Issue BriefsPublished on Jul 25, 2023
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समुद्री शैवाल की खेती: सतत विकास से जुड़े G20 के एजेंडे को ज़मीन पर उतारने का सशक्त उपाय

  • Nikhil Sharma
  • Nupur Bapuly

    आज दुनिया के सामने अनेक सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं. ये पॉलिसी ब्रीफ इन चुनौतियों के निपटारे के लिए संभावित समाधान के रूप में समुद्री खरपतवार या समुद्री शैवाल (seaweed) की खेती को बढ़ावा देने का प्रस्ताव करता है. बेशक़ समुद्री खरपतवार का कई तरह से इस्तेमाल होता है. इनका खाद्य स्रोत के रूप में उपयोग किया जाता है, साथ ही उर्वरक, जैव ईंधनों, प्लास्टिक के विकल्पों, पशु चारे, फार्मास्यूटिकल्स, सौंदर्य प्रसाधन और कार्बन को अलग करने या निकासी (sequestering) में भी इनका प्रयोग किया जाता है. इतना ही नहीं समुद्र तटीय इकोसिस्टम्स में प्राथमिक जीवाश्म उत्पादन के प्रमुख घटकों में समुद्री शैवाल शामिल है. बग़ैर मेरुदंड वाले जीवों (invertebrates), मछलियों, स्तनधारियों और पक्षियों के आवास और आश्रय-स्थल के रूप में ये पूरे पारिस्थितिकी तंत्र (ecology) में अटूट किरदार निभाता है.

    G20 के खाते में वैश्विक अर्थव्यवस्था का लगभग 84 प्रतिशत हिस्सा है और दुनिया के कुल समुद्री तट का तक़रीबन आधा हिस्सा इसकी पहुंच में है. ऐसे में ये समूह एक संगठित और समन्वित रणनीति के ज़रिए समुद्री खरपतवार की खेती में एक आदर्श परिवर्तनकारी क़वायद में रफ़्तार भर सकता है. अगर समूह के सदस्यों की ओर से मज़बूत नीतिगत हस्तक्षेप किए जाएं तो समुद्री शैवाल का ये विकल्प सतत विकास लक्ष्योंa में से अनेक मक़सदों पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है.

Attribution:

एट्रिब्यूशन: नूपुर बापुली और निखिल शर्मा, “सीवीड कल्टिवेशन एज़ ए मीन्स टू रिएलाइज़ द G20 एजेंडा फॉर सस्टेनेबिलिटी,” T20 पॉलिसी ब्रीफ, मई 2023

टास्कफोर्स 6: एक्सीलरेटिंग एसडीजीज़: एक्सप्लोरिंग न्यू पाथवेज़ टू द 2030 एजेंडा


  1. चुनौती

हमारी पृथ्वी को संकट में डालने वाले प्रमुख मसलों के बारे में आज काफ़ी हद तक आम सहमति बन हो चुकी है. चाहे कोई संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक चुनौतियों[i] की बात करे या सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) का संदर्भ ले, समग्र और टिकाऊ विकास सुनिश्चित करना आज सबकी सहमति वाला क्षेत्र बन चुका है. अगर सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा को क्रियान्वित करना है, तो कई क्षेत्रों पर तत्काल ध्यान देना होगा. इनमें जलवायु परिवर्तन को कम करना, ग़रीबी के स्तर में कटौती, रोज़गार के अवसर मुहैया कराना (विशेष रूप से महिलाओं के लिए), खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ-साथ ज़मीन के ऊपर और पानी के नीचे जैव विविधता का संरक्षण करना शामिल हैं.[ii]

आज ताज़े-मीठे पानी की वैश्विक कमी, खेती के लिए कृषि योग्य भूमि की ग़ैर-मौजूदगी और सिंचाई के लिए जलाशयों पर ज़बरदस्त दबाव का वातावरण बना हुआ है. ये हालात कुपोषण से निपटने और सभी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की चुनौती से पार पाने को लेकर विकल्प ढूंढे जाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं. ऐतिहासिक रूप से, मानव जाति को जो संसाधन भूमि से हासिल नहीं हुए हैं उनकी प्राप्ति के लिए उसने महासागरों का रुख़ किया है. वैश्विक आबादी का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा महासागरों के 50 किलोमीटर के दायरे के भीतर निवास करता है.[iii] जनसंख्या विस्फोट-और उनके भरण-पोषण की ज़रूरतों ने-एक समय प्रचुरता वाला स्थान रह चुके इन इलाक़ों की समुद्री जैव विविधता को खोखला कर दिया है. जलवायु परिवर्तन और समुद्री प्रदूषण ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है.

