प्रस्तावना
वर्ष 2015 में अधिक टिकाऊ एवं समानता वाली दुनिया का लक्ष्य हासिल करने के लिए एक महत्वाकांक्षी और समग्र एजेंडा निर्धारित किया गया था, ताकि देशों को उनकी प्राथमिकताओं के बारे में बताया जा सके. इसके अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण, संस्थागत गुणवत्ता यानी किसी देश में संस्थानों की पारदर्शिता, प्रभावशीलता और ताक़त, क्षेत्रीयता, तकनीक़ी कौशल, लैंगिक असमानता के पारस्परिक संबंधों के मद्देनज़र आर्थिक विकास और समाज भी भलाई सुनिश्चित करने के लिए कई प्रकार के लक्ष्य निर्धारित किए गए थे. वर्तमान में हम इस 2030 एजेंडा की समय सीमा के मध्य में पहुंच चुके हैं और सच्चाई यह है कि आज हम इस एजेंडे का लक्ष्य पाने से कोसों दूर खड़े हैं.
सतत विकास लक्ष्य रिपोर्ट 2023 पर अगर नज़र डाली जाए, तो लक्ष्यों को हासिल करने में बहुत कम प्रगति देखने को मिलती है. कहने का मतलब है कि लक्ष्यों को प्राप्त करने में दुनिया के ज़्यादातर देशों की हालत बदतर है. आंकड़ों को मुताबिक़ पूरी दुनिया ने लक्ष्यों को हासिल करने में 30 प्रतिशत से अधिक की प्रगति नहीं की है, कहीं-कहीं पर तो नकारात्मक प्रगति भी देखने को मिली है. लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने के मामले में भी यही स्थिति है. उदाहरण के तौर पर SDG 5 यानी 2030 तक "लैंगिक समानता हासिल करना और सभी महिलाओं व लड़कियों का सशक्तिकरण" करने के मामले में केवल 15.4 प्रतिशत प्रगति ही देखने को मिली है.[1]
दुनिया के तमाम देशों में पिछले दशकों में महिलाओं के समान अधिकारों के लिए चलाए गए आंदोलनों और LGBTIQA+ आंदोलनों की वजह से लैंगिक समानता हासिल करने के मुद्दे ने ज़ोर पकड़ा है और यह आम लोगों के एजेंडे में भी शामिल हो गया है. हालांकि, इतना ही काफ़ी नहीं है और अभी इस दिशा में एक लंबा रास्ता तय करना बाक़ी है.
दुनिया के तमाम देशों में पिछले दशकों में महिलाओं के समान अधिकारों के लिए चलाए गए आंदोलनों और LGBTIQA+ आंदोलनों की वजह से लैंगिक समानता हासिल करने के मुद्दे ने ज़ोर पकड़ा है और यह आम लोगों के एजेंडे में भी शामिल हो गया है. हालांकि, इतना ही काफ़ी नहीं है और अभी इस दिशा में एक लंबा रास्ता तय करना बाक़ी है. इस इश्यू ब्रीफ में संयुक्त राष्ट्र के इकोनॉमिक कमीशन फॉर लैटिन अमेरिका (ECLAC) की अवधारणा के अनुरूप तीन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में महिलाओं की स्वायत्तता को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत पर बल दिया गया है. यह तीन क्षेत्र - शारीरिक, आर्थिक और निर्णय लेने में महिलाओं की स्वतंत्रता से जुड़े हुए हैं.
इन तीन क्षेत्रों में लैंगिक असमानता को दूर करने और महिलाओं की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करने से न केवल महिलाओं को अपने मन मुताबिक़ आज़ादी से भरा जीवन जीने का अवसर मिलेगा, बल्कि समाज में अपने पुरुष समकक्षों के समान ही अवसर भी प्राप्त होंगे. विभिन्न स्तरों पर व्यापत लैंगिक असमानता को दूर करने या पूरी तरह से समाप्त करने से महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा मिलेगा, देखा जाए तो समग्र विकास को हासिल करने के लिए यह एक प्रमुख रणनीति भी है.
इस इश्यू ब्रीफ में तीनों क्षेत्रों यानी अपने शरीर को लेकर सोचने-समझने की आज़ादी, आर्थिक आज़ादी और कई अन्य निर्णय लेने के मामले में महिलाओं की स्वतंत्रता को लेकर मौज़ूदा वक़्त में दुनिया भर में हुई प्रगति का विस्तार से विश्लेषण किया गया है. इस लेख में महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण पर फोकस किया गया है, साथ ही इसकी राह में आने वाली तमाम रुकावटों के बारे में बताया गया है. इसके अलावा, इस लेख में महिलाओं की आर्थिक स्वायत्तता और टिकाऊ व समावेशी विकास दोनों को बढ़ाने के लिए सिफ़ारिशें भी की गई हैं, साथ ही वर्तमान की ही नहीं बल्कि 2030 के विकास एजेंडे की समय सीमा के बाद भी सामने आने वाली बड़ी ज़रूरतों और चुनौतियों के बारे में उल्लेख किया गया है.
महिलाओं की शारीरिक, आर्थिक और निर्णय लेने की स्वतंत्रता: प्रगति एवं चुनौतियां
महिलाओं की शारीरिक स्वतंत्रता यानी अपने शरीर से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय लेने की आज़ादी एक बड़ा मुद्दा है. वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो कई देशों ने महिलाओं के शारीरिक स्वायत्तता हासिल करने के अधिकारों और उनकी शारीरिक ज़रूरतों को न केवल बखूबी समझा है, बल्कि उनका विस्तार भी किया है. इतना ही नहीं, तमाम देशों ने महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को लेकर सख़्त क़ानून भी बनाए हैं, साथ ही गर्भवती महिलाओं को अपनी प्रेगनेंसी बनाए रखने या समाप्त करने को लेकर भी महिलाओं के पक्ष में क़ानून पास किए हैं. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2023 में हर 10 लड़कियों और महिलाओं (15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की) में से लगभग आठ आधुनिक गर्भनिरोधक साधनों का इस्तेमाल कर रही थीं.[2] इसके बावज़ूद महिलाओं की यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में तमाम रुकावटें बनी हुई हैं. विशेष रूप से विकासशील देशों में तो महिलाओं को इससे जुड़ी स्वास्थ्य सेवाएं मिलने में बहुत दिक़्क़तें हैं. यही वजह है कि इन देशों में गर्भनिरोधक साधनों का उपयोग करने वाली महिलाओं और लड़कियों की संख्या में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की गई है. इन देशों में लिंग आधारित हिंसा यानी महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा और तमाम दूसरे भेदभावों में महिलाओं को क़ानूनी संरक्षण मिलने में भी भारी अंतर है. इन अंतरों को दूर करने की ज़रूरत है. वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो पुरुषों की तुलना में लिंग के आधार पर भेदभाव का सामना करने वाली महिलाओं की संख्या लगभग दोगुनी है.[3] इतना ही नहीं, दुनिया में 35 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्होंने अपने क़रीबी पुरुषों यानी पति, मित्र या फिर अन्य पुरुषों द्वारा शारीरिक या यौन हिंसा को झेला है.[4]
