Author : Bhashyam Kasturi

Special ReportsPublished on Mar 15, 2025
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Tracing The Origins Of India S Special Frontier Force

‘भारत के स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (SFF) के गठन की कहानी’

  • Bhashyam Kasturi
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भाष्यम कस्तूरी, भारत के स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (SFF) के गठन की कहानी, ORF स्पेशल रिपोर्ट नं. 249, फरवरी 2025, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन.

परिचय

प्रोजेक्ट सनरे, ऑपरेशन सनराइज़ तथा ऑपरेशन सनडाउन [a] स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के साथ संबद्ध ऑपरेशंस के कोड नाम है. ये ऑपरेशंस भारत में कैबिनेट सचिवालय के तहत आने वाले स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (SFF) यानी एस्टेब्लिशमेंट अर्थात संस्थान 22 के साथ जुड़े हुए हैं. SFF एक कोवर्ट यानी गुप्त ऑपरेशंस यूनिट है जो रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (R&WA) के सचिव को रिपोर्ट करता है. इसका गठन नवंबर 1962 में चीन के ख़िलाफ़ भारत के आक्रामक गुप्त यूनिट के रूप में किया गया था. उस वक़्त इसका राजनीतिक उद्देश्य तिब्बत को चीन के नियंत्रण से मुक़्त करवाना था, जिस काम में SFF ने छिपे हुए हथियार का काम किया था. SFF के विकासी सॉन्ग यानी गीत [b] की SFF में लोकप्रियता इसके मूल चरित्र को परिलक्षित करती है और यह दर्शाता है कि इस बल का गठन किस उद्देश के लिए किया गया था.

SFF का मूल चुशी गंगद्रुक ("चार नदियों और छह श्रेणियों"), जो कि एक विद्रोही या ख़िलाफ़त अभियान में देखा जा सकता है. यह अभियान चीन की ओर से 1951 में ल्हासा पर कब्ज़ा करने के बाद शुरू हुआ था.[1] शुरुआत में तिब्बत में गुप्त अभियान चलाने की ज़िम्मेदारी SFF को सौंपी गई थी. लेकिन इसके बाद सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी (CIA) ने तिब्बत प्रोग्राम को जारी रखा था. इस प्रोग्राम के तहत खम्पा विद्रोही लड़ाकों को प्रशिक्षण दिया जाता था. इन लड़ाकों को 1950 के दशक में CIA ने मुस्तांग क्षेत्र में घुसपैठ करवाई थी और इन्हें तिब्बत पर आक्रमण करने वाली चीनी सेना को परेशान करने तथा निशाने पर लेने का काम दिया गया था.[2]

इस रिपोर्ट में SFF के गठन पर एक बार फिर से चर्चा की जा रही है, ताकि इसकी संगठनात्मक स्मृति का जतन कर इसकी स्थापना को संदर्भित किया जा सके. इस बल का गठन करने के पीछे तीन बड़े कारण थे. पहला कारण था तिब्बत को लेकर US-भारत के बीच इंटेलिजेंस कोलैबोरेशन यानी गुप्तचर संस्थाओं के बीच तिब्बत को लेकर समन्वय स्थापित करना और तिब्बत के भीतर ही गुरिल्ला युद्ध को प्रोत्साहित करना. इसके पीछे का कारण यह था कि 1950 के दशक में कम्युनिस्ट चीन के प्रति यूनाइटेड स्टेट्स (US) में वैमनस्य का भाव था. दूसरी ओर भारत में भी चीन की ओर से सीमा पर लगातार होने वाली घुसपैठ के परिणामस्वरूप 1962 में हुए सीमा युद्ध को लेकर भीतर ही
भीतर गुस्सा भरा हुआ था. दूसरा कारण था 14वें दलाई लामा तथा चुशी गंगद्रुक विद्रोहियों की भारत में मौजूदगी. इन विद्रोहियों की मौजूदगी के कारण ही पहले US तथा बाद में भारत को तिब्बतियों (विशेष कर खम्पा विद्रोही) को ख़िलाफ़त अभियान में शामिल करने का अवसर मिला. तीसरा कारण था 1962 में चीन के साथ हुआ युद्ध, जिसकी वजह से भारत की सरकार ने तिब्बती विद्रोही बल के गठन का विचार किया. इस बल के गठन को लेकर जहां बीज CIA की ओर से बोए गए थे, वहीं इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) ने इस बल को अपने ही ढंग से भारतीय पहचान दी.

SFF का मूल चुशी गंगद्रुक ("चार नदियों और छह श्रेणियों"), जो कि एक विद्रोही या ख़िलाफ़त अभियान में देखा जा सकता है. यह अभियान चीन की ओर से 1951 में ल्हासा पर कब्ज़ा करने के बाद शुरू हुआ था.  शुरुआत में तिब्बत में गुप्त अभियान चलाने की ज़िम्मेदारी SFF को सौंपी गई थी. लेकिन इसके बाद सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी (CIA) ने तिब्बत प्रोग्राम को जारी रखा था

सीमा युद्ध के कारण ही भारतीय गुप्तचर तंत्र में ख़ुफ़िया ऑपरेशंस के लिए कमांड- एंड-कंट्रोल सिस्टम का गठन किया गया. इस सिस्टम को प्रधानमंत्री सचिवालय में फरवरी 1965 में औपचारिक रूप दिया गया. (c) दोयम सूत्रों पर आधारित इस विश्लेषण में चीन के ख़िलाफ़ भारत की रक्षा एवं सुरक्षा लक्ष्यों  को आगे बढ़ाने के लिए SFF को रणनीतिक रूप से तैनात करने की आवश्यकता पर बल देकर इसे उजागर किया गया है.