महासागरों और उनके भीतर फलता-फूलता जीवन अपरिवर्तनीय (irreversible) बदलावों की कगार पर है. ऐसे में सभी देशों द्वारा एक ऐसे मॉडल पर विचार करने और उसे अपनाने के लिए संगठित प्रयास किए जाने की दरकार है, जो अधिक टिकाऊ ‘ब्लू इकोनॉमी’ की बुनियाद तैयार करते हों![iv] समुद्री शैवाल या खरपतवार इस गुत्थी का जवाब हो सकता है.

समुद्री शैवाल, समुद्री माइक्रोएल्गी हैं जो उथले और पथरीले तटीय जल में उगते हैं. हालांकि ये शब्दावली एक ग़लत नाम (misnomer) है, क्योंकि खरपतवार आम तौर पर ऐसे पौधे होते हैं जो उस स्थान को ही नुक़सान पहुंचाते हैं जहां वो उगते हैं. हालांकि असाधारण गुणों से लैस इन चमत्कारी पौधों यानी शैवालों को व्यापक उपयोगों के लिए काम में लाया जाता है. इनमें खाद्य, कॉस्मेटिक्स, फार्मास्यूटिकल्स और कृषि के साथ-साथ संभावित नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत के रूप में उपयोग शामिल हैं. इसे 21वीं सदी का मेडिकल फूड भी कहा जाता है.[v] पिंगमेंटेशन यानी रंग के आधार पर समुद्री शैवाल अनेक प्रकार के हो सकते हैं:

  • भूरा समुद्री शैवाल (फियोफाइसी): आम तौर पर दोनों गोलार्द्धों के ठंडे समुद्रों में सबसे उपयुक्त शैवाल पाए जाते हैं. ये सामान्य तौर पर आकार में बड़े होते हैं और 20 मीटर तक बढ़ सकते हैं. इनके चंद उदाहरणों में लैमिनारिया, अंडारिया और हिज़िकिया प्रजातियां शामिल हैं.[vi]
  • लाल समुद्री शैवाल (रोडोफाइसी): ये मुख्य रूप से चिली और नोवा स्कोटिया (कनाडा) के ठंडे पानी में, मोरक्को और पुर्तगाल के अधिक शीतोष्ण (temperate) समंदरों में और इंडोनेशिया और फिलीपींस के उष्णकटिबंधीय जल में पाए जाते हैं. ये आमतौर पर आकार में छोटे होते हैं और चंद सेंटीमीटर से लेकर लगभग एक मीटर तक बढ़ सकते हैं. इनके उदाहरणों में पोर्फाइरा और डल्से शामिल हैं.[vii]
  • हरे समुद्री शैवाल (क्लोरोफाइसी): ये आमतौर पर ताज़े-मीठे पानी और समुद्री जल में पाए जाते हैं, और आकार में लाल समुद्री शैवाल के समान होते हैं. ग्रास केल्प और समुद्री सलाद-पत्ते इसके चंद उदाहरण हैं.

बेहद सूक्ष्म फाइटोप्लांकटन से लेकर केल्प यानी समुद्री घास के विशाल ‘जंगलों’ तक फैले समुद्री शैवाल (जिनमें से केवल कुछ हज़ार प्रजातियों की ही पहचान हो पाई है) पृथ्वी के ऑक्सीजन के लगभग आधे हिस्से का उत्पादन भी करते हैं.[viii] समुद्री वन्य जीवन में भले ही अब तक इनको उचित अहमियत नहीं मिल पाई है लेकिन ये वैश्विक मसलों की एक व्यापक श्रृंखला के निपटारे में मदद करने की क्षमता रखते हैं. ये क़वायद SDG 1 (ग़रीबी उन्मूलन), 2 (भुखमरी का ख़ात्मा), 8 (सम्मानजनक कार्य और आर्थिक विकास), 10 (असमानताओं में कमी), (टिकाऊ शहर और समुदाय), 12 (ज़िम्मेदारी भरा उपभोग और उत्पादन), 13 (जलवायु कार्रवाई) और 14 (पानी के नीचे जीवन) को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती हैं.