हालांकि, महिलाओं के सशक्तिकरण से जुड़े कुछ क्षेत्रों में प्रगति भी हुई है. उदाहरण के तौर पर पिछले दशक में वैश्विक स्तर पर संसदों में महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. इस साल की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2013 में 18.7 प्रतिशत सीटों पर महिला प्रतिनिधि थीं, वहीं वर्ष 2022 में इनकी संख्या बढ़कर 22.9 प्रतिशत पहुंच गई.[5] विश्व के कुछ देशों ने राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को बढाने के लिए यानी राजनीतिक समानता को प्रोत्साहित करने के लिए जो नीतियां अपनाई हैं, उनमें लैंगिक आधार पर महिलाओं का आरक्षण भी शामिल है. UNSTATS[6] के अनुसार, संसद में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की वजह से ही संसद में महिला प्रतिनिधियों की संख्या में 10 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो सकी है. इसके अलावा, लोकल गवर्नेंस यानी ग्राम, पंचायत और ज़िला स्तर पर वर्ष 2017 के बाद से महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि हुई है. इसको लेकर 117 देशों के आंकड़े उपलब्ध हैं और उनके मुताबिक़ दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों के 18 देशों में स्थानीय स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व 40 प्रतिशत से अधिक पहुंच गया है, इन देशों में बोलीविया, भारत और फ्रांस भी शामिल हैं.[7]
संसद में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि के बावज़ूद समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी पुरुषों की तुलना में कम बनी हुई है. निजी सेक्टर की कंपनियों में प्रबंधन से जुड़े पदों पर महिलाओं की संख्या कम है, इसके अलावा श्रमिक संघों और शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं की संख्या न के बराबर है. इसके अतिरिक्त, सरकारी कर्मचारियों में, विधायिकाओं और न्यायालयों में भी महिलाओं की भूमिका लगभग नगण्य ही है. मौज़ूदा वक़्त में जिस प्रकार से संसदों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ने की दर है, उस हिसाब से देखें तो दुनिया के तमाम देशों की संसदों में महिलाओं को पुरुषों के बराबर पहुंचने में क़रीब पांच दशक का समय लग जाएगा.[8]
महिलाओं की आर्थिक आज़ादी और आर्थिक आत्मनिर्भरता के मामले में स्थिति और भी चिंताजनक है.[A] आर्थिक स्वायत्तता के लिए महिलाओं को जहां तमाम रुकावटों और भेदभावों का सामना करना पड़ता है, वहीं हर हाल में पुरुषों की तुलना में उनकी इनकम कम ही होती है.
श्रम बाज़ार में लैंगिक असमानता और महिलाओं की आर्थिक स्वायत्तता
लेबर मार्केट में यानी कार्य बल में महिलाओं की हिस्सेदारी की बात की जाए तो, पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या काफ़ी कम है. अगर वर्क फोर्स में महिलाओं और पुरुषों के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो दोनों के बीच किसी भी क्षेत्र के कामगारों में लैंगिक समानता नहीं है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के वर्ष 2021 के अनुमानों के मुताबिक़ विश्व के ज़्यादातर देशों में श्रम बल में पुरुषों की भागीदारी महिलाओं की तुलना में कम से कम 10 प्रतिशत अधिक है. हालांकि, लाओस, नेपाल, मोज़ांम्बिक और स्वीडन जैसे कुछ देशों में श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी के मामले में ऐसा नहीं है.[9]
पिछले तीन दशकों के आंकड़ों को देखें तो दुनिया में इनकम के लिहाज़ से लगभग सभी राष्ट्रों में कामकाजी महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है, हालांकि इसमें तुर्किये और थाईलैंड ज़रूर अपवाद हैं,[10] जहां महिलाएं अपेक्षाकृत कम काम करती हैं. इसके अतिरिक्त, यह भी देखने में आया है कि महिलाएं ऐसे सेक्टरों में अधिक काम करती हैं, जिन्हें अमूमन दोयम दर्ज़े का माना जाता है और उनकी उत्पादकता भी कम होती है. इसके साथ ही महिलाओं के कामकाजी हालात भी बहुत बेहतर नहीं होते हैं और उन्हें तुलनात्मक रूप से वेतन कम मिलता है. ये जो भी हालात हैं, उन्हें ऐसा कहा जा सकता है कि अक्सर महिलाओं के अनुकूल कामकाज की स्थितियां नहीं होती हैं, या कहा जाए कि पुरुषों के लिहाज़ से ही कामकाजी माहौल बनाया जाता है. ये असमानता वाले कामकाजी हालात विकासशील देशों में ही नहीं, बल्कि विकसित देशों में दिखाई देते हैं. एक ध्यान देने वाली बात यह है कि तीन ख़ास सेक्टरों, यानी सर्विस, उद्योग और कृषि क्षेत्र में ही महिला कामगारों की संख्या सबसे अधिक होती है. जहां तक सर्विस सेक्टर और इंडस्ट्री सेक्टर की बात है, तो इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं विशेष प्रकार के क्षेत्रों, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरे देखभाल से संबंधित सर्विस सेक्टर और उद्योगों में अधिक कार्यरत हैं.
इसके अलावा पुरुषों की तुलना में अनौपचारिक सेक्टर या कहा जाए कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में अधिक संख्या में महिलाओं के कार्य करने की संभावना होती है, ख़ास तौर पर कम आय वाले और मध्यम आय वाले देशों में ऐसा देखने को मिलता है. कृषि के अलावा अगर दूसरे अनौपचारिक सेक्टरों में रोज़गार के आंकड़ों पर नज़र डालें तो, अफ्रीकी और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में अनौपचारिक इकोनॉमी में कार्य करने वाली महिलाओं की संख्या 70 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक, लैटिन अमेरिका में 20 प्रतिशत से 30 प्रतिशत के बीच हो सकती है, वहीं यूरोपीय देशों में यह 10 प्रतिशत से कम हो सकती है. यूरोपीय देशों में सिर्फ़ यूके एक अपवाद है, जहां अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या 20 प्रतिशत है.[11]
पिछले तीन दशकों के आंकड़ों को देखें तो दुनिया में इनकम के लिहाज़ से लगभग सभी राष्ट्रों में कामकाजी महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है, हालांकि इसमें तुर्किये और थाईलैंड ज़रूर अपवाद हैं, जहां महिलाएं अपेक्षाकृत कम काम करती हैं. इसके अतिरिक्त, यह भी देखने में आया है कि महिलाएं ऐसे सेक्टरों में अधिक काम करती हैं, जिन्हें अमूमन दोयम दर्ज़े का माना जाता है और उनकी उत्पादकता भी कम होती है.
कामकाजी महिलाओं और पुरुषों के बीच दूसरी सबसे बड़ी असमानता उन्हें मिलने वाले वेतन में है. अक्सर महिलाओं की औसत इनकम अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कम होती है. अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाली अर्थशास्त्री क्लाउडिया गोल्डिन ने बताया था कि वर्ष 2020 की तीसरी तिमाही में अमेरिका में जिस कार्य के लिए एक पुरुष कर्मचारी ने एक डॉलर कमाया, उसी काम के लिए एक महिला को 0.8 डॉलर मिले थे.[12] महिला और पुरुषों के बीच इनकम के इस अंतर को लेख में पहले बताए जा चुके कारणों की मदद से भी समझा जा सकता है. ज़ाहिर है कि अनौपचारिक, जोख़िम भरे और अनिश्चितिता वाले सेक्टरों के कामगारों में सबसे अधिक भागीदारी महिलाओं की ही होती है, लेकिन चाहे किसी भी सेक्टर को देख लें, उनमें शीर्ष पदों पर महिलाएं नहीं होती हैं. यही वजह है कि महिला कामगारों की आय कम होने की संभावना सबसे अधिक होती है.