पृष्ठभूमि

CIA के तिब्बत इनीशिएटिव यानी तिब्बती पहल के तहत खम्पा विद्रोहियों को भर्ती कर उन्हें प्रशिक्षण देकर तिब्बती क्षेत्र में कब्ज़ा कर बैठी चीनी सेना के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए घुसपैठ के रस्ते भेजा जाता था. शीत युद्ध के दौरान US की इसी पहल के तहत SFF का गठन कर उसे US के काम को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी. 1950 के दशक में जब US ने तिब्बती मुद्दे के समर्थन का फ़ैसला किया तो US ने तिब्बती सैनिकों को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के ख़िलाफ़ गुरिल्ला ऑपरेशंस चलाने के लिए तैयार करने वाले प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किये. इसका उद्देश्य PLA को तिब्बत के भीतर ही उसकी कार्रवाइयों में व्यवधान डालकर अस्थिर करना था. लेकिन तिब्बती विद्रोह को भारी नुक़सान का सामना करना पड़ा क्योंकि उसके अधिकांश लड़ाकों को या तो मार दिया गया या फिर बचे हुए लड़ाके भारत भाग गए. 1960 में CIA ने अपनी रणनीति में संशोधन किया और उसने उत्तरी नेपाल के तिब्बत की सीमा से सटे मुस्तांग क्षेत्र में एक नए तिब्बती गुरिल्ला ठिकाने की स्थापना की. यह क्षेत्र सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से तिब्बत के साथ जुड़ा हुआ है अतः यह विद्रोही गतिविधियों को चलाने के लिए एक सटीक ठिकाने का काम करता था.[3]

1959 में तेजी से आक्रामक हो रहे चीन को देखते हुए भारत ने इस ख़तरे का मुकाबला करने के लिए विकल्पों पर विचार करना शुरू कर दिया. सीमा संघर्षों को देखते हुए IB के निदेशक बी. एन. मलिक और ओरिसा (अब ओडिशा) के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने एक "स्टे- बिहाइंड"  बल स्थापित करने का प्रस्ताव रखा था जो भारतीय इलाकों विशेषतः असम  में कब्ज़ा करने वाली चीनी सेना को परेशान करने का काम कर सके. 

एस्टेब्लिशमेंट 22 भारत - US की तिब्बत को लेकर संयुक्त पहल थी, जिसमें विभिन्न ख़ुफ़िया ऑपरेशंस शामिल थे. इसका उद्देश्य चीन के ख़िलाफ़ भारत की आक्रामक ख़ुफ़िया क्षमताओं की अगुवाई करना था. इस काम में चीन के ख़िलाफ़ हवाई सहयोग और ख़ुफ़िया समर्थन उपलब्ध करवाने के लिए 7 सितंबर 1963 को एविएशन रिसर्च सेंटर (ARC) की स्थापना की गई. आरंभ में ARC ने भारत तथा CIA की अगुवाई में चल रही गुरिल्ला गतिविधियों के लिए हवाई सहयोग सुनिश्चित किया. लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल (LOC) से सटकर सिविक एक्शन यानी नागरिक आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए एक और यूनिट स्पेशल सर्विसेज ब्यूरो (SSB) का गठन किया गया था। इस यूनिट को शुरुआत में विदेश मंत्रालय के तहत रखा गया था. 1965 आते-आते इन सभी संगठनों को प्रधानमंत्री सचिवालय के तहत एकीकृत कर दिया गया.[4]

1959 में तेजी से आक्रामक हो रहे चीन को देखते हुए भारत ने इस ख़तरे का मुकाबला करने के लिए विकल्पों पर विचार करना शुरू कर दिया. सीमा संघर्षों को देखते हुए IB के निदेशक बी. एन. मलिक और ओरिसा (अब ओडिशा) के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने एक "स्टे- बिहाइंड"[5] बल स्थापित करने का प्रस्ताव रखा था जो भारतीय इलाकों विशेषतः असम[6] में कब्ज़ा करने वाली चीनी सेना को परेशान करने का काम कर सके. युद्ध के पश्चात इस लक्ष्य में संशोधन किया गया. इस संशोधन के तहत एक ऐसे बल की स्थापना की जानी थी जो तिब्बत में घुसपैठ करने की क्षमता रखता हो और वहां मौजूद चीनी सेना से लोहा ले सके. इसी बात को ध्यान में रखकर एस्टेब्लिशमेंट 22 की अवधारणा पैदा हुई. इस पहल के आर्किटेक्ट्स यानी भाग्यविधाता होने का श्रेय पटनायक और मलिक को दिया जाता है. पटनायक ने जहां ऑन -ग्राउंड लॉजिस्टिक्स[7] उपलब्ध करवाई, वहीं मलिक ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से सभी आवश्यक अनुमतियां हासिल की. 1964 में रिटायर होने के बाद मलिक को डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ सिक्योरिटी (DGS)[8] यानी सुरक्षा महानिदेशक का ज़िम्मा सौंपा गया. इसके तहत अब सरकार के सभी ख़ुफ़िया ऑपरेशंस प्रोग्राम की ज़िम्मेदारी उनके पास आ गई थी.


