Author : Amrita Narlikar

Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

रूस द्वारा उत्पन्न ख़तरे को लेकर जर्मनी की भू-राजनीतिक जागृति के बाद, क्या वह चीन को लेकर भी अपनी विदेश नीति पर पुनर्विचार करेगा ?

चीन के प्रति जर्मनी की विदेश नीति का नया अध्याय शुरू करने का वक्त़ आ गया है…!
चीन के प्रति जर्मनी की विदेश नीति का नया अध्याय शुरू करने का वक्त़ आ गया है…!

जर्मनी की विदेश नीति में लंबे समय से प्रतीक्षित अहम बदलाव को अंजाम देने के लिए रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ गया है. ओलाफ़ स्कोल्ज़ को उनके निर्णायक नेतृत्व का श्रेय दिया जाना चाहिए; क्योंकि इसके बिना, और ग्रीन्स के समर्थन के बिना, शायद ही यूरोप की सीमाओं पर युद्ध भी एक तरह से वेक-अप कॉल के रूप में स्वीकार किया जाता. लेकिन ऐसे वक़्त में जब जर्मनी अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए रूस पर अपनी निर्भरता को कम करने और अपनी रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने की कोशिश कर रहा है तो सवाल यह उठता है कि: क्या यूरोपीय दिग्गज होने के नाते जर्मनी भी चीन से पैदा होने वाले ख़तरों के प्रति ठंडा या सख़्त रुख़ अपनाएगा ?

रूस पर सख़्त रुख़ अपनाने के बाद होने वाली ऊर्जा लागत में बढ़ोतरी के बारे में जर्मनी के अंदर पहले से ही घबराहट रही है; ऐसे में सवाल यही है कि क्या जर्मनी वास्तव में चीन के साथ आर्थिक युद्ध का एक और मोर्चा खोलने का जोख़िम उठा सकता है, जो आयात को लेकर यूरोपीय संघ का सबसे बड़ा साझेदार है

बहाने ही बहाने….

इन मुद्दों से ध्यान हटाने के और भी कई बहाने हो सकते हैं लेकिन वास्तव में कुछ लोगों के लिए जर्मनी की चीन के प्रति नीति में मूलभूत बदलाव के लिए कारण बढ़ते जा रहे हैं. इसमें दो राय नहीं कि चीन काफी दूर है, कम से कम भौगोलिक दूरी के मामले में (हालांकि विडंबना यह है कि जर्मनी की सीमाओं के भीतर और अपनी डिज़िटल और भौतिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को आगे बढ़ा कर वह तेजी से दाख़िल हो रहा है), और चीन का सामना करना मूर्खतापूर्ण होगा, जब उसके संसाधन पहले से ही रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते उलझे हुए हैं. इसके अलावा रूस पर सख़्त रुख़ अपनाने के बाद होने वाली ऊर्जा लागत में बढ़ोतरी के बारे में जर्मनी के अंदर पहले से ही घबराहट रही है; ऐसे में सवाल यही है कि क्या जर्मनी वास्तव में चीन के साथ आर्थिक युद्ध का एक और मोर्चा खोलने का जोख़िम उठा सकता है, जो आयात को लेकर यूरोपीय संघ का सबसे बड़ा साझेदार है? रूस और चीन को एक साथ और भी क़रीब लाने के बजाय चीन को खुश रखना ही बेहतर है – यह तर्क दिया जाता है. यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख जोसेप बॉरेल ने यहां तक टिप्पणी की है कि यद्यपि उन्हें इस काम में यूरोपीय संघ के लिए कोई भूमिका नहीं दिखती है लेकिन रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता करने के लिए चीन बेहतर स्थिति में है.

वास्तव में, इसके लिए चीन को उकसाना नासमझी होगी. और हाँ, जर्मनी को इस तथ्य के प्रति ज़्यादा जागरूक होने की ज़रूरत है कि चीन रूस नहीं है लेकिन चीन के लिए जर्मनी और यूरोप की सीमाओं को जानने में नाकाम रहना रूस के साथ पहले की गई ग़लतियों को दोहराने का जोख़िम जैसा है. चीन के साथ आर्थिक संबंधों की निरंतर ज़रूरत (शिनजियांग में न केवल मानवाधिकारों के घोर दुरुपयोग को देखते हुए, बल्कि अपने लोकतांत्रिक पड़ोस में पीआरसी के दुस्साहस को देखते हुए) आज विश्वसनीय संकेत के विपरीत हैं. अपनी विदेश नीति और आर्थिक रणनीति का निर्माण इस उम्मीद पर करना कि चीन आख़िरकार रूस पर ध्यान देगा, यह पर्याप्त नहीं होगा. इसके बजाय तीन महत्वपूर्ण कदम उठाने ज़रूरी होंगे.

जर्मनी में गठबंधन सरकार को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि वह वैल्यू ओरिएंटेड (मूल्य-उन्मुख) कूटनीति पर काफी ज़ोर दे रही है. चीन के पास लंबे समय से एक विकल्प था और उसने लगातार अनुदार मूल्यों के विकल्प को चुना है.