कामकाजी महिलाओं और लड़कियों के सामने आने वाली परेशानियों की कई वजहें हैं. इनमें, महिलाओं को लेकर व्याप्त समाजिक मापदंड, लैंगिक आधार पर महिलाओं के प्रति घिसा-पिटा रूढ़िवादी रवैया और अवैतनिक परिवारिक देखभाल एवं घरेलू कार्यों की ज़िम्मेदारी शामिल हैं.
सामाजिक ताना-बाना और सामाजिक सोच ही ऐसी है, जो जन्म के बाद से ही व्यक्ति को प्रभावित करती है और वह लैंगिक आधार पर तय की गई भूमिकाओं को सच्चाई मान लेता है और उसी के मुताबिक़ व्यवहार करने लगता है. कहने का मतलब है कि लड़के या लड़की के सोच-विचार, बात-व्यवहार, भावनाएं, ख़र्च करने के तौर-तरीक़े, इच्छाएं सभी में समाज द्वारा निर्धारित किए गए पूर्वाग्रह शामिल हो जाते हैं. यहां तक कि बड़े होकर किस क्षेत्र में अपना करियर बनाना है और व्यक्तिगत स्तर पर किस तरह के फैसले करने हैं, इनमें भी यह सामाजिक पूर्वाग्रह शामिल होता है. कुल मिलाकर बचपन से मिले यह पूर्वाग्रह जीवनभर पुरुषों और महिलाओं पर असर डालते हैं और निर्णय लेने से लेकर अवसरों तक उनकी पहुंच को प्रभावित करते हैं.[13]
देखा जाए तो इन्हीं सामाजिक मापदंडों एवं पारंपरिक रूढ़ियों ने महिलाओं की भूमिका को सीमित कर दिया है. यानी ऐसी धारणा बना दी गई है कि महिलाओं का प्रमुख कार्य अपने परिवार की देखभाल करना, पारिवारिक सदस्यों के लिए खाना बनाना और बच्चों का पालन-पोषण करना है. इन्हीं सामाजिक मापदंडों ने पुरुषों के लिए घर की दहलीज़ के बाहर के कार्य निर्धारित किए हैं, जैसे कि नौकरी या व्यवसाय करना, पैसा कमाना, ज़िम्मेदारी वाली भूमिकाओं को निभाना और महत्वपूर्ण फैसले लेना आदि. कहने का अर्थ है कि इसी रूढ़िवादी सामाजिक सोच ने कामकाज में लैंगिक विभाजन को मज़बूती प्रदान की है, यानी पुरुषों और महिलाओं के लिए विशिष्ट कार्यों का निर्धारण किया है और इसे कहीं न कहीं असमानता भरे नियम-क़ानूनों ने भी बढ़ावा दिया है. इसी सब का नतीज़ा है कि समाज और जीवन में महिलाओं की भूमिका सीमित हो गई है और पुरुषों व महिलाओं को जो भी अवसर उपलब्ध कराए गए हैं, उनमें कोई समानता नहीं है.[14]
सामाजिक सोच, विचार और व्यवहार में बदलाव के बावज़ूद महिलाओं की भूमिकाओं को लेकर कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है और घरेलू कामकाज एवं परिवार की देखभाल से जुड़े कार्यों में महिलाओं की भागीदारी पहले की भांति बनी हुई है, कुछ हद तक इसमें बढ़ोतरी ही हुई है. वैश्विक स्तर पर उपलब्ध आंकड़ों को देखें, तो महिलाएं अवैतनिक घरेलू और देखभाल से संबंधित कार्यों में पुरुषों की तुलना में औसतन तीन गुना अधिक घंटे बिताती हैं.[15] आंकड़ों के अनुसार कई देशों में यह अंतर तो बहुत ही बड़ा है. उदाहरण के तौर पर एक तरफ कनाडा में पुरुषों की तुलना में महिलाएं घरेलू कामकाज में लगभग 1.5 गुना अधिक समय ख़र्च करती हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाएं घरेलू कार्यों में 8 गुना से अधिक समय व्यतीत करती हैं.[16]
चित्र 1: वर्ष 2022 में पुरुषों की तुलना में महिलाओं द्वारा अवैतनिक देखभाल और घरेलू कामकाज में बिताया गया समय
स्रोत: अवर वर्ल्ड इन डेटा[17]
नोट: अवैतनिक देखभाल और घरेलू कामकाज में भोजन तैयार करना, बर्तन धोना, घर की साफ-सफाई करना, कपड़े धोना, कपड़ों पर प्रेस करना, पेड़-पौधों की देखभाल, पालतू जानवरों की देखभाल, ज़रूरी सामान की ख़रीदारी, व्यक्तिगत और घरेलू सामानों की सर्विसिंग कराना और उनकी मरम्मत कराना, बच्चों का पालन-पोषण करना और परिवार के बीमार, बुजुर्ग या दिव्यांग सदस्यों की देखभाल करना शामिल है.
पारिवारिक देखभाल और घरेलू कामकाज में पुरुषों की तुलना में महिलाओं द्वारा अधिक समय बिताने की वजह से उनके पास अपने लिए समय की कमी होती है. कहने का मतलब यह है कि महिलाएं पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को पूरा करने में अपना अधिक समय बिताती हैं, इस वजह से उन्हें अपना कौशल बढ़ाने, पढ़ाई करने, काम करने, आराम करने जैसी दूसरी गतिविधियों के लिए कम समय बचता है.[18] कई अध्ययनों में यह भी सामने आया है कि मां बनना भी महिलाओं की आर्थिक स्थिति में कहीं न कहीं दिक़्क़त पैदा करता है, क्योंकि बच्चा होने के बाद महिलाओं की आय कम होने की संभावना बढ़ जाती है.[19],[20] आंकड़ों के मुताबिक़ बाल-बच्चों वाली महिलाओं की आय उन महिलाओं की तुलना में कम होती है, जिनके बच्चे नहीं होते हैं. (अर्जेंटीना में बाल-बच्चों वाली महिलाओं की आय 10 प्रतिशत कम है, बल्कि चीन और तुर्किये में 30 प्रतिशत कम है).[21] इसके उलट, बाल-बच्चों वाले पुरुषों की आय उन पुरुषों की तुलना में अधिक होती है, जिनके बच्चे नहीं होते हैं. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की ग्लोबल वेज रिपोर्ट 2018/19 में पिताओं और गैर-पिताओं के बीच की प्रति-घंटे आय की तुलना की गई है, उसमें साफ बताया गया है कि पिताओं को अनुभव के आधार पर अधिक वेतन मिलता है.[22] जहां तक महिलाओं की बात है, तो वे ज़्यादातर अनौपचारिक अर्थव्यस्था का हिस्सा होती हैं,[23] यानी अनौपचारिक सेक्टर में कार्य करती हैं और इससे एक लिहाज़ से पुरुषों की तुलना में उनकी इनकम कम होती है.[24] कहने का अर्थ है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज़्यादा ग़रीब होती हैं. इसके अलावा, आर्थिक तरक़्क़ी और विकास में महिलाओं के योगदान को जहां एक तरफ नज़रंदाज कर दिया जाता है, वहीं उसका कोई लेखा-जोखा भी नहीं रखा जाता है.
