Author : Harsh V. Pant

Originally Published जागरण Published on Mar 04, 2024 Commentaries 0 Hours ago

यह असल में ट्रंप के कोर वोटर्स ही हैं, जो उन्हें उम्मीदवारी की होड़ में सबसे आगे बनाए हुए हैं. इस प्रकार देखें तो यह मुद्दाविहीन चुनाव है, जो दो व्यक्तित्वों की प्रतिद्वंद्विता पर ही कहीं अधिक केंद्रित है. 

राष्ट्रपति चुनाव 2024: बाइडन बनाम ट्रंप की तस्वीर आसान नहीं चुनौती

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इस मंगलवार के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवारी पर एक प्रकार से मुहर लग जाएगी. हालांकि अब यह एक प्रकार की औपचारिकता ही है, क्योंकि मुकाबला मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच होने की पूरी स्थितियां बन गई हैं. ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी की ओर से नामांकन हासिल करने के बेहद करीब हैं. उम्मीदवारी की होड़ में उनकी पार्टी के कुछ अन्य प्रतिद्वंद्वी दावा छोड़कर ट्रंप के समर्थन में आ गए हैं. यहां तक कि एक समय कड़ी चुनौती पेश कर रहे विवेक रामास्वामी भी अब ट्रंप की उम्मीदवारी के पक्ष में आ गए हैं. ट्रंप के समक्ष अब केवल निक्की हेली ही अड़ी हुई हैं, लेकिन उनकी चुनौती खासी कमजोर है. यहां तक कि हेली अपने गृह राज्य साउथ कैरोलिना में भी ट्रंप की राह नहीं रोक पाईं. ऐसे में अमेरिकी चुनावों में संभवत: पहली बार ऐसा होने जा रहा है जब किसी मौजूदा राष्ट्रपति को चुनाव में उस प्रत्याशी का सामना करना पड़ेगा, जो पहले भी चुनावों में आमने-सामने रह चुके हों. हालांकि इन चार वर्षों में परिस्थतियां काफी कुछ बदल चुकी हैं, लेकिन दोनों का मुकाबला पिछली बार की तरह कांटे की टक्कर जैसा रहने की उम्मीद है.

ट्रंप और बाइडन की टक्कर

अमेरिकी मतदाताओं के लिए यह चुनाव कुछ अलग तरह का रहने वाला है. मतदाता दोनों ही प्रत्याशियों के व्यक्तित्व और नीतियों से भलीभांति परिचित हैं. ट्रंप अपने चिरपरिचित ढंग से बाइडन पर निजी हमले करने के साथ ही उनकी नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं. बाइडन के लिए ट्रंप की चुनौती न चार साल पहले आसान थी और न ही अब. पिछले चुनाव तो कोविड महामारी की पृष्ठभूमि में हुए थे, जिसके चलते अमेरिका में बिगड़े हालात से बाइडन की राह कुछ आसान हो गई थी, लेकिन इस बार उन्हें ऐसी कोई स्वाभाविक बढ़त मिलती नहीं दिख रही है. पिछले चुनाव में ही बाइडन की उम्र को लेकर सवाल उठ रहे थे और अब तो ट्रंप भी 77 साल के हो गए हैं. इसी पहलू को देखते हुए राबर्ट कैनेडी जूनियर जरूर स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनौती पेश करने के प्रयास में हों, लेकिन उनकी कोशिश शायद ही कोई रंग लाए. बाइडन और ट्रंप की उम्र को देखते हुए लगता है कि रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों ही राजनीतिक धड़े अतीत की खिड़की में कैद होकर रह गए हैं. ऐसे में यदि अमेरिकी मतदाताओं के उत्साह में कोई कमी दिखाई दे तो उस पर हैरत नहीं होनी चाहिए. यह प्राइमरी चुनाव में नजर भी आया है. प्राइमरी में 40 प्रतिशत स्वतंत्र रिपब्लिकनों ने ट्रंप के पक्ष में मतदान नहीं किया. यह असल में ट्रंप के कोर वोटर्स ही हैं, जो उन्हें उम्मीदवारी की होड़ में सबसे आगे बनाए हुए हैं. इस प्रकार देखें तो यह मुद्दाविहीन चुनाव है, जो दो व्यक्तित्वों की प्रतिद्वंद्विता पर ही कहीं अधिक केंद्रित है. 

अमेरिकी चुनावों में संभवत: पहली बार ऐसा होने जा रहा है जब किसी मौजूदा राष्ट्रपति को चुनाव में उस प्रत्याशी का सामना करना पड़ेगा, जो पहले भी चुनावों में आमने-सामने रह चुके हों.

