अमेरिका और भारत ने 10,000 इलेक्ट्रिक बसों की तैनाती की सुविधा को लेकर साझेदारी का एलान किया है. ये प्रधानमंत्री मोदी की वॉशिंगटन डीसी की तूफ़ानी यात्रा का हिस्सा रही. तमाम अन्य रणनीतिक और आर्थिक घोषणाओं के बीच ये साझेदारी बताती है कि ऊर्जा के क्षेत्र में परिवर्तनकारी क़वायद दोनों देशों के बीच नए जोश से भरे रिश्तों का एक प्रमुख स्तंभ हो सकती है.
सार्वजनिक बस प्रणाली का विद्युतीकरण, डिकार्बनाइज़ेशन की ओर भारत की प्राथमिकता में शामिल रहा है. सार्वजनिक बेड़े में इलेक्ट्रिक बसों को शामिल किए जाने की क़वायद को तक़रीबन पूरी तरह से अकेले प्रादेशिक परिवहन उपक्रमों (STUs) के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा संचालित किया गया है. केंद्र सरकार की ओर से दिए गए ख़रीद दिशानिर्देशों के आधार पर इन संस्थाओं ने ऐसी बसों को अपनाने के लिए ‘वेट लीज़’ मॉडल का सहारा लिया है. इस प्रक्रिया में वो सीधे बसों की ख़रीद नहीं करते, बल्कि उन्हें मूल उपकरण निर्माताओं (OEMs) से लीज़ यानी पट्टे पर लेते हैं, और उपयोग के आधार पर उन्हें एक निश्चित शुल्क का भुगतान करते हैं. FAME-II योजना प्रति KWh बैटरी क्षमता पर 20,000 रुपये की सब्सिडी भी प्रदान करती है. लीज़िंग मॉडल के तहत STUs द्वारा लीज़ पर ली गई लगभग 7,000 बसों के लिए इस तरह का अनुदान मुहैया कराया जाता है.
सार्वजनिक बस प्रणाली का विद्युतीकरण, डिकार्बनाइज़ेशन की ओर भारत की प्राथमिकता में शामिल रहा है. सार्वजनिक बेड़े में इलेक्ट्रिक बसों को शामिल किए जाने की क़वायद को तक़रीबन पूरी तरह से अकेले प्रादेशिक परिवहन उपक्रमों (STUs) के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा संचालित किया गया है.
पिछले साल कन्वर्जेंस एनर्जी सर्विसेज़ लिमिटेड (CESL) ने भारत के पांच शहरों में 5,450 ई-बसों की तैनाती से जुड़ी एक निविदा प्रक्रिया को सफलतापूर्वक पूरा किया. निकट भविष्य में 50,000 बसों को शामिल करने के इरादे से इस काम को अंजाम दिया गया. वाहन डेटाबेस के आंकड़ों के अनुसार फ़िलहाल देश में लगभग 4,776 ई-बसें रजिस्टर्ड हैं.
वैसे तो सार्वजनिक परिवहन का विद्युतीकरण एक सराहनीय लक्ष्य है, लेकिन इस क़वायद को सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा अपनाने और संचालित किए जाने के दृष्टिकोण की अपनी सीमाएं हैं. राज्यों के परिवहन उपक्रम सर्वाधिक ऋणग्रस्त (indebted) सार्वजनिक संस्थाओं में शामिल हैं, और वित्तीय घाटे के मामले में शायद सिर्फ़ वितरण उपयोगिताओं (distribution utilities) से ही पीछे हैं. एक सरकारी अनुमान के मुताबिक 2016-17 में STUs को लगभग 139 अरब रुपए का भारी-भरकम वार्षिक संचयी घाटा झेलना पड़ा- तब से इस आंकड़े में निश्चित रूप से बढ़ोतरी हो गई है. अहम बात ये है कि इन संस्थाओं ने जो नुक़सान झेला है, वो नई बसों पर पूंजीगत ख़र्च के चलते नहीं, बल्कि भारी परिचालन लागत के कारण है. STUs के कुल व्यय का लगभग 70 प्रतिशत, स्टाफ और ईंधन लागतों पर है. उल्लेखनीय है कि ई-बसों की लागत पारंपरिक डीज़ल बसों की तुलना में लगभग पांच गुना ज़्यादा होती है. वैसे तो वेट लीज़ मॉडल, वाहन के जीवनकाल में ई-बसों की ऊंची अग्रिम लागत को एक लंबे कालखंड तक फैलाने के लिहाज़ से उपयोगी है, फिर भी वे STUs पर अतिरिक्त परिचालन लागत का भारी-भरकम बोझ डालते हैं. दरअसल राज्य परिवहन उपक्रमों को अपने अनुबंध की अवधि के लिए मूल उपकरण निर्माताओं (OEMs) को भुगतान जारी रखना होता है.
राज्य परिवहन उपक्रमों (STUs) की ख़राब वित्तीय स्थिति का मतलब ये भी है कि इन अनुबंधों से जुड़ने के बाद संचालकों पर अदायगी ना हासिल होने की बड़ी तलवार लटकी होती है. इस वजह से वित्तीय संस्थान भी OEMs को कर्ज़ देने को लेकर कम उत्साहित रहते हैं. नतीजतन ऐसी निविदाओं में हिस्सा लेने को लेकर उनकी इच्छा पहले से ही कम हो गई है. 2023 की पहली छमाही में CESL द्वारा 5,000 ई-बसों के लिए निकाले गए टेंडर में OEMs की ओर से बहुत कम दिलचस्पी दिखाई गई और केवल एक कंपनी की ओर से बोली जमा की गई. मूल उपकरण निर्माताओं (OEMs) ने राज्य परिवहन उपक्रमों से भुगतान गारंटी से जुड़े तंत्र के अभाव को इस पूरी क़वायद में अपनी दिलचस्पी के अभाव के कारण के तौर पर रेखांकित किया है. एक और बात, वैसे तो CESL द्वारा निविदाओं के एकत्रीकरण से क़ीमतों में काफ़ी गिरावट आई है (CESL का दावा है कि पिछली निविदा में तय हुई क़ीमतें डीज़ल बसें चलाने की लागत से 29 प्रतिशत सस्ती हैं), लेकिन इसका ये भी मतलब है कि OEMs के लिए इन निविदाओं से वित्तीय रिटर्न कमाने की संभावना भी कम होती है. धीरे-धीरे ये साफ़ होता जा रहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा संचालित ई-बस परिवहन मॉडल जल्द ही परिपूर्णता बिंदु (saturation point) तक पहुंच सकता है.
20 लाख रजिस्टर्ड बस
भारत में बस स्वामित्व के वितरण पर नज़र डालने से भी सार्वजनिक क्षेत्र से परे निकलने की आवश्यकता रेखांकित होती है. भारत में लगभग 20 लाख रजिस्टर्ड बसें हैं, जिनमें से लगभग 90 प्रतिशत का स्वामित्व निजी क्षेत्र के पास है. इतना ही नहीं, इनमें से लगभग 70 प्रतिशत बसों के पास विभिन्न सार्वजनिक सेवाओं को पूरा करने के लिए स्टेज और कॉन्ट्रैक्ट कैरिज के वैध परमिट मौजूद हैं. इसके बावजूद, किसी भी नीतिगत उपाय में निजी किरदारों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया गया है. FAME-II के तहत सब्सिडी और CESL से तकनीकी सहायता, दोनों ही राज्य परिवहन उपक्रमों (STUs) की ओर निर्देशित की जाती रही हैं. फिर भी निजी क्षेत्र के कुछ किरदारों ने बिना किसी सहारे के पहले से ही इलेक्ट्रिक बसों की तैनाती का विकल्प चुन लिया है, जो उनकी ज़बरदस्त इच्छा का संकेत देता है. इसका एक उदाहरण न्यूगो है, जो दिल्ली से नज़दीक के शहरी ठिकानों तक इंटरसिटी इलेक्ट्रिक कोच सेवाएं प्रदान करता है.
भारत में लगभग 20 लाख रजिस्टर्ड बसें हैं, जिनमें से लगभग 90 प्रतिशत का स्वामित्व निजी क्षेत्र के पास है. इतना ही नहीं, इनमें से लगभग 70 प्रतिशत बसों के पास विभिन्न सार्वजनिक सेवाओं को पूरा करने के लिए स्टेज और कॉन्ट्रैक्ट कैरिज के वैध परमिट मौजूद हैं.
अगर लक्ष्य बसों से उत्सर्जन को कम करना है, तो निजी बस मालिक़ों को इलेक्ट्रिक गतिशीलता की ओर बदलाव करने में सक्षम बनाकर अधिकतम लाभ जुटाए जा सकते हैं. इससे राज्य परिवहन उपक्रमों यानी STUs पर केंद्रित मॉडल के कई मुद्दों का भी समाधान हो जाएगा. इन मसलों में भुगतान करने की पहले से ज़्यादा क्षमता और अदायगी में नाकामी की कम संभावनाएं शामिल हैं. लिहाज़ा नीतिगत ढांचे को नया रूप देकर अधिक से अधिक निजी ई-बसों को अपनाए जाने की क़वायद को सक्षम किया जाना चाहिए. इस कड़ी में सबसे प्रभावी क़दम FAME-II सब्सिडी को निजी क्षेत्र तक विस्तारित करना या अन्य वित्तीय इकाइयों के ज़रिए अतिरिक्त सब्सिडी प्रदान करना होगा. सब्सिडी (जो शायद व्यावहारिक ना हो) के अलावा निजी बस मालिकों के लिए फाइनेंसिंग की लागत को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए. एक प्रकार के प्राथमिकतापूर्ण ऋण तंत्रों के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है. इसके लिए शर्तें भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा तैयार की जा सकती हैं और राष्ट्रीय विकास बैंक इसका संचालन कर सकते हैं. कुछ मार्गों पर तेज़ गति से चार्जिंग करने वाले नेटवर्क स्थापित करने के लिए निजी ऑपरेटरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किए जाने की भी ज़रूरत है. अंत में, CESL अपने एकत्रीकरण संचालनों (aggregation operations) को निजी क्षेत्र तक विस्तारित करने पर भी ध्यान लगा सकता है. साथ ही परमिट देने के तंत्र को संशोधित करने पर भी ज़ोर दिया जा सकता है. ग़ौरतलब है कि यही तंत्र निजी क्षेत्र के लिए पट्टे पर ली गई बसों के संचालन को प्रतिबंधित करता है.