इस सबके बावज़ूद केयर इकोनॉमी यानी भुगतान किए जाने वाले और अवैतनिक देखभाल वाले कार्य देखा जाए तो समाज, उत्पादकता और स्वास्थ्य एवं समृद्धि की बुनियाद हैं. देखभाल वाले कार्यों में ऐसी सेवाएं व गतिविधियां शामिल हैं, जो व्यक्तियों एवं परिवारों के लिए ज़रूरी मानवीय क्षमताओं व सामाजिक कौशल को न केवल प्रोत्साहन और सुरक्षा प्रदान करती हैं, बल्कि इन्हें हासिल करने में और सुधारने में मदद करती हैं. ज़ाहिर है कि व्यक्तियों या परिवारों की संतुष्टि व ख़ुशी के लिए और अपने सपनों को पूरा करने के लिए यह सारी चीज़ें बहुत आवश्यक हैं. कहने का मतलब है कि ख़ुशहाल एवं समृद्ध समाजों के लिए यह बेहद आवश्यक है. निसंदेह तौर पर दुनिया में जो भी उत्पादकता है, या कहा जाए कि जो भी लोग कुछ बेहतर करने के प्रयास में जुटे हुए हैं, उनके पीछे की असली ताक़त यही देखभाल से जुड़े कार्य हैं.[25] अनुमान है कि वर्ष 2023 तक देखभाल के संबंधित कार्यों में क़रीब 300 मिलियन रोज़गार सृजित करने की क्षमता है,[26] बावज़ूद इसके यह बिडंबना ही है कि देखभाल से जुड़े कार्यों और घरेलू कामकाज के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं की एक लिहाज़ से अनदेखी कर दी जाती है.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह हो सकती है कि पारिवारिक कामकाज और देखभाल से जुड़े कार्यों को सरकार, निजी सेक्टर, समुदायों और परिवारों द्वारा की जाने वाली मिलीजुली कोशिशों के बजाए, सिर्फ़ और सिर्फ़ परिवारों की ही ज़िम्मेदारी माना जाता है. इतना ही नहीं, जो भी घरेलू कामकाज और देखभाल से जुड़े कार्य हैं, उन्हें क़रीब-क़रीब परिवार की महिलाओं या लड़कियों द्वारा ही किया जाता है. इसके पीछे वही सामाजिक सोच और महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी पूर्वाग्रह हैं, जिनकी चर्चा लेख में पहले की जा चुकी है.
जहां तक महिलाओं के पास अपने लिए समय की कमी की बात है, तो यह सभी महिलाओं पर लागू नहीं होती है, बल्कि परिवार के आकार, उपलब्ध संसाधन और परिवार की संरचना पर निर्भर करती है. यानी कि अगर महिला अधिक शिक्षित है और परिवार की कुल आय ठीक-ठाक है, तो फिर ऐसे परिवारों की महिलाओं के पास अपने लिए और अपनी नौकरी के लिए पर्याप्त समय निकल सकता है. जिन महिलाओं के पास अधिक संसाधन होते हैं और जो अधिक शिक्षित होती हैं, अमूमन उनके बच्चे कम होते हैं. इसके अलावा, ऐसे महिलाएं स्वयं बच्चों की देखभाल करने के बजाए, ऐसे कार्यों के लिए अन्य महिलाओं को काम पर रख लेती हैं, जिनमें आमतौर पर कम आय वाली महिला कामगार या प्रवासी महिलाएं शामिल होती हैं (वैश्विक स्तर पर देखभाल और घरेलू कामकाज को संभालने वालों में इनकी हिस्सेदारी 17 प्रतिशत हैं[27]). इसी प्रकार से ये जो महिला कामगार होती हैं उनके बच्चे अधिक होते हैं, यानी इन पर निर्भर लोगों की संख्या ज़्यादा होती है, इसलिए दूसरों के घर पर देखभाल जैसी नौकरी के साथ-साथ इन्हें अपने खुद के परिवार को भी देखना पड़ता है और अपने घरेलू कार्यों को करना पड़ता है. ज़ाहिर है कि ऐसी महिलाएं सामान्य तौर पर अपने काम और अपने परिवार के बीच पिसती रहती हैं, वो भी कम वेतन और विपरीत हालातों में गुजर-बसर करते हुए.
हाल के वर्षों में दुनिया भर के देशों में प्रजनन दर में कमी दर्ज़ की गई है और वयस्क आयु समूह के लोगों की संख्या बढ़ी है. यह दोनों बातें मिलकर एक जनसांख्यिकीय बदलाव को सामने लाती हैं. इस बदलाव का एक सकारात्मक निर्भरता अनुपात सामने आया है. यानी आज जो जनसांख्यिकीय परिस्थितियां हैं उनमें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लोगों की संख्या उनकी लोगों तुलना में अधिक है, जो आर्थिक ज़रूरतों के लिए दूसरों पर निर्भर हैं. इस तरह के जनसांख्यिकीय बदलाव का असर परिवारों पर भी पड़ा है, जो अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर हैं. दुनिया के ज़्यादातर देशों में आज जनसांख्यिकीय लाभांश की स्थिति है, यानी आर्थिक लिहाज़ से लोग अच्छी स्थिति में हैं, या कहा जाए कि अधिकतर देशों में आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर लोगों की संख्या फिलहाल सबसे निचले स्तर पर है.[28] दुनिया भर में प्रजनन दर में तेज़ी से गिरावट दर्ज़ की गई है. वर्ष 1950 में प्रजननन दर पांच थी यानी प्रत्येक महिला औसतन पांच बच्चों को जन्म देती थी, जबकि वर्तमान में प्रजनन दर 2.3 हो गई है.[29] इसका एक मतलब यह भी है कि महिलाओं की देखभाल से संबंधित ज़िम्मेदारियों में कमी आई और उनके द्वारा गर्भाधान रोकने के विकल्पों का उपयोग करने में बढ़ोतरी हुई है. प्रजनन दर में कमी का मतलब यह भी हो सकता है कि आने वाले दिनों में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में गिरावट आएगी और उच्च शिक्षा के लिए जो भी ज़रूरी संसाधन हैं उन्हें नए सिरे से निर्धारित करना पड़ेगा. इसके साथ ही कम बच्चे होने से परिवारों को नकद हस्तांतरण भी कम करना पड़ेगा और परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल आदि जैसी परिस्थितियों में ली जाने वाली छुट्टियां भी कम लेनी होंगी.
प्रजनन दर में कमी से आने वाले दिनों में कई परेशानियों से भी जूझना पड़ सकता है, जैसे कि इससे एकल अभिभावक वाले परिवारों की संख्या में बढ़ोतरी होने से या जनसंख्या पिरामिड में बदलाव आने, यानी बुजुर्गों की संख्या में बढ़ोतरी होने से सामाजिक सुरक्षा पर अधिक दबाव पड़ेगा. युवाओं की संख्या में कमी और बुजुर्गों की संख्या में बढ़ोतरी होने से नीतिगत फैसलों, रणनीतिक निर्णयों और योजनाओं को बनाने पर भी कई तरह के प्रभाव पड़ेंगे.[30]
कुल मिलाकर, अगर लैंगिक असमानता, परिवारिक संरचना में आए बदलाव और विभिन्न वर्गों के बीच विषमता के बारे में एक साथ विचार किया जाता है, तो निश्चित तौर पर अधिक प्रभावशाली नीतियों को बनाने में मदद मिल सकती है. यदि ऐसा किया जाता है, तो यह समाज के हर वर्ग को सहूलियत पहुंचाने और उनकी देखभाल के लिए लाभाकारी साबित हो सकता है.
संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने और आर्थिक अवसरों एवं नीतियों का लाभ उठाने के लिए महिलाओं को तमाम तरह की दिक़्क़तों से जूझ़ना पड़ता है. श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी कम है और जो महिलाएं इसमें शामिल हैं, उन्हें कम वेतन, लैंगिक असमानता और कम रोज़गार मिलने जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. इसके साथ ही शीर्ष पदों पर भी महिलाओं की नियुक्त कम होती है. ये जो भी लैंगिक असमानताएं हैं, वे न केवल महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता में रुकावटें पैदा करती हैं, बल्कि ग़रीबी को भी बढ़ाने वाली हैं. इनसे यह भी पता चलता है कि महिलाओं के पास बहुत प्रतिभा है, लेकिन उसका पर्याप्त इस्तेमाल नहीं किया गया है. यानी आर्थिक प्रगति के लिए महिलाओं की इस प्रतिभा और उनके गुणों का उपयोग किया जाना बाक़ी है.[31] ज़ाहिर है कि अगर विशेष तौर पर इसके लिए सरकारी नीतियों को बनाया जाता है, तो उनके ज़रिए लैंगिक असमानता की इस समस्या से निपटा जा सकता है, साथ ही ग़रीबी और आर्थिक विषमता को नियंत्रित करने में भी यह लाभकारी साबित हो सकता है.[32]
नीतिगत सिफ़ारिशें
आर्थिक मोर्चे पर स्वायत्तता हासिल करने की राह में महिलाओं के सामने कई सारे रोड़े हैं. पूरी दुनिया में लैंगिक असमानताओं की खाई को पाटने के लिए काम किया जा रहा है और इस दिशा में प्रगति भी हुई है. बावज़ूद इसके दुनिया के तमाम देश सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने से बहुत दूर नज़र आ रहे हैं. सच्चाई यह है कि कुछ सतत विकास लक्ष्यों में लैंगिक असमानताएं कम होने के बजाए बढ़ गई हैं और ऐसा ख़ास तौर पर कोविड-19 महामारी के बाद हुआ है.[33] दरअसल, माहामारी या इस जैसा जब भी कोई संकट सामने आता है, तो उसका सबसे ज़्यादा विपरीत असर महिलाओं पर ही पड़ता है. अगर संकट की वजह से अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, तो सबसे पहले महिलाएं ही नौकरी छोड़ती हैं या श्रम बाज़ार से दूर हो जाती हैं. और जब अर्थव्यवस्था सुधार की ओर अग्रसर होती है, तो महिलाएं सबसे अंत में आर्थिक सेक्टर का हिस्सा बनती हैं. अगर कभी आर्थिक सेक्टर पर असर पड़ता है, तो उससे सबसे अधिक प्रभावित होने वालों में महिलाएं ही होती हैं[34] और कोविड-19 महामारी के दौरान तो पिछले संकटों की तुलना में महिलाओं पर और भी ज़्यादा असर पड़ा. ज़ाहिर है कि कोविड-19 महामारी का सबसे अधिक असर अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों पर पड़ा है, जहां महिला कामगारों की भागीदारी बहुत अधिक थी.[35]
एक और अहम बात यह है कि दुनिया के तमाम क्षेत्रों में लैंगिक समानता के मुद्दे का विरोध करने वाले और तमाम सांकेतिक एवं वास्तविक बदलावों के विरोध में आवाज़ उठाने वाले लोग सामने आ रहे हैं. ये लोग जगह-जगह इकट्ठे होकर लैंगिक समानता का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं, साथ ही सोशल मीडिया के मंचों पर भी इसके विरोध में विचार-विमर्श को हवा दे रहे हैं. दक्षिण अमेरिकी रीजन के तमाम देशों में इसी तरह के लैंगिक समानता विरोधी अभियान संचालित किए जा रहे हैं. जैसे कि पेरू और अर्जेंटीना में ‘Con mis hijos no te metas’ (मेरे बच्चों के साथ खिलवाड़ न करें) और इक्वाडोर में ‘Vamos por la Vida’ (ज़िंदगी के लिए) जैसे अभियान चलाए जा रहे हैं और इनके ज़रिए स्कूलों में यौन शिक्षा और गर्भपात क़ानून को लागू करने के विरुद्ध धार्मिक और रुढीवादी भावनाओं को उकसाने का काम किया जा रहा है.[36] यदि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे ऐसे अभियानों पर काबू नहीं पाया गया, तो यह विरोध पिछले कुछ वर्षो से लैंगिक समानता को लेकर हासिल की गई उपलब्धियों पर पानी फेर सकता है.
