प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूक्रेन यात्रा को दुनिया के कई हिस्सों में बहुत करीब से देखा गया. खुद कीव भी इस यात्रा को लेकर काफी उत्साहित है, क्योंकि यह किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली यूक्रेन यात्रा है. उल्लेखनीय यह भी है कि जुलाई में जब प्रधानमंत्री रूस में थे, तब यूक्रेन ने उनकी आलोचना की थी. उसका कहना था कि मॉस्को जब कीव पर इतनी बर्बरता कर रहा है, तो भारत भला कैसे उसे अपना समर्थन दे सकता है? जाहिर है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूक्रेन पहुंचकर उसकी यह शिकायत दूर कर रहे हैं कि मॉस्को से पुरानी दोस्ती के कारण रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत एकतरफा भूमिका निभाता दिख रहा है.
स्पष्टता और तटस्थता के बीच युद्ध समाधान की कोशिश
देखा जाए, तो इस युद्ध को लेकर भारत का मत शुरू से ही स्पष्ट रहा है. भारत युद्ध का अंत बातचीत की मेज पर चाहते हैं और संप्रभुता व क्षेत्रीय अखंडता जैसे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बुनियादी सिद्धांतों को हर हाल में सुनिश्चित करना चाहते हैं. भारत ने सार्वजनिक तौर पर भले रूस की आलोचना नहीं की, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी मॉस्को यात्रा में सबके सामने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से यह जरूर कहा कि यह समय युद्ध का नहीं है और हमें भू-राजनीतिक मसलों का हल गोली-बारूद से नहीं निकालना चाहिए. भारत चूंकि दोनों पक्षों में आपसी बातचीत के जरिये युद्ध का समाधान चाहता है, इसलिए 15-16 जून, 2024 को स्विट्जरलैंड में यूक्रेन मसले का हल निकालने के लिए बुलाए गए अंतरराष्ट्रीय शांति शिखर सम्मेलन में हमने हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि उसमें रूस को नहीं बुलाया गया था. प्रधानमंत्री की रूस यात्रा का भी जब पश्चिमी देश विरोध कर रहे थे, तब भी हमने यही कहा था कि भारत इस युद्ध को लेकर अपने स्थापित सिद्धांत पर ही आगे बढ़ रहा है और भारत किसी के दबाव में अपनी विदेश नीति नहीं तय करते.
2024 को स्विट्जरलैंड में यूक्रेन मसले का हल निकालने के लिए बुलाए गए अंतरराष्ट्रीय शांति शिखर सम्मेलन में हमने हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि उसमें रूस को नहीं बुलाया गया था. प्रधानमंत्री की रूस यात्रा का भी जब पश्चिमी देश विरोध कर रहे थे
बहरहाल, यूक्रेन यात्रा से पहले प्रधानमंत्री पोलैंड में थे, जहां उन्होंने व्यापार, तकनीक और रक्षा संबंधों का खास तौर पर जिक्र किया. उन्होंने वहां भारतवंशियों से भी मुलाकात की और पोलैंड को लेकर नई नीतियों का खाका खींचने पर जोर दिया. यह करना जरूरी भी था, क्योंकि पोलैंड मध्य यूरोप का एक अहम देश है. तेज विकास दर के कारण इसे पश्चिम की ‘टाइगर इकोनॉमी’ कहा जाता है और यूरोप में इसकी भूमिका लगातार बढ़ रही है. यह अंतरराष्ट्रीय मसलों पर यूरोप के पारंपरिक रुख से इतर अपनी राय रखता है. यूक्रेन संकट पर भी यह लगातार मुखर है और यूरोप के अगुवा देशों में स्थान बनाने को तत्पर है. चूंकि मध्य यूरोप भारत के लिए अहमियत रखता है, इसलिए पोलैंड के साथ करीबी हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है. भू-राजनीति भी हमें पोलैंड के नजदीक ले जाती है.