भारत-अमेरिका साझेदारी
भारत-अमेरिका इलेक्ट्रिक बस साझेदारी, निजी क्षेत्र में ई-बस को व्यापक रूप से अपनाए जाने की क़वायद का एक प्रमुख उत्प्रेरक हो सकती है. हालांकि, इसके लिए जुड़ाव के मौजूदा दायरे की नए सिरे से परिकल्पना करने की आवश्यकता होगी. शुरुआती जानकारी के आधार पर, भुगतान गारंटी के प्रावधान के ज़रिए इस साझेदारी में ई-बसों को STUs द्वारा अपनाए जाने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा. इससे फाइनेंसरों की तरलता संबंधी कुछ चिंताएं दूर हो जाएंगी. इसकी बजाए निजी क्षेत्र के ऑपरेटरों के लिए सब्सिडी या कम ब्याज़ वाले ऋण मुहैया कराने के लिए एक कोष स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए. CESL या अन्य राष्ट्रीय विकास बैंक, ऐसे फंड का प्रबंधन करने के लिहाज़ से बेहतर स्थिति में हो सकते हैं.
अगर उपयुक्त ढंग से डिज़ाइन किया गया, तो अमेरिका-भारत इलेक्ट्रिक बस साझेदारी के लिए निजी क्षेत्र का ज़ोर, भारत में इलेक्ट्रिक बसों के ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग पर उत्प्रेरक प्रभाव डाल सकता है.
भारत-अमेरिका साझेदारी विशेष प्रकार के बस संचालनों के लिए नवाचारयुक्त वित्तीय तंत्रों की अगुवाई करने पर भी विचार कर सकती है. उदाहरण के लिए, भारत में लगभग 1.8 लाख स्कूल बसें हैं, जिनमें से ज़्यादातर निजी क्षेत्र के स्वामित्व में हैं. ये बसें विद्युतीकरण के लिए उपयुक्त हो सकती हैं. इसकी वजह ये है कि स्कूल बसें नियत मार्गों पर चलती हैं, और यात्रा के बीच लंबे समय तक इनका ठहराव रहता है, जिससे चार्जिंग के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है. बेशक़, इसका अतिरिक्त लाभ भी है क्योंकि इन बसों के उपयोग से स्कूल जाने वाले बच्चों का पारंपरिक डीज़ल बसों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषकों के संपर्क में आना कम हो जाता है. हवाई अड्डे के संचालनों या छोटी दूरी की इंटरसिटी यात्राओं में शामिल बसें भी ऐसे शुरुआती खंड हो सकते हैं, जहां इस साझेदारी के तहत ध्यान केंद्रित किया जा सकता है.
अगर उपयुक्त ढंग से डिज़ाइन किया गया, तो अमेरिका-भारत इलेक्ट्रिक बस साझेदारी के लिए निजी क्षेत्र का ज़ोर, भारत में इलेक्ट्रिक बसों के ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग पर उत्प्रेरक प्रभाव डाल सकता है. इसके अलावा, इलेक्ट्रिक बसों को अपनाने को लेकर राज्य परिवहन उपक्रमों पर बोझ कम करके, वो भारत में सार्वजनिक बस बेड़े को बढ़ाने के अपने प्राथमिक जनादेश पर अपना ध्यान भी केंद्रित कर सकते हैं. ये क़वायद निजी वाहनों पर निर्भरता में कमी लाने और एक समावेशी और किफ़ायती सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था तैयार करने की दिशा में एक पूर्व-आवश्यकता है. ये व्यवस्था भारत-अमेरिका की व्यापक साझेदारी के साथ भी सटीक रहेगी, जो निजी क्षेत्रों के संपर्कों से संचालित है. इस कड़ी में पहले से अधिक आर्थिक एकीकरण पर ध्यान दिया गया है.
प्रोमित मुखर्जी सेंटर फॉर इकोनॉमी एंड ग्रोथ, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन, दिल्ली में एसोसिएट फेलो हैं
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