Author : Shairee Malhotra

Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 24, 2024 Updated 0 Hours ago

बीजिंग के प्रति जर्मनी की वर्तमान गर्मजोशी के व्यापक निहितार्थ हैं. इसका कारण यह है कि ब्रुसेल्स और वाशिंगटन दोनों में ही चीन को लेकर तनावपूर्ण स्थिति के व्यापक संदर्भ हैं.

चीन को लेकर जर्मनी अब ले रहा है बड़ा जोख़िम!

कुछ महीनों से ऐसा लग रहा था कि यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के युद्ध से जर्मनी सही सबक सीख रहा है.
जुलाई 2023 में जर्मनी ने अपनी चीन नीति जारी की थी. 64 पन्नों के दस्तावेज़ में जर्मनी ने अपने सबसे बड़े ट्रेडिंग पार्टनर के साथ अपने संबंधों को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की थी. इसके साथ जर्मनी अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं की कमज़ोरी और महत्वपूर्ण चीजों के लिए दूसरों पर निर्भरता में कमी लाने की कोशिश कर रहा था. इस दस्तावेज़ से यह साफ़ था कि जर्मनी ने चीन के प्रति अपना रूख़ और कड़ा किया था. जर्मनी इस बात को मान रहा था कि चीन बदल गया है.

यूक्रेन पर किए गए रूस के आक्रमण ने जर्मनी को जगा दिया. यह जागृति जर्मनी के जाईतनवेंडे में चीन को लेकर संबंधों तक विस्तारित थी. अब वे दिन गुजर गए थे जब बर्लिन, चीन की सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों को अपने यहां की अहम परियोजनाओं जैसे की हैमबर्ग पोर्ट टर्मिनल में हिस्सेदारी लेने की अनुमति देता था या फिर शायद ऐसा माना जा रहा था कि वह अनुमति देता था. 

स्कोल्ज़ ने 2021 में जर्मन चांसलर का पद संभालने के बाद नवंबर 2022 में पहली बार चीन की यात्रा की थी. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा सत्ता पर अपनी पकड़ और भी मजबूत कर लेने के बाद चीन की यात्रा करने वाले वे पहले पश्चिमी नेता थे. 

अब हम आ जाते हैं 14 अप्रैल 2024 पर. यही वह दिन था जब जर्मन चांसलर ओलाफ़ स्कोल्ज़ चीन के ताबड़तोड़ दौरे पर थे. वे बीजिंग, शंघाई, चोंगकिंग के चक्कर लगा रहे थे. उनके उच्च स्तरीय काफ़िले में जर्मनी के तीन कैबिनेट मंत्रियों के साथ जर्मन उद्योग के महारथी जिसमें सिमेंस, BMW, मर्सिडीज़ बेंज, फॉक्सवैगन और बायर समेत अन्य कंपनियों के महारथियों का समावेश था.

स्कोल्ज़ ने 2021 में जर्मन चांसलर का पद संभालने के बाद नवंबर 2022 में पहली बार चीन की यात्रा की थी. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा सत्ता पर अपनी पकड़ और भी मजबूत कर लेने के बाद चीन की यात्रा करने वाले वे पहले पश्चिमी नेता थे. इसी प्रकार महामारी के बाद चीन का दौरा करने वाले G7 देश के वे पहले नेता थे. उनका वर्तमान तीन दिवसीय दौरा ऐसे नाजुक समय में हो रहा है जब चीन युद्ध में रूस को सक्रिय बनाए रखने की कोशिश कर रहा है. चीन ने इसके लिए ड्यूल यूज टेक्नोलॉजी का प्रावधान किया है. वह ऐसा EU-चीन व्यापार से जुड़े असंख्य तनाव की आड़ लेकर कर रहा है.


जोख़िम कम या अधिक जोख़िम?