समुद्री शैवाल की खेती के अनेक फायदे हैं. इनमें:

  • खाद्य स्रोत और पूरक: वर्षों से अनेक प्रकार के समुद्री शैवालों का खाद्य स्रोत के रूप में सेवन किया जाता रहा है (जैसे नोरी, कोम्बू और केल्प; साथ ही अटलांटिक और प्रशांत महासागरों के उत्तरी तटों पर पाए जाने वाले लाल समुद्री शैवाल डुलसे, जो पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं. 19वीं सदी के आख़िर में जब इन क्षेत्रों में अकाल पड़ा था तब प्राथमिक भोजन के रूप में इनका ही प्रयोग किया गया था).[ix] इतना ही नहीं खाद्य उत्पादन के अन्य स्वरूपों की तुलना में समुद्री शैवाल की खेती का पर्यावरण पर पड़ने वाला प्रभाव कम रहता है क्योंकि इसके लिए ज़मीन, मीठे पानी या उर्वरकों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती.
  • उर्वरक: समुद्री खरपतवार को प्रॉसेस करके प्राकृतिक उर्वरक का रूप दिया जा सकता है, जो नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम जैसे पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं. इससे मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने और पौधों के विकास को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है. इतना ही नहीं, उर्वरक के रूप में इसका उपयोग इनऑर्गेनिक उर्वरकों पर किसी देश (मिसाल के तौर पर भारत के मामले में) की निर्भरता को कम कर सकता है. ग़ौरतलब है कि उर्वरक उद्योग की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भारत, यूरिया और म्यूरेट ऑफ पोटाश जैसे आयातित रसायनों पर निर्भर है. ये रसायन ना केवल मिट्टी की सेहत और फ़सल उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, बल्कि देश के आयात ख़र्च को भी बढ़ा देते हैं.
  • बायोप्लास्टिक्स: समुद्री खरपतवार में सेलूलोज़ और अन्य पॉलीसैकेराइड का स्तर ऊंचा होता है. यही वजह है कि कंपनियां, परंपरागत प्लास्टिक्स के टिकाऊ विकल्प के रूप में समुद्री शैवाल का उपयोग करने की संभावना तलाश रही हैं. इसका पैकेजिंग उद्योग पर भी अहम प्रभाव पड़ेगा क्योंकि ये उद्योग सिंगल-यूज़ प्लास्टिक पर ज़बरदस्त रूप से निर्भर करता है. ये तमाम क़वायद जलवायु कार्रवाई (SDG-13) के साथ-साथ ज़िम्मेदार उपभोग और उत्पादन (SDG-12) के लिए भी रास्ता साफ़ करती हैं.[x]
  • पशु चारा: पोषक तत्वों से भरपूर होने के कारण समुद्री शैवाल, गायों, सुअरों और मुर्गों के लिए पशु आहार का एक अच्छा पूरक बन जाती हैं. इसके अलावा लगातार सामने आते जा रहे शोधों से पता चलता है कि मवेशियों के चारे में समुद्री शैवाल को शामिल किए जाने से पशुधन द्वारा मीथेन उत्सर्जन की मात्रा को काफी हद तक कम करने में मदद मिल सकती है. लिहाज़ा ये मवेशियों[xi] के लिए कम लागत वाला और स्वस्थ विकल्प साबित हो सकता है.
  • फार्मास्यूटिकल्स: समुद्री शैवाल में विभिन्न प्रकार के बायोएक्टिव कंपाउंड्स (जैसे फ़्लोरोटैनिन, कैरोटीनॉयड, एल्गिनिक एसिड और फ्यूकोइडन) होते हैं. इनका दवाओं के निर्मण में संभावित रूप से उपयोग किया जा सकता है. समुद्री शैवालों में पाए जाने वाले कुछ कंपाउंड्स में सूजन कम करने, एंटीऑक्सीडेंट और कैंसर-रोधी गुण पाए गए हैं.[xii]
  • जैव ईंधन: नए शोध से संकेत मिले हैं कि समुद्री शैवाल, बायोगैस और बायोइथेनॉल का उत्पादन करने के लिए एक उपयुक्त कच्चा माल है.[xiii] इसमें जीवाश्म ईंधन का एक टिकाऊ विकल्प बनने की क्षमता मौजूद है.
  • कॉस्मेटिक्स: विटामिन और खनिजों के उच्च स्तर के कारण अनेक सौंदर्य प्रसाधनों और व्यक्तिगत देखभाल उत्पादों में एक घटक के रूप में समुद्री शैवाल का उपयोग किया गया है. एंटी-एजिंग क्रीम्स, शैंपूओं और साबुन में इनका अक्सर उपयोग किया जाता है. समुद्री शैवालों पर आधारित उत्पाद, त्वचा और बालों को नमी और पोषण देने में मदद कर सकते हैं.[xiv]

ये समुद्री शैवाल के कुछ प्रत्यक्ष उपयोग हैं. बहरहाल, नीतिगत सिफ़ारिशों के लिए उन मापदंडों पर समुद्री शैवाल की खेती के प्रभाव का आकलन करना ज़रूरी है जो प्रत्यक्ष उपयोगों से परे हैं. इनमें:

