प्रस्तावना
देखा जाए तो कोविड-19 महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था पर जो असर पड़ा उसके व्यापक प्रभावों को आपातकालीन उपायों के ज़रिए आंशिक तौर पर टाल दिया गया. हालांकि, जैसे-जैसे इस संकट ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को मंदी की ओर धकेला और असमानताएं तेज़ी के साथ बढ़ने लगीं, तो देशों के भीतर और देशों के बीच में व्यापक स्तर पर सरकारी और निजी ऋण जैसे नए ज़ोख़िम भी सामने आने लगे. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुमान के मुताबिक़ वैश्विक ऋण 2020 में 28 प्रतिशत प्वाइंट बढ़कर 2020 में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 256 प्रतिशत हो गया और सरकारों द्वारा बड़े पैमाने पर ऋण लेने से वैश्विक ऋण में आधे से अधिक की बढ़ोतरी हुई.[1] फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले ने वैश्विक आर्थिक परिदृश्य और अर्थव्यस्था में सुधार से जुड़ी संभावनाओं को और भी ख़राब करने का काम किया है. इसके साथ ही इस रूस-यूक्रेन युद्ध ने भी विकासशील देशों में भूख और खाद्य असुरक्षा की गंभीर चुनौतियों को सामने ला दिया है. दरअसल, वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक 2022 ने वैश्विक विकास संभावनाओं को वर्ष 2022 में 3.2 प्रतिशत और वर्ष 2023 में 2.9 प्रतिशत तक घटा दिया है, जो कि अप्रैल 2022 के पूर्वानुमान की तुलना में क्रमश: 0.4 प्रतिशत और 0.7 प्रतिशत कम है.[2] IMF ने यह भी चेतावनी दी है कि दुनिया एक और वैश्विक मंदी की दहलीज़ पर खड़ी है. [3] मौज़ूदा वैश्विक चुनौतियों के पैमाने के मद्देनज़र दुनिया को अधिक एकजुटता, नई सोच और अधिक प्रभावी अंतर्राष्ट्रीय विकास सहयोग की ज़रूरत है.
त्रिकोणीय या ट्रांएगुलर सहयोग, विकास के एक साधन के रूप में लाभ प्रदान करता है. 'त्रिकोणीय सहयोग' शब्द देखा जाए तो व्यापक रूप से उन परियोजनाओं और पहलों को संदर्भित करता है, जो विकासशील देशों में जानकारी साझा करने और विकास संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिए पारंपरिक डोनर्स और दक्षिणी देशों के तुलनात्मक एवं पारस्परिक लाभों को जोड़ने वाली होती हैं. [4] इस प्रकार के विकास सहयोग को संदर्भित करने के लिए अक्सर 'त्रिकोणीय' और 'त्रिपक्षीय' शब्दों का समान रूप से इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन Rhee (2011) इन शब्दों के बीच में अंतर करते हैं. जहां 'त्रिकोणीय विकास सहयोग' संयुक्त राष्ट्र (UN) के तत्वावधान में अक्सर 'पारंपरिक' भागीदारों द्वारा लंबे समय तक चलने वाले और साउथ-साउथ सहयोग को जारी रखने के लिए उत्तरी और बहुपक्षीय समर्थन को संदर्भित करता है. वहीं, त्रिपक्षीय विकास सहयोग, एक औपचारिक नॉर्थ-साउथ-साउथ विकास संबंध को संदर्भित करता है. [5] जबकि यह अंतर विश्लेषणात्मक रूप से बहुत उपयोगी है, लेकिन व्यवहारिकता में इन्हें अक्सर एक दूसरे की जगह पर उपयोग किया जाता है, जैसा कि यह पेपर भी करता है.
आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) त्रिकोणीय विकास साझेदारियों में तीन किरदारों या एक्टर्स का नाम देता है:
- लाभार्थी साझीदार/प्राप्तकर्ता देश: विकासशील देश जो किसी विशेष विकास समस्या का समाधान तलाशने के लिए समर्थन चाहता है.
- निर्णायक साझीदार: विकासशील देश, जिसके पास संबंधित क्षेत्र में पर्याप्त और विशेषज्ञ अनुभव है और समस्या का समाधान करने के लिए वो अपनी जानकारी, विशेषज्ञता और संसाधनों को साझा करता है.
- सहायता सुगम बनाने वाला साझीदार: विकसित देश, जो लाभार्थी और निर्णायक भागीदारों के बीच सहयोग को तकनीक़ी एवं वित्तीय मदद प्रदान करता है. [6]
यह सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है कि त्रिकोणीय साझेदारी कोई एक नया तरीक़ा नहीं है और इसका पहली बार वर्ष 1978 के ब्यूनस आयर्स प्लान ऑफ एक्शन में इसका उल्लेख किया गया था.[a] , [7] हालांकि, हाल-फिलहाल तक त्रिकोणीय साझेदारी ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में एक छोटी भूमिका निभाई है. OECD के मुताबिक़ आज दुनिया भर में 921 त्रिकोणीय परियोजनाएं चल रही हैं.[8]
फोर्डेलोन (2009), एशॉफ (2010) और पाउलो (2018) जैसे विद्वानों ने त्रिपक्षीय सहयोग में भारत की संलग्नताओं का अध्ययन किया है. भू-राजनीति इन त्रिकोणीय साझेदारियों में ख़ास तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर से जुड़ी परियोजनाओं से जुड़ी साझेदारियों में अहम भूमिका निभाती है, इस विषय पर बहुत कम लिखा गया है. यह पेपर इस कमी को पूरा करने का प्रयास करता है और उन अवसरों की पड़ताल करता है, जो त्रिकोणीय सहयोग प्रदान करता है, विशेष रूप से बुनियादी ढांचा सेक्टर में. इस पेपर के सेक्शन-1 में उन कारकों पर चर्चा की गई है, जो त्रिकोणीय सहयोग को प्रभावित करते हैं; सेक्शन-2 में ऐसी साझेदारियों में शामिल विभिन्न प्रकार की चुनौतियों की पड़ताल की गई है, सेक्शन- 3 भारत के संदर्भ में विशेष रूप से विस्तृत चर्चा की गई है, सेक्शन- 4 में त्रिकोणीय व्यवस्था के लिए भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर की उपयुक्तता की पड़ताल की गई है, इस सेक्शन में कुछ प्रमुख उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं और सेक्शन-5 त्रिपक्षीय साझेदारियों के प्रभावी रुप से कार्यान्वयन के लिए प्रमुख नीतिगत सिफ़ारिशों की रूपरेखा के बारे में बात करता है. यह पेपर सेकेंडरी लिटरेचर यानी संबंधित विषय से जुड़े विभिन्न लेखों, आलेखों, अनुसंधानों के संदर्भों पर निर्भर है, साथ ही इसमें अक्टूबर 2022 में ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ़) द्वारा आयोजित एक राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में विशेषज्ञों द्वारा साझा की गई बातों को भी समाहित किया गया है. (राउंड टेबल पर विवरण के लिए एपेंडिक्स देखें.)
I.त्रिकोणीय सहयोग क्यों?
हाइडेन (2008) के मुताबिक विकास सहयोग सिर्फ़ नीति को लेकर नहीं है, बल्कि यह राजनीति से भी संबंधित है. [9] 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में विकास के तौर-तरीक़ों के रूप में त्रिपक्षीय सहयोग के उभार को दो महत्त्वपूर्ण गतिविधियों में देखा जा सकता है. सबसे पहले, OECD की डेवलपमेंट असिस्टेंट कमेटी (DAC)[b] के दायरे में पश्चिमी सहायता की आलोचना का दौर एवं सहायता को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए समानांतर मांग. दूसरा, चीन, ब्राज़ील और भारत जैसे उभरते देशों का आर्थिक उदय, जिन्होंने आगे अपने-अपने विकास सहयोग कार्यक्रमों का विस्तार करना शुरू किया.
DAC डोनर्स को तेजी से आलोचना का सामना करना पड़ा क्योंकि उनकी सहायता प्राप्तकर्ता देशों में न तो ग़रीबी खत्म कर रही थी और न ही उन्हें आर्थिक विकास की ओर ले जा रही थी.[10] वर्ष 2005 में सहायता की प्रभावशीलता पर पेरिस डिक्लेरेशन [c] ने अंतर्राष्ट्रीय विकास के बारे में सोच को बदले जाने की बात कही और सहायता को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए निम्न पांच सिद्धांत निर्धारित किए:
- ऑनरशिप: विकासशील देशों को अपना स्वयं का विकास एजेंडा निर्धारित करना चाहिए, अपने संस्थानों में सुधार करना चाहिए और भ्रष्टाचार से निपटना चाहिए.
- संम्मिलन: मदद देने वाले देशों और संगठनों को इन रणनीतियों के साथ अपना समर्थन संरेखित करना चाहिए और स्थानीय प्रणालियों का उपयोग करना चाहिए.
- अनुकूलीकरण: सहायता देने वाले देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को दोहराव से बचने के लिए अपनी गतिविधियों का समन्वय करना चाहिए, प्रक्रियाओं को सरल बनाना चाहिए, साथ ही जानकारी साझा करनी चाहिए.
- नतीज़ों के लिए प्रबंधन: विकासशील देशों और मददगारों को ज़मीनी स्तर पर नतीज़ों को हासिल करने और उन्हें मापने पर ध्यान देना चाहिए.