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि 2022 में चीन के साथ EU का व्यापार घाटा लगभग 400 बिलियन यूरो का था. चीन में सरकारी सहायता के चलते वस्तुओं के हो रहे अत्यधिक उत्पाद को लेकर उपजी चिंता के कारण ही EU ने चीन के इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग के ख़िलाफ़ एंटी-सब्सिडी जांच शुरू की थी. बड़ी मात्रा में आने वाले चीनी इलेक्ट्रिक वाहन यूरोपीयन बाज़ार को अपने कब्ज़े में लेकर स्थानीय उत्पाद को प्रभावित कर रहे थे. अब जांच के दायरे का विस्तार कर इसमें अहम ग्रीन टेक जैसे चाइनीस सोलर पैनल और विंड टर्बाइंस को भी शामिल कर लिया गया है. भविष्य में मेडिकल डिवाइसेज ख़रीद को भी जांच के दायरे में लाया जा सकता है. हाल ही में चीन में काम कर रहे 150 जर्मन कारोबारियों के सर्वे से यह बात पता चली है कि इसमें से एक तिहाई कंपनियों को ऐसा लगता है कि वे 'अनुचित प्रतिस्पर्धा' का सामना कर रहे हैं. ऐसे में EU के बीच अब यह मांग उठने लगी है कि चीन में काम करने वाली यूरोपियन कंपनियों को बेहतर माहौल मिलना चाहिए. इसके बावजूद जर्मन ऑटो इंडस्ट्री को चीन की ओर से होने वाले सस्ते आयात की वज़ह से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. इस स्थिति में चीन अपने निर्यात पर मंडराने वाले ख़तरे को देखते हुए जवाबी कार्रवाई कर सकता है. इस कार्रवाई की संभावना को लेकर चिंता बनी हुई है. इस चिंता को हमें जर्मनी की सुस्त अर्थव्यवस्था की ओर व्यापक संदर्भ में देखना चाहिए, जो वर्ष 2023 में 0.3 % सिकुड़ी है.

ऐसे में चांसलर ने संतुलन बनाने की कोशिश करते हुए यह आवाहन किया है कि चीन में काम कर रही 5000 जर्मन कम्पनियों को बराबरी का अवसर मिलना चाहिए और इन कंपनियों को न्यायसंगत तरीके से बाज़ार उपलब्ध होना चाहिए. इसके लिए चांसलर ने सुझाव दिया है कि चीन को '"नो डंपिंग (डंपिंग रोकना), नो ओवर प्रोडक्शन (अत्यधिक उत्पाद रोकना) और नो वायलेशन ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (बौद्धिक संपदा अधिकारों का उल्लंघन रोकने)" पर अमल करना चाहिए. इसी प्रकार चीन की ओर से लगाए जाने वाले जवाबी टैरिफ के कारण जर्मन एक्सपोर्ट्स पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए उन्होंने EU से भी "प्रोटक्शनिस्ट मोटिव्स" (संरक्षणवादी इरादे) के तहत कार्रवाई न करने की गुज़ारिश की है. उनका यह बयान चीन के व्यापार मंत्री वांग वेंटाओ के बयान की प्रतिध्वनि महसूस हो रहा था, क्योंकि चीन के व्यापार मंत्री ने भी पिछले दिनों EU के ऊपर संरक्षणवादी होने का आरोप लगाया था.

इस स्थिति में चीन अपने निर्यात पर मंडराने वाले ख़तरे को देखते हुए जवाबी कार्रवाई कर सकता है. इस कार्रवाई की संभावना को लेकर चिंता बनी हुई है. इस चिंता को हमें जर्मनी की सुस्त अर्थव्यवस्था की ओर व्यापक संदर्भ में देखना चाहिए, जो वर्ष 2023 में 0.3 % सिकुड़ी है. 


2023 में जर्मनी और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार 250 बिलियन यूरो था. यह व्यापार 2022 की तुलना में 15.5% से घट गया था. इसके बावजूद जर्मन इकोनॉमिक इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार चीन में जर्मनी का FDI (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश) 2023 में 12 बिलियन यूरो के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था. इतना ही नहीं चीन से आयात होने वाले महत्वपूर्ण समान जैसे की केमिकल्स, कंप्यूटर  तथा ग्रीन ट्रांजिशन के लिए आवश्यक रॉ मैटेरियल्स यानी कच्चे माल पर बर्लिन की निर्भरता कम नहीं हुई थी. इसके विपरीत फार्मास्यूटिकल्स तथा रेयर अर्थ जैसे क्षेत्रों में चीन पर उसकी निर्भरता बढ़ी ही है. यह वृद्धि इसके बावजूद हुई है कि 2022-2023 में चीन से होने वाले आयात में 20% की कमी आई है. ऐसे में यदि जर्मनी अपने जोख़िम को कम कर रहा है तो इसकी रफ्तार बेहद धीमी दिखाई देती है.

