमी रफ़्तार से चलता है तो इसके नकारात्मक नतीजे हो सकते हैं. इस तरह क्वॉड में दक्षिण कोरिया की भागीदारी क्वॉड प्लस फोरम के ज़रिए ज़्यादा फ़ायदेमंद हो सकती है. इससे वो एक तरफ़ उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ क्वॉड का समर्थन हासिल कर सकता है और दूसरी तरफ़ क्वॉड को चीन पर ज़्यादा ध्यान देने की इजाज़त दे सकता है. वॉशिंगटन घोषणापत्र इस लक्ष्य को हासिल करने में एक क़दम के तौर पर काम कर सकता है.
निष्कर्ष
दक्षिण कोरिया क्वॉड के साथ-साथ इंटेलिजेंस के मामले में नेटो और अमेरिका के साथ भी अपने संबंध के ज़रिए रक्षा क्षमता को बढ़ाने में सक्षम हो सकता है. वैसे तो क्वॉड के सदस्य इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में उत्तर कोरिया के गड़बड़ी फैलाने के असर को समझते हैं लेकिन ये दक्षिण कोरिया है जो लगातार परमाणु उत्तेजना के तनाव का सामना करता है. हालांकि दक्षिण कोरिया को सबसे पहले ख़ुद को एक भरोसेमंद साझेदार के तौर पर स्थापित करने की ज़रूरत है. इसके लिए उसे दूसरे इंडो-पैसिफिक देशों के साथ बहुपक्षीय और द्विपक्षीय समझौतों के ज़रिए व्यापक काम करने की ज़रूरत है. इस काम में उसे इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (IPEF), चिप-4 और ऑफिशियल डेवलपमेंट ऐड (ODA) जैसे साधनों का इस्तेमाल करना होगा और राजनीतिक समर्थन मांगना और देना होगा. अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए 2017 में जब दक्षिण कोरिया ने सैन्य समझौतों पर दस्तख़त किए, उस समय उसे जिन मजबूरियों का सामना करना पड़ा उसके मुक़ाबले क्वॉड दक्षिण कोरिया को ज़्यादा लचीलापन मुहैया कराता है. क्वॉड सदस्य देशों के बीच साझा हितों और मूल्यों के स्तर की स्थापना की प्रक्रिया में काफ़ी कोशिशें और समय लग सकता है. क्वॉड सदस्यों से नज़दीकी तालमेल की सोच के साथ वॉशिंगटन घोषणापत्र से दक्षिण कोरिया को काफ़ी फ़ायदा मिल सकता है. क्वॉड जहां दक्षिण कोरिया के बोझ को कुछ हद तक उठा सकता है वहीं वो अपनी मौजूदगी और नज़रिए का विस्तार भी कर सकता है. इस तरह वो एक स्थिति तैयार कर सकता है जहां दक्षिण कोरिया के फ़ायदे का मतलब दूसरे का नुक़सान नहीं है.
अभिषेक कुमार सिंह सियोल की कूकमिन यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशंस के PhD कैंडिडेट हैं.
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