- पारस्परिक जवाबदेही: मदद करने वाले देश और विकासशील देश दोनों ही साझेदारी परियोजनाओं के विकास परिणामों के प्रति जवाबदेह हैं. [11]
कुछ वर्षों के बाद साल 2008 में अकरा एजेंडा फॉर एक्शन [d] ने विकास से जुड़े विभिन्न किरदारों के बीच नज़दीकी साझेदारी के महत्त्व को मान्यता दी और व्यापक स्तर पर सहायता प्रभाव के लिए त्रिपक्षीय सहयोग वाले विकास का आह्वान किया. [12] बोगोटा स्टेटमेंट [e] और वर्ष 2010 की संयुक्त राष्ट्र महासचिव की रिपोर्ट जैसे नीतिगत दस्तावेज़ों ने भी त्रिकोणीय साझेदारियों के महत्त्व पर ज़ोर दिया है. बहुपक्षीय स्तर पर, यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम (UNDP) की स्पेशल यूनिट और UNECOSOC का डेवलपमेंट कोऑपरेशन फोरम त्रिकोणीय साझेदारियों को बढ़ावा देता है. BAPA+40 [f] आउटकम डॉक्युमेंट के आर्टिकल 28 के मुताबिक़ त्रिपक्षीय सहयोग सभी भागीदारों के बीच पारस्परिक विश्वास निर्मित करता है और प्राप्तकर्ता देशों के फायदे के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमताओं को जोड़ने का काम करता है. [13]
इतना ही नहीं, OECD के डेवलपमेंट कोऑपरेशन डायरेक्टरेट के निदेशक जॉर्ज मोरेरा डि सिल्वा ने इस बात पर बल दिया है कि "नॉर्थ और साउथ के लीडर्स को अपने संबंधित मॉडलों के बीच तालमेल और समानताओं को बनाने के बारे में ज़रूर विचार करना चाहिए. अपनी विशेषता की वजह से त्रिकोणीय सहयोग एक परिवर्तनकारी माध्यम है, जो तेज़ी से बदलती विकास चुनौतियों के लिए नवीन और लचीले समाधान सामने लाता है. इस तरह से त्रिकोणीय सहयोग एक ऐसा तंत्र साबित हुआ है, जो प्राइवेट सेक्टर, सिविल सोसाइटी, लोक कल्याण, शिक्षा जगत और सब-नेशनल किरदारों समेत विभिन्न प्रकार के विकास से जुड़े हितधारकों को शामिल करता है.” [14]
नए डोनर्स का उभार
विश्लेषकों का तर्क है कि भारत, ब्राज़ील और सबसे अहम तौर पर चीन जैसे गैर-डीएसी डोनर्स के उदय, जिन्हें 'उभरते डोनर्स', 'नए डोनर्स', या 'दक्षिणी डोनर्स' के रूप में जाना जाता है, का कहीं न कहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहायता उपलब्ध कराने वाली संरचना पर गहरा असर पड़ा है. 2000 के दशक की शुरुआत तक देखा जाए, तो OECD देश अंतर्राष्ट्रीय विकास परिदृश्य में अकेले डोनर्स नहीं बचे थे. गैर-डीएसी दानकर्ताओं, वो भी ख़ास तौर पर चीन के उभर कर सामने आने के बाद तो ऐसा कतई नहीं था, ज़ाहिर है कि चीन ने 2000 के दशक में नाटकीय रूप से अपने विकास सहयोग कार्यक्रम का विस्तार किया. [15]
मॉडस्ले (2015) के मुताबिक़ साउथ 'अनुशासनात्मक विषय' है और नॉर्थ 'उदार दाता' है, इस धारणा को दक्षिणी डोनर्स के उभार के साथ चुनौती दी गई थी.[16] शुरुआत में, पश्चिमी स्कॉलर्स एवं टिप्पणीकारों ने गैर-डीएसी विकास अभिनेताओं के बढ़ते प्रभाव और विकास सहयोग को लेकर उनके नज़रिए की आलोचना की. हालांकि, आख़िर में यह स्पष्ट हो गया कि OECD देश विकासशील देशों को बराबरी का दर्ज़ा दिए बगैर आगे नहीं बढ़ सकते. [17] कुछ विशेषज्ञों का दावा है कि गैर-डीएसी डोनर्स द्वारा वर्षों के योगदान के बावज़ूद, डीएसी डोनर्स ने उनके प्रयासों को नज़रंदाज किया. चीन के विकास सहयोग कार्यक्रम के तीव्र गति से विस्तार ने DAC डोनर्स को उलझन में डाल दिया, क्योंकि उन विकासशील देशों में इन डोनर्स के लाभ का दौर ख़त्म हो चुका था, जिनकी अब चीनी फाइनेंस तक पहुंच बन गई थी. [18] , [19] इसके अतिरिक्त, मॉडस्ले का एक तर्क यह भी है कि डीएसी के डोनर्स ने शुरूआत में यह उम्मीद की थी कि दक्षिणी डोनर्स द्वारा पश्चिमी मानदंडों और प्रथाओं को अपनाया जाएगा. हालांकि, मदद प्रभावशीलता पर वर्ष 2011 के हाई लेवल फोरम में OECD-DAC डोनर्स को ब्राज़ील, भारत और चीन को बातचीत की टेबल पर आने के लिए सहमत करना पड़ा, इतना ही नहीं, ये डोनर्स वैश्विक समझौते के लिए इन देशों को तमाम रियायतें देने को भी तैयार थे. [20]
दक्षिणी डोनर्स ने उन्हें साझा लक्ष्यों और दायित्वों में बांधने की कोशिशों का व्यापक स्तर पर प्रतिरोध किया और अधिकांश प्राप्तकर्ता देशों ने दक्षिणी देशों से होने वाली विकास साझेदारी का स्वागत किया है. कई पश्चिमी डोनर्स के साथ साझेदारी के उलट भारत, ब्राज़ील और चीन जैसे देशों के साथ औपनिवेशिक बोझ नहीं था, जिससे साउथ-साउथ सहयोग वैश्वीकरण की एक व्यवहार्य विशेषता बन गया, जहां विकासशील देशों को बराबरी का भागीदार माना जाता था, न कि पश्चिम से दान प्राप्त करने वाले देश के रूप में. इन देशों ने पारंपरिक डोनर्स द्वारा समर्थित तानाशाही वाले दाता-प्राप्तकर्ता मॉडल को चुनौती दी और पारस्परिक लाभ एवं "नो-स्ट्रिंग्स" यानी बिना किसी शर्त और संप्रभुता का सम्मान करने वाले मांग द्वारा संचालित विकास पर ज़ोर दिया. दक्षिणी विकास भागीदारों से प्रतिस्पर्धा शुरू में टकराव की वजह बनी, लेकिन इसने नीतिगत अनुकूलता एवं आगे बढ़ने के लिए भी जगह बनाई. [21]
मॉडस्ले (2015) का कहना है कि कई DAC देश और अंतर्राष्ट्रीय विकास संस्थान अब दक्षिणी देशों के साथ सहयोग करने, साथ मिलकर सीखने और भागीदार बनने की कोशिश कर रहे हैं. [22] दूसरे शब्दों में, दक्षिणी डोनर्स पर DAC को जिस प्रकार से पहले संदेह था, वह अब खुलेपन और भागीदार की इच्छा में बदल चुका है. इसलिए, नॉर्थ और साउथ के बीच एक 'मांग-संचालित' साझेदारी के विचार को मज़बूत करते हुए, त्रिकोणीय साझेदारियां अधिक एकजुटता, पारस्परिकता और संप्रभुता के प्रति सम्मान का संचार कर सकती हैं, जिसकी पश्चिम के नेतृत्व वाले विकास सहायता के पारंपरिक मॉडल में नितांत कमी थी.
द चाइना फैक्टर
वर्तमान दक्षिणी डोनर्स में चीन का एक विशेष स्थान है क्योंकि अन्य कोई भी देश उसकी वित्तीय और सैन्य क्षमता के सामने नहीं टिकता है और इस प्रकार से देखा जाए तो वास्तविकता में चीन के अलावा कोई और देश सहायता के एक बड़े स्रोतों के रूप में DAC डोनर्स को उनकी मौज़ूदा स्थिति से अलग करने का भय पैदा नहीं करता है. अंतर्राष्ट्रीय इंफ्रास्ट्रक्चर मार्केट में चीन के प्रभुत्व ने पश्चिमी देशों को हतोत्साहित कर दिया है क्योंकि चीन का इंफ्रास्ट्रक्चर लेंडिंग प्रोग्राम वैश्विक रणनीतिक ताक़त को अपने पक्ष में मोड़ने में अहम भूमिका निभाता है. पिछले दो दशकों में चीन द्वारा वित्तपोषित इंफ्रास्ट्रक्चर और उसके फ्लैगशिप बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के अंतर्गत बुनियादी ढांचे का नियोजित नेटवर्क अभूतपूर्व रहा है. ये परियोजनाएं ऐसे समय में आ रही हैं, जब पश्चिम वैश्विक बुनियादी ढांचा परिदृश्य से काफ़ी हद तक गायब है. बतैनेह, बेनन और फुकुयामा (2018) के मुताबिक़ पश्चिमी संस्थानों ने चीन को इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में नेतृत्व सौंप दिया है. इसके पीछे वजह यह है कि इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं में ज़ोख़िम ज़्यादा होता है और इनमें पर्यावरण एवं सामाजिक सुरक्षा उपायों को लेकर भी बहुत अड़ंगेबाज़ी होती है, जिसके कारण इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े प्रोजेक्ट्स के लिए ऋण देना लगभग असंभव हो गया है. जबकि दूसरी तरफ चीन ने आम तौर पर बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं से होने वाले लाभों को बढ़ा-चढ़ाकर कर आंका है और वह इसके लिए ज़ोख़िम उठाने से भी नहीं चूकता है. [23]
अफ्रीका और भारत-प्रशांत क्षेत्र में विशेष रूप से बढ़ती चीनी मौज़ूदगी को लेकर चिंताएं पश्चिम और भारत के बीच त्रिकोणीय साझेदारी में दिलचस्पी जगा रही हैं. ओआरएफ़ की गोलमेज परिचर्चा में शामिल एक विशेषज्ञ के मुताबिक़ [g] “हमें त्रिपक्षवाद की ज़रूरत है क्योंकि हमें चीन और उसके वैल्यू सिस्टम का मुक़ाबला करने की आवश्यकता है. कोई भी देश इसे अकेले नहीं कर सकता है, इसलिए हमें ऐसा करने के लिए एक साथ आने की ज़रूरत है.” [24] अफ्रीका और भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीनी दबदबे का सामना करने के लिए त्रिपक्षवाद एक महत्त्वपूर्ण तरीक़ा है, ज़ाहिर है कि ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, जहां चीन का इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में दबदबा बना हुआ है.
कुछ विशेषज्ञों ने पश्चिम और भारत के बीच व्यापक स्तर पर साझेदारी के लिए भी तर्क दिया है. उदाहरण के लिए, मॉडस्ले (2015) ने माइक्रोफाइनेंस, झुग्गी-झोपड़ी वाले क्षेत्र के उन्नयन और कम लागत वाली दवाओं के बड़े पैमाने पर प्रावधान जैसे क्षेत्रों में भारत के सकारात्मक योगदान को देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय विकास में भारत द्वारा निभाई जा सकने वाली भूमिका की अनदेखी करने के लिए DAC डोनर्स की आलोचना की है. [25] इसी प्रकार से वैसबैक (2022) का मानना है कि अफ्रीका और भारत के साथ यूरोप की त्रिकोणीय साझेदारी यूरोप को दोनों की डेमोग्राफिक ताक़त से एक बहुकेंद्रित विश्व के निर्माण की दिशा में लाभान्वित करने में मदद करेगी. ज़ाहिर है कि यह चीन और अमेरिका के नेतृत्व में दो ध्रुवों वाली दुनिया के विपरीत है.
त्रिपक्षीय साझेदारी पर भारत की स्थिति (सेक्शन 4 में इस पर विस्तार से चर्चा की गई है) में भी हाल के वर्षों में बदलाव आया है और अफ्रीका एवं भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभुत्व का सामना करने के लिए भारत कुछ डीएसी देशों के साथ साझेदारी करने के लिए अधिक इच्छुक है. पाउलो (2018) ने भी इसी तरह की बातों की चर्चा की है. उनका तर्क है कि चीन की वैश्विक भागीदारी के बारे में भारत की नकारात्मक धारणाएं धीरे-धीरे पारंपरिक डोनर्स की भारत की पिछली आलोचना की जगह ले रही हैं. [26] साथ ही साथ कई पारंपरिक डोनर देश अब चीन को संतुलित करने के लिए भारत के साथ काम करने के लिए तैयार हैं, विशेष तौर पर इंडो-पैसिफिक रीजन में.
II.त्रिकोणीय (ट्राएंगुलर) सहयोग के फायदे और विशेषताएं
नॉर्थ-साउथ और साउथ-साउथ सहयोग की सबसे अच्छी विशेषताओं को जोड़ना
त्रिकोणीय सहयोग सहायता प्रदान करने का एक प्रभावी साधन हो सकता है क्योंकि यह पारंपरिक DAC डोनर्स और दक्षिणी डोनर्स दोनों के तुलनात्मक लाभों को जोड़ने का कार्य करता है. अत्यधिक महत्त्वपूर्ण यानी मध्यस्थ या धुरी की तौर पर कार्य करने वाले देशों और लाभ पाने वाले देशों में विकास चुनौतियों के बीच समानता होती है, इस वजह से ये महत्त्वपूर्ण देश लाभार्थी देशों की ज़रूरतों के मुताबिक़ अपनी विशेषज्ञता का योगदान कर सकते हैं. विकसित देशों की तुलना में इन महत्त्वपूर्ण देशों के विशेषज्ञों, सेवाओं और प्रौद्योगिकियों की लागत कम है और इस वजह से इन देशों के साथ त्रिकोणीय साझेदारी भी लागत प्रभावी यानी इसकी लागत भी कम होने की संभावना है. इसके अलावा, विभिन्न साझीदारों के साथ काम करने से न केवल विकास सहयोग समृद्ध हो सकता है, बल्कि विकास चुनौतियों के समाधान को मिलकर तलाशने में भी बढ़ोतरी हो सकती है.
