Published on Apr 25, 2024 Commentaries 0 Hours ago

अब वक़्त आ गया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिहाज से इस पर तत्काल ध्यान दिया जाए. 

भारत में दुर्लभ बीमारियां: अब भी कोसों दूर है सही ‘इलाज’

इस साल जनवरी में दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को 31 मार्च 2021 तक दुर्लभ बीमारियों के बारे में नई राष्ट्रीय नीति को अंतिम रूप देकर उसे लागू करने को कहा था. हालांकि, वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में ऐसी किसी योजना के लिए कोई आवंटन नहीं किया गया है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, दुर्लभ रोग स्वास्थ्य से जुड़े वैसे हालात हैं जिनका प्रसार दूसरी बीमारियों के मुक़ाबले काफ़ी कम देखने को मिलता है. सरसरी तौर पर ये हाशिए का मुद्दा लग सकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसी बीमारियों से सिर्फ़ कुछ मुट्ठीभर लोग ही ग्रसित होते हैं. हालांकि आंकड़ों के लिहाज से देखें तो दुनिया भर में 7 हज़ार से ज़्यादा किस्म की बीमारियों को दुर्लभ रोगों की श्रेणी में रखा गया है. विश्व के करीब 35 करोड़ लोग इन बीमारियों की चपेट में हैं. इनमें से करीब 20 प्रतिशत मरीज़ अकेले  हिंदुस्तान में हैं. 

आंकड़ों के लिहाज से देखें तो दुनिया भर में 7 हज़ार से ज़्यादा किस्म की बीमारियों को दुर्लभ रोगों की श्रेणी में रखा गया है. विश्व के करीब 35 करोड़ लोग इन बीमारियों की चपेट में हैं. इनमें से करीब 20 प्रतिशत मरीज़ अकेले  हिंदुस्तान में हैं. 

आंकड़ों से स्पष्ट है कि दुनियाभर में दुर्लभ रोगों से पीड़ित मरीज़ों की कुल संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका की आबादी से भी ज़्यादा है. इसके बावजूद इन रोगों की ठीक से पहचान करने और उनका उचित इलाज करने को लेकर गंभीर प्रयासों का अभाव दिखाई देता है. दुर्लभ बीमारियों से ग्रस्त लोगों की तादाद दूसरी बीमारियों के मुक़ाबले काफ़ी कम है. दवाइयों और इलाज से जुड़ी सुविधाओं के विकास के रास्ते की मुख्य अड़चन भी यही है. मानव स्वास्थ्य से जुड़ी ऐसी अजीबोग़रीब समस्याओं के लिए अक्सर “लावारिस रोग” जैसी शब्दावली का प्रयोग किया जाता है. ग़ौरतलब है कि करीब 7 हज़ार दुर्लभ बीमारियों में से 5 फ़ीसदी से कम के इलाज मौजूद हैं. हालांकि इनमें से भी ज़्यादातर चिकित्सा प्रक्रियाएं बेहद महंगी हैं. नतीजतन कुछ मुट्ठी भर लोग ही अपना इलाज करवा पाते हैं और बाक़ियों को तो किसी भी तरह की चिकित्सा मुहैया ही नहीं हो पाती. 

मसौदा नीति ने लावारिस हालत में छोड़ा

ऐसा लगता है कि इन बीमारियों से जुड़े  “लावारिस” जैसे हालात सरकारी नीतियों के संदर्भ में भी लागू होते हैं. दुर्लभ बीमारियों से ग्रस्त मरीज़ों के परिजनों ने 2016 में दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी. दिल्ली हाईकोर्ट ने इस पर अपना फ़ैसला सुनाया. इसके बाद  भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने इन बीमारियों के संबंध में राष्ट्रीय नीति 2020 का मसौदा प्रकाशित किया. मसौदे पर सभी संबंधित पक्षों से सुझाव मांगे गए. हालांकि, इस नीति में केंद्र सरकार ने अपनी ओर से बेहद सतही रुख़ अपनाते हुए स्वास्थ्य को राज्यों का विषय बताया. 