महिलाओं में ग़रीबी और उनकी आर्थिक भागीदारी के बीच के संबंध को साफ तौर पर बताया गया है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर रोज़गार या नौकरियों में लैंगिक असमानता को समाप्त कर दिया जाए, तो ग़रीबी को कम किया जा सकता है, यानी ग़रीबी उन्मूल की दिशा में उल्लेखनीय उपलब्धित हासिल की जा सकती है. ऐसा करने पर लैटिन अमेरिका में ग़रीबी 1 से 14 प्रतिशत तक कम हो जाएगी[37] और दुनिया के तमाम देश अपनी जीडीपी में 20 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी दर्ज़ कर सकते हैं.[38] यूरोपीय सेंट्रल बैंक की अध्यक्ष क्रिस्टीन लेगार्ड ने 2016 में इस बात पर ज़ोर दिया था कि "वर्क फोर्स में ज़्यादा संख्या में महिलाओं को अवसर देने से सिर्फ़ लैंगिक समानता के लक्ष्य को ही हासिल नहीं किया जा सकता है, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी मज़बूत किया जा सकता है और यही स्मार्ट इकोनॉमिक्स है यानी बेहतरीन अर्थशास्त्र है."[39]
लेख में आगे कुछ ऐसी नीतियों को बारे में चर्चा की गई है, जिन्हें अगर अमल में लाया जाता है, तो यह न सिर्फ़ महिलाओं की आर्थिक भागीदारी बढ़ाने के लक्ष्य को हासिल करने में बेहद कारगर साबित हो सकती हैं, बल्कि वैश्विक कार्य बल को व्यापक बनाने और ग़रीबी उन्मूलन एवं विकास को नई गति देने के लिए भी बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकती हैं.[40]
- व्यापक स्तर पर देखभाल प्रणाली का विकास
ज़ाहिर है कि अगर व्यापक स्तर पर देखभाल प्रणाली को स्थापित किया जाता है, तो इससे गुणवत्तापूर्ण देखभाल सेवाओं और गुड्स तक पुहंच संभव होगी, यानी परिवारों या व्यक्तियों की आय पर निर्भरता समाप्त होगी. ऐसा देखने में आया है कि ख़ास तौर पर बचपन और किशोरावस्था को लक्षित करते हुए सस्ते और सुलभ देखभाल से संबंधित इंफ्रास्ट्रक्चर और सेवाओं में निवेश किया जाता है, तो लाइफ साइकिल में बाद के वर्षों में लागू की गई नीतियों की तुलना में यह अधिक कारगर और लाभदाक साबित होता है. क्योंकि इससे कम उम्र में ही बच्चों की उचित देखभाल और उनका मार्गदर्शन हो जाता है. इतना ही नहीं इस प्रकार की सेवाओं के ज़रिए लंबे वक़्त से चली आ रही परेशानियों का भी समाधान किया जा सकता है.[41]
- कामकाज और जीवन के बीच संतुलन बनाने वाली नीतियां लागू करना
काम और जीवन के बीच संतुलन को बनाए रखने के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मापदंडों के मुताबिक़ मातृत्व और पितृत्व अवकाश दिया जाना चाहिए. अगर पितृत्व अवकाश की नीति को अमल में लाया जाता है, तो इससे निश्चित तौर पर बच्चे की देखभाल में पुरुषों को भी अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में प्रोत्साहन मिलेगा. इसके अलावा पुरुषों को लैंगिक पूर्वाग्रहों और पारिवारिक रूढियों के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए, ताकि पारंपरिक रूप से मां को ही बच्चे की देखभाल के लिए प्रमुखता से ज़िम्मेदार मानने के सोच को दूर किया जा सके. इसके अलावा परिवार के अलग-अलग स्वरूपों को बारे में सोचना चाहिए (यानी, एक-व्यक्ति, बिना बच्चे के दो अभिभावक, एकल-अभिभावक, बड़ा और संयुक्त परिवार या बच्चों के साथ दो अभिभावक).[42]
- महिलाओं और पुरुषों को लेकर अलग-अलग आंकड़े जुटाना
अगर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्टैटिस्टिक्स यानी सांख्यिकी प्रणाली में समग्र और मज़बूत लैंगिक दृष्टिकोण को समाहित किया जाता है, तो इससे लैंगिक विषमता का पता लगाने में मदद मिलेगी और इसे दूर करने के लिए कारगर नीतियां या समाधान विकसित करने में भी आसानी होगी. लिंग और आयु के लिहाज़ से पुरुषों और महिलाओं से जुड़े अलग-अलग आकंड़ों को जुटाना और उनका गहन विश्लेषण करना जीवन चक्र के विभिन्न चरणों में विशिष्ट व्यक्तियों और परिवारों की ज़रूरतों के मुताबिक़ नीतियों की रूपरेखा तैयार करने और उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने एवं उनका मूल्यांकन करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.
- महिलाओं के आर्थिक योगदान का आकलन करने के लिए विशेष तरीक़ों का विकास करना
महिलाओं के आर्थिक योगदान का पता लगाने के लिए कृत्रिम संकेतक विकसित करना बेहद ज़रूरी है. जैसे कि सेंटर फॉर इम्प्लीमेंटेशन ऑफ पब्लिक पॉलिसीज फॉर इक्विटी एंड ग्रोथ (CIPPEC)[43] और साउदर्न वॉयस की बेसिक केयर बास्केट. बेसिक केयर बास्केट द्वारा महिलाओं की आर्थिक स्वायत्तता या बच्चों की विकास संभावनाओं से समझौता किए बगैर परिवारों को उनके सदस्यों की देखभाल के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करने के लिए बुनियादी निवेशों का मार्गदर्शन किया जाता है और उनके अवैतनिक कार्य के हिस्से का रुपयों के रूप में अनुमान लगाया जाता है. यह संकेतक देखभाल से जुड़े कार्यों के लिए ज़रूरी वस्तुओं, सेवाओं और इंफ्रास्क्ट्रक्चर के बारे में सटीक जानकारी मुहैया कराता है, साथ ही इन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए होने वाले परिवार के ख़र्च और परिवार के आकारों के बारे में अहम जानकारी प्रदान करता है. इसका मकसद जहां अवैतनिक देखभाल कार्यों को कम करना है, वहीं वैश्विक स्तर पर सरकारी नीतियां बनाने के लिए छोटी से छोटी जानकारी उपलब्ध कराना है, ताकि देखभाल प्रणालियों को सुधारने वाली और इसे सशक्त करने वाली नीतियां बनाई जा सकें.[44]
- देखभाल अर्थव्यवस्था के महत्व की पहचान और अवैतनिक देखभाल कार्य को अहमियत
केयर इंफ्रास्ट्रक्चर यानी देखभाल से जुड़े बुनियादी ढांचे और सेवाओं में निवेश को बढ़ावा देने वाली नीतियों को बनाकर इस दिशा में काफ़ी कुछ बदलाव लाया जा सकता है. इसमें अंतर्राष्ट्रीय सहयोग यानी विभिन्न देशों के बीच पारस्परिक सहयोग और G20 जैसे बहुपक्षीय मंच अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं. ज़ाहिर है कि ऐसे प्रयासों का मकसद न केवल वर्क फोर्स में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाना, बल्कि महिलाओं को उचित वेतन के साथ ही उनकी बेहतर नौकरियों तक पहुंच सुनिश्चित करना होना चाहिए. ऐसा करने से लेबर मार्केट में लैंगिक असमानता को कम करने में मदद मिलेगी, यानी महिलाओं के लिए भी पुरुषों के बराबर अवसर उपलब्ध होगें.
- महिला कामगारों के लिए ख़ास नीतियां बनाकर उन्हें लागू करें
कहने का मतलब है कि महिलाओं में असीम क्षमताएं हैं, लेकिन उसकी हमेशा अनदेखी की जाती रही है. ऐसे में इस प्रकार की नीतियां बनाई जाएं, जो महिलाओं की प्रतिभा और क्षमता को पहचानने वाली हों. जैसे कि जी20 ने महिला कामगारों को ध्यान में रखते हुए “25 by 25” पॉलिसी अपनाई है. जी20 की इस नीति का मकसद वर्ष 2025 तक कार्य बल में लैंगिक अंतर को 25 प्रतिशत तक कम करना है. ज़ाहिर है कि अगर इसी प्रकार की नीतियां बनाई और लागू की जाएंगी, तो इनसे निश्चित तौर पर लैंगिक असमानता को समाप्त करने में मदद मिल सकती है.