  • कार्बन डाइऑक्साइड का जैविक रूप से अलगाव (SDG-13): समुद्री शैवाल की खेती से कार्बन में कटौती होती है. इसके अलावा इकोसिस्टम सेवाओं के एक हिस्से के रूप में इसमें कार्बन निकासी का एक ताक़तवर स्रोत बनने की क्षमता मौजूद है. मुमकिन तौर पर किसी भी अन्य समुद्री पौधे के मुक़ाबले इनमें इसकी ज़्यादा क्षमता होती है.[xv]
  • पोषक तत्वों से जुड़े प्रदूषण में कमी (SDG-13): जलीय क्षेत्र में समुद्री शैवाल की खेती नाइट्रोजन और फॉस्फोरस की बड़ी मात्राओं को दूर कर सकती है. इससे तटीय पारिस्थितिकी तंत्र यानी इकोसिस्टम में स्थिरता लाने में मदद मिलती है. इस प्रकार जलीय पोषण में कमी और वातावरण में ऑक्सीजन के अभाव जैसी संबंधित परिस्थितियों को रोका जाता है.[xvi]
  • तटीय जलीय प्रजातियों के लिए रिहाइश में बढ़ोतरी (SDG-14): नियंत्रण प्रभाव के पहले/बाद में एक विषम डिज़ाइन का उपयोग करके किए गए अध्ययनों ने कुछ पर्यावरणीय मापदंडों पर समुद्री शैवाल जलीय कृषि के सकारात्मक प्रभाव को प्रदर्शित किया है. इनका पर्यावरण पर सीमित नकारात्मक प्रभाव देखा गया है.[xvii] इससे बड़े पैमाने पर जलीय कृषि हस्तक्षेपों की क्षमता प्रदर्शित होती है. दूसरी ओर ऐसे दख़लों के अप्रत्याशित पर्यावरणीय प्रभावों से जुड़ी चिंताएं भी कम हो जाती हैं.
  • महासागरों का अम्लीकरण (acidification) घटाना (SDG-13 और SDG-14): चीन के अक्षांशीय (latitudinal) दायरे में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि समुद्री शैवाल फार्म, महासागरों के अम्लीकरण और उनमें ऑक्सीजन घटने से जुड़ी समस्याओं से मुक़ाबले के लिए कम लागत वाली अनुकूलन रणनीति के रूप में काम कर सकते हैं. साथ ही महासागरों के अम्लीकरण से अहम बचाव भी मुहैया करा सकते हैं.[xviii] मैंग्रोव्स या ईलग्रास की तुलना में समुद्री शैवाल पानी से कहीं ज़्यादा मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों को खींच सकते हैं. हक़ीक़त ये है कि ऐसे गैसों की निकासी की क्षमता समुद्री शैवाल में मैंग्रोव्स और ईलग्रास के संयुक्त बायोमास से भी ज़्यादा होती है. इस प्रकार ये महासागरीय अम्लीकरण के स्थानीय प्रभाव को कम कर सकते हैं.[xix]
  • टिकाऊ आजीविका उपलब्ध कराने की क्षमता (SDG-8): समुद्री शैवालों का व्यापक रूप से उपयोग हो सकता है. साथ ही इसमें जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में मदद करने की क्षमता भी मौजूद है. ऐसे में छोटे-छोटे समुद्री खरपतवारों की खेती पर केंद्रित एक परिपक्व उद्योग, विशाल समुदायों (ख़ासकर महिलाओं) को टिकाऊ आजीविका प्रदान करने की क्षमता रखता है.b इसके अलावा यह समुद्र तट के किनारे फलने-फूलने वाले स्थानीय समुदायों के लिए आर्थिक अवसर पैदा करेगा, जिनकी रोज़गार संभावनाएं कम मांग के चलते बाधित हुई हैं.

समुद्री शैवाल की खेती के SDG-13 और SDG-14 में सकारात्मक योगदान की शुद्ध क्षमता काफ़ी प्रभावपूर्ण है. यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन पर एक अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट ने रोकथाम से जुड़ी रणनीति के रूप में समुद्री शैवाल की खेती पर “आगे शोध करने और ध्यान देने” की सिफ़ारिश की है.[xx]

2.G20 की भूमिका
  1. G20 की भूमिका

G20 विश्व की 65 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी का प्रतिनिधि है और वैश्विक अर्थव्यवस्था में लगभग 84 प्रतिशत का योगदान देता है. वहीं, G20 के सदस्य देश दुनिया के 79 फ़ीसदी कार्बन उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं.[xxi] इतना ही नहीं G20 में ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ दोनों का प्रतिनिधित्व है, जिसमें स्थलाकृतियों (topographies), अर्थव्यवस्थाओं, संस्कृतियों, जातीयताओं, वनस्पतियों और जीवों का एक व्यापक दायरा शामिल है. दिलचस्प रूप से G20 के सदस्य देश एक और सामान्य विशेषता साझा करते हैं- वो है समुद्र तट की मौजूदगी (जब यूरोपीय संघ के देशों को एक गुट के रूप में माना जाता है), लिहाज़ा वो समुद्र आधारित अर्थव्यवस्था की परिकल्पना को समझते हैं. इसके अलावा इस दशक के अंत तक महासागरीय अर्थव्यवस्था के सालाना 3 खरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाने का अनुमान है.[xxii]

यूरोपीय संघ के भीतर सिर्फ़ ज़मीनी सरहदों से घिरे चंद देशों को छोड़कर G20 के सदस्य देश, दुनिया के समुद्र तटों के 45 प्रतिशत हिस्से की नुमाइंदगी करते हैं.[xxiii] इससे संकेत मिलते हैं कि समुद्री शैवाल की खेती की प्रचुर संभावना मौजूद है. इसके साथ ही यह अनुमान भी लगाया गया है कि दुनिया के प्रमुख समुद्री पारिस्थितिकी तंत्रों का 60 प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो चुका है. इससे उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में भारी कमज़ोरी आ गई है.[xxiv] बहरहाल, सामुद्रिक पर्यावरण पर दबाव कम करने के लिए G20 की ओर से पहले से ही कुछ प्रयास किए जा रहे हैं. इनमें समुद्री कचरे को कम करने और समुद्र के संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना करने से जुड़ी क़वायदें शामिल हैं.

विकास कार्य समूह मॉडल[xxv] का लक्ष्य G20 की संबद्धता और समन्वय को मज़बूत करना है. इस मॉडल का उपयोग करके किया गया एक संगठित प्रयास, समुद्री शैवाल को अपनाने और उसके पैमाने को कामयाब ढंग से बढ़ाने की क़वायद को सुविधाजनक बना सकता है.

  1. G20 के लिए सिफ़ारिशें

बेलगाम जलवायु परिवर्तन के अपरिवर्तनीय (irreversible) प्रभावों को रोकने को लेकर हाल ही में कई मंचों से आह्वान किए गए है. ऐसे में समुद्री शैवाल की खेती जैसे वैकल्पिक तरीक़ों का पड़ताल से जुड़ी क़वायद की तात्कालिकता बढ़ गई है. ये उपाय पहले से ज़्यादा टिकाऊ भविष्य का रास्ता साफ़ कर सकती है. G20 के मंच का लाभ उठाकर इस उद्योग को तेज़ी से विकसित करना संभव है. इस कड़ी में क्षेत्रीय बारीक़ियों को ध्यान में रखते हुए आसानी से स्थानीयकृत (localised) किए जा सकने वाले उपायों को अमल में लाया जा सकता है. नीतिगत तौर पर दख़ल के व्यापक प्रयास नीचे दिए गए हस्तक्षेपों पर केन्द्रित हैं:

  • ऐसी राष्ट्रीय नीतियों और ढांचों का विकास करना, जो समुद्री शैवाल उत्पादन और खपत के टिकाऊ तौर-तरीक़ों को बढ़ावा देते हैं
  • समुद्री शैवाल की गुणवत्ता, उत्पादकता और मूल्यवर्धन (व्यावसायिक उपयोग के मामलों में) में सुधार के लिए शोध और नवाचार में निवेश करना.
  • स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तमाम स्टेकहोल्डर्स के बीच सहयोग और तालमेल बढ़ाना.
  • स्वास्थ्य, पर्यावरण और समाज के लिए समुद्री शैवाल के फ़ायदों पर सार्वजनिक भागीदारी सुनिश्चित करते हुए समुदायों को शिक्षित करना.
  • समुद्री शैवाल की खेती को जलवायु परिवर्तन की रोकथाम और अनुकूलन रणनीतियों के साथ एकीकृत करना.

इन प्रयासों के बावजूद समुद्री शैवाल की खेती में आंतरिक रूप से कई जटिलताएं शामिल हो सकती हैं. इनसे नियामक बाधाओं की आशंकाएं बढ़ सकती हैं, जो इस उद्योग के विकास और इसे अपनाए जाने के रास्ते में अड़चनें बन सकती हैं. हालांकि ऐसे सटीक हस्तक्षेप मुहैया करना मुश्किल है जिन्हें G20 के हरेक सदस्य राष्ट्र की बारीकियों को संदर्भित किए बिना लागू किया जा सकता हो!, बहरहाल, एक ऐसा ढांचा उपलब्ध करना संभव है जो उन व्यापक क्षेत्रों की पहचान करने में मदद करता है, जिनमें दख़ल दिए जाने की आवश्यकता होती है. स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीतिगत हस्तक्षेपों से इन आंतरिक चुनौतियों से निपटने में लाभ मिल सकता है.