SFF में आरंभ में तिब्बती (मुख्यत: खम्पा) के जवान ही शामिल होते थे। इसमें भी वही लोग अधिक थे जो 1959 में भारत में भाग कर शरणार्थी बन गए थे. बाद में जवान तिब्बती पुरुष और कुछ समय के बाद महिलाएं भी इस बल में शामिल होने लगे. तिब्बती दृष्टिकोण से SFF के गठन को चुशी गंगद्रुक के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता है. चुशी गंगद्रुक एक तिब्बती विद्रोही बल है जिसकी स्थापना 1951 में चीन द्वारा तिब्बत पर आक्रमण करने के बाद की गई थी.[9] SFF के अनेक राजनीतिक नेताओं या दापोन ने चीनी सेना के ख़िलाफ़ चुशी गंगद्रुक के साथ मिलकर युद्ध लड़ा था. लेकिन यह दलाई लामा के 1959 में भारत भाग जाने के पहले की बात है. इन गतिविधियों की जानकारी दलाई लामा को भी थी. इसका कारण यह है कि CIA और IB दोनों ने ही इस बल का गठन करने में सहायता करने के लिए दलाई लामा के भाई ग्यालो थोंडुप से संपर्क किया था. इतना ही नहीं जब 1971 के युद्ध में SFF को चटगांव हिल ट्रैक्ट्स यानी क्षेत्र में तैनात करने से पहले इसके नेताओं ने दलाई लामा का आशीर्वाद मांगा था.[10]

1962 में चीन की ओर से किए गए हमले की पहली लहर के बाद वी. के. कृष्ण मेनन और जनरल बी. एम. कौल ने तिब्बत के भीतर ही चीनी सेना PLA पर हमला करने के लिए एक तिब्बती बल के गठन की संभावनाओं पर विचार किया था.[11] उन्होंने ब्रिगेडियर सुजान सिंह उबान (बाद में मेजर जनरल एस. एस. उबान ) को इस बल के पहले कमांडर के रूप में देखा था. उस वक़्त सुजान सिंह उबान सेवानिवृत्त हुए ही थे. इस बल के गठन के काफ़ी समय बाद उन्हें मेजर जनरल के रूप में प्रोन्नति दी गई थी. [d],[12] उसके बाद से आज तक SFF के कमांडर को भारतीय सेना में मेजर जनरल का रैंक हासिल है और उनके पद को इंस्पेक्टर जनरल SFF कहा जाता है.

अमेरिकन कनेक्शन

इस तरह के बल का गठन करने का सुझाव सबसे पहले CIA चीफ एलेन डलेस ने दिया था. इसका कारण यह था कि वे नेपाल के मुस्तांग क्षेत्र में लड़ रहे चुशी गंगद्रुक के गुरिल्लाओं यानी विद्रोहियों तथा CIA के बीच समन्वय नहीं होने की वजह से परेशान थे. उनका मानना था कि यदि भारत इसमें शामिल हो गया तो इस प्रयास को बेहतर ढंग से संगठित किया जा सकेगा. उनके इस प्रस्ताव के बाद ही सितंबर 1963 में दिल्ली में एक जॉइंट ऑपरेशंस सेंटर या स्पेशल सेंटर की स्थापना की गई. इस केंद्र का उद्देश्य एजेंट्स को तिब्बत में भेज कर उनकी गतिविधियों पर निगरानी रखना था.[13] बी. एन. मलिक ने बाद में MI5 के तत्कालीन महानिदेशक सर रोजर होलिस के साथ हुई बातचीत को याद किया जिसमें होलिस ने सुझाव दिया था कि IB को सीमा पार गुप्त अभियान चलाने वाली तिबेटन सैबोतेज फोर्स यानी तिब्बती उपद्रवी या तोड़फोड़ बल का गठन करना चाहिए जो तिब्बत में PLA के यूनिट्स, गैरिसन तथा सुविधाओं को लक्ष्य बनाने का काम करें. वक़्त आने पर इन गतिविधियों से पल्ला झाड़ने के लिए इस बल में केवल तिब्बती लोगों को ही शामिल करने का सुझाव दिया गया था. इस बल का गठन द्वितीय विश्व युद्ध में बनाए गए ब्रिटिश स्पेशल ऑपरेशंस एग्जीक्यूटिव (SOE) के मॉडल की तर्ज़ पर किया जाना था. इस बल को भी SOE जैसे काम का अनुसरण करना था.[14]