सतत विकास लक्ष्यों को लेकर योगदान
त्रिकोणीय साझेदारियां, कम से कम सैद्धांतिक तौर पर बराबरी वालों के बीच सहयोग का एक तौर-तरीक़ा स्थापित करने की कोशिश करती हैं. साथ ही त्रिकोणीय साझेदारियां जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण के पतन, ग़रीबी और जलवायु-लचीले इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी की सबसे अधिक दबाव डालने वाली समकालीन चुनौतियों का समाधान प्रदान करना चाहती हैं. बदले में, इन क्षेत्रों में सकारात्मक परिणाम सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में मददगार साबित हो सकते हैं, साथ ही वैश्विक लक्ष्यों की प्राप्ति में भी सहायक हो सकते हैं, जिन्हें कोविड-19 महामारी और यूक्रेन-रूस युद्ध के कारण गंभीर झटका लगा है. ब्यूनस आयर्स में वर्ष 2019 में आयोजित साउथ-साउथ सहयोग (BAPA +40) पर दूसरे संयुक्त राष्ट्र उच्च-स्तरीय सम्मेलन के दौरान प्रतिभागियों ने दोहराया कि त्रिपक्षीय सहयोग सतत विकास एजेंडे को हासिल करने में योगदान देता है. SDG के बहुआयामी और क्रॉस-कटिंग यानी परंपरागत रूप से अलग या स्वतंत्र हितों को जोड़ने की प्रकृति के मद्देनज़र त्रिकोणीय सहयोग का बहुमुखी मॉडल उनकी आवश्यकताओं को अच्छी तरह से पूरा करता है.[27] एजेंडा 2030 को प्राप्त करने के लिए 4 ट्रिलियन अमेरिका डॉलर से अधिक के वार्षिक राजकोषीय अंतर के साथ,[28] त्रिकोणीय साझेदारियां फंडिंग के स्रोतों का विस्तार करके और SDG पर प्रगति करके कई संकटों का समाधान तलाशने के लिए बेहद प्रासंगिक हो गई हैं. [29]
अधिक कुशल और प्रभावी डेवलपमेंट डिलीवरी
ओआरएफ़ के राउंड टेबल सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले विशेषज्ञों ने इस पर सहमति जताई कि बहु-हितधारक दृष्टिकोण के रूप में त्रिकोणीय सहयोग, संसाधन-पूलिंग, सह-निर्माण और सहायता-प्रभावशीलता जैसे फायदों को हासिल करने का काम करता है. ऐसी साझेदारियां कम लागत वाले विकास समाधान भी प्रदान करती हैं, जो बेहतर और अधिक कुशल विकास हासिल करने में योगदान करते हैं. [30]
विकास सहयोग के प्रदाताओं के रूप में विकासशील देशों की क्षमता का निर्माण करना
भारत जैसे कुछ विकासशील देशों के पास विकास सहयोग में दशकों का अनुभव हो सकता है, लेकिन उनके विकास बजट का आकार और उनके विकास कार्यक्रमों का पैमाना हाल के वर्षों में ही तेज़ी के साथ बढ़ा है. डीएसी डोनर्स के साथ काम करके विकासशील देश अपनी क्षमता का निर्माण करते हुए कुछ सबसे अच्छी प्रथाओं को सीख सकते हैं, जिससे उन्हें विकास सहयोग कार्यक्रमों की डिलीवरी सुधारने में सहायता मिलती है. पारंपरिक डोनर्स के साथ कार्य करना विकासशील देशों में मानव संसाधन के विकास और प्रशासनिक क्षमताओं की बढ़ोतरी में भी योगदान दे सकता है क्योंकि अधिक विकासशील देश विकास सहयोग प्रदान करने वाले की भूमिका निभाते हैं.
डीएसी डोनर्स और दक्षिणी विकास एक्टर्स के बीच संबंधों में मज़बूती
त्रिकोणीय साझेदारियां डीएसी डोनर्स, साउथ-साउथ सहयोग प्रदान करने वाले देशों और प्राप्तकर्ता देशों के बीच प्रगाढ़ एवं नज़दीकी संबंध बनाने में योगदान दे सकती हैं. विकास परियोजनाओं पर एक साथ काम करने से क्षेत्रीय एकजुटता में बढ़ोतरी हो सकती है.
III.त्रिकोणीय साझेदारियों के समक्ष चुनौतियां
"इच्छाओं के तिहरे संयोग" की ज़रूरत
त्रिकोणीय साझेदारी तभी सफल हो सकती है, जब तीनों भागीदार देश किसी विकास परियोजना पर काम करने के लिए सहमत हों. हालांकि, इसे हासिल करना अक्सर मुश्किल होता है क्योंकि हर देश की अलग-अलग प्राथमिकताएं होती हैं, अलग-अलग सेक्टर होते हैं, जिनको लेकर वे कार्य करना चाहते हैं.
कार्यान्वयन में होने वाली देरी
ओआरएफ़ के गोलमेज सम्मेलन में ज़्यादातर प्रतिभागियों ने इस पर अपनी सहमति जताई कि त्रिपक्षीय परियोजनाओं को लागू करना मुश्किल है, साथ ही तीन भागीदार देशों की नौकरशाही के तौर-तरीक़ों में अंतर के कारण विकास परियोजनाओं में अक्सर देरी होती है.[31] अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि भागीदार देशों के बीच समन्वय की कमी त्रिपक्षीय प्रारूप में विकास परियोजनाओं के सफल कार्यान्वयन में अवरोध पैदा करती है. [32] , [33]
ख़रीद नियमों, वित्तीय फ्रेमवर्क और क़ानूनी ढांचे पर स्पष्टता/सहमति का अभाव
ओआरएफ़ की चर्चा में भाग लेने वालों ने इस बात को साझा किया कि ख़रीद नियमों, वित्तीय संरचनाओं और क़ानूनी फ्रेमवर्क पर स्पष्टता की कमी या असहमति त्रिकोणीय साझेदारियों में रुकावटें पैदा करती है. यह अवलोकन मौज़ूदा लिटरेचर में भी किया गया है. उदाहरण के लिए फोरडेलोन (2009) के मुताबिक़ विभिन्न देशों के संस्थानों में अलग-अलत तरह की प्रक्रियाएं अक्सर भागीदारों के लिए समान मानकों और प्रक्रियाओं पर सहमति बनाने को जटिल बना देती हैं. [34]
भारत इसका एक सटीक उदाहरण है. एक विकासशील देश के रूप में भारत अन्य देशों के साथ अपनी विकास साझेदारी में पारस्परिक लाभ के सिद्धांत पर बल देता है. भारत का ऋण कार्यक्रम, [h] जो भारत के विकास सहयोग का एक स्तंभ है, एक एंट्री टूल और भारतीय कंपनियों के लिए बाज़ार विविधीकरण के साधन के रूप में भी कार्य करता है. भारतीय लाइन ऑफ क्रेडिट कार्यक्रम के अंतर्गत 75 प्रतिशत इनपुट यानी परियोजना में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों को भारत से ख़रीदा जाता है और भारतीय कंपनियां परियोजनाओं को पूरा करने का कार्य करती हैं. त्रिकोणीय परियोजना में भाग लेने वाले अन्य देश इस भारतीय प्रणाली से असहमत होते हैं और वे परियोजना निर्माण में अपनी कंपनियों को प्राथमिकता देना चाहते हैं. ओआरएफ़ के राउंड टेबल सम्मेलन में कुछ विशेषज्ञों ने कहा कि इन परिस्थितियों में भारतीय MSME को वरीयता देना संभव है, लेकिन बड़ी भारतीय कंपनियों को प्राथमिकता देना संभव नहीं है.[35]
प्राप्तकर्ता देशों की हिचकिचाहट
ओआरएफ़ के गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले विशेज्ञषों ने सहमति जताई कि अक्सर यह देखा जाता है कि प्राप्तकर्ता देश त्रिकोणीय साझेदारी में शामिल होने के लिए अनिच्छुक होते हैं. फोर्डेलोन जैसे स्कॉलर्स ने भी इस विषय पर लिखा है. [36], [37] उदाहरण के लिए अफ्रीकी महाद्वीप में विकासशील देश विकसित देश भागीदारों द्वारा अपेक्षित सभी मानदंडों और मानकों का पालन करने में स्वयं को मुश्किल स्थिति में पाते हैं. [38] ये विकासशील देश ऐसी त्रिपक्षीय साझेदारियों में हिस्सा बनने के लिए और भी अनिच्छुक हैं, जो दो साझेदारों को शामिल करता है. इतना ही नहीं प्राप्तकर्ता देशों को दो भागीदारों के साथ बातचीत करने के अधिकार और अपनी योग्यता को खोने का भी डर है. उदाहरण के लिए, अफ्रीकी संघ और महाद्वीप के कुछ विशिष्ट देशों ने यूरोपीय संघ के एक त्रिपक्षीय दृष्टिकोण वाले प्रस्ताव को स्वीकार करने को लेकर बहुत कम दिलचस्पी दिखाई है. [39]
कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि त्रिकोणीय साझेदारियों का मकसद नॉर्थ और साउथ के बीच के मतभेदों को समाप्त करना है, लेकिन ऐसी साझेदारियां नॉर्थ-साउथ के दबदबे वाली व्यवस्था को फिर से स्थापित कर सकती हैं. [40] कई वर्ष पहले ही मैकएवन और मॉडस्ले (2012) ने लिख दिया था कि तीन किरदारों के बीच असमान शक्ति संबंध तमाम राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे खड़े करते हैं, जिनका समाधान निकालना मुश्किल है. [41] हालांकि त्रिकोणीय साझेदारियों के समर्थक अक्सर यह दावा करते हैं कि दक्षिणी साझीदार की मौज़ूदगी प्राप्तकर्ता देश की मोल-तोल करने की ताक़त को बढ़ाती है, लेकिन इस बात को साबित करने के लिए बहुत कम साक्ष्य हैं. दरअसल, अध्ययनों से संकेत मिलता है कि प्राप्तकर्ता देशों के हित अक्सर डोनर देश की प्राथमिकताओं और संरचनाओं के अधीन होते हैं. उदाहरण के लिए, एशॉफ (2010) ने कहा है कि पारंपरिक डोनर देशों और महत्त्वपूर्ण देशों के बीच सहयोग अक्सर उस समय केंद्र में आ जाता है, जब प्राप्तकर्ता देशों की चिंताओं को दबा दिया जाता है. [42] यह मुख्यत: इसलिए है क्योंकि पारंपरिक डोनर देश प्रमुख तौर पर उभरते डोनर्स के साथ अधिक निकटता से जुड़ने में दिलचस्पी रखते हैं. इसी प्रकार से महत्त्वपूर्ण देश भी विभिन्न राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए पारंपरिक डोनर देश के साथ नज़दीकी संबंध विकसित करने को प्राथमिकता दे सकता है. लेकिन इसे भी साबित करने के लिए बहुत कम वास्तविक साक्ष्य उपलब्ध हैं कि त्रिकोणीय साझेदारियां प्राप्तकर्ता देशों के लिए अच्छी तरह से काम करती हैं. [43]
प्रशासनिक और ट्रांजेक्शन की उच्च लागत
त्रिकोणीय साझेदारियों में कई हितधारकों के मौज़ूद होने की वजह से सामंजस्य स्थापित करने में दिक़्क़त होती है और यह प्रशासनिक एवं ट्रांजेक्शन की लागत को बढ़ाने का काम करती है.[44] , [45] हालांकि यह ख़ास तौर पर परियोजना के शुरुआती चरणों की एक सच्चाई होती है, जब विकास भागीदार अपने सहयोग की गतिविधियों और प्रक्रियाओं को लेकर बातचीत के दौर से गुजरते हैं. अगर बातचीत का यह दौर लंबे समय तक चलता है और बहुत अधिक बातचीत होती है, तो इससे लागत में बढ़ोतरी होती है. ऐसे प्राप्तकर्ता देश, जिनके पास मानव संसाधन और प्रशासनिक क्षमताओं की कमी होती है, उनकी सरकारों के लिए त्रिपक्षीय परियोजनाओं का प्रबंधन करना विशेष रूप से बेहद मुश्किल हो सकता है. ऐसे में उच्च प्रशासनिक और लेन-देन की लागतों की भी कम ख़र्चीली सेवाओं और प्रौद्योगिकियों को अपनाने से बचाई गई राशि से तुलना की जानी चाहिए. अर्थात यह कहा जा सकता है कि किसी त्रिकोणीय परियोजना में लागत के बारे में एक सटीक निष्कर्ष निकालना बहुत मुश्किल है.