- नए व तकनीक़ी सेक्टरों में महिला कामगारों के लिए मौक़े उपलब्ध कराना और पुरुषों के वर्चस्व को कम करना
विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित से जुड़े क्षेत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है. ज़ाहिर है कि ये वो सेक्टर हैं, जिनमें आम तौर पर अधिक वेतन मिलता है, साथ ही काम करने का वातावरण भी अच्छा होता है. विज्ञान और टेक्नोलॉजी से जुड़े सेक्टर में बहुत कम महिलाएं प्रवेश करती हैं और जो महिलाएं इन सेक्टरों में आ भी जाती हैं, उन्हें ख़ास तौर पर तमाम सामाजिक और पारंपरिक रूढ़ियों व पूर्वाग्रहों की वजह से कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है.[45]
- डिजिटल पहुंच में व्याप्त लैंगिक असमानता को दूर करना
डिजिटल टेक्नोलॉजी तक पहुंच में भी व्यापक लैंगिक असमानता है. यानी महिलाओं और लड़कियों की डिजिटल तकनीक़ों तक पहुंच और उनका उपयोग करने में तमाम रुकावटों से जूझना पड़ता है. अगर लैंगिक आधार पर इस डिजिटल असमानता को दूर किया जाता है और डिजिटल अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाता है, तो निश्चित रूप से इसका सामाजिक व आर्थिक लाभ होगा. इससे महिलाओं के आजीविका के साधनों में बढ़ोतरी होगी, साथ ही जीडीपी भी बढ़ेगी. डिजिटल लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए तमाम क़दम उठाए जा सकते हैं. जैसे कि ऐसी नीतियां बनाई जाएं, जिनसे प्रौद्योगिकियां सस्ती हों ताकि उन तक महिलाओं की पहुंच सुनिश्चित हो सके. महिलाओं में साक्षरता और डिजिटल कौशल बढ़ाने के लिए कोशिशें की जाएं. महिलाओं की डिजिटल पहुंच को बढ़ाया जाए और ऑनलाइन सुरक्षा को पुख्ता किया जाए. इसके अलावा, डिजिटल तकनीक़ या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) द्वारा आंकड़ों एवं एल्गोरिदम में लैंगिक पूर्वाग्रहों को रोकने से भी डिजिटल लैंगिक अंतर को समाप्त किया जा सकता है.[46]
- सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव को बढ़ावा देने वाली नीतियां लागू करने पर ज़ोर देना
सांस्कृतिक और सामाजिक पूर्वाग्रहों को तोड़ने के लिए पहले भी लैंगिक आधार पर कोटा निर्धारित करने जैसे क़दम प्रभावी साबित हो चुके हैं. महिला कामगारों की आर्थिक स्वायत्तता और आत्मनिर्भरता के लिए भी इसी प्रकार के क़दम उठाए जा सकते हैं. शिक्षा और दूसरे क्षेत्रों में भी लैंगिक समानता लाने के लिए लड़कियों या महिलाओं का कोटा निर्धारित किए जाने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करके ही महिलाओं के बारे में समाज में व्याप्त रूढ़िवादी लैंगिक मानदंडों को चुनौती दी जा सकती है.[47]
2030 एजेंडा की समय सीमा के बाद भी उठाए जाने वाले प्रमुख क़दम
अगर श्रम बाज़ार में लैंगिक असमानता को समाप्त किया जाता है, तो इससे न सिर्फ़ महिलाओं को बराबरी का अवसर उपलब्ध होगा, बल्कि यह आर्थिक विकास और समाजों की सर्वांगीण भलाई के लिए भी बेहद लाभकारी होगा. ज़ाहिर है कि महिलाओं की आर्थिक आज़ादी और स्वायत्तता का मुद्दा एक वैश्विक सच्चाई है और इस लैंगिक असमानता के पीछे कहीं न कहीं हमारा सामाजिक ताना-बाना और उसमें व्याप्त तमाम रूढ़ियां एवं पूर्वाग्रह हैं. इसलिए, लैंगिक असमानता के मुद्दे को संबोधित करने के लिए वैश्विक स्तर पर बहुपक्षीय चर्चा करने और मिलजुलकर क़दम उठाने की ज़रूरत है.
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि सरकारी नीतियों को कार्यान्वित करने में लैंगिक नज़रिए को प्रमुखता से अपनाया जाना चाहिए, ऐसा करके ही दुनिया के तमाम देश सतत विकास लक्ष्यों के उद्देश्यों को हासिल कर सकते हैं. इतना ही नहीं, इसी रणनीति को अपनाकर 2030 एजेंडा से आगे की चुनौतियों का भी सामना किया जा सकता है. अब समय आ चुका है कि जनसांख्यिकीय बदलाव की वजह से जो भी अवसर सामने आए हैं, उनका भरपूर फायदा उठाया जाए. इन अवसरों का लाभ उठाने से ही अधिक विकसित, टिकाऊ और समावेशी अर्थव्यवस्थाओं के लिए मज़बूत बुनियाद तैयार होगी.
यह ब्रीफ पहली बार एक अलग शीर्षक, The Call of This Century: Create and Cooperate, के अंतर्गत ओआरएफ़ के वार्षिक जर्नल, रायसीना फाइल्स के 2024 संस्करण में प्रकाशित हुआ था.
Endnotes
[A] 'महिलाओं की स्वायत्तता' का मतलब महिलाओं की तमाम संसाधनों तक पहुंच से है. उसमें भी ख़ास तौर पर महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता यानी पर्याप्त इनकम से है।
[1] United Nations Statistics Division, The Sustainable Development Goals Report 2023, New York, United Nations, 2023, https://unstats.un.org/sdgs/report/2023/The-Sustainable-Development-Goals-Report-2023.pdf
[2] United Nations Population Fund, World Population Dashboard 2023, New York, United Nations, 2023, https://www.unfpa.org/data/world-population-dashboard
[3] “The Sustainable Development Goals Report 2023”
[4] Office of the United Nations High Commissioner for Human Rights, Sexual and Reproductive Health Information Sheet: Gender-Based Violence, Geneva, United Nations, 2020, https://www.ohchr.org/sites/default/files/Documents/Issues/Women/WRGS/SexualHealth/INFO_GBV_WEB.pdf
[5] World Economic Forum, Global Gender Gap Report 2023, Geneva, World Economic Forum, 2023, https://www.weforum.org/publications/global-gender-gap-report-2023/
[6] “The Sustainable Development Goals Report 2023”
[7] “Global Gender Gap Report 2023”
[8] “The Sustainable Development Goals Report 2023”
[9] Esteban Ortiz-Ospina et al., “Women's Employment,” Our World in Data, 2018, https://ourworldindata.org/female-labor-supply
[10] Ortiz-Ospina et al., “Women’s Employment”
[11] Ortiz-Ospina et al., “Women’s Employment”
[12] U.S. Bureau of Labor Statistics, Employed Full Time: Median Usual Weekly Real Earnings: Wage and Salary Workers: 16 Years and Over: Women, Federal Reserve Bank of St. Louis, 2023, https://fred.stlouisfed.org/series/LES1252882800Q
[13] Gala Díaz Langou et al., A Gendered Perspective on Changing Demographics: Implications for Labour, Financial and Digital Equity, 2030 Agenda for Sustainable Development Task Force, T20 Japan (2019), https://www.jica.go.jp/Resource/jica-ri/publication/booksandreports/l75nbg000017waxu-att/TF1_web_0603_0013.pdf
[14] Gala Díaz Langou et al., El género del trabajo, Buenos Aires, CIPPEC, 2019, https://www.cippec.org/wp-content/uploads/2019/11/el_genero_del_trabajo.pdf
[15] International Labour Organization, Care Work and Care Jobs for the Future of Decent Work, Geneva, ILO, 2018, https://www.ilo.org/wcmsp5/groups/public/---dgreports/---dcomm/---publ/documents/publication/wcms_633166.pdf
[16] N. van der Gaag et al., State of the World’s Fathers: Unlocking the Power of Men’s Care, Washington, DC, Promundo, 2019, https://s30818.pcdn.co/wp-content/uploads/2019/05/BLS19063_PRO_SOWF_REPORT_015.pdf
[17] Our World in Data, “Achieve Gender Equality and Empower All Women and Girls,” 2023, https://ourworldindata.org/sdgs/gender-equality
[18] Sukriti Anand et al., Leveraging Care Economy Investments to Unlock Economic Development and Foster Women’s Economic Empowerment in G20 Economies, T20 India, 2023, https://t20ind.org/research/leveraging-care-economy-investments-to-unlock-economic-development/
[19] Fabián Repetto et al., El Futuro es hoy: Primera infancia en la Argentina, Buenos Aires, Biblos, 2016.
[20] UNDP & UN Women, The Paths to Equal. Twin Indices on Women’s Empowerment and Gender Equality, July 2020, New York, United Nations Development Programme (UNDP), United Nations Entity for Gender Equality and the Empowerment of Women (UN Women), 2020, https://hdr.undp.org/system/files/documents/hdp-document/pathsequal2023pdf.pdf
[21] “Leveraging Care Economy Investments to Unlock Economic Development and Foster Women’s Economic Empowerment in G20 Economies”
[22] International Labour Organization, Global Wage Report, Geneva, ILO, 2018, https://www.ilo.org/wcmsp5/groups/public/---dgreports/---dcomm/---publ/documents/publication/wcms_650553.pdf
[23] Patricia Kelly Fernandez and Jon Shefner, Out of the Shadows: Political Action and Informal Economy in Latin America, Philadelphia, The Pennsylvania State University Press, 2010.
[24] Gala Díaz Langou, “Stratified Universalistic Regimes in the Twenty-First Century: Widening and Compounding Inequalities in Welfare and Social Structure in Argentina, Uruguay, Chile and Costa Rica” in Latin American Social Policy Developments in the Twenty-First Century, eds. Natália Sátyro, Carmen Midaglia, and Eloísa del Pino (Switzerland: Palgrave Macmillan, 2019), 33-59, https://download.springer.com/download/27313ce4-6e97-44b3-a176-ba21aac22852/978-3-030-61270-2.pdf
[25] CIPPEC, “The International Day of Care and Support: An Opportunity to Acknowledge and Bolster Care’s Power to Foster Inclusive Development,” https://www.cippec.org/textual/the-international-day-of-care-and-support-an-opportunity-to-acknowledge-and-bolster-cares-power-to-foster-inclusive-development/
[26] Laura Addati, Umberto Cattaneo, and Emanuela Pozzan, Care at Work: Investing in Care Leave and Services for a More Gender Equal World of Work, ILO, 2022, https://www.ilo.org/wcmsp5/groups/public/---dgreports/---dcomm/---publ/documents/publication/wcms_633166.pdf
[27] International Labour Organization, ILO Global Estimates on Migrant Workers: Results and Methodology. Special Focus on Migrant Domestic Workers, Geneva, ILO, 2015, https://www.ilo.org/wcmsp5/groups/public/---dgreports/--dcomm/documents/publication/wcms_436343.pdf
[28] “A Gendered Perspective on Changing Demographics: Implications for Labour, Financial and Digital Equity”
[29] Hannah Ritchie et al., “Five Key Findings From the 2022 UN Population Prospects,” Our World in Data, 2022, https://ourworldindata.org/world-population-update-2022
[30] CIPPEC, “Censo 2022: Cambios demográficos y su impacto en la planificación de las políticas públicas,” https://www.cippec.org/textual/censo-2022-cambios-demograficos-y-su-impacto-en-la-planificacion-de-las-politicas-publicas/
[31] Gala Díaz Langou, “Gender, Education and Future of Work: Three Priorities for the Employment Working Group in 2023,” G20 in 2023: Priorities for India’s Presidency, New Delhi, ORF and Global Policy Journal, 2022.
[32] Díaz Langou, “Stratified Universalistic Regimes in the Twenty-First Century: Widening and Compounding Inequalities in Welfare and Social Structure in Argentina, Uruguay, Chile and Costa Rica”
[33] Vincent Tang et al., Gender Equality and COVID-19: Policies and Institutions for Mitigating the Crisis, Special Series on COVID-19, Washington DC, International Monetary Fund Fiscal Affairs, UN Women, UNDP, 2021, https://www. imf.org/-/media/Files/Publications/covid19-special-notes/en-special-series-on-covid-19gender-equality-and-covid-19.ashx
[34] UN Women, From Insight to Action. Gender Equality in the Wake of COVID 19, New York, United Nations Entity for Gender Equality and the Empowerment of Women, 2020, https://www.unwomen.org/sites/default/files/Headquarters/Attachments/Sections/Library/Publications/2020/Gender-equality-in-the-wake-of-COVID-19-en.pdf
[35] “Gender Equality and COVID-19: Policies and Institutions for Mitigating the Crisis, Special Series on COVID-19”
[36] Jordi Bonet i Martí, “Antifeminismo. Una forma de violencia digital en América Latina,” Nueva Sociedad, no. 5 (2022), https://nuso.org/articulo/302-antifeminismo/
[37] Díaz Langou, “Stratified Universalistic Regimes in the Twenty-First Century: Widening and Compounding Inequalities in Welfare and Social Structure in Argentina, Uruguay, Chile and Costa Rica”
[38] Steven Michael Pennings, A Gender Employment Gap Index (GEGI): A Simple Measure of the Economic Gains from Closing Gender Employment Gaps, With an Application to the Pacific Islands, Washington DC, World Bank, 2022, http://hdl.handle.net/10986/37062
[39] Gala Díaz Langou, “Gender, Education and Future of Work: Three Priorities for the Employment Working Group in 2023”
[40] Some of these recommendations have been discussed and incorporated in the G20 New Delhi Leaders' Declaration. Moreover, one of the twelve commitments made was “Close gender gaps and promote the full, equal, effective and meaningful participation of women in the economy as decision-makers.” The declaration is available at https://www.mea.gov.in/Images/CPV/G20-New-Delhi-Leaders-Declaration.pdf
[41] Juan Camisassa, Victoria Bruschini, and Emanuel López Méndez, Sistema de cuidados para la infancia, Buenos Aires, CIPPEC, 2023, https://www.cippec.org/wp-content/uploads/2023/09/Documento-3.0-Sistema-de-cuidados-para-la-infancia.pdf
[42] “Leveraging Care Economy Investments to Unlock Economic Development and Foster Women’s Economic Empowerment in G20 Economies”
[43] CIPPEC is an independent nonprofit organisation based in Argentina that works on building better public policies. Its mission is to influence public policies for equitable development and the strengthening of democratic institutions through applied research, open dialogues, and by working with public administrations.
[44] The commitment to a universal Basic Care Basket has been included as a recommendation to G20 leaders in the W20 Communiqué 2023, available at https://w20india.org/wp-content/uploads/2023/06/W20-Communique-2023.pdf
[45] Paula Szenkman and Estefanía Lotitto, Mujeres en STEM: Cómo romper con el
círculo vicioso, CIPPEC, 2020, https://www.cippec.org/wp-content/uploads/2020/11/224-DPP-PS-Mujeres-en-STEM-Szenkman-y-Lotitto-noviembre-2020-1.pdf
[46] W20, “Women-Led Development Transform, Thrive, and Transcend,” W20 Communiqué 2023, 2023, https://w20india.org/wp-content/uploads/2023/06/W20-Communique-2023.pdf
[47] Díaz Langou et al., El género del trabajo
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