नवंबर 1962 में जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर कैनेडी प्रशासन ने स्टेट डिपार्टमेंट, पेंटागन और CIA के लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल भेजा. यह टीम भारत की आवश्यकताओं पर चर्चा करने वाली थी. CIA के प्रतिनिधिमंडल ने ख़ुफ़िया गतिविधियों में तिब्बती लड़ाकों को शामिल करने के लिए एक ढांचे को लेकर मलिक तथा अन्य अधिकारियों के साथ बातचीत की. CIA ने भारत में रहने वाले तिब्बती शरणार्थियों को लेकर IB की देखरेख में एक पैरामिलिट्री फोर्स का गठन करने में मदद देने का प्रस्ताव दिया.[15] यह फोर्स भविष्य में भारत -चीन संघर्ष के दौरान ख़ुफ़िया जानकारी एकत्रित करने के अलावा गुप्त अभियान चलाने का भी काम करेगी. उनके मुस्तांग ठिकाने से तिब्बत के भीतर गुरिल्ला ऑपरेशंस को जारी रखने के लिए भारत तैयार हो गया. 1960 के दशक में भारत की मुस्तांग ऑपरेशंस में दख़ल काफ़ी कम हो गया, लेकिन CIA ने इस प्रोग्राम को 1970 के दशक तक जारी रखा. उसके बाद चीन को लेकर US ने अपनी नीति में बदलाव किया और वह उसके साथ बातचीत करने लगा. इसी कारण उसने तिब्बती विद्रोह को समर्थन देना बंद कर दिया. इसके बाद ही भारत अपने दम पर तिब्बती लड़ाकों के साथ काम करने लगा. उसने इन लड़ाकों को एलीट स्पेशल ऑपरेशंस फोर्स के रूप में प्रशिक्षण दिया. इसका कारण यह था कि दोनों का दुश्मन एक ही था. वक़्त के साथ इसके बल के आकार और दायरे दोनों में ही विस्तार हो गया.

1962 में IB, CIA तथा चुशी गंगद्रुक के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ. इसमें तिब्बती संस्थान का प्रतिनिधित्व जनरल गोंपो ताशी अंद्रुगत्सांग और जोगो नामग्याल दोरजी ने किया था. इस समझौते के तहत चुशी गंगद्रुक को नेपाल के मुस्तांग में उपलब्ध संभावित रंगरुटों में से 12,000 तिब्बती खम्पा लड़ाकों का चयन कर उन्हें उपलब्ध करवाना था.  


1962 में IB, CIA तथा चुशी गंगद्रुक के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ. इसमें तिब्बती संस्थान का प्रतिनिधित्व जनरल गोंपो ताशी अंद्रुगत्सांग और जोगो नामग्याल दोरजी ने किया था. इस समझौते के तहत चुशी गंगद्रुक को नेपाल के मुस्तांग में उपलब्ध संभावित रंगरुटों में से 12,000 तिब्बती खम्पा लड़ाकों का चयन कर उन्हें उपलब्ध करवाना था.[16] मलिक के लिए ये लड़ाके भारतीय सरकार को उसकी सेना में विदेशी नागरिकों की दो टूकड़ियां उपलब्ध करवाने वाले नेपाल के गोरखा और एस्टेब्लिशमेंट 22 में तिब्बत से आने वाले खम्पा जैसे ही थे. CIA ने US मरीन कोर (USMC) के कर्नल वेन सैनफोर्ड की अगुवाई में प्रशिक्षकों की आठ सदस्यीय टीम को तैनात किया. उस वक़्त वेन सैनफोर्ड CIA के स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप के प्रमुख थे.[17] कर्नल सैनफोर्ड ने इस बल के ऑपरेशनल फ्रेमवर्क और प्रशिक्षण के मेट्रिक्स यानी तौर-तरीके स्थापित करने में अहम भूमिका अदा की.

1968 आते-आते US प्रशासन की तिब्बत समर्थन कार्यक्रम में रुचि कम हो गई. राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने फरवरी 1972 में चीन की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाते हुए एक गुप्त यात्रा की. इस नज़दीकी के कारण ही तिब्बत को US का समर्थन कमज़ोर हो गया. 303 कमेटी (जिसे पहले स्पेशल ग्रुप के नाम से जाना जाता था और जिसका दो जून 1964 को नया नामकरण किया गया था) को 26 जनवरी 1968 को एक मेमोरैंडम भेजा गया था. इसमें प्रमुखता से यह बात कही गई थी कि इस प्रोग्राम को चीनी कम्युनिज्म के विस्तार को रोकने के लिए तैयार किया गया था.[18] इस रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया था कि तिब्बती विद्रोही समूह‘अंदरुनी स्वायत्तता’हासिल करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं और तिब्बत पर चीन की पकड़ भी कमज़ोर नहीं हो रही है. फरवरी 1964 में कमेटी की एक समीक्षा में देखा गया कि तिब्बत के सभी ऑपरेशंस से जुड़े प्रोग्रामों पर 1,735,000 अमेरिकी डॉलर ख़र्च हुए हैं. हालांकि जब से तिब्बतियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम बंद किया गया है तब से बचत होने लगी है.[19] राजनीतिक स्तर पर चीन से बातचीत करने का फ़ैसला लिए जाने के बाद तिब्बती समर्थन कार्यक्रम को धीरे-धीरे कम करना ही बेहतर समझा गया था. इस वक़्त तक CIA ने इस कार्यक्रम की ज़िम्मेदारी भारत के IB को हस्तांतरित कर दी थी.