एक और जहां अनेक यूरोपीय देशों ने चीनी टेलीकॉम जॉइंट कंपनी हुआवेई को अपने देश से बाहर कर दिया है, वहीं जर्मनी के 5G नेटवर्क में हुआवेई की हिस्सेदारी 59 फ़ीसदी है. दूसरी ओर जर्मन कंपनी जैसे केमिकल निर्माता BASF तथा ऑटो निर्माता BMW चीन में नए प्लांट लगा रहे हैं.

रूसी गैस के मुकाबले जर्मनी अब चाइनीज मार्केट पर ज़्यादा निर्भर रहता है. गैस के मामले में उसने खुद को रूसी निर्भरता से मुक्त कर लिया है, लेकिन कील इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकोनॉमी ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया है कि जर्मनी की अर्थव्यवस्था ने कोविड काल में जो झेला था, उसके मुकाबले अल्पावधि में पांच प्रतिशत से सिकुड़ेगी. यदि उसने चीन के साथ अपने संबंधों में एक बड़ा ब्रेक लगाया तो वह मिडल टर्म अर्थात मध्य अवधि में स्टेबलाइज यानी स्थिर होगी.  यदि उसने व्यापार को धीरे-धीरे कम किया तो वह उपरोक्त कीमत चुकाने से बच सकता है. ऐसे में बर्लिन के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव ही सबसे बड़ी समस्या दिखाई देता है.

इस यात्रा के एजेंडा पर राष्ट्रपति शी को इस बात के लिए मानना भी शामिल था कि वे रूस के राष्ट्रपति पुतिन पर अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए युद्ध को समाप्त करने के लिए मना लें. लेकिन शी ने पश्चिम से ही ये कह दिया कि वह यानी पश्चिम हथियारों की आपूर्ति करते हुए "आग में घी डालने" का काम करना बंद करें. युद्ध शुरू होने के दो वर्ष बाद रूस और चीन के बीच नो लिमिट पार्टनरशिप पर हस्ताक्षर हुए थे. इसे देखते हुए चीन एक सौम्य अंतरराष्ट्रीय एक्टर बन जाएगा और शी शांति के उपयुक्त दूत बनकर पुतिन को समझाएंगे, यह सोच अज्ञानता ही कही जाएगी.


मर्केल युग की ओर वापसी

बीजिंग के प्रति जर्मनी की वर्तमान गर्मजोशी के व्यापक निहितार्थ हैं. इसका कारण यह है कि ब्रुसेल्स और वाशिंगटन दोनों में ही चीन को लेकर तनावपूर्ण स्थिति के व्यापक संदर्भ हैं.

स्कोल्ज़ की यात्रा इस बात पर एक सवालिया निशान लगाती है कि क्या जर्मनी EU की चीन को लेकर बढ़ रहे निश्चयात्मक दृष्टिकोण का समर्थन करता है. इस दृष्टिकोण में EU ने अपने सदस्य देशों को चीन को लेकर मार्गदर्शन देते हुए उन देशों की नीति का रुख़ तय किया है. EU ब्लॉक का इकोनामिक पावर हाऊस होने की वज़ह से जर्मनी, EU की चीन संबंधी नीति की सफ़लता के लिए बेहद अहम है. ऐसे में एक यात्रा जो केवल व्यापारिक अवसरों को विस्तार देने पर केंद्रित है, EU की एकजुटता को कमज़ोर ही करती है. यह बात जाहिर तौर पर इस बात की भी पुष्टि करती है कि जर्मनी की चीन संबंधी नीति के पीछे की मुख्य ताकत तेज तर्रार और मानवाधिकार प्रेरित ग्रींस ही है, ना की जर्मन चांसलर स्कोल्ज़ की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी. जर्मनी का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर US है. इसके अलावा बर्लिन सुरक्षा के मामले में भी अमेरिकन सिक्योरिटी पर बहुत ज़्यादा निर्भर है. ऐसे में स्कोल्ज़ और शी के बीच दोस्ताना तस्वीर, अमेरिकियों को ज़्यादा पसंद नहीं आएगी.