सीमित पैमाना और दायरा
साक्ष्य स्पष्ट तौर पर ज़ाहिर करते हैं कि त्रिकोणीय सहयोग की पहल का पैमाना और दायरा सीमित है. इसके अलावा, इनमें से ज़्यादातर पहलें एक परियोजना-आधारित दृष्टिकोण को अपनाती हैं, जिसके लिए पेरिस डिक्लेरेशन में चेतावनी दी गई है कि इसका परिणाम लाभार्थी देशों द्वारा स्थापित व्यापक विकास लक्ष्यों से अलग हो सकता है. फोर्डेलोन (2009) ने यह भी तर्क दिया है कि कई त्रिकोणीय परियोजनाएं बार-बार की गई कोशिशों, बिखरे हुए संसाधनों और विभिन्न पहलों के बीच उथल-पुथल पैदा कर सकती हैं. [46]
VI.त्रिकोणीय सहयोग को लेकर भारत का अनुभव
चतुर्वेदी और पाइफर-सोयलर (2021) ने इस बात का उल्लेख किया है कि स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों में भारत कई त्रिकोणीय साझेदारियों में शामिल रहा था. [47] त्रिकोणीय साझेदारी में भारत की भागीदारी के पहले उदाहरणों में से एक, 1950 के दशक में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में नेपाल और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मिलकर कार्य करना था. [48] हालांकि, शुरुआती वर्षों के पश्चात त्रिकोणीय परियोजनाओं में भारत की हिस्सेदारी में कमी दर्ज़ की गई, क्योंकि भारत ने द्विपक्षीय साझेदारी पर अधिक ध्यान केंद्रित किया. पारंपरिक डोनर देशों के साथ साझेदारी करने के बजाए, भारत ने 'थर्ड वर्ल्ड' की एकजुटता, बिना किसी शर्त के और गैर-तानाशाही वाली साझेदारी और संप्रभुता का सम्मान करने वाले अपने ख़ुद के विकास सहयोग मॉडल को आकार देने पर फोकस किया. भारत के विकास सहयोग के ये सिद्धांत उसे OECD-DAC डोनर्स से अलग करते हैं. हालांकि, 1990 के दशक की शुरुआत में भारत ने धीरे-धीरे त्रिकोणीय सहयोग पर अपने नज़रिए को बदलने का काम किया. इसके बाद से अन्य विकासशील देशों में संचालित बहुपक्षीय पहलों में भारत की भागीदारी भी बढ़ी है. उदाहरण के लिए वर्ष 2003 में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में बच्चों के लिए पौष्टिक बिस्कुट की आपूर्ति करने के लिए वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के साथ हाथ मिलाया. [49]
हाल के वर्षों में भारत त्रिकोणीय साझेदारी में शामिल होने को लेकर पहले की तुलना में अधिक सहज हो गया है. वर्ष 2014 के बाद से त्रिकोणीय साझेदारियों में भारत की भागीदारी तेज़ी के साथ बढ़ी है, देखा जाए तो OECD-DAC सदस्य देशों के साथ इसके बढ़ते जुड़ाव के परिणामस्वरूप राष्ट्राध्यक्षों की यात्रा शुरू हुई. [50] वर्ष 2014 में भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका ने वैश्विक विकास के लिए त्रिकोणीय सहयोग पर मार्गदर्शक सिद्धांतों के वक्तव्य पर हस्ताक्षर किए. [51] भारतीय विदेश मंत्रालय और भूतपूर्व अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग (अब विदेश, कॉमनवेल्थ एवं डेवलपमेंट ऑफिस), यूके ने "थर्ड कंट्रीज में सहयोग के लिए साझेदारी के स्टेटमेंट ऑफ इंटेंट" पर हस्ताक्षर किए, जिसने विकास पहलों में अन्य देशों को संयुक्त रूप से समर्थन देने की उनकी प्रतिबद्धता की पुष्टि की. [52]
भारत और जर्मनी के बीच वर्ष 2017 में चौथा इंटर-गवर्नमेंटल कंसल्टेशन आयोजित किया गया, जिसमें दोनों देश, अन्य देशों की सहायता करने और अफ्रीका में सहयोगी गतिविधियों का पता लगाने के लिए अपने व्यवसायों को प्रोत्साहित करने के लिए सहयोग करने पर सहमत हुए.[53] भारत और जापान ने अफ्रीकी विकास का समर्थन करने के लिए वर्ष 2017 में साझा तौर पर एशिया अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर प्रोग्राम (अब प्रोजेक्ट फॉर फ्री एंड ओपन इंडो-पैसिफिक) लॉन्च किया. इस प्रकार से भारतीय पक्ष ने त्रिकोणीय साझेदारी में संलग्न होने के लिए उच्च-स्तरीय राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई है. चतुर्वेदी और सोयलर (2021) ने इसको देखा है कि डोनर-रिसिपिएंट संबंधों के पारंपरिक विचारों को धीरे-धीरे अधिक जटिल हॉरिजॉन्टल पार्टनरशिप्स यानी क्षैतिज साझेदारियों के साथ बदल दिया जा रहा है, जो दृष्टिकोणों की पूरकता, पारस्परिक सीख और सभी के लिए लाभ पर आधारित हैं. [54] भारतीय अधिकारियों ने भी विकास सहायता की दो अलग-अलग प्रणालियों को एक साथ लाने में आने वाली दिक़्क़तों को स्वीकार किया है, लेकिन ये भारतीय अधिकारी अब साउथ को लाभ पहुंचाने के व्यापक लक्ष्य के लिए तकनीक़ी बाधाओं को दूर करने के इच्छुक हैं. [55]
पाउलो (2018) का दावा है कि विकास सहयोग का नेट प्रोवाइडर बनने से भारत पारंपरिक डोनर्स के समक्ष ज़्यादा बराबरी की स्थिति में आ गया और इससे उसे त्रिकोणीय साझेदारियों को लेकर अपना नज़रिया बदलने में मदद मिली. [56] हालांकि, हाल-फिलहाल तक त्रिकोणीय साझेदारियों में शामिल होने के लिए भारत के पास कोई विशेष प्रेरणा नहीं थी. [57] मॉडस्ले (2015) का यह भी कहना है कि गैर-डीएसी डोनर्स को डीएसी डोनर्स के साथ संवाद और संपर्क के माध्यम से लाभ मिल सकता है, लेकिन डीएसी डोनर्स के साथ विलय करने पर उन्हें बहुत अधिक फायदा नहीं मिलने वाला है. [58] जैसा कि सेक्शन-1 में चर्चा की गई है, भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते दबदबे का सामना करना भारत के लिए ज़रूरी है, विशेष रूप से हाल में सामने आए सीमा गतिरोध को देखते हुए. ज़ाहिर है कि OECD देशों के साथ साझेदारी में भारत की नए सिरे से दिलचस्पी के पीछे की मुख्य प्रेरणाओं में से यह एक है. [59]
हाल के वर्षों में जबकि भारत की त्रिकोणीय साझेदारियों की अनूठी विशेषता इनका रणनीतिक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना है, जो उच्च-स्तरीय राजनीतिक सहमति द्वारा समर्थित है, हालांकि त्रिकोणीय प्रारूप में भारत का अनुभव मिलाजुला रहा है. ओआरएफ़ के राउंड टेबल सम्मेलन में भाग लेने वाले एक प्रतिभागी ने बताया कि त्रिपक्षीय परियोजनाओं में भारत की सफलताएं देखा जाए तो बहुत की कम रही हैं या महत्त्वहीन रही हैं. [60] डिजाइन के लिहाज़ से वे परियोजनाएं त्रिकोणीय नहीं थीं. [61] यहां ऐसे उदाहरण भी हैं जहां आख़िरकार त्रिकोणीय परियोजनाएं पूरी नहीं हुईं, जैसे कि अदीस अबाबा में आईसीटी सेंटर फॉर एक्सीलेंस के लिए इंडिया-यूएई-इथियोपिया पार्टनरशिप. इस परियोजना के डिजाइन के अंतर्गत इथियोपिया की सरकार को ज़मीन उपलब्ध करानी थी, जबकि संयुक्त अरब अमीरात पर बिल्डिंग बनाने की ज़िम्मेदारी थी और भारत के हिस्से में हार्डवेयर एवं सॉफ्टवेयर का कार्य था. यह परियोजना परवान नहीं चढ़ पाई, क्योंकि इथियोपियाई सरकार इसके लिए ज़मीन उपलब्ध नहीं करा सकी. [62]
दूसरी ओर, ज़्यादातर सफल त्रिकोणीय परियोजनाओं की अगुवाई गैर-सरकारी किरदारों द्वारा की गई है. पाउलो (2018) एवं चतुर्वेदी और सॉयलर (2021) दोनों ही इस बात पर ज़ोर देते हैं कि त्रिकोणीय साझेदारियों के भारत के वर्तमान मॉडल की अनूठी विशेषता ही है, जिसकी वजह से भारत के गैर-सरकारी अभिनेताओं जैसे कि सिविल सोसाइटी ऑर्गेनाइजेशन्स द्वारा इसका लाभ उठाया जा रहा है. [63], [64] भारत के कई गैर सरकारी संगठनों (NGOs) ने विकास से जुड़े इन अनुभवों को हासिल किया है. इतना ही नहीं इनके इनोवेशन्स दूसरे विकासशील देशों में आसानी से तालमेल बैठाने के योग्य हैं. इसके फलस्वरूप ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों ने अफ्रीका और एशिया में भारतीय NGOs का समर्थन किया है. इसके कुछ उल्लेखनीय उदाहरण जयपुर फुट (भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति), बेयरफुट कॉलेज और द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (TERI) हैं.[i] ब्रिटेन जैसे देशों के साथ त्रिकोणीय साझेदारी में गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट संबंध कमज़ोर रहा है, प्राथमिक तौर पर भारत और यूके में विकास सहयोग को लेकर नज़रिए के बीच बड़े अंतर की वजह से. [65] इस खालीपन को संभवतः सिविल सोसाइटी द्वारा भरा जा सकता है.
कनेक्टिविटी और इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास हाल के वर्षों में त्रिकोणीय साझेदारियों में अहम विषयों के रूप में उभर कर सामने आया है. उदाहरण के लिए, एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर अपने रणनीतिक और बुनियादी ढांचे पर फोकस करने की वजह से एवं परियोजना के व्यापक स्तर के कारण एक मील का पत्थर था. हालांकि यह अलग बात है कि इस परियोजना में अब तक बहुत कम प्रगति हुई है. इसके अलावा, वर्ष 2020 में अपनाई गई यूरोपियन यूनियन-इंडिया कनेक्टिविटी पार्टनरशिप सतत कनेक्टिविटी के महत्त्व को रेखांकित करती है, जो सामाजिक, आर्थिक, वित्तीय, जलवायु और पर्यावरणीय स्थिरता के मुद्दों को ध्यान में रखती है. भारत और यूके ने वर्ष 2022 में तीसरे देशों में अपने नवाचारों को बढ़ाने की कोशिश कर रहे भारतीय इनोवेटर्स का समर्थन करने के लिए ग्लोबल इनोवेशन पार्टनरशिप शुरू की [66] और विदेश मंत्रालय (MEA) ने भारत-प्रशांत रीजन एवं विश्व के दूसरे क्षेत्रों में उच्च निवेश वाली परियोजनाओं में निजी सेक्टर के उद्यमों का समर्थन करने के लिए ट्राइलेटरल डेवलपमेंट कोऑपरेशन (TDC) फंड लॉन्च किया. भारत द्वारा TDC फंड के ज़रिए इंडिया-यूके ग्लोबल इनोवेशन पार्टनरशिप के लिए 19.9 मिलियन अमेरिकी डॉलर दिए जाने की संभावना है. [67] एक बड़े बदलाव के अंतर्गत ब्रिटेन ने इस वर्ष की शुरुआत में एक नई विकास रणनीति के रूप में ब्रिटिश इन्वेस्टमेंट पार्टनरशिप (BIP) को अपनाया है. इसका मकसद प्राइवेट सेक्टर के साथ प्रति वर्ष 8 बिलियन पाउंड तक जुटाना है. [68] यह बेहद अहम है कि कई विश्लेषक इस नई विकास रणनीति की व्याख्या विकास के मौज़ूदा परिदृश्य में अपने भू-राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने की ब्रिटेन की कोशिश के तौर पर करते हैं. [69]
V.इंफ्रास्ट्रक्चर में त्रिकोणीय साझेदारी
अनियमित निवेश ज़रूरतों, लंबी परियोजना अवधि और तकनीकी क्षमताओं की आवश्यकता की वजह से इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को अक्सर त्रिकोणीय साझेदारी के लिए ख़ास तौर पर मुनासिब समझा जाता है. इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में निवेश को प्राथमिकता देने की भी आवश्यकता है, जो कि वृद्धि और विकास के लिए एक बेहद अहम इनपुट है. रोज़ेनबर्ग और फे (2019) के मुताबिक़ निम्न और मध्यम इनकम वाले देशों (LMICs) को अपने संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की 2 प्रतिशत से 8 प्रतिशत के बीच की राशि को कहीं भी ख़र्च करना होगा, यानी अपने बुनियादी ढांचे की कमी को पूरा करने के लिए 6.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का ख़र्च. [70] G20 के ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर हब, संयुक्त राष्ट्र और मैकिन्जे एंड कंपनी द्वारा किए गए तमाम अध्ययन इस बड़े वित्तीय फासले की गवाही देते हैं.
विश्व बैंक के मुताबिक़ एक साल में इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश घाटा 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का है, जो कि वैश्विक जीडीपी का 1.4 प्रतिशत है. [71] यह भी अनुमान लगाया गया है कि विकासशील देशों को बुनियादी ढांचे से संबंधित SDGs को हासिल करने के लिए और जलवायु परिवर्तन को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने से रोकने के लिए अपने सकल घरेलू उत्पाद की लगभग 4.5 प्रतिशत राशि निवेश करने की ज़रूरत है. [72] OECD के वर्ष 2020 में जारी अनुमानों के मुताबिक़ वार्षिक निवेश में 10 प्रतिशत की वृद्धि से ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर हासिल किया जा सकता है, यानी वार्षिक निवेश में कुल 6.3 अरब अमेरिकी डॉलर से 6.9 अरब अमेरिकी डॉलर तक की बढ़ोतरी करके. [73] हालांकि, स्थायी इंफ्रास्ट्रक्चर में समय पर निवेश बेहद ज़रूरी है. देखा जाए, तो वित्तीय आवश्यकताओं के पैमाने के मद्देनज़र विकासशील देशों के लिए अपनी बुनियादी ढांचे से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करना मुश्किल है. ऐसे में एक व्यापक योजना, जिसमें विभिन्न देश अपने वित्तीय, तकनीक़ी और मानव संसाधनों को मिलजुल कर पूरा करते हैं, उसके अधिक प्रभावी होने की उम्मीद है.
जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है कि वर्तमान में वैश्विक इंफ्रास्ट्रक्चर परिदृश्य पर चीन का दबदबा है. त्रिपक्षीय साझेदारियां अन्य देशों को वैश्विक इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में अपनी मौज़ूदगी का विस्तार करने और चीनी इंफ्रास्ट्रक्चर मॉडल का मुक़ाबला करने का मौक़ा उपलब्ध कराती हैं. चीन के आक्रामक रणनीतिक मंसूबों और उसकी BRI परियोजना ने पहले ही कई देशों को इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में त्रिकोणीय साझेदारियों के अवसरों को तलाशने के लिए प्रेरित किया है. यूएस-ऑस्ट्रेलिया-जापान ट्राइलेटरल ने वर्ष 2019 में ब्लू डॉट नेटवर्क लॉन्च किया था, इसका उद्देश्य "सरकारों, प्राइवेट सेक्टरों और सिविल सोसाइटी को एक खुले एवं समावेशी फ्रेमवर्क में एक साथ लाने वाले उच्च-गुणवत्ता एवं भरोसेमंद वैश्विक बुनियादी ढांचे के विकास मानकों को आगे बढ़ाना" था. [74] अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने "वर्ष 2027 तक 600 बिलियन डॉलर जुटाकर विकासशील देशों में बुनियादी ढांचे के अंतर को कम करने के लिए गेम-चेंजिंग प्रोजेक्ट्स देने के लिए" जून 2022 में G7 देशों के साथ पार्टनरशिप फॉर ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड इन्वेस्टमेंट (PGII) की शुरुआत की. [75] क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डॉयलॉग (Quad) के अंतर्गत भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका सामूहिक रूप से अगले पांच वर्षों में भारत-प्रशांत क्षेत्र में इंफ्रास्ट्रक्चर के निवेश को गति देने के लिए 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक बढ़ाने की मांग कर रहे हैं. [76] अक्टूबर 2021 में, भारत, इजरायल, अमेरिका और यूएई ने “बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण, उद्योगों के लिए कम कार्बन डेवलपमेंट के रास्ते तलाशने, सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार और अपने संबंधित क्षेत्रों एवं उससे भी आगे महत्त्वपूर्ण उभरती व ग्रीन टेक्नोलॉजी के विकास को बढ़ावा देने में मदद करने हेतु निजी क्षेत्र की पूंजी और विशेषज्ञता जुटाने” के लिए I2U2 का गठन किया. [77]
त्रिकोणीय विकास फॉर्मेट्स के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर की अनुकूलता के बावज़ूद, आमतौर पर भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं लागत में बढ़ोतरी, देरी, भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण एवं सामाजिक मंज़ूरी से जुड़ी दिक़्क़तों का सामना करती हैं. इसके साथ ही त्रिपक्षीय परियोजनाओं का आमतौर पर एक छोटा स्केल होता है. (फोर्डेलोन 2009) [78]
VI.भारत की त्रिकोणीय साझेदारियों के लिए सिफारिशें
उल्लेखनीय है कि भारत का विकास सहयोग प्रोग्राम 2000 के दशक से तीव्र गति से आगे बढ़ा है. भारत की वर्तमान विकास सहयोग प्रतिबद्धताओं की तुलना कई विकसित देशों से की जा सकती है. मुलेन एट अल (2014) के मुताबिक़ वर्ष 2013 में भारत का विकास सहयोग बजट 23 OECD-DAC डोनर्स में से 6 के विदेशी सहायता बजट से ज़्यादा था. [79] क्रय शक्ति की बराबरी के संदर्भ में वर्ष 2019 में भारत का विकास सहयोग आवंटन कनाडा जैसे उच्च इनकम वाले देशों की तुलना में अधिक था. [80] भारत के विकास सहयोग में जुड़ाव का एक प्रमुख सेक्टर इंफ्रास्ट्रक्चर है. इतना ही नहीं भारत अपने क्रेडिट कार्यक्रम के अंतर्गत एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में कई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है. हालांकि, यह अलग बात है कि भारत अपनी विकास परियोजनाओं की डिलीवरी को लेकर जूझता रहा है और इसके लाइन्स ऑफ क्रेडिट कार्यक्रम के उपयोग की दर कम है. [81] हालांकि, भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा अपने लाइन्स ऑफ क्रेडिट कार्यक्रम की क्षमता में सुधार के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं, लेकिन भारत को डिलीवरी एवं नतीज़ों को दुरुस्त करने को लेकर अपने संसाधनों व प्रयासों पर और अधिक निवेश करने की ज़रूरत है. [82]
भारत ने विकास भागीदार के रूप में अपनी एक अलग छवि स्थापित करने के लिए लगभग छह दशक लगाए हैं और हाल के वर्षों में अपने विकास कार्यक्रम का काफ़ी व्यापक पैमाने पर विस्तार किया है. भारत को अंतर्राष्ट्रीय विकास परिदृश्य में एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए अब अपने विकास सहयोग की डिलीवरी में सुधार पर ध्यान देना चाहिए, यानी प्रोजेक्ट को समय पर पूरा करने को लेकर फोकस करना चाहिए. पासी (2021) जैसे विद्वानों का यह भी मानना है कि भारत के विकास सहयोग को अब मांग-संचालित, 'बिना शर्त' वाली सहायता से अलग हटकर अधिक रणनीतिक विकास एजेंडे की तरफ़ बढ़ना चाहिए, जो उसकी बढ़ती वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप व्यापक विकास उद्देश्यों को पूरा करने में मदद करेगा. [83] पासी का सुझाव है कि भारत विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में एक आपूर्तिकर्ता के रूप में अपनी साख को मज़बूत करने के लिए अपनी द्विपक्षीय और बहुपक्षीय साझेदारियों में फायदे में रहता है. समान विचारधारा वाले देशों के साथ त्रिकोणीय साझेदारियां, जो अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी, फाइनेंस और विशेषज्ञता लाती हैं, भारतीय इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों को उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार करने के साथ ही भारत को एक विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता के रूप में स्थापित करने में सहायता करेंगी. जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि त्रिपक्षीय साझेदारियों को लेकर भारत की ऐतिहासिक झिझक अब दूर हो गई है, लेकिन बुनियादी ढांचा क्षेत्र में इसका सहयोग सीमित है. ऐसे में भारत को इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में ज़्यादा प्रभावी त्रिकोणीय साझेदारियों के लिए प्रयास करना चाहिए, जो प्राप्तकर्ता देशों के लिए लाभदायक हों.
निम्नलिखित पैराग्राफ सफल त्रिकोणीय साझेदारियों के लिए विशेष सिफ़ारिशों की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं:
- भागीदार देशों के बीच और ज़्यादा संवाद की ज़रूरत
ओआरएफ़ की राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में अधिकांश प्रतिभागियों ने यह देखा कि तीन साझीदार देशों में क़ानूनी, रेगुलेटरी और ब्यूरोक्रेसी यानी अफ़सरशाही की संरचनाओं में अंतर अक्सर समन्वय की कमी के साथ ही परियोजनाओं के कार्यान्वयन में देरी की वजह बनता है. [84] त्रिकोणीय साझेदारियों की सफलता के लिए यह ज़रूरी है कि भागीदार देशों को परियोजना की शुरुआत, यहां तक कि उसकी परिकल्पना के बाद से ही साझा निर्णय लेने एवं आसान तरीक़े से कार्यान्वयन के लिए परस्पर बातचीत करते रहना चाहिए. निश्चित तौर पर बार-बार बातचीत के दौर होने से काफ़ी समय लगता है, लेकिन यह भागीदार देशों के बीच विश्वास का माहौल बनाने में और सह-निर्माण की प्रक्रिया में योगदान करने में सहायक हो सकता है.
एक अहम बात यह है कि भागीदार देशों को एक त्रिकोणीय परियोजना में हर जगह दोहराए जाने वाले मॉडल का उपयोग करने से बचना चाहिए. ज़ाहिर है कि ज़्यादातर त्रिकोणीय परियोजनाओं में ख़रीद, कार्यान्वयन, उससे जुड़े ज़ोख़िम और विवाद समाधान के मुद्दों पर एक समान आधार तलाशना मुश्किल होता है. उदाहरण के लिए, अधिकांश प्राप्तकर्ता देश ख़ास तौर से अफ्रीका में स्थित देश स्थिरता की यूरोपीय धारणाओं और उनके ज़रूरी मानदंडों एवं मानकों का पालन करने में दिक़्क़त महसूस करते हैं. [85] अफ्रीकी देशों में चीन परियोजनाओं को समर्थन मिलने के पीछे यह एक मुख्य कारण है. इसके अलावा, कुछ विकसित देश अफ्रीका में केवल इन्वेस्टमेंट-ग्रेड देशों के साथ काम करना पसंद करते हैं, ये देश उस क्षेत्र के हेवली इन्डेबिटिड पुअर कंट्रीज यानी भारी ऋण के बोझ तले दबे ग़रीब देशों [j] (HIPCs) के साथ काम करना पसंद नहीं करते हैं. इस बीच, भारत के अफ्रीका के सभी देशों के साथ विकास संबंध हैं. ऐसे में देशों को अपने दृष्टिकोण में लचीलापन लाने का प्रयास करना चाहिए और प्राप्तकर्ता देशों के लिए कार्यान्वयन को आसान बनाना चाहिए.
- बैंकेबल या बैंक करने योग्य परियोजनाओं की सूची बनाएं
ओआरएफ़ राउंड टेबल के प्रतिभागियों में से एक ने एक फंड बनाने का सुझाव, दिया जो हर साल प्रत्येक योग्य या वांछनीय सेक्टर में 5 से 10 बैंकेबल प्रोजेक्ट रिपोर्ट की सुविधा प्रदान करेगा. यह अफ्रीकी महाद्वीप के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, जहां बैंकेबल प्रोजेक्ट्स की कमी है.
ओआरएफ़ राउंड टेबल में शामिल प्रतिभागियों में से एक ने त्रिकोणीय सहयोग के लिए एक हाइब्रिड यानी मिलेजुले वित्तीय मॉडल का सुझाव दिया, जो पूरी तरह से ऋणों पर आधारित मॉडल से बिलकुल उलट है. ज़ाहिर है कि अधिकांश विकासशील दुनिया पहले से ही भारी कर्ज के बोझ तले दबी हुई है. [86] त्रिकोणीय सहयोग के लिए एक मिश्रित वित्तीय मॉडल ज़्यादा उपयुक्त होने की संभावना है. ओआरएफ़ के प्रतिभागियों में से एक ने सुझाव दिया कि एक बार जब तीनों भागीदार किसी परियोजना पर सहमत हो जाते हैं, तो प्रोजेक्ट को कार्यान्वित करने के लिए एक स्पेशल परपज व्हीकल [k] (SPV) का गठन किया जाना चाहिए. [87] इतना ही नहीं SPV को पेशेवर तरीक़े से प्रबंधित किया जाना चाहिए और भारत या विकसित देश भागीदार के ख़रीद नियमों के बजाए SPV के अपने ख़रीद नियमों को लागू किया जाना चाहिए. परियोजना की ज़रूरत और उसकी अनुरूपता के मुताबिक़ साझेदारी के विभिन्न रूप हो सकते हैं, जैसे GGG, GGB, BBG, या BBB.[l] [88] इसका एक बेहतरीन उदाहरण भारत और यूके के बीच ग्लोबल इनोवेशन फंड है.
- प्राप्तकर्ता देश की ज़रूरतों पर फोकस
जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि ज़्यादातर प्राप्तकर्ता देश त्रिकोणीय साझेदारियों के पक्ष में नहीं हैं. दूसरी ओर, सफल त्रिकोणीय साझेदारियों के लिए प्राप्तकर्ता देशों के साथ-साथ नेशनल ऑनरशिप की ओर से सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता होती है. इसलिए, प्राप्तकर्ता देशों को समझाने और उनका विश्वास हासिल करने के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए. प्राप्तकर्ता देश त्रिकोणीय साझेदारियों से लाभान्वित हो सकते हैं, यदि वे इस तरह के फॉर्मेट्स में एजेंडा निर्धारित करने वाली भूमिका निभाते हैं. विकासशील देशों को भी अधिक लाभ होगा, अगर वे एक डोनर को दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने के बजाए विकास भागीदारों के बीच पारस्परिक संबंधों को बढ़ाने और उनके बीच तालमेल स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं.
प्राप्तकर्ता देशों को त्रिपक्षीय प्रारूप में अपने विकास के एजेंडे को निर्धारित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. इसके लिए सबसे अच्छा तरीका प्रप्तकर्ता देशों द्वारा अपनी विकास प्राथमिकताओं पर फोकस करना है. प्रत्येक प्राप्तकर्ता देश की अपनी कुछ विशेष मांगें होती हैं और विकास से जुड़ी कुछ ज़रूरतें होती हैं. यह अहम है कि भागीदार देश विभिन्न प्राप्तकर्ता देशों की आवश्यकताओं के अनुसार परियोजना की रूपरेखा तैयार करें और निश्चित तौर पर परियोजनाएं मांग-संचालित होनी चाहिए. भागीदार देशों को क्रमशः आसियान रीजन और अफ्रीका में उपयुक्त परियोजनाओं के लिए मास्टर प्लान ऑन ASEAN (एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशन्स) कनेक्टिविटी 2025,[m] अफ्रीकन इन्वेस्टमेंट फोरम,[n] और एजेंडा 2063 [o] में सूचीबद्ध प्राथमिकताओं का समुचित संज्ञान लेना चाहिए. [89] इसके साथ ही स्थानीय क़ानूनों और प्रणालियों का भी सम्मान किया जाना चाहिए और विकास प्रक्रिया के दौरान लाभार्थी देश की क्षमता को बढ़ाया जाना चाहिए. [90]
यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां चीन का BRI हिचकोले खाने लगता है. एक उचित बिजनेस प्लान के अभाव में BRI को प्राप्तकर्ता देशों की अर्थव्यवस्थाओं के बजाए चीनी अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिए डिज़ाइन किया गया है. [91] भारत को समान विचारधारा वाले देशों के साथ त्रिकोणीय साझेदारियों में चीनी मॉडल को अपनाने से बचना चाहिए और विकास घाटे को दूर करने के साथ तीसरे देशों में क्षमता निर्माण करने का प्रयास करना चाहिए.
- बड़े और ज़ोख़िम वाले प्रोजेक्ट्स को शुरू करने से पहले छोटे स्तर की परियोजनाओं में सफल त्रिपक्षीय साझेदारियों को आगे बढ़ाएं
ओआरएफ़ के गोलमेज सम्मेलन के एक्सपर्ट्स में से एक ने कहा कि देशों को बुनियादी मानकों को बरक़रार रखते हुए और गुणवत्ता सुनिश्चित करते हुए कम से कम महत्वाकांक्षाओं के साथ त्रिकोणीय
फॉर्मेट में छोटे स्तर के पायलट प्रोजेक्ट्स को लागू करने की कोशिश करनी चाहिए. पायलट प्रोजेक्ट बनाते समय भागीदार देशों को प्राप्तकर्ता देश की ज़रूरतों का भी पूरा आकलन करना चाहिए. हालांकि इसके नतीज़े भले ही बेहद मामूली हों, लेकिन इसकी ट्रांजेक्शन की लागत कम रखने में मदद मिलेगी. छोटे प्रोजेक्ट्स की सफलता भागीदारों के बीच भरोसे का माहौल स्थापित करने में मदद करेगी, जिससे प्राप्तकर्ता देशों के जेहन में त्रिपक्षीय सहयोग को लेकर जो भी झिझक होगी या हिचकिचाहट होगी, उसको भी समाप्त किया जा सकेगा.
- OECD-DAC मानकों के मुताबिक़ होने का कोई दबाव नहीं
विकासशील देशों के फायदे के लिए उभरते हुए और पारंपरिक डोनर्स एक साथ मिलकर किस प्रकार से कार्य कर सकते हैं, इसके लिए त्रिपक्षीय सहयोग एक उपयोगी टेस्टिंग ग्राउंड है. हालांकि, इसमें यह ज़रूर है कि OECD के मानकों एवं प्रथाओं के साथ अनुरूपता बनाए रखने का दबाव विवाद का कारण बन सकता है, क्योंकि कुछ उभरते डोनर्स ऐसे फ्रेमवर्क्स का विरोध करने सकते हैं, जो उनकी निष्पक्षता को कमज़ोर करने का काम करते हैं. एशॉफ (2010) के अनुसार, यदि उभरते डोनर्स के पास उच्च गुणवत्ता वाली विकास सहायता प्रदान करने का अनुभव और क्षमता नहीं है, तो त्रिकोणीय सहयोग में गुणवत्ता मानकों से समझौता किए जाने का ज़ोख़िम है. ज़ाहिर है ऐसे में मानक और अनुपालन विवाद की वजह बन सकते हैं.
- सहयोगी दृष्टिकोण से पहले समन्वय दृष्टिकोण को प्राथमिकता
देखा जाए तो त्रिकोणीय परियोजनाओं में अक्सर देरी होती है. इसके पीछे प्रमुख वजह है साझीदारों की भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों को लेकर भ्रम होता है, उनकी भूमिकाओं को लेकर कोई स्पष्टता नहीं होती है. ज़ाहिर है कि साझेदारों को अपने तुलनात्मक फायदों के मुताबिक़ ज़िम्मेदारियों को बांटना चाहिए. ओआरएफ़ के राउंड टेबल में हिस्सा लेने वाले विशेषज्ञों में से एक ने कहा कि त्रिकोणीय सहयोग के दो मॉडल या दृष्टिकोण हैं, यानी समन्वित दृष्टिकोण और सहयोगी दृष्टिकोण. समन्वित मॉडल को देखा जाए जो, इसमें भागीदार पहले एक परियोजना की पहचान करते हैं और फिर कार्यों को आपस में बंट लेते हैं. जबकि सहयोगी मॉडल में परियोजना की शुरुआत से ही सभी भागीदार एक साथ मिलकर काम करते हैं. शुरुआती वर्षों में समन्वित दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, क्योंकि सभी चरणों में एक साथ काम करने से प्रारंभिक वर्षों में भ्रम की स्थिति बनेगी और प्रोजेक्ट के पूरा होने में भी देरी होगी. समन्वित मॉडल के तहत कुछ त्रिकोणीय परियोजनाओं के सफल कार्यान्वयन के बाद देश और कंपनियां एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर काम करना सीख लेंगी और तब सहयोगी मॉडल को लागू किया जा सकता है.
- सिविल सोसाइटी संगठनों, स्टार्ट-अप्स और प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी
ओआरएफ़ के प्रतिभागियों में से एक ने विकास सहयोग में भारत के सिविल सोसाइटी यानी नागरिक समाज संगठनों और टेक्नोलॉजी स्टार्ट-अप्स की भूमिका पर बल दिया. उन्होंने कहा कि समुदाय, सिविल सोसाइटी और निजी क्षेत्र को शामिल करने के लिए त्रिपक्षीय साझेदारियों को गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट (G2G) से परे लागू किया जा सकता है. चतुर्वेदी और पीफर-सोयलर (2021) एवं सूरी और रेड्डी (2021) जैसे कई विशेषज्ञ भी दुनिया के सामने आने वाली एक प्रकार की विकासात्मक चुनौतियों से निपटने में उन्हें साझा करने की नज़र से भारतीय CSOs यानी सिविल सोसाइटी ऑर्गेनाइजेशन्स के नवाचारों को पहचानने के महत्त्व पर ज़ोर देते हैं. [92] , [93]
- ज़ोख़िम का मूल्यांकन और उसे करना बेहद महत्त्वपूर्ण
सफल त्रिपक्षीय सहयोग में अड़ंगा डालने वाली रुकावटों में उच्च लेनदेन लागत सबसे बड़ा अवरोध है. चूंकि त्रिकोणीय साझेदारियों में वित्तीय मोर्चे पर कोई आम सहमति नहीं होती है, इसलिए यह बेहद अहम हो जाता है कि भागीदार किसी विशेष परियोजना में शामिल ज़ोख़िमों का अच्छी तरह से आकलन करें और पता लगाएं कि यह कितना बड़ा है और कितनी राशि का है. ज़ाहिर है कि अगर किसी परियोजना के ज़ोख़िम का शुरुआत में ही मूल्यांकन कर लिया जाएगा, तो यह विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर ज़ोख़िम बंटवारे में भी मददगार साबित होगा. राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में शामिल प्रतिभागियों में से एक ने यह भी सुझाव दिया कि ज़ोख़िमों को कम करने के लिए तीसरे देशों में अच्छी तरह से आजमाए और परखे हुए इनोवेशन्स को ही लागू किया जाना चाहिए. [94]
निष्कर्ष
प्रभावी विकास सहयोग मौज़ूदा समय में वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ी आवश्यकता है. साझेदारी के जो भी विभन्न तौर-तरीक़े हैं, उनमें त्रिपक्षीय सहयोग साझेदारी के पास देने के लिए बहुत कुछ है. त्रिकोणीय सहयोग विकास सहयोग परिदृश्य की जटिलताओं को न केवल बेहतर ढंग से दर्शाता है, बल्कि अब इसे चालाकी के साथ 'नॉर्थ' और 'साउथ' में नहीं बांटा जा सकता है. अंतर्राष्ट्रीय विकास परिदृश्य नाटकीय रूप से परिवर्तित हो चुका है और अब दुनिया में वित्तीय एवं तकनीक़ी लिहाज़ से नॉर्थ का दबदबा नहीं रह गया है. भारत जैसे कई विकासशील देश कुछ सेक्टरों में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी से सुसज्जित हैं और इसके बल पर घरेलू स्तर पर महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का बखूबी मुक़ाबला कर रहे हैं. इतना ही नहीं भारत और दूसरे विकासशील देशों की भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी भूमिका निभाने की आकांक्षा लगातार बढ़ रही है.