भारतीय योजनाकार

26 अक्टूबर 1962 को बी. एच. कौल और रक्षा मंत्री वी. के. कृष्ण मेनन ने ब्रिगेडियर एस. एस. उबान से साउथ ब्लॉक में मुलाकात की. एस. एस. उबान को उस वक़्त तक सेवानिवृत्त हो चुके अधिकारियों की सूची में से तिब्बती विद्रोही बल की स्थापना को ध्यान में रखकर चुन लिया गया था. इन दोनों ने चीन से लड़ने, पहले मुख़्यत: भारतीय क्षेत्र में, के लिए एक गुरिल्ला फोर्स का गठन करने का प्रस्ताव रखा. इसके बाद ही ग्यालो थोंडुप को दार्जिलिंग से बुलवाया गया. उन्हें SFF के लिए स्वयंसेवकों की भर्ती करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. ग्यालो थोंडुप ने 5,000 स्वयंसेवकों की टीम खड़ी करने की हामी भर दी. अब एक अहम सवाल उठा कि इसमें IB या रक्षा मंत्रालय को शामिल किया जाए क्या? चूंकि ग्यालो थोंडुप ने इसके पहले भी बी. एन. मलिक से संपर्क किया था और वर्तमान में वे ल्हामो त्सेरिंग के माध्यम से CIA का सहयोग कर रहे थे, अत: ग्यालो थोंडुप ने तत्काल ही IB का चयन कर लिया.[20] बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा कि उन्हें CIA ने ही यह सुझाव दिया था कि इस प्रशिक्षण को भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र के साथ संयुक्त रूप से चलाया जाना चाहिए.[21]

राटु/रातुक नगवांग ने तिब्बती भाषा में लिखी गई अपनी आत्मकथा में याद किया है कि ग्यालो थोंडुप ने गोंपो ताशी तथा अंद्रुक ज़साक ने दार्जिलिंग में एक बैठक बुलवाई थी. इसमें ग्यालो थोंडुप ने सुझाव दिया कि मुस्तांग ठिकाने को ऑपरेशन का स्थायी ठिकाना नहीं बनाया जाए. उन्होंने सुझाव दिया कि इसकी बजाय भारत में ही एक सैन्य प्रशिक्षण अकादमी की स्थापना की जानी चाहिए.[22] राटु/रातुक की आत्मकथा में इस बात पर भी बल दिया गया है कि इस बल को आरंभ में दलाई लामा का आशीर्वाद हासिल था. इस बल के पास इसमें भर्ती होने वाले तिब्बतियों की पहचान करने में सहायता करने के लिए कशाग की ओर से जारी पत्र भी मौजूद था. इसके अलावा सबसे अहम बात यह थी कि तिब्बतियों के दिमाग में यह बात बैठ गई थी कि इस बल का नेतृत्व तिब्बती लोग ख़ुद करेंगे. यह बात कलिमपोंग में वरिष्ठ खम्पाओं को एकत्रित करने के लिए किए गए आवाहन में साफ़ दिखाई देती है. इसमें से ही कुछ लोगों को डापोन नियुक्त कर चकराता भेजा गया था.

17 नवंबर 1962 को नेहरु ने असम के तत्कालीन राज्यपाल विष्णु सहाय को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में उन्होंने लिखा, "मुझे लगता है कि अब वक़्त आ गया है कि गुरिल्ला यूनिट्स को प्रशिक्षण देना आरंभ किया जाए. हम इस काम को शुरू कर रहे है. इसमें खम्पाओं और आदिवासियों का उपयोग करते हुए NEFA का सहयोग लिया जा रहा है."  



नवंबर 1962 की शुरुआत में जंबा कालडेन की अगुवाई में 5,000 तिब्बतियों की पहली खेप भारतीय सैन्य अकादमी तथा अनेक बोर्डिंग स्कूलों के शहर देहरादून भेजी गई. ब्रिगेडियर उबान तथा भारतीय सेना से लोन पर मिले कुछ भारतीय सेना के अफसरों की छोटी टीम ने इन तिब्बतियों से मुलाकात की. शहर की सीमा पर एक ट्रांजिट कैंप की स्थापना की गई. वहां इन 5,000 स्वयंसेवकों की पड़ताल की गई. 14 नवंबर 1962 को इंडियन कैडर और कुछ चार राजनीतिक नेता 92 किलोमीटर उत्तरपूर्व में चकराता की ओर शिफ्ट या स्थानांतरित हो गए.

मलिक ने इन सारी गतिविधियों की जानकारी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को दी होगी. 17 नवंबर 1962 को नेहरु ने असम के तत्कालीन राज्यपाल विष्णु सहाय को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में उन्होंने लिखा, "मुझे लगता है कि अब वक़्त आ गया है कि गुरिल्ला यूनिट्‌स को प्रशिक्षण देना आरंभ किया जाए. हम इस काम को शुरू कर रहे है. इसमें खम्पाओं और आदिवासियों का उपयोग करते हुए NEFA का सहयोग लिया जा रहा है."[23] अमेरिकी लेखक कॉनबॉय एवं मॉरिसन का दावा है कि 1962 की शरद ऋतु में CIA की आठ सदस्यीय टीम की तैनाती हो चुकी थी. इसके बाद ही नेहरु को पहाड़ी पर बनाए गए शिविर का निरीक्षण करने के लिए न्यौता दिया गया. IB ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए नेहरु को गुरिल्लाओं को संबोधित करने की गुज़ारिश की. उन्होंने निरीक्षण करने का न्यौता तो स्वीकार कर लिया, लेकिन संबोधन देने से मना कर दिया. उन्हें आशंका थी कि यदि उनके संबोधन का कोई शब्द बाहर चला गया तो इसकी वजह से डिप्लोमैटिक यानी कूटनीतिक परिणाम भुगतने होंगे. यह खबर सुनकर ब्रिगेडियर उबान ने एस्टेब्लिशमेंट 22 में शामिल अपने लोगों को तत्काल एक परेड ड्रिल का अभ्यास करने का निर्देश दिया. राटु/रातुक ने संकेत दिया है कि नेहरु ने 13 सितंबर 1963 को ग्यालो थोंडुप के साथ चकराता का दौरा किया था. इस दौरान मौजूद चारों डापोन ने प्रधानमंत्री को एक पत्र सौंपकर उन्हें जल्द से जल्द तिब्बत भेजने का अनुरोध किया था.[24]