मसौदा नीति की तैयारियों के दौरान इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने 2017 में एक राष्ट्रीय बही-खाता बनाने की घोषणा की. इसमें भारत में दिखाई देने वाली दुर्लभ और अति-दुर्लभ बीमारियों को शामिल किए जाने की योजना थी. बहरहाल, देश भर से आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया अब भी शुरू नहीं हो सकी है. नतीजतन दुर्लभ बीमारियों के संबंध में नीति-निर्माण में मदद के लिए सार्वजनिक तौर पर बेहद कम जानकारी उपलब्ध है. 

करीब 7 हज़ार दुर्लभ बीमारियों में से 5 फ़ीसदी से कम के इलाज मौजूद हैं. हालांकि इनमें से भी ज़्यादातर चिकित्सा प्रक्रियाएं बेहद महंगी हैं. नतीजतन कुछ मुट्ठी भर लोग ही अपना इलाज करवा पाते हैं और बाक़ियों को तो किसी भी तरह की चिकित्सा मुहैया ही नहीं हो पाती. 

हालांकि, आंकड़े न होने का मतलब ये नहीं है कि देश में दुर्लभ बीमारियों के मामले नहीं हैं. एक अनुमान के मुताबिक देश में करीब 7 करोड़ लोग अजीबोग़रीब बीमारियों की चपेट में हैं. ऐसे में इन रोगों के इलाज में काम आने वाली ‘लावारिस दवाएं’ ज़रूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए सरकार को सक्रिय क़दम उठाने पड़ेंगे. दुनिया भर में एक साल की उम्र तक के बच्चों की मृत्यु के 35 फ़ीसदी मामलों के पीछे इन्हीं दुर्लभ बीमारियों का हाथ होता है. असामान्य बीमारियों से ग्रस्त करीब 30 प्रतिशत बच्चे अपना पांचवां जन्मदिन मनाने से पहले ही काल के गाल में समा जाते हैं.  भारत में भी कमोबेश हालात ऐसे ही हैं या फिर कुछ मामलों में इससे भी बदतर हैं. बाल मृत्यु दर पर इन दुर्लभ बीमारियों के गंभीर प्रभावों के बावजूद इनसे जुड़े सरकारी मसौदे में कोई नई सोच दिखाई नहीं देती. मसलन इन  दुर्लभ बीमारियों को सरकार की महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना से जोड़ने का प्रयास मसौदे से पूरी तरह ग़ायब है.

एक अनुमान के मुताबिक देश में करीब 7 करोड़ लोग अजीबोग़रीब बीमारियों की चपेट में हैं. ऐसे में इन रोगों के इलाज में काम आने वाली ‘लावारिस दवाएं’ ज़रूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए सरकार को सक्रिय क़दम उठाने पड़ेंगे.

दुर्लभ बीमारियों से ग्रस्त किसी भी मरीज़ का सफ़र बीमारी की पहचान से शुरू होता है. अमेरिका में ऐसे मरीज़ों के लिए अपनी बीमारी का सही निदान पाने में 8 वर्षों तक का समय लग सकता है. भारत में तो ये इंतज़ार और भी लंबा होता है. इसके पीछे टेस्टिंग का अभाव और दुर्लभ बीमारियों की समझ रखने वाले विशेषज्ञों तक सीमित पहुंच जैसी वजहें शामिल हैं. इतना ही नहीं मरीज़ के जीवन की गुणवत्ता पर दुर्लभ बीमारियों के प्रभाव को लेकर भी आम समझ बेहद कम है. अगर समय रहते दुर्लभ बीमारी की पहचान कर ली जाए तो इलाज का उचित प्रबंध कर मरीज़ की जीवनरक्षा से जुड़े उपाय किए जा सकते हैं. मौजूदा वक़्त तक दुर्लभ बीमारियों की तेज़ी से और बेहतर ढंग से पहचान करने पर बहुत कम ध्यान दिया गया है. इतना ही नहीं टेस्टिंग में सुधार लाने या उसकी लागत कम करने के लिए उसपर सब्सिडी देने के भी प्रयास नहीं किए गए हैं. मसौदा नीति में दवाइयों के विकास या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले क्लीनिकल ट्रायलों में भारतीय मरीज़ों को शामिल किए जाने को लेकर कोई ख़ास पहल दिखाई नहीं देती. नीतिगत दृष्टिकोण से दुर्लभ बीमारियों से जुड़ी समस्या मरीज़ों और उनके परिवारवालों की तकलीफ़ बन कर रह गई है. ये समस्या अब भी सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी नीतियों के दायरे में नहीं आ सकी है. 