  • स्थान का चयन: तटों से दूर समुद्री शैवालों की जलीय खेती के लिए उपयुक्त स्थानों की पहचान करने से पहले राज्यसत्ता की एजेंसियों द्वारा तकनीकी, पारिस्थितिक और आर्थिक व्यवहार्यता का अध्ययन किया जाना चाहिए. इस क़वायद में शासन-प्रशासन के साथ-साथ सामाजिक पहलुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए.
  • पट्टे (lease) पर स्थान उपलब्ध कराना: दरअसल समुद्री खरपतवारों की खेती तटीय और/या गहरे पानी वाले स्थलों पर की जा सकती है. ये इलाक़े निजी स्वामित्व के दायरे से परे होते हैं. लिहाज़ा व्यक्तियों/निगमों को उनकी कृषि संबंधी गतिविधियों के लिए कार्यकुशल परमिट के माध्यम से उपयुक्त स्थान प्रदान करने को लेकर एक पट्टा नीति (leasing policy) की दरकार है. इस संदर्भ में अमेरिका के फ्लोरिडा में जलीय कृषि उपयोग क्षेत्र प्रणाली को लेकर अपनाई गई सरकारी नीतियों या अमेरिका के ही अलास्का में महासागरीय किसानों के लिए पट्टा प्रक्रिया से संबंधित राज्य क़ानूनों से प्रेरणा ली जा सकती है.[xxvi]
  • स्थान यानी साइट की सुरक्षा: ज़मीन पर खेती करने वाले किसानों के विपरीत महासागरों में खेती करने वाले किसानों के पास ज़बरदस्त विकास क्षमता वाले ऐसे विशाल जलीय क्षेत्र मौजूद होते हैं जिनपर अब तक किसी का दावा नहीं है. बहरहाल, चूंकि उनके खेत सार्वजनिक जल-क्षेत्र में होते हैं, लिहाज़ा उन्हें महासागरों का उपयोग करने वाले अन्य किरदारों के साथ संघर्ष करना होता है. इनमें सेना, शिपिंग कंपनियां, मनोरंजन के लिए नाव का उपयोग करने वाले और वाणिज्यिक और शौकिया मछुआरे शामिल हैं. राज्यसत्ता की एजेंसियों द्वारा उन स्थानों की पहचान किए जाने की दरकार है, जहां ये समुद्री किसान महासागरों का उपयोग करने वाले अन्य किरदारों के साथ सह-अस्तित्व बना सकते हैं. इस सिलसिले में उन्हें इस बात का आश्वासन दिया जाना चाहिए कि उस क्षेत्र में उनकी फ़सल के लिए घातक गतिविधियों (जैसे ड्रेजिंग) को अंजाम नहीं दिया जाएगा.
  • सामुदायिक शिक्षा और भागीदारी: समुद्री शैवाल से जुड़ी जलीय कृषि में रोज़गार के अहम अवसर पैदा करने की क्षमता है. इस बात के मद्देनज़र चाहे प्रत्यक्ष भागीदारी (महासागरीय खेती) के माध्यम से या सहायक उद्योगों के ज़रिए (मसलन, समुद्री शैवाल की आगे की प्रक्रिया के लिए) स्थानीय समुदायों की भागीदारी आवश्यक है. ऐसे हस्तक्षेपों की सफलता के लिए ये क़वायद निहायत ज़रूरी है. स्वास्थ्य और पर्यावरणीय लाभों के साथ-साथ तटीय समुदायों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए राज्यसत्ता के हस्तक्षेप को रेखांकित करने वाले शिक्षा मॉड्यूल, समग्र जागरूकता बढ़ाने और ऐसी खेती अपनाए जाने की प्रक्रिया को बढ़ावा देने में दूर तक मददगार साबित होंगे.
  • समुद्री जलीय कृषि संस्थान: इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए G20 के सदस्य देशों को संस्थान स्थापित करने चाहिए. अध्ययन के लिए सुझाए गए क्षेत्रों में नर्सरी और अन्य प्रसार विधियों का निर्माण, उपयुक्त सूक्ष्म शैवाल की पहचान, गुणवत्ता और उत्पादकता में बढ़ोतरी, अतिरिक्त वाणिज्यिक उपयोग के मामलों पर शोध (उदाहरणों में जैव ईंधन निकास और बायोप्लास्टिक उत्पादन शामिल हैं) के साथ-साथ स्थापना और कटाई के तौर-तरीक़ों में नवाचार शामिल हो सकते हैं.
  • वित्तीय प्रोत्साहन और लाइन ऑफ क्रेडिट: वैसे तो बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक समुद्री खेती के संचालन से पूंजी और ऋण तक आसान पहुंच हो सकती है, लेकिन हाशिए पर रहने वाले और कमज़ोर समुदायों (ख़ासतौर से विकासशील देशों में) के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. ऋण और राजकोषीय प्रोत्साहन तक आसान पहुंच, समुद्री खेती को अपनाने में दिलचस्पी बढ़ाने और समुदायों को आजीविका का साधन प्रदान करने में मददगार साबित हो सकती है. भारत में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सामुदायिक भागीदारी और पूंजी संग्रहण के लिए स्वयं सहायता समूहों (SHGs) का गठन किया जा सकता है. ऐसे समूहों को आधिकारिक मान्यता प्राप्त हो सकती है, जिससे उन्हें क्रेडिट/अनुदान तक आसान पहुंच मिल सकेगी.[xxvii] ये प्रोत्साहन मॉडल, शुरुआत में उपकरण की लागत और फ़सल के रख-रखाव को सहारा देने को लेकर आक्रामक हो सकता है. दरअसल जब इस उद्योग का पैमाना बड़ा हो जाएगा तब बाज़ार की शक्तियां, इन गतिविधियों की लागत को नीचे ला देंगी.
  • सहायक उद्योगों/बाज़ार का विकास: उद्योग का समग्र विकास सुनिश्चित करने के लिए G20 के सदस्य देशों को सहायक उद्योगों के विकास को बढ़ावा देना चाहिए. उत्पादित समुद्री शैवाल का उपयोग करने वाले इन उद्योगों से समुद्री किसानों को बाज़ारों तक पहुंच मिलती है. इस कड़ी में स्थानीय प्रॉसेसिंग संयंत्रों (जैसे खाद्य प्रसंस्करण, उर्वरक उत्पादन, पशु चारे, या कॉस्मेटिक उद्योगों के लिए) या एक एकीकृत बाज़ार की स्थापना शामिल हो सकती है, जहां G20 देशों के किसान बिना किसी बाधा के अपनी फ़सलों का व्यापार कर सकें!
  • कार्बन बाज़ारों तक पहुंच: निश्चित रूप से राज्यसत्ता की एजेंसियों को किसानों को भूमि पट्टे यानी लीज़ पर देने का काम सौंपा जाएगा, ऐसे में फ़सल की कटाई की निगरानी की जा सकती है और उनको लेकर रिपोर्ट दी जा सकती है. चूंकि समुद्री शैवाल में कार्बन के निकास या उन्हें अलग करने की ज़बरदस्त क्षमता होती है, लिहाज़ा सदस्य राष्ट्र, किसानों को एक ऐसा तंत्र मुहैया करा सकते हैं जिसके ज़रिए वो कार्बन क्रेडिट मांग सकेंगे! इससे शुरुआती वर्षों में कार्बन खेती को अपनाने की प्रक्रिया को जमकर बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है. इन क़वायदों से राजकोषीय प्रोत्साहन मिलेगा, साथ ही सहायक उद्योगों का विकास भी होगा. अन्य पोषक तत्वों (जैसे नाइट्रोजन और फॉस्फोरस) के निकास यानी उन्हें अलग करने या महासागर के अम्लीकरण में कमी लाने से जुड़ी क्षमता की पहचान करने के लिए इस क़वायद को और आगे बढ़ाया जा सकता है.