13 सितंबर को आगमन के दौरान नेहरु तनाव में और औपचारिक दिखाई दे रहे थे. लेकिन उन्होंने जब तिब्बतियों का फॉर्मेशन यानी संगठित रूप देखा तो वे प्रभावित हो गए. प्रधानमंत्री को गुलाब बेहद पसंद आने की बात पता होने के कारण उबान ने उन्हें अपने बंगले के पास वाले बगीचे से बना हुआ गुलाबों का एक लाल गुलदस्ता भेंट किया. इसके बाद प्रधानमंत्री ने माइक्रोफोन की मांग करते हुए गुरिल्ला जवानों के लिए एक हृदयस्पर्शी संबोधन दिया. उबान के अनुसार नेहरु ने तिब्बतियों की लड़ाई में उनका समर्थन करने की बात करते हुए भरोसा जताया कि वे सभी एक दिन आजाद तिब्बत में लौटेंगे. [e],[25] हालांकि राटु/रातुक नगवांग इस वाकये को अलग ढंग से पेश करते हैं. यह ज़्यादा मुमकिन भी लगता है. उनके अनुसार 25 मार्च 1963 को ग्यालो थोंडुप तथा ब्रिगेडियर उबान अपने साथ IB के पांच अफसरों को लेकर चकराता पहुंचे थे. वहां तिब्बती नेताओं का IB अफसरों से परिचय करवाया गया. इसी दौरान ब्रिगेडियर उबान ने इस बल को SFF का नाम देने का प्रस्ताव रखते हुए इसके लिए 22 नंबर निर्धारित किया.

आगे की राह

SFF का गठन शीत युद्ध की अविस्मरणीय घटना है. इसके गठन में भारत, US तथा तिब्बत ने चीन का मुकाबला करने के लिए एकसाथ आने का फ़ैसला किया था. इसके गठन ने साबित किया कि शीत युद्ध के दौरान भारत-US के बीच ख़ुफ़िया सहयोग केवल व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि यह इससे बढ़कर था. इसमें बी. एन. मलिक ने US को तिब्बत के मसले पर पाकिस्तान के साथ सहयोग करने की बजाय भारत के साथ खड़ा करने में अहम भूमिका अदा की थी. फरवरी 1972 में हेनरी किसिंजर की बीजिंग यात्रा के बाद चीन को रोकने में US की रुचि कम हो गई थी, लेकिन भारत ने चीन के साथ अपने स्तर पर बातचीत को जारी रखा. इस बीच SFF ने चीन के भीतर ही ऑपरेशंस करने के लिए प्रशिक्षण और अपनी तैयारियों को जारी रखा. वह आज भी इस भूमिका पर ही चल रहा है. इसी बीच अंतरिम दौर में 1971 के बांग्लादेश युद्ध में भी इस बल ने हिस्सा लिया. इसी प्रकार इस बल के लोग 1999 के कारगील युद्ध में भी शामिल थे. इसके अलावा इस बल ने स्वतंत्र रूप से या फिर भारतीय सेना के सहयोग से अनेक ऑपरेशंस किए हैं.

2020 के मध्य में गलवान संघर्ष के दौरान SFF की ओर से की गई कार्रवाइयों की वजह से लोगों की इस बल को लेकर रुचि में इज़ाफ़ा हुआ. SFF की विकास बटालियनों का उपयोग करके ही 29/30 अगस्त 2020 को पूर्वी लद्दाख की कैलाश रेंज पर कब्ज़ा किया गया था. [f] इसी प्रकार ऑपरेशन स्नो लेपर्ड में SFF के शामिल होने की जानकारी कंपनी लीडर न्यीमा तेनजिन की मृत्यु के बाद ही सार्वजनिक हुई थी. न्यीमा तेनजिन की पैंगोग त्सो के दक्षिणी किनारे पर सितंबर 2020 में गश्त लगाते वक़्त एक पुरानी लैंड माइन पर पैर रखने की वजह से मौत हो गई थी.[26]

SFF अब भी एक राष्ट्रीय संपत्ति बना हुआ है. वह राष्ट्रीय सुरक्षा एवं विशिष्ट विदेशी नीति संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए बेहद अहम बना हुआ है. मूलत: चीन के भीतर घुसकर वहां चीनी सेना को परेशान करने के लिए इसका गठन किया गया था. लेकिन अब तिब्बत में चीन को चुनौती देने के लिए SFF भारत का एक अहम रणनीतिक साधन बन गया है. 