हालांकि व्हाइट हाउस में ट्रंप की संभावित वापसी के साथ ट्रांसअटलांटिक संबंधों को लेकर अनिश्चितता और ट्रंप की ओर से सभी मामलों में टैरिफ वृद्धि की धमकियों के कारण  बीजिंग के साथ व्यापार संबंधों को फिर से संतुलित करने को प्रोत्साहन अवश्य मिलता है.
यह बात स्कोल्ज़ और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के बीच इस यात्रा के पहले हुए संवाद के पश्चात जारी बयान में भी स्पष्ट दिखाई देती है.  इस बयान में दोनों नेताओं ने "यूरोपीयन देशों और चीन के बीच व्यापार संबंधों को पुनर्संतुलित करने के प्रयासों का समन्वय के साथ बचाव" किया था. US-चीन के बीच बढ़ रही प्रतिस्पर्धा के बीच आगामी मई में शी की फ्रांस यात्रा के दौरान ही इस बात का खुलासा होगा कि मैक्रों, स्कोल्ज की राह पर चलेंगे या नहीं.

आश्चर्यजनक रूप से इस यात्रा का चीन में व्यापक तौर पर स्वागत ही हुआ है. शी इस बात को जानते हैं कि पश्चिमी देशों के गठबंधन की सबसे कमज़ोर कड़ी यानी जर्मनी की भूमिका क्या है. EU के साथ व्यापक चुनौतियों को ध्यान में रखकर ही उन्होंने जर्मन-चाइनीस सहयोग को "एक जोख़िम नहीं, बल्कि एक अवसर" के रूप में लिया है.

यह बात जाहिर तौर पर इस बात की भी पुष्टि करती है कि जर्मनी की चीन संबंधी नीति के पीछे की मुख्य ताकत तेज तर्रार और मानवाधिकार प्रेरित ग्रींस ही है, ना की जर्मन चांसलर स्कोल्ज़ की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी. जर्मनी का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर US है.


ट्रंप की संभावित वापसी से पहले चीन की और से जारी होने वाले हालिया बयान भविष्य में यूरोप को वाशिंगटन के पास जाने से रोकने की कोशिश से ज़्यादा यूरोप को अपने ख़ेमे में लाने का प्रयास दिखाई देते हैं. चीन की आर्थिक मंदी और इस वर्ष 5% की विकास दर का लक्ष्य दरअसल महाद्वीप को चीन के मुकाबले में थोड़ा लेवरेज देता है. क्योंकि चीनी निर्यात के लिए यूरोपीय बाज़ार बेहद अहम है. इसके बावजूद अपने सतर्क रवैये की वज़ह से स्कोल्ज इस लेवरेज का उपयोग यूरोपीय हितों की रक्षा के लिए करने में विफ़ल रहे. इसके विपरीत उन्होंने बीजिंग के साथ जर्मन कॉरपोरेट हितों को लेकर ही एक बार फिर से जुड़ने या संबंध मजबूत करने की कोशिश की. बीजिंग तथा EU को लेकर उसकी बांटो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) की महारत वाली नीति के लिए यह यात्रा सही संकेत देने वाली साबित हुई है.

EU की निर्णायक रणनीति के मुकाबले बर्लिन की घुटने टेकने वाली नीति यह साबित करती है कि कैसे जर्मनी की राष्ट्रीय नीति आज भी देश के चुनिंदा उद्योगों के इशारे पर चलती है. मर्केल युग की तर्ज़ पर ही चीन संबंधी जर्मन नीति में वाणिज्यिक मुनाफ़े को मिली अहमियत इस चुनौती की पुष्टि ही करती है. एक वैश्विक रणनीतिक खिलाड़ी बनने की राह में EU को इस चुनौती का सामना करना होगा.


एक ओर तेजी से बदलती भू राजनीतिक घटनाएं विश्व को अपनी चपेट में ले रही है, लेकिन दूसरी ओर जर्मन सरकार अभी भी इसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने को तैयार नहीं है. वह अभी भी अपनी संपन्नता के गुब्बारे से बