Author : Abhishek Mishra

Published on Aug 30, 2022 Commentaries 0 Hours ago
G20 में अपनी अध्यक्षता के दौरान भारत को ‘अफ्रीकी’ नुमाइंदगी बढ़ाने का समर्थन क्यों करना चाहिए?

तमाम ऐतिहासिक क़िस्सों, आज़ादी के साझा संघर्षों, प्रवासियों के संपर्कों और विकासशील देशों की आवाज़ को विश्व मंचों पर प्राथमिकता देने जैसे समान आपसी मुद्दों के बावजूद, भारत और अफ्रीका की साझेदारी का एक अहम इम्तिहान होने जा रहा है. अब जब भारत, 1 दिसंबर 2022 से इंडोनेशिया से G20 की अध्यक्षता ग्रहण करने वाला है, जो उसके पास 30 नवंबर 2023 तक रहेगी तो भारत को ये सुनिश्चित करने की कोशिशें करनी चाहिए कि G20 में अफ्रीकी संघ (AU)- जो 54 विविधता भरी, संप्रभु और नई पहल करने वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं- को एक स्थायी और पूर्णकालिक सदस्य के तौर पर शामिल कराना चाहिए, जिससे G20 को G21 बनाया जा सके.

अब जब भारत, 1 दिसंबर 2022 से इंडोनेशिया से G20 की अध्यक्षता ग्रहण करने वाला है, जो उसके पास 30 नवंबर 2023 तक रहेगी तो भारत को ये सुनिश्चित करने की कोशिशें करनी चाहिए कि G20 में अफ्रीकी संघ (AU)- जो 54 विविधता भरी, संप्रभु और नई पहल करने वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं- को एक स्थायी और पूर्णकालिक सदस्य के तौर पर शामिल कराना चाहिए, जिससे G20 को G21 बनाया जा सके.

भारत और अफ्रीका को लेकर होने वाली चर्चाएं अक्सर दोनों के बीच ऐतिहासिक रिश्तों की मिसालें देने के जाल में फंस जाती हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि इतिहास की अपनी अहमियत है. लेकिन, भविष्य की ओर देखना और आपस में तालमेल के व्यवहारिक तौर-तरीक़े तलाशना भी उतना ही ज़रूरी है. G20 के अध्यक्ष के रूप में भारत के पास बिल्कुल यही मौक़ा होगा. वो अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के एक ऐसे मंच पर अफ्रीका की नुमाइंदगी बढ़ाने में मददगार साबित हो सकता है, जो तमाम अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मसलों पर दुनिया को राह दिखाने वाले संगठन के रूप में प्रशासनिक ढांचे को आकार देता है.

अपनी आगे आने वाली अध्यक्षता के दौरान भारत के पास सुनहरा मौक़ा होगा कि वो अफ्रीकी संघ, अफ्रीकी संघ विकास एजेंसी- अफ्रीका के विकास के लिए नई साझेदारी (AUDA-NEPAD) और आसियान के साथ G20 के संपर्क को और बढ़ाए और इस प्रक्रिया में उभरते हुए, विकासशील और कमज़ोर क्षेत्रों की ज़रूरतों को मुख्यधारा में ले आए.

G20 संगठन में दुनिया के प्रमुख विकसित और विकासशील देश शामिल हैं, जो कुल मिलाकर दुनिया की 85 प्रतिशत GDP और दो तिहाई आबादी की नुमाइंदगी करती हैं. ऐसे में ये उचित ही होगा कि 1.37 अरब लोगों की आवाज़ और दुनिया की आठवीं बड़ी अर्थव्यवस्था वाले अफ्रीका को, इस मंच से अलग-थलग रखना, निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा न बनाना विश्व के टिकाऊ आर्थिक विकास के लिए नुक़सानदेह साबित हो सकता है. अफ्रीका को बदलाव के एक प्रतिनिधि के बजाय प्रजा के तौर पर देखने से विकास की साझा प्राथमिकताएं पूरी नहीं की जा सकती हैं.

G20 देशों की परिचर्चाओं का हिस्सा होने के बाद भी अफ्रीकी महाद्वीप की अभी भी उचित नुमाइंदगी नहीं हो पायी है. इससे G20 में अफ्रीका की आवाज़ों, उसकी अहमियत और हितों को बढ़ावा देने की अफ्रीकी कोशिशों पर बुरा असर पड़ता है.

अफ्रीकी संघ को G20 में शामिल करने से उसी तरह की नुमाइंदगी ज़ाहिर होगी, जैसी, फ्रांस, जर्मनी और इटली के अलग अलग सदस्य के तौर पर शामिल होने के बावुजूद, G20 के सदस्य के तौर पर यूरोपीय संघ (EU) करता है. वहीं दूसरी तरफ़ G20 के इकलौते अफ्रीकी सदस्य के तौर पर दक्षिण अफ्रीका है, जिसके लिए अपने घरेलू हितों को अन्य अफ्रीकी देशों के हितों के साथ संतुलित कर पाना मुश्किल हो जाता है. क्योंकि अफ्रीकी देशों की आबादी की बनावट और उनकी राष्ट्रीय प्राथमिकताएं बिल्कुल अलग हैं. बदक़िस्मती से G20 देशों की परिचर्चाओं का हिस्सा होने के बाद भी अफ्रीकी महाद्वीप की अभी भी उचित नुमाइंदगी नहीं हो पायी है. इससे G20 में अफ्रीका की आवाज़ों, उसकी अहमियत और हितों को बढ़ावा देने की अफ्रीकी कोशिशों पर बुरा असर पड़ता है. 

भारत का मक़सद

भारत के लिए अफ्रीका का विकास उसकी विदेश नीति के बुनियादी लक्ष्यों का हिस्सा है और दुनिया को बहुध्रुवीय बनना है, तो उसकी पहली शर्त है. भारत हमेशा से ही बहुपक्षीय संगठनों में अफ्रीका की नुमाइंदगी बढ़ाने की मांग का समर्थन पुरज़ोर तरीक़े से करता आया है. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने उस वक़्त भारत के रुख़ को स्पष्ट किया था, जब उन्होंने कहा था कि, ‘भारत का मानना है कि अफ्रीका की प्रगति और उसका विकास, दुनिया का संतुलन नए सिरे से स्थापित करने की प्रक्रिया का अटूट हिस्सा है.’ आज ये जज़्बात और भी अहम हो गए हैं, जब दुनिया में बड़ी तेज़ी से ध्रुवीकरण बढ़ रहा है. जिसमें एक तरफ़ तो अमेरिका के नेतृत्व में लोकतांत्रिक देश लामबंद हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर तानाशाही राष्ट्र चीन के इर्द-गिर्द जमा हो रो रहे हैं. रूस- यूक्रेन युद्ध के ग़ैरइरादतन नतीजों और उससे पैदा हुई चुनौतियों जैसे कि ईंधन और खाने के सामान में लगी आग, महंगाई, वित्तीय अस्थिरता और ऊर्जा संकट ने अफ्रीकी नेताओं को कठोर विकल्प अपनाने के लिए मजबूर कर दिया है.

G20 देशों ने अफ्रीका की मदद का ये वादा उस वक़्त किया था, जब वो ख़द 2008 के वित्तीय संकट के असर से जूझ रहे थे. इसके बाद 2010 में सिओल शिखर सम्मेलन के दौरान अफ्रीका में मूलभूत ढांचे के विकास और व्यापार में सुविधा के ज़रिए उसके क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण पर ज़ोर दिया गया था.