SFF अब भी एक राष्ट्रीय संपत्ति बना हुआ है. वह राष्ट्रीय सुरक्षा एवं विशिष्ट विदेशी नीति संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए बेहद अहम बना हुआ है. मूलत: चीन के भीतर घुसकर वहां चीनी सेना को परेशान करने के लिए इसका गठन किया गया था. लेकिन अब तिब्बत में चीन को चुनौती देने के लिए SFF भारत का एक अहम रणनीतिक साधन बन गया है. उसे विभिन्न प्रकार के ऑपरेशंस चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसमें ख़ुफ़िया सर्वेलांस, गोपनीय जानकारी एकत्रित करने और दुश्मन की सीमाओं के पार जाकर लड़ाई करना शामिल है. अनेक वर्षों से SFF की छोटी यूनिट्‌स को संपूर्ण सीमा पर तैनात किया जाता है. इसकी एक बटालियन 1984 के ऑपरेशन मेघदूत के बाद से स्थायी तौर पर सियाचीन में तैनात है.[27] SFF के संगठनात्मक ढांचे और कार्यशैली ने ही भारत के नेशनल सिक्योरिटी गार्ड्‌स (NSG) की स्थापना में अहम भूमिका अदा की. 1986 में जब NSG की स्थापना हुई तो SFF के स्पेशल ग्रुप्स के दो स्क्वॉड्रंस इसका अहम हिस्सा थे.[28]

अब वक़्त आ गया है कि SFF को इसके मूल आदेश की ओर पुन: मोड़ा जाए. स्नो लेपर्ड, कारगिल तथा सियाचीन जैसे टैक्टिकल मिशंस में इसे शामिल किए जाने से इसकी ऊंचाईयों पर युद्ध लड़ने की क्षमताएं उजागर हो गई हैं. ऐसे में इस बल को उसके मूल मिशन से दूर किया जा रहा है. अब आगे चलते हुए SFF तथा स्पेशल ग्रुप (1977 में गठित) की ऐतिहासिक भूमिका की समीक्षा का वक़्त आ गया है, ताकि इस बल की अनूठी भूमिका को बेहतर ढंग से समझा जा सके.

SFF अब भी एक चीन-केंद्रित बल था और है. इस बल का मूल उद्देश्य चीन की सीमा के पार जाकर ख़ुफ़िया ऑपरेशंस चलाना था. हालांकि इस वक़्त भारत और चीन अपने सीमा विवाद को हल करने के लिए बातचीत करने में जुटे हुए हैं, लेकिन यह विवाद अभी सुलझा नहीं है. इससे भी अहम बात यह है कि चीन की दलाई लामा के पुनर्जन्म को लेकर की जाने वाली कार्रवाई या फिर तिब्बती पठार में अपनी सैन्य सुविधाओं में विस्तार करना इस बात की पुष्टि करता है कि SFF के मूल उद्देश्य की प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है. इसे देखते हुए SFF की ओर चीन के ख़िलाफ़ ख़ुफ़िया ऑपरेशंस करने वाले प्राथमिक बल के रूप में ही देखा जाना चाहिए. उसे केवल पैरामिलिट्री यूनिट बनाकर नियमित सेना के लिए काम करने वाले यूनिट के रूप में देखा जाना या फिर उसे सीमा-निगरानी कार्यों में लगाना, जैसा कि 2007 में स्पेशल सर्विसेस ब्यूरो के रूप में इसका उपयोग किया गया था, इसके साथ अन्याय करने जैसा और त्रासदीपूर्ण होगा.

इस तरह के बल का गठन करने का मूल उद्देश्य था कि इसे DGS के अधीन रखकर चीन के ख़िलाफ़ इसका उपयोग किया जाए. लेकिन हाल के कुछ वर्षों में इसके मूल उद्देश्य को कमज़ोर किया गया है. 1968 में R&AW का गठन होने के बाद DGS को सचिव (R) के तहत लाया गया था. यह एक तर्कसंगत फ़ैसला था क्योंकि बाहरी ख़ुफ़िया कार्य एवं इससे जुड़े ऑपरेशंस R&AW के अधीन आते थे. ऐसे में SFF की तैनाती एवं नियुक्ति को कैबिनेट सचिवालय के अधीन रखना तो न्यायोचित है, लेकिन इस बल को चीन के ख़िलाफ़ ऑपरेशंस पर ही ध्यान देने का काम सौंपा जाना भी ज़रूरी है. अत: चाइना स्टडी ग्रुप की ओर से SFF के गतिविधियों की समीक्षा भविष्य में इसकी भूमिका तय करने में अहम साबित हो सकती है. यदि भारत को चीन के ख़िलाफ़ गुप्त एवं गुपचुप ऑपरेशंस चलाने है तो SFF को पुनर्जीवित करना बेहद आवश्यक हो जाता है.


(भाष्यम कस्तूरी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व निदेशक हैं).

(लेखक इस रिपोर्ट के पहले ड्राफ्ट को पढ़ने और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ देने के लिए प्रो. धीरज परमेशा छाया को धन्यवाद देते हैं).

Endnotes

[a] Project Sunray was the codename for raising the Special Group in 1982. Sunrise was the operation intended to rescue six foreigners and their two guides in the custody of the Al-Faran (pseudonym used by Harkat-ul-Ansar) terrorist group in Jammu and Kashmir in 1994. Sundown was the name of the proposed operation to kidnap Sikh leader Jarnail Singh Bhindranwale from the Golden Temple in 1984. Project Sunrise and Project Sundown never took place.

[b] The first few lines of the Vikasi song are as follows (translated): “We are the Vikasi // The Chinese snatched Tibet from us and kicked us out from our home // Even then, India kept us like their own // One day, surely one day we will teach the Chinese a lesson”.

[c] This was the Directorate General of Security, first headed by B.N. Mullik after his retirement from the IB.

[d] One says Uban was commanding 26 Artillery Brigade in Kashmir at this time. Further, the number ‘22’ was used as the codename for the SFF (“Establishment 22”) as Uban had commanded the 22nd Medium Regiment during the Second World War.