भू-राजनीतिक मसलों पर भारत सिर्फ अपना हित नहीं देखता, बल्कि विकासशील व गरीब देशों का रुख भी सामने रखता है. यही कारण है कि भारत वैश्विक दक्षिण, यानी ‘ग्लोबल साउथ’ की मजबूत आवाज बन रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि भू-राजनीतिक मसलों पर भारत सिर्फ अपना हित नहीं देखता, बल्कि विकासशील व गरीब देशों का रुख भी सामने रखता है. यही कारण है कि भारत वैश्विक दक्षिण, यानी ‘ग्लोबल साउथ’ की मजबूत आवाज बन रहे हैं. चाहे यूक्रेन संकट हो या इजरायल-हमास युद्ध, भारत का रुख इस दायित्व से भी प्रभावित रहा है. इस समय जब दुनिया के तमाम बड़े देश आपस में जूझ रहे हैं, तब गरीब व विकासशील देशों की आवाज बमुश्किल वैश्विक मंचों पर जगह बना पा रही है. ऐसे में, अंतरराष्ट्रीय जगत में अपने बढ़ते कद का लाभ उठाकर भारत उनकी स्वाभाविक सशक्त आवाज बन रहा है. यूक्रेन युद्ध को जल्द खत्म कराने को लेकर भारत यदि तत्परता दिखा रहा है, तो उसकी एक वजह उस पर ‘ग्लोबल साउथ’ की महती जिम्मेदारी का होना है.
ध्रुवीकरण को पाटने की हरसंभव कोशिश
कहा यह भी जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी यूक्रेन किसी खास शांति मिशन के तहत जा रहे हैं. ऐसा कहने वाले इस तथ्य से अनजान हैं कि इस युद्ध को लेकर भारत का नजरिया स्पष्ट है. वह इसके तमाम भागीदारों को बातचीत की मेज पर बिठाकर मामला सुलझाने का पक्षधर है. हां, नई दिल्ली इस बात से भी वाकिफ है कि अगर यह संकट और लंबा चला, तो इसका जो प्रतिकूल असर विकासशील देशों व ग्लोबल साउथ पर हो रहा है, उसे नजरंदाज करना मुश्किल हो जाएगा. इसके साथ-साथ, भारत यह भी स्पष्ट करना चाहता है कि वह किसी के दबाव में नीतियां नहीं बना रहा. अपने सामरिक, आर्थिक और रक्षा संबंधों को बरकरार रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी यदि रूस जा सकते हैं, तो पोलैंड और यूक्रेन जाकर वह यह भी संदेश देने से नहीं चूकना चाहते कि दोनों पक्षों से वह लगातार संपर्क में हैं. असलियत भी यही है कि भारत उन चंद देशों में एक है, जिसके तार सभी तरफ से जुड़े हुए हैं. भारत पश्चिमी देशों के भी उतने ही करीब हैं, जितने रूस के. भारत मौजूदा ध्रुवीकरण को पाटने की हरसंभव कोशिश कर रहा है, जिसका नमूना हमें प्रधानमंत्री की पोलैंड और यूक्रेन यात्रा में दिख रहा है.
भारत मौजूदा ध्रुवीकरण को पाटने की हरसंभव कोशिश कर रहा है, जिसका नमूना हमें प्रधानमंत्री की पोलैंड और यूक्रेन यात्रा में दिख रहा है.
यहां गुटनिरपेक्षता जैसे सिद्धांत बेमानी साबित हो रहे हैं. वैसे, इस नीति को भारत काफी पहले तिलांजलि दे चुका है. गुटनिरपेक्षता के मुताबिक, भारत किसी भी गुट में शामिल नहीं होंगे और किसी समूह के साथ घनिष्ठ संबंध नहीं बनाएंगे, लेकिन अब तो भारत हर किसी के साथ करीबी रिश्ता रखना चाहता है. रूस-यूक्रेन मामले में ही भारत मॉस्को के साथ तमाम तरह की आर्थिक और व्यापारिक गतिविधियां बनाकर रखे हुए हैं, जबकि यूक्रेन की मदद करती पश्चिमी ताकतों के साथ भी हमारा बहुमूल्य गठबंधन बदस्तूर जारी है.
अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत
वास्तव में, यही मौजूदा दौर की राजनीति है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले एक दशक में अच्छी-खासी मजबूती दी है. इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि भारत को लेकर अब दुनिया भर की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं और नई दिल्ली को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गंभीरता से सुना जाने लगा है. हमारी कई मामलों में चीन के साथ तुलना की जाती है, लेकिन भारत की स्पष्टवादिता अंतरराष्ट्रीय जगत में इसे खास और चीन से अलग बना देती है. इस रुतबे का हमें इस्तेमाल करना चाहिए. इसी कारण प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन यात्रा का महत्व बढ़ जाता है, क्योंकि उनकी रूस यात्रा में कुछ ऐसी प्रतिकूल टिप्पणियां भी आई थीं, जिनको नकारना आवश्यक था. प्रधानमंत्री मोदी की यूरोप-यात्रा इसी ताकत को मजबूत करने की एक संजीदा कोशिश है.
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