एट्रिब्यूशन: नूपुर बापुली और निखिल शर्मा, “सीवीड कल्टिवेशन एज़ ए मीन्स टू रिएलाइज़ द G20 एजेंडा फॉर सस्टेनेबिलिटी,” T20 पॉलिसी ब्रीफ, मई 2023


a इसमें SDG-1 (ग़रीबी से मुक्ति), SDG-2 (भुखमरी का ख़ात्मा), SDG-8 (सम्मानजनक रोज़गार और आर्थिक वृद्धि), SDG-10 (असमानता में कमी), SDG-11 (टिकाऊ नगर और समुदाय), SDG-12 (ज़िम्मेदार उपभोग और उत्पादन), SDG-13 (जलवायु कार्रवाई), और SDG-14 (पानी के नीचे जीवन) शामिल हैं.

b इस कड़ी में तंज़ानिया एक अहम उदाहरण है. ख़ासतौर से ज़ंज़ीबार द्वीप 1930 के दशक से ही समुद्री शैवाल की खेती करता आ रहा है. वहां की सरकार द्वारा नीतिगत मोर्चे पर दिए गए तमाम दख़लों से ज़ंज़ीबारी समुदाय के जीवनस्तरों में सुधार आया है. साथ ही किसानों को आर्थिक फ़ायदा भी पहुंचा है. समुद्री शैवाल की खेती के विकास से महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता मिली है, जिससे महिला सशक्तिकरण में काफ़ी योगदान हुआ है. ज़्यादा ब्योरे के लिए देखें फ्लॉवर ई. मसुया, “द इम्पैक्ट ऑफ सीवीड फार्मिंग ऑन द सोसियोइकोनॉमिक स्टेटस ऑफ कोस्टल कम्युनिटीज़ ऑफ ज़ंज़ीबार, तंज़ानिया,” वर्ल्ड एक्वॉकल्चर, (06 सितंबर 2011); जॉर्जिया डि जोंग क्लेंडर्ड आदि, “एडेप्शन ऑफ सीवीड फार्मर्स इन ज़ंज़ीबार टू द इम्पैक्ट्स ऑफ क्लाइमेट चेंज,” अफ्रीकन हैंडबुक ऑफ क्लाइमेट चेंज एडेप्टेशन, (21 मई 2021). भारत के मामले में.

[i] United Nations (UN), “Global Issues,” UN, Accessed 25 March 2023.

[ii] Organization for Economic Co-operation and Development and United Nations, “G20 Contribution to the 2030 Agenda,” OECD and UN, 2019.

[iii] Douglas Broom, “Only 15% of the World’s Coastlines remain in their Natural state,” World Economic Forum, 2022.

[iv] The Intergovernmental Panel on Climate Change, “Synthesis Report of the IPCC Sixth Assessment Report (AR6),” IPCC, Accessed 8 May 2023.

[v]  Ministry of Science & Technology, Government of India.

[vi] Food and Agriculture Organization, “Introduction to Commercial Seaweeds,” FAO, Accessed 31 March 2023.

[vii] “Introduction to Commercial Seaweeds”

[viii] National Ocean Services, National Oceanic and Atmospheric Administration, US Department of Commerce, Government of the United States of America, “What is Seaweed?,” 2023.

[ix] Sea Vegetables: The Science of Seaweeds,” The University of Maine, Cooperative Extension, Accessed 22 May 2023.

[x] Silvia Lomartire et al, “An Overview of the Alternative Use of Seaweeds to Produce Safe and Sustainable Bio-Packaging, MDPI (18 March 2022).

[xi] Diane Nelson, “Feeding Cattle Seaweed Reduces their Greenhouse Gas Emissions 82 Percent, College of Agricultural and Environmental Science, UC Davis, March 17, 2021.

[xii] P. V. Subba Rao and Chellaiah Periyasamy, “Biodiversity, Conservation and Medicinal uses of  Seaweeds: The glimpses, Springer-Link, (4 April 2020).

[xiii] Karuna Nagula et al., “Biofuels and bioproducts from seaweeds, ScienceDirect, (2022).

[xiv] Leonel Pereira, “Seaweeds as Source of Bioactive Substances and Skin Care Therapy—Cosmeceuticals, Algotheraphy, and Thalassotherapy, MDPI, November 22, 2018.

[xv] Carlos M Duarte et al., “Can Seaweed Farming Play a role in Climate Change Mitigation and Adaptation?, Frontiers in Marine Science, April 12, 2017.

[xvi] Phoebe Recine, et al., “A case for seaweed aquaculture inclusion in U.S. nutrient pollution management, ScienceDirect, July 2021.

[xvii] Wouter Visch et al., “Environmental impact of kelp (Saccharina latissima) aquaculture, ScienceDirect, June 2020.

[xviii] Xi Xiao et al., “Seaweed farms provide refugia from ocean acidification, ScienceDirect, July 1, 2021.

[xix] NOAA Fisheries, National Oceanic and Atmospheric Administration, US Department of Commerce, Government of the United States of America, “Seaweed Aquaculture,” 2020.

[xx] N L Bindoff et al., “Changing Ocean, Marine Ecosystems, and Dependent Communities,” IPCC Special Report on the Ocean and Cryosphere in a Changing Climate, Accessed 3 April 2023.

[xxi] Rosamond Hutt and Timothy Conley, “What is the G20?, We Forum, 2022.

[xxii] OECD Work in Support of a Sustainable Ocean,” OECD, 2022.

[xxiii] “G20 Agenda,” We Forum, Accessed 1 April 2023, https://www.weforum.org/ocean-20/g20-agenda

[xxiv] “G20 Contribution to the 2030 Agenda”

[xxv] G20 Action Plan on the 2030 Agenda for Sustainable Development,” G20 2016 China, Accessed 28 March 2023.

[xxvi] Alex Brown, “Seaweed Farming has vast Potential- (But good luck getting a permit), Stateline, March 7, 2022.

[xxvii] Department of Fisheries, Government of India, “Seaweed Cultivation”.

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