जिस प्रकार बड़ी संख्या में देश विकास सहयोग प्रदान करने और उससे लाभान्वित होने की दोहरी भूमिका निभा रहे हैं, उससे यह निश्चित है कि त्रिकोणीय सहयोग समान विचारधारा वाले देशों के बीच विकास के एक पसंदीदा तरीक़े के रूप में उभर सकता है. सफल त्रिकोणीय साझेदारियां उत्तरी और दक्षिणी विकास सहयोग मॉडल की सबसे अच्छी विशेषताओं को जोड़ने का काम करती हैं और विकास परिणामों की बेहतर डिलीवरी सुनिश्चित कर सकती हैं. ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर SDGs को हासिल करने में इनका प्रभावी योगदान हो सकता है.
चीन के विकास वित्तपोषण का विकल्प प्रदान करके त्रिकोणीय साझेदारियां भी एक बहुकेंद्रित दुनिया की दिशा में काम करने का एक रचनात्मक तरीक़ा हो सकता है. इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर भी विशेष रूप से त्रिपक्षीय फॉर्मेट के लिए बेहद अनुकूल है. त्रिकोणीय प्रारूप के अंतर्गत नए वित्तीय मॉडल्स भी विकासशील देशों में इंफ्रास्ट्रक्चर के संकट को दूर करने में मददगार साबित हो सकते हैं, वो भी उन देशों के कर्ज के बोझ को बढ़ाए बगैर. हालांकि, त्रिकोणीय साझेदारियों के सफल कार्यान्वयन के समक्ष तमाम चुनौतियां हैं, क्योंकि प्राप्तकर्ता देश इस तरह की व्यवस्था में शामिल होने को लेकर काफ़ी हद तक अनिच्छुक हैं. इसके अलावा, ख़रीद के नियमों, वित्तीय संरचना और क़नूनी फ्रेमवर्क पर सहमति की कमी, त्रिकोणीय साझेदारियों के कार्यान्वयन के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर सामने आई है.
जहां तक भारत की बात है, तो त्रिकोणीय साझेदारियों में देर से प्रवेश करने वाले भारत के लिए अब तक के नतीज़े ख़ास उत्साहजनक नहीं रहे हैं. ज़्यादातर त्रिपक्षीय परियोजनाओं ने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया है, जबकि कुछ सक्सेस स्टोरीज भी हैं, जहां त्रिकोणीय साझेदारियों में सिविल सोसाइटी के संगठनों ने भागीदारी की. त्रिकोणीय सहयोग के जो लाभ हैं, उनमें पारंपरिक और गैर-डीएसी दक्षिणी डोनर्स दोनों की बेहतरीन विशेषताएं शामिल हैं. हालांकि, यह भी एक सच्चाई है कि अगर साझीदार सहयोग करने में नाक़ाम रहते हैं, तो व्यवहारिक तौर पर त्रिकोणीय साझेदारी दोनों के सबसे ख़राब फीचर्स की वजह से ख़त्म हो सकती है. ज़ाहिर है कि यह अंतर्राष्ट्रीय विकास परिदृश्य को और पेचीदा बना देगा, साथ ही विकासशील देशों में विकास की पूरी प्रक्रिया को धीमा कर देगा. कुछ विद्वानों ने इसको लेकर भी चेताया है कि त्रिपक्षीय साझेदारियां देशों के बीच ऊंच-नीच यानी बड़े और छोटे के अनुक्रम को भी बरक़रार रख सकती हैं.
यह पेपर स्पष्ट तौर पर यह मानता है कि भारत के लिए त्रिपक्षीय कोऑपरेशन विकास सहयोग का एक महत्वपूर्ण साधन है और एक अहम ज़रिया है. तमाम दूसरी बातों के साथ-साथ, यह पेपर ये भी सुझाव देता है कि साझेदार आपस में अधिक के अधिक संवाद करें, नए वित्तीय मॉडल्स तलाशें और प्राप्तकर्ता देशों के हितों को ध्यान में रखकर उसके मुताबिक़ कार्य करें, ताकि विकास सहयोग का यह तरीक़ा अच्छी तरह से काम कर सके.
मलांचा चक्रबर्ती ओआरएफ़ में सीनियर फेलो हैं.
स्वाति प्रभु ओआरएफ़ में एसोसिएट फेलो हैं.
Appendix:
ओआरएफ़ राउंड टेबल परिचर्चा
"इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में त्रिकोणीय सहयोग - अवसर एवं चुनौतियां"
13 अक्टूबर 2022/ ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली.
प्रतिभागी-
- श्री मधुसूदनन श्रीधरन, संयुक्त सचिव, डेवलपमेंट पार्टनरशिप एडमिनिस्ट्रेशन, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार
- श्री अश्विनी कुमार, अवर सचिव, यूरोप (पश्चिम), विदेश मंत्रालय, भारत सरकार
- डॉ. गीतांजलि नटराज, निदेशक (रिसर्च), सर्विसेज एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (SPEC), नई दिल्ली
- सुश्री नंदिता बरुआ, कंट्री रिप्रेजेंटेटिव इंडिया, द एशिया फाउंडेशन
- श्री लॉरेंट ले डैनोइस, टीम लीडर, यूरोपियन यूनियन डेलीगेशन टु इंडिया एंड भूटान
- श्री वूचन चांग, निदेशक, KOICA, इंडिया
- अम्ब गुरजीत सिंह, जर्मनी में भारत के पूर्व राजदूत और अफ्रीका में त्रिपक्षीय सहयोग पर भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) टास्क फोर्स के चेयरपर्सन
- प्रोफेसर साओन रे, प्रोफेसर, इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (ICRIER), नई दिल्ली
- सुश्री क्योको होकुगो, मिनिस्टर (इकोनॉमिक एंड डेवलपमेंट), जापान दूतावास
- पूर्व राजदूत नवदीप सूरी, डिस्टिंग्विश्ड फेलो, ओआरएफ़
- डॉ. नीलांजन घोष, निदेशक, सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी एवं ओआरएफ़ कोलकाता
- डॉ. मलांचा चक्रबर्ती, सीनियर फेलो एवं डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च), ओआरएफ़
- डॉ. स्वाति प्रभु, एसोसिएट फेलो, ओआरएफ़
- श्री बेन मेलोर, डायरेक्टर फॉर इंडिया एंड इंडियन ओसीन, एफसीडीओ
- श्री शांतनु मित्रा, (प्रमुख, इंफ्रास्ट्रक्चर एवं अर्बन) एफसीडीओ
- सुश्री एवलिन एश्टन-ग्रिफिथ्स, पॉलिटिकल एंड सिक्योरिटी टीम, एफसीडीओ
- श्री डेविड व्हाइट, राजनीतिक और सुरक्षा दल, एफसीडीओ
- श्री मोहित सिप्पी, इंडो-पैसिफिक रीजनल टीम, एफसीडीओ
________________________________________
Endnotes
[a] 138 देशों के प्रतिनिधिमंडलों ने 12 सितंबर 1978 को ब्यूनस आयर्स, अर्जेंटीना में विकासशील देशों के बीच तकनीक़ी सहयोग (TCDC) को बढ़ावा देने और इसे कार्यान्वित करने के लिए एक कार्य योजना को अपनाया।
[b] डेवलपमेंट असिस्टेंट कमेटी दुनिया के कुछ सबसे बड़े डोनर्स का एक अंतर्राष्ट्रीय फोरम है। वर्तमान में इसके 31 सदस्य हैं।
[c] वर्ष 2005 में पेरिस में एनहेंस्ड एड इफेक्टिवनैस की दिशा में साझा प्रगति पर दूसरा हाई-लेवल फोरम आयोजित किया गया था। इसका सबसे प्रासंगिक नतीज़ा पेरिस डिक्लेरेशन था, जिसने सहायता को अधिक प्रभावी बनाने के मूलभूत सिद्धांतों को निर्धारित किया।
[d] थर्ड हाई-लेवल फोरम ऑन एड इफेक्टिवनैस (HLF-3) वर्ष 2008 में अकरा, घाना में आयोजित किया गया था। इसने पेरिस सिद्धांतों के आधार पर व्यापक सहायता साझेदारी को प्रोत्साहित किया।
[e] वर्ष 2010 में कोलंबिया के बोगोटा में साउथ-साउथ सहयोग एवं क्षमता विकास पर उच्च स्तरीय कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें बोगोटा स्टेटमेंट जारी हुआ था।
[f] BAPA+40 साउथ-साउथ सहयोग पर दूसरी हाई लेवल कॉन्फ्रेंस है, जो 20-22 मार्च, 2019 को ब्यूनस आयर्स, अर्जेंटीना में आयोजित की गई थी।
[g] ओआरएफ़ राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस चैथम हाउस नियमों के तहत आयोजित की गई थी और इसलिए इस विशेषज्ञ का नाम और अन्य किसी विशेषज्ञ का नाम, जिन्हें इस पेपर में उद्धृत किया जाएगा, नहीं दिया जा सकता है।
[h] लाइन ऑफ क्रेडिट एक वित्तपोषण तंत्र है, जिसके माध्यम से एक्जिम बैंक ऑफ इंडिया भारत से परियोजनाओं, उपकरणों, वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात के लिए सहायता प्रदान करता है। एक्जिम बैंक स्वयं और भारत सरकार के समर्थन से भी लाइन्स ऑफ क्रेडिट का विस्तार करता है।
[i] भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति (BMVSS) दिव्यांगता के लिए समर्पित दुनिया की सबसे बड़ी संस्था है। संस्थान ने 2 मिलियन से अधिक दिव्यांग लोगों का पुनर्वास किया है और भारत एवं दुनिया के 27 अन्य देशों में काम करता है। बेयरफुट कॉलेज एक भारतीय ग्रासरूट संगठन है, जो ग्रामीण समुदायों को टिकाऊ एवं आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कार्य करता है। यह संस्थान 96 देशों में सौर ऊर्जा, जल, स्वास्थ्य, पर्यावरण और शिक्षा के क्षेत्रों में काम करता है। TERI एक भारतीय संस्थान है, जो ऊर्जा, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और स्थिरता के क्षेत्र में काम करता है। अपनी Lighting a Billion Lives (LaBL) पहल के अंतर्गत इस संस्थान ने 13 देशों में 4.5 मिलियन लोगों को 1,70,000 सौर लालटेन और 60,000 स्वच्छ कुक स्टोव प्रदान किए हैं।
[j] HIPCs विकासशील देशों का एक समूह है। इस समूह के सदस्य देश बेहद ग़रीबी में गुजर बसर करते हैं और ऋण में डूबे हुए हैं। ये देश IMF एवं विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से विशेष सहायता के लिए पात्र हैं।
[k] स्पेशल परपस व्हीकल एक क़ानूनी इकाई है, जो एक बड़े कॉर्पोरेशन या सरकारी एजेंसी से संपत्ति, सब्सीडरी या वित्तीय लेनदेन को अलग करने के लिए स्थापित की जाती है।
[l] GGG यानी सरकार-सरकार-सरकार साझेदारी। GGB का अर्थ है सरकार-सरकार-बिजनेस पार्टनरशिप। BBG का तात्पर्य है बिजनेस-बिजनेस-सरकार साझेदारी। BBB - का मतलब है बिजनेस-बिजनेस-बिजनेस पार्टनरशिप।
[m] सितंबर 2016 में Vientiane, Lao PDR में 28वें/29वें ASEAN शिखर सम्मेलन में आसियान नेताओं द्वारा दि मास्टर प्लान ऑन ASEAN कनेक्टिविटी (MPAC) 2025 को अपनाया गया था। इसका उद्देश्य पारस्परिक तौर पर एक जुड़ा हुआ एवं एकीकृत ASEAN प्राप्त करना था, जो प्रतिस्पर्धात्मकता, समावेशिता और समुदाय की एक बड़ी भावना को बढ़ावा देगा। इसमें टिकाऊ इन्फ्रास्ट्रक्चर, डिजिटल इनोवेशन, निर्बाध लॉजिस्टिक्स, नियामक श्रेष्ठता और लोगों की गतिशीलता जैसे पांच सामरिक क्षेत्रों में 15 पहलें शामिल हैं।
[n] अफ्रीका इन्वेस्टमेंट फोरम एक बहु-हितधारक, बहु-अनुशासनात्मक प्लेटफॉर्म है, अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक द्वारा समर्थित है और जिसका उद्देश्य महाद्वीप के निवेश की खाई को भरना है। यह परियोजनाओं को बैंकेबल स्टेज में आगे बढ़ाने, पूंजी जुटाने और सौदों के वित्तीय समापन में तेज़ी लाने के लिए समर्पित है।
[o] एजेंडा 2063 महाद्वीप को एक ग्लोबल पावरहाउस में बदलने के लिए अफ्रीका का मास्टर प्लान है। इसका उद्देश्य समावेशी और सतत विकास के लिए अपने लक्ष्य को पूरा करना है। एजेंडा 2063 Pan-Africanism और African Renaissance के अंतर्गत एकता, आत्म निर्धारण, स्वतंत्रता, प्रगति और सामूहिक समृद्धि के लिए पूरे अफ्रीका में चलाने जाने वाले अभियान की एक मज़बूत अभिव्यक्ति है।
[1] Vitor Gaspar, Paulo Medas and Roberto Perrelli, “Global Debt Reaches a Record $226 Trillion”, IMF Blog, December 15, 2021.