ख़ुशक़िस्मती से हाल के वर्षों में अफ्रीका के साथ भारत का संपर्क नियमित और टिकाऊ रहा है. भारत की विदेश और आर्थिक नीति में अफ्रीकी महाद्वीप की बढ़ती अहमियत अफ्रीका में भारत की बढ़ती कूटनीतिक पहुंच से ज़ाहिर होती है. आज की तारीख़ में 43 अफ्रीकी देशों के साथ भारत के कूटनीतिक संबंध हैं. ये आंकड़े अपने आप में बहुत कुछ कहते हैं: भारत 12.37 अरब डॉलर का रियायती क़र्ज़ (LOC) इन देशों को दे चुका है; आज दोनों पक्षों के बीच 89.5 अरब डॉलर का कारोबार हो रहा है, और इन देशों में भारत का कुल निवेश 73.9 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है और आज अफ्रीका में भारत पांचवां सबसे बड़ा निवेशक है. भारत और अफ्रीका के रिश्तों में क्षमता का निर्माण करने और कौशल विकास में मददगार बनने का पहलू भी उतना ही मज़बूत है, क्योंकि 2015 में ही 50 हज़ार प्रस्तावित वज़ीफ़ों में से 32 हज़ार का इस्तेमाल अफ्रीकी छात्र कर चुके थे, ताकि वो भारतीय संस्थानों में अलग अलग अंडरग्रेजुएड और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में पढ़ाई कर सकें.

भारत अपने कच्चे तेल की ज़रूरतों का 18 प्रतिशत अफ्रीका और ख़ास तौर से नाइजीरिया, अंगोला, दक्षिणी सूडान से मंगाता है और वो विदेश से आयात किए जाने वाले कोयले का 20 प्रतिशत हिस्सा अफ्रीकी देशों से ही ख़रीदता है. ये तथ्य भारत के लिए अफ्रीकी देशों की अहमियत ख़ुद ब ख़ुद साबित करते हैं. इसके अलावा भारत का लगभग 90 प्रतिशत काजू और इतना ही फॉस्फेट अफ्रीका से ही आता है. भारत का पूरा रासायनिक उर्वरक उद्योग ही मोरक्को, ट्यूनिशिया और सेनेगल जैसे अफ्रीकी देशों से किए जाने वाले आयात पर निर्भर है.

G20 से अफ्रीकी देशों के संबंध

अफ्रीकी देशों पर G20 का ध्यान केंद्रित करना कोई नई बात नहीं. इसका सबसे पहला ज़िक्र तो 2010 में टोरंटो शिखर सम्मेलन में किया गया था, जब अफ्रीकी विकास बैंक को रियायती दरों पर उधार देकर अफ्रीका की वित्तीय मदद का वादा किया गया था. G20 देशों ने अफ्रीका की मदद का ये वादा उस वक़्त किया था, जब वो ख़द 2008 के वित्तीय संकट के असर से जूझ रहे थे. इसके बाद 2010 में सिओल शिखर सम्मेलन के दौरान अफ्रीका में मूलभूत ढांचे के विकास और व्यापार में सुविधा के ज़रिए उसके क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण पर ज़ोर दिया गया था. उसके बाद से अफ्रीकी देशों को नियमित रूप से G20 देशों के शिखर सम्मेलन में न्यौता दिया जाता रहा है. 2017 में जब जर्मनी G20 देशों का अध्यक्ष बना तो ये संपर्क G20 के अफ्रीका के साथ समझौते (CwA) में तब्दील हो गया था.

इस समझौते का मक़सद टिकाऊ मूलभूत ढांचे, शिक्षा को बढ़ावा देने और क्षमता के निर्माण में मदद, हर देश की ख़ास ज़रूरतों के हिसाब से सुधार में तालमेल और अफ्रीकी देशों में निजी निवेश को बढ़ावा देने की अहमियत पर ज़ोर दिया गया था. इस वक़्त 12 अफ्रीकी देश इस समझौते का हिस्सा हैं. इससे भी अहम बात ये है कि समझौते के तहत, अफ्रीकी देशों के साथ संपर्क का दायरा दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया जैसे बड़े देशों से आगे बढ़ाकर छोटे अफ्रीकी देशों तक ले जाने की कोशिशें बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया है. हर अफ्रीकी देश अपने आप में अनूठा है और मूलभूत ढांचे की उसकी ज़रूरत भी अलग है. अफ्रीकी देशों के साथ G20 के इस समझौते को हमें इन्हीं बातों की रौशनी में देखना चाहिए.