सूखा-सूखा सा जीवन रक्षा कोष 

मसौदा नीति में ये स्वीकार किया गया है कि दुर्लभ किस्म की कुछ बीमारियों के इलाज का सालाना ख़र्च 10 लाख से लेकर 1 करोड़ रु. तक हो सकता है. कई मामलों में ये इलाज आजीवन चलते और मरीज़ की उम्र के हिसाब से इनका ख़र्च बढ़ता जाता है. इलाज के ख़र्चे के अलावा कई तरह के ऊपरी ख़र्चे भी होते हैं. इनमें थेरेपी से जुड़ा ख़र्च, तीमारदारी करने वाले व्यक्ति के रोज़गार का नुक़सान, इलाज के लिए आने-जाने का ख़र्चा और मरीज़ के खान-पान की विशेष ज़रूरतें शामिल हैं. इलाज की कुल लागत में इनको भी शामिल करना ज़रूरी है. कुल मिलाकर ये ख़र्च इतना अधिक है कि दुर्लभ बीमारियों का इलाज करवा पाना एक औसत भारतीय परिवार की हैसियत के बाहर हो जाता है.

दुर्लभ बीमारियों से लड़ने के लिए केंद्र सरकार को एक मज़बूत, समग्र और प्रभावी नीति के साथ सामने आना चाहिए. दुर्लभ बीमारियों से लड़ने के लिए केंद्र सरकार को एक मज़बूत, समग्र और प्रभावी नीति के साथ सामने आना चाहिए. 

ये आंकड़े वाकई चौंकाने वाले हैं. हालांकि इसके बावजूद मसौदा नीति के एक पुराने दस्तावेज़ के मुताबिक दुर्लभ बीमारियों से लड़ने के लिए मात्र 100 करोड़ रु का आवंटन किए जाने की बात कही गई थी. इस विकराल समस्या से लड़ने में इतनी मामूली सी रकम से शायद ही कोई मदद मिल पाए. 

इस दिशा में निजी तौर पर किए जाने वाले कुछ प्रयास ज़रूर दिखाई देते हैं. इनमें फ़ाउंडेशनों की स्थापना से लेकर मरीज़ों की सहायता के लिए समूहों का निर्माण शामिल हैं. ये मरीज़ों के लिए इलाज और उनके परिवारों के लिए आर्थिक मदद जुटाने का काम करते हैं. हालांकि राष्ट्रीय कोष में पर्याप्त आवंटन के अभाव में इस तरह के प्रयास तात्कालिक और अस्थायी ही रहने वाले हैं. दुर्लभ बीमारियों से लड़ने के लिए केंद्र सरकार को एक मज़बूत, समग्र और प्रभावी नीति के साथ सामने आना चाहिए. नीति की दिशा बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए. केंद्र की नीति राज्य सरकारों को मदद पहुंचाने वाली होनी चाहिए. इनका मकसद दुर्लभ बीमारियों से ग्रस्त मरीज़ों के जीवन की गुणवत्ता सुधारना और इलाज का ख़र्च कम करना होना चाहिए. दुर्लभ बीमारियों की समस्या अक्सर पर्दे के पीछे छिपी रहती है. अब वक़्त आ गया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिहाज से इस पर तत्काल ध्यान दिया जाए. इसके लिए इससे जुड़े तमाम किरदारों, सभी सेक्टरों, तमाम इलाक़ों और अलग-अलग तरह के राजनीतिक जुड़ाव रखने वाले सभी पक्षों में आम सहमति बनाने की ज़रूरत है. 

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