ट्रंप कह रहे हैं कि दोबारा सत्ता में न आने के चलते ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का उनका नारा अधूरा ही रह गया. ऐसे में वह मतदाताओं से एक और मौका देने की अपील कर रहे हैं. वह बाइडन की असफलताएं गिनवा रहे हैं. इसके बावजूद फिलहाल अमेरिका की घरेलू राजनीति में कोई बड़ा मुद्दा नहीं दिख रहा है. अमेरिका की आर्थिक वृद्धि दर इस समय अपेक्षाकृत बेहतर है. मुद्रास्फीति से लेकर बेरोजगारी के आंकड़े भी कुछ राहत देने वाले हैं. एक प्रकार से बाइडन घरेलू मोर्चे पर स्थायित्व लाने में सफल रहे हैं, लेकिन वह अपनी सफलता को लेकर सही नैरेटिव नहीं गढ़ पा रहे हैं. जबकि ट्रंप अपनी बातों से बाइडन को घेरने में सफल होते दिख रहे हैं. सीधे शब्दों में कहें तो बाइडन जहां अपनी सफलता का संदेश देने में भी सफल नहीं हो पा रहे, वहीं ट्रंप उनकी सफलता को भी असफलता के रूप में पेश करने में सक्षम दिख रहे हैं. 

अंतरराष्ट्रीय पटल पर अमेरिका की किरकिरी

चूंकि घरेलू स्तर पर कोई मुद्दा प्रभावित करता नहीं दिख रहा तो इस चुनाव का फैसला संभवत: विदेश नीति से जुड़े निर्णय ही करेंगे. बाइडन प्रशासन में अमेरिका अफगानिस्तान से बाहर तो निकल आया, लेकिन उसकी एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी. जिन परिस्थितियों में अमेरिकी फौज की अफगानिस्तान से वापसी हुई उसने अंतरराष्ट्रीय पटल पर अमेरिका की बहुत किरकिरी कराई. अमेरिका जहां अफगानिस्तान से निकला तो वह एक प्रकार से यूक्रेन में फंस गया. इजरायल-हमास युद्ध के बाद से उसे लाल सागर में भी तगड़ी चुनौती मिल रही है. पश्चिम एशिया में भी उसके लिए समीकरण कुछ गड़बड़ हो गए हैं. चीन के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता और तनाव में कोई कमी नहीं आई है. हमास के खिलाफ संघर्ष में बाइडन ने जिस प्रकार इजरायल का समर्थन किया है, उससे उनकी पार्टी का ही एक वर्ग खासतौर से युवा नाराज हैं. ट्रंप इस आक्रोश को अपने पक्ष में भुना सकते हैं. इस प्रकार देखें तो अमेरिकी राजनीति में एक दिलचस्प रुझान दिख रहा है. वह यह कि रूढ़िवादी मानी जाने वाली रिपब्लिकन पार्टी के नेता का रवैया उदारवादी है तो उदारवादी दृष्टिकोण के लिए जानी जाने वाली डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति बाइडन का रुख-रवैया कुछ रूढ़िवादी. 

ट्रंप रणनीतिक मोर्चे पर भारत की सहायता के लिए सक्रिय रहे. वहीं, बाइडन प्रशासन के दौरान भी कई स्तरों पर भारत-अमेरिका रिश्ते निरंतर प्रगाढ़ होते गए. 

ट्रंप के उत्साहित समर्थकों का यह भी मानना है कि पुतिन के साथ अपने संबंधों के चलते वह यूक्रेन संकट का भी कोई स्वीकार्य हल निकाल सकते हैं. हालांकि ट्रंप की अस्थिर प्रवृत्ति उनके प्रति कुछ संदेह भी बढ़ाती है. हाल में नाटो को लेकर उनके बयान से अमेरिका के पारंपरिक सहयोगियों में सही संदेश नहीं गया. ट्रंप का यह रवैया जापान और ताइवान जैसे पारंपरिक अमेरिकी सहयोगियों को परेशान कर सकता है. भारत के संदर्भ में देखें तो ट्रंप का पिछला राष्ट्रपति कार्यकाल भारत के लिए मिला-जुला रहा. उनके शासन में भारत के साथ अमेरिका का व्यापार समझौता अपेक्षा के अनुरूप सिरे नहीं चढ़ पाया और उन्होंने भारत पर कुछ बंदिशें भी लगाईं, लेकिन उन्होंने चीन के खिलाफ खुला आक्रामक रवैया भी अपनाया. यह भारत के लिए मददगार साबित हुआ. प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी उनके आत्मीय रिश्ते रहे. ट्रंप रणनीतिक मोर्चे पर भारत की सहायता के लिए सक्रिय रहे. वहीं, बाइडन प्रशासन के दौरान भी कई स्तरों पर भारत-अमेरिका रिश्ते निरंतर प्रगाढ़ होते गए. 


(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)   

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