रफ़्तार धीमी न पड़ने पाए

भारत उस वक़्त G20 का अध्यक्ष बनने जा रहा है, जब दुनिया में बहुत उठा-पटक चल रही है. नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे के बाद अमेरिका और चीन के मतभेद बहुत बढ़ गए हैं. चीन के जहाज़ और विमान, लगातार ताइवान जलसंधि की मध्य रेखा के पार जा रहे हैं. वहीं, यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस का युद्ध भी बदस्तूर जारी है. जहां ये अनिश्चितताएं अपना सिर उठाए हुए हैं, वहीं इस बात को स्वीकार करना भी बराबर से अहम है कि भारत ने अफ्रीका के साथ अपने साझेदारी को नई ऊंचाई पर ले जाने में काफ़ी सकारात्मक कोशिशें की हैं. अफ्रीका को भारत एक ऐसे महाद्वीप के तौर पर देखता है, जो एक गहरा बदलाव ला सकने में सक्षम भागीदार है.

हाल ही में CII और EXIM बैंक ने मिलकर कॉन्क्लेव ऑन इंडिया- अफ्रीका प्रोजेक्ट पार्टनरशिप के 17वें संस्करण का आयोजन किया था. इसमें होने वाली परिचर्चाओं के दौरान भारत के निजी क्षेत्र और कारोबारियों द्वारा, भारत के आविष्कारों को अफ्रीका तक ले जाने को गंभीरता से बढ़ावा देने की बात उठी थी. उम्मीद है कि चौथी भारत- अफ्रीका फोरम समिट (IAFS) 2023 में जल्द से जल्द आयोजित की जाएगी. भारत को चाहिए कि वो अपनी अध्यक्षता के दौरान G20 में अफ्रीकी संघ को स्थायी सदस्य बनाने की मुहिम को अंजाम तक पहुंचाकर, इस ‘अफ्रीकी अवसर’ का भरपूर लाभ उठाने की कोशिश करे.

भारत की तरफ़ से ये इरादा और उसे लेकर उत्साह तो हमेशा से ही मौजूद रहा है. ये बात साझा अफ्रीकी नज़रिए को हमारे मज़बूत समर्थन से ज़ाहिर होती रही है. ये बात एज़ुलविनी आम सहमति और सिर्ते घोषणापत्र से भी ज़ाहिर होती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमेशा ही एक ‘सुधरे हुए बहुपक्षीयवाद’ की वकालत की है, जिसा मोटा मोटी मतलब ये है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसे बहुपक्षीय मंचों में सकारात्मक सुधार लाया जाए. अफ्रीका के पास इतनी विश्वसनीयता है कि वो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में अपने लिए दो स्थायी और पांच अस्थायी सदस्यों की मांग करे.

ये लम्हा भारत के लिए इस लिहाज़ से अहम है कि वो ख़ुद को अफ्रीका के एक अनूठे साझीदार के तौर पेश करे. तब तक अफ्रीका की प्राथमिकताओं को भारत से बिना शर्त वैसा ही समर्थन दिया जाता रहेगा, जिसे ख़ुद अफ्रीकी देशों ने ही परिभाषित किया है. उत्तर में हमारे पड़ोसी देश चीन के उलट अफ्रीका को ये समर्थन बिना शर्त के होगा. सहयोग और आपसी तालमेल वाला और अफ्रीका की अपनी उम्मीदों के अनुसार होगा.


ये लेख मूल रूप से पहले फर्स्ट पोस्ट में प्रकाशित हुआ था.

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