[2] Pierre-Olivier Gourinchas, “Global Economic Growth Slows Amid Gloomy and More Uncertain Outlook”, IMF Blog, July 26, 2022.
[3] “Global economy: Outlook worsens as global recession looms – IMF”, United Nations, July 26, 2022.
[4] Sebastian Paulo, “India as a Partner in Triangular Development Cooperation: Prospects for the India-UK Partnership for Global Development”, ORF Working Paper, March 2018.
[5] Hyunjoo Rhee, “Promoting South-South Cooperation through Knowledge Exchange” in Catalysing Development: A New Vision for Aid, eds. H. Kharas, K. Makino and W. Jung (Washington, DC: Brookings Institute, 2011), 260–80.
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[11] Organisation for Economic Cooperation and Development, “The Paris Declaration on Aid Effectiveness: Five Principles for Smart Aid”.
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[13] “Buenos Aires outcome document of the second High-level United Nations Conference on South-South Cooperation” (outcome document of Seventy-third session of United Nations General Assembly, April 30, 2019).
[14] Sachin Chaturvedi and Nadine Piefer-Soyler, ‘Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations’, OECD Development Cooperation Working Paper 89, January 2021.
[15] Hyden, “After the Paris Declaration: Taking on the Issue of Power”
[16] Emma Mawdsley, “Development geography 1: Cooperation, competition and convergence between ‘North’ and ‘South’”, Progress in Human Geography 41(2015): 1
[17] Bernt Berger and Uwe Wissenbach, “EU-China-Africa trilateral development cooperation: common challenges and new directions”, Discussion Paper No. 21/2007, Deutsches Institut für Entwicklungspolitik (DIE), Bonn, 2007
[18] Mawdsley, “Development geography 1: Cooperation, competition and convergence between ‘North’ and ‘South’”
[19] Berger and Wissenbach, “EU-China-Africa trilateral development cooperation: common challenges and new directions”
[20] Mawdsley, “Development geography 1: Cooperation, competition and convergence between ‘North’ and ‘South’”
[21] Laura Trajber Waisbich, “‘It Takes Two to Tango’: South–South Cooperation Measurement Politics in a Multiplex World”, Global Policy 13 (2022): 334
[22] Mawdsley, “Development geography 1: Cooperation, competition and convergence between ‘North’ and ‘South’”
[23] Bushra Bataineh, Michael Bennon, and Francis Fukuyama, “Beijing’s Building Boom How the West Surrendered Global Infrastructure Development to China”, Foreign Affairs, May 21, 2018.
[24] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”, October 13, 2022
[25] Mawdsley, “Development geography 1: Cooperation, competition and convergence between ‘North’ and ‘South’”
[26] Paulo, “India as a Partner in Triangular Development Cooperation: Prospects for the India-UK Partnership for Global Development”
[27] OECD, “Enabling Effective Triangular Co-operation”, OECD Development Policy Paper No 23, December 2019.
[28] “Trillions needed to close finance gap on Sustainable Development Goals, says UN expert”, United Nations, October 21, 2022.
[29] “Alicia Bárcena Urges for Strengthening Triangular Cooperation in the Region and Fostering its Role as a Catalyst of the Post-Pandemic Recovery”, United Nations Economic Commission for Latin America and the Caribbean, October 7, 2020.
[30] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[31] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[32] Guido Ashoff, Triangular Cooperation Opportunities, risks, and conditions for effectiveness, Special Report, World Bank Institute, 2010.
[33] Talita Yamashiro Fordelone, “Triangular Co-operation and Aid Effectiveness: Can triangular co-operation make aid more effective?” (paper presented at the Policy Dialogue on Development Co-operation, Mexico City, 28-29 September 2009).
[34] Fordelone, “Triangular Co-operation and Aid Effectiveness: Can triangular co-operation make aid more effective?”
[35] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[36] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[37] Fordelone, “Triangular Co-operation and Aid Effectiveness: Can triangular co-operation make aid more effective?”
[38] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[39] Berger and Wissenbach, “EU-China-Africa trilateral development cooperation:
common challenges and new directions”
[40] Cheryl McEwan and Emma Mawdsley, “Trilateral Development Cooperation: Power and Politics in Emerging Aid Relationships”, Development and Change 43 (2012)
[41] McEwan and Mawdsley, “Trilateral Development Cooperation: Power and Politics in Emerging Aid Relationships”
[42] Ashoff, “Triangular Cooperation Opportunities, risks, and conditions for effectiveness”
[43] Lidia Cabral and J. Weinstock, “Brazil: An Emerging Aid Player”, Overseas Development
Institution (ODI) Briefing Paper 64. London: ODI, 2010.
[44] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[45] Fordelone, “Triangular Co-operation and Aid Effectiveness: Can triangular co-operation make aid more effective?”
[46] Fordelone, “Triangular Co-operation and Aid Effectiveness: Can triangular co-operation make aid more effective?”
[47] Chaturvedi and Piefer-Soyler, “Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations”
[48] Chaturvedi and Piefer-Söyler, “Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations”
[49] Chaturvedi and Piefer-Soyler, “Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations”
[50] Chaturvedi and Piefer-Soyler, “Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations”
[51] “India, US renew agreement for development cooperation in African, Asian countries”, Hindustan Times, July 30, 2022.
[52] “Joint Statement on the UK-India Summit 2015”, Press Information Bureau, Prime Minister’s Office, Government of India, November 12, 2015.
[53] Gurjit Singh and Jhanvi Tripathi, India in Africa: Developing Trilateral Partnership, New Delhi, Confederation of Indian Industries, 2019.
[54] Chaturvedi and Piefer-Soyler, “Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations”
[55] Chaturvedi and Piefer-Soyler, “Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations”
[56] Paulo, “India as a Partner in Triangular Development Cooperation: Prospects for the India-UK Partnership for Global Development”
[57] Paulo, “India as a Partner in Triangular Development Cooperation: Prospects for the India-UK Partnership for Global Development”
[58] Mawdsley, “Development geography 1: Cooperation, competition and convergence between ‘North’ and ‘South’”
[59] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[60] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[61] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[62] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[63] Paulo, “India as a Partner in Triangular Development Cooperation: Prospects for the India-UK Partnership for Global Development”
[64] Chaturvedi and Piefer-Soyler, “Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations”
[65] Paulo, “India as a Partner in Triangular Development Cooperation: Prospects for the India-UK Partnership for Global Development”
[66] “Cabinet gives ex-post facto approval to MoU between India and UK on Global Innovation Partnership”, Press Information Bureau, May 5, 2021.
[67] Madhavi Gaur, “SBI subsidiary and MEA sign agreement regarding Trilateral Development Cooperation Fund”, Current Affairs, July 13, 2022.
[68] “The UK Government’s Strategy for International Development”, Presented to Parliament by the Secretary of State for Foreign, Commonwealth & Development Affairs by Command of Her Majesty, May 2022.
[69] Theo Beal and David Lawrence, “Does the UK’s new Development Strategy Support its Foreign Policy Objectives?”, Expert Comment, Chatham House, May 31, 2022.
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[71] Infrastructure Deficit, Future Agenda.
[72] Jason Zhengrong Lu, “A simple way to close the multi-trillion-dollar infrastructure financing gap”, World Bank Blogs, April 15, 2020.
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[74] US Development Finance Corporation, “The Launch of Multi-Stakeholder Blue Dot Network”, November 4, 2019.
[75] “Fact Sheet: President Biden and G7 Leaders Formally Launch the Partnership for Global Infrastructure and Investment”, The White House, June 26, 2022.
[76] “Fact Sheet: President Biden and G7 Leaders Formally Launch the Partnership for Global Infrastructure and Investment”.
[77] Ministry of External Affairs, “First I2U2 (India-Israel-UAE-USA) Leaders’ Virtual Summit”, July 12, 2022.
[78] Fordelone, “Triangular Co-operation and Aid Effectiveness: Can triangular co-operation make aid more effective?”
[79] Rani D. Mullen, IDCR Report: The State of Indian Development Cooperation, New Delhi, Centre for Policy Research, Spring 2014.
[80] Rani D. Mullen, “Indian Development Cooperation Regains Momentum: 7 main take-aways from India’s 2019-20 Union Budget”, Centre for Policy Research, Policy Brief, July 2019.
[81] Devirupa Mitra, “India’s Aid Diplomacy is Worth $24 Billion. But How Well is the Money Being Spent?”, The Wire, June 16, 2017.
[82] Malancha Chakrabarty, “Development Cooperation Towards the SDGs: The India Model”, ORF Occasional Paper No. 369, September 2022, Observer Research Foundation.
[83] Ritika Passi, India’s infrastructure diplomacy in a competitive Indo-Pacific, Perth US Asia Centre, 2021.
[84] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[85] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[86] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[87] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[88] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[89] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
[90] Fordelone, “Triangular Co-operation and Aid Effectiveness: Can triangular co-operation make aid more effective?”
[91] “China’s Belt and Road Initiative has negative impacts on partner countries: Report”, The Print, January 27. 2023.
[92] Chaturvedi and Piefer-Soyler, “Triangular Co-operation with India: Working with Civil Society Organisations”
[93] Navdeep Suri and Anurag Reddy, “Beyond Government: Role of New Actors in India’s Development Cooperation”, in A 2030 Vision for India’s Economic Diplomacy, ed. Malancha Chakrabarty and Navdeep Suri ((New Delhi: ORF and Global Policy Journal, 2021), 222-27
[94] ORF Roundtable: “Triangular Cooperation in the Infrastructure Sector- Opportunities and Challenges”
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