[e] According to Conboy and Morrison, Nehru visited Chakrata on 14 November 1963.

[f] A glance at the List of personnel conferred with Gallantry Awards and Distinguished Service by the President in January 2024 for Operation Snow Leopard shows three officers from HQ, SFF being mentioned in dispatches (https://static.pib.gov.in/WriteReadData/specificdocs/documents/2024/jan/doc2024125302501.pdf). Lt. Col. Neeraj Singh of 7 Vikas was conferred the Sena Medal for Operation Snow Leopard. See: https://www.instagram.com/ssbcrackofficial/p/CZE2gorFBu6/

[1] Carole McGranahan, “The CIA and Chushi Gangdruk Resistance, 1956-1974,” Journal of Cold War Studies 8, no. 3 (Summer 2006): 102-130, https://www.colorado.edu/anthropology/sites/default/files/attached-files/mcgranahantibetscoldwar.pdf; Also see: Gompo Tashi Andrugstang, Four Rivers, Six Ranges: Reminiscences of the Resistance Movement in Tibet (Dharamshala, 1973).

[2] Kenneth Conboy and James Morrison, The CIA’s Secret War in Tibet (University Press of Kansas, 2002).

[3] Rohit Vats, “Tracing the Roots of Elite Tibetan Unit that Left China Licking its Wounds,” India Today, September 6, 2020, https://www.indiatoday.in/news-analysis/story/tracing-the-history-of-elite-tibetan-unit-that-left-china-licking-its-wounds-1719194-2020-09-06

[4] S.S. Moghe & Ors vs Union Of India & Ors, May 8, 1981, https://indiankanoon.org/doc/705959/

[5] B.N. Mullik, My Years with Nehru: The Chinese Betrayal (Allied Publishers, Delhi, 1971), pp. 433-434.

[6] Mullik, My Years with Nehru: The Chinese Betrayal.

[7]  Conboy and Morrison, Secret War in Tibet, pp. 180-181.

[8] Conboy and Morrison, Secret War in Tibet, pp. 210.

[9]  Anil Dhir, “Biju Patnaik and his Tibetan Phantoms,” Odisha Review, December 2016,  https://magazines.odisha.gov.in/Orissareview/2016/December/engpdf/89-92.pdf. Also see: Claude Arpi, “The First Months of the Tibetan Army,” September 2020, https://www.claudearpi.net/wp-content/uploads/2020/09/The-First-Months-of-the-Tibetan-Army-2.pdf

[10] Arpi, “The First Months of the Tibetan Army”.

[11] Conboy and Morrison, Secret War in Tibet, pp. 170-171.

[12] Vats, “Tracing the Roots of Elite Tibetan Unit that Left China Licking its Wounds”.

[13] Conboy and Morrison, Secret War in Tibet, pp. 195.

[14] Iqbal Chand Malhotra, “Mao Against Nehru,” Open Magazine, October 23, 2020,  https://openthemagazine.com/essay/when-the-cia-came-to-indias-rescue-in-1962/

[15]  Conboy and Morrison, Secret War in Tibet, pp. 175

[16]  Manas Pal, “Phantom Warriors of 1971: Unsung Tibetan Guerrillas,” Tripuranet, December 28, 2021,  https://tripuranet.com/tnet/phantom-warriors-of-1971-unsung-tibetan-guerrillas-1161.html.

[17]  Conboy and Morrison, Secret War in Tibet, pp. 181-182.

[18] Office of the Historian, “342. Memorandum to the 303 Committee,” In Foreign Relations of the United States, 1964-68, Volume XXX, China, January 26, 1968, https://history.state.gov/historicaldocuments/frus1964-68v30/d342

[19] Office of the Historian, “342. Memorandum to the 303 Committee”

[20] McGranahan, The CIA and Chushi Gangdruk Resistance, pp. 172.

[21] Gyalo Thondup and Anne F. Thurston, The Noodle Maker of Kalimpong: The Untold Story of My Struggle for Tibet (Vintage Books, 2015), pp. 224.

[22] Arpi, “The First Months of the Tibetan Army”

[23] Madhavan Palat (Ed.), Selected Works of Jawaharlal Nehru, Second Series, Volume 79 (OUP, 2018), pp. 445. https://nehruselectedworks.com/pdfviewer.php?style=UI_Zine_Material.xml&subfolder=&doc=October_1962-November_1962-Series2-Vol79.pdf|5|876#page=476

[24] Arpi, “The First Months of the Tibetan Army”

[25] Conboy and Morrison, Secret War in Tibet, pp. 187.

[26] Rezaul H. Laskar, “Public Funeral of Soldier of Secretive Force in Leh,” The Hindustan Times, September 8, 2020, https://www.hindustantimes.com/india-news/public-funeral-for-soldier-of-secretive-force-in-leh/story-UkE10dmKOHGS58Peln6MhO.html

[27] Rohit Vats, “How India’s Covert Tibetan Unit Has Been Mauling Terrorism All These Years,” India Today, September 8, 2020, https://www.indiatoday.in/news-analysis/story/how-india-covert-tibetan-unit-has-been-mauling-terrorism-all-these-years-1719518-2020-09-07

[28] Boot Camp and Military Fitness Institute, “An Overview of Indian Elite and Special Forces,” https://bootcampmilitaryfitnessinstitute.com/elite-special-forces/indian-elite-special-forces/an-overview-of-indian-elite-special-forces/

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