अगला कदम

सबसे पहले, इसे डिकपलिंग या विविधीकरण कहें लेकिन यह आवश्यक है कि जर्मनी विश्वसनीय भागीदारों के साथ अधिक भरोसेमंद आपूर्ति श्रृंखला का निर्माण करे (और अपनी घरेलू क्षमता को मज़बूत करे), विशेष रूप से रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में ऐसा होने की ज़रूरत है, भले ही चीन यूक्रेन के संदर्भ में कोई भी रुख़ अपनाए. आर्थिक एकीकरण को एक लक्ष्य के रूप में बढ़ाने के दिन, या शांति स्थापना करने के दिन अब पूरे हो चुके हैं. रूसी ऊर्जा पर जर्मनी की निर्भरता को लेकर काफी आलोचना हो चुकी है; उसे ख़ुद को चीन द्वारा हथियारबंद अंतर निर्भरता के प्रति अधिक संवेदनशील नहीं बनाना चाहिए और किसी तरह का शर्मनाक नाटक नहीं दोहराना चाहिए.

दूसरा,जर्मनी में गठबंधन सरकार को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि वह वैल्यू ओरिएंटेड (मूल्य-उन्मुख) कूटनीति पर काफी ज़ोर दे रही है. चीन के पास लंबे समय से एक विकल्प था और उसने लगातार अनुदार मूल्यों के विकल्प को चुना है. यूरोप ने वांडेल डर्च हैंडेल (व्यापार के ज़रिए परिवर्तन) की कमज़ोर उम्मीद के तहत पहले से ही अधिनायकवादी राष्ट्रों को मुख्यधारा में शामिल किया है. जर्मनी और उसके यूरोपीय साझेदारों को अब एक स्पष्ट विकल्प बनाना चाहिए : समान विचारधारा वाले लोकतंत्रों के साथ व्यापार समझौते में प्रवेश करने के लिए, जो न केवल बहुलतावाद और कानून के शासन पर साझा मूल्यों को बढ़ाएगा, बल्कि बढ़ी हुई सुरक्षा में भी योगदान देगा.

अगर जर्मनी और यूरोप क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति संतुलन के बीच संबंधों पर अधिक ध्यान दे रहे होते तो रूस और यूक्रेन पर भारत की सीमाओं की व्याख्या शायद अलग-अलग तरीक़े से होती. सैन्य आपूर्ति के लिए रूस पर भारत की निर्भरता जग ज़ाहिर है


तीसरा, अगला कदम उठाने में शोध की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. जर्मनी में चीन को बेहतर ढंग से समझने की प्रवृत्ति दिखती है (अपनी रणनीतिक सोच और घरेलू प्राथमिकताओं सहित ) – और इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. हालांकि, बचे हुए एशिया के भाग (और विशेष रूप से लोकतांत्रिक एशिया) की राजनीति, अर्थशास्त्र और संस्कृतियों को समझने में बहुत अधिक निवेश और दिलचस्पी की ज़रूरत है. अगर जर्मनी और यूरोप क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति संतुलन के बीच संबंधों पर अधिक ध्यान दे रहे होते तो रूस और यूक्रेन पर भारत की सीमाओं की व्याख्या शायद अलग-अलग तरीक़े से होती. सैन्य आपूर्ति के लिए रूस पर भारत की निर्भरता जग ज़ाहिर है; पिछले एक दशक में भारत की इस निर्भरता में विविधता लाने में कोशिश की गई होती तो शायद वह यूक्रेन और अब लोकतंत्र के पक्ष में भारत के लिए फैसला लेना आसान होता. चीन पर ज़्यादा ध्यान देकर और इस क्षेत्र में अन्य देशों की अनदेखी करके, जर्मनी और उसके यूरोपीय सहयोगी पुरानी मित्रता और नए गठबंधनों का पूरा इस्तेमाल करने में विफल हो रहे हैं.

[2]जैसा कि जर्मनी अपनी सीमाओं पर संघर्ष पर ध्यान केंद्रित कर रहा है ऐसे में जर्मनी के लिए भी यह ज़रूरी है कि वो एशिया में उभरने वाले ख़तरों की अनदेखी नहीं करे. सबसे बेहतर स्वरूप में, जर्मनी द्वारा विश्वसनीय संकेत देने की रणनीति (जिसमें एशियाई लोकतंत्रों के साथ घनिष्ठ आर्थिक और सैन्य सहयोग शामिल होगा) चीन को रोकने और क्षेत्र में संतुलन बहाल करने में मदद कर सकती है (और इस तरह, विश्व स्तर पर भी). और कम से कम, यह यूरोप और उसके सहयोगियों की आर्थिक स्थिरता और सुरक्षा में सुधार करेगा और भविष्य में संभावित घटनाओं के लिए तैयारी में उनकी मदद करेगा.


[1] लेखक पहले के दस्तावेज़ पर उपयोगी टिप्पणियों के लिए समीर सरन और गुंट्राम वोल्फ़ और विषय पर दिलचस्प आदान-प्रदान के लिए मिको हुओतारी और स्टीफ़न मैयर को धन्यवाद देना चाहते हैं.

[2] इसके बजाय, हमने भारत और पश्चिम दोनों के लिए असंभव हार की स्थिति पैदा कर दी है. पश्चिमी देशों ने यूएनएससी में एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक सहयोगी खो दिया जिसे यूक्रेन के आक्रमण के ख़िलाफ़ मतदान करना चाहिए था; भारत ने अपने लंबे समय के साथी रूस के साथ मिलकर अब ख़ुद ही पैर में गोली मार ली हो सकती है, जैसे रूस ने इस साल फरवरी में चीन के साथ “नो-लिमिट” साझेदारी पर हस्ताक्षर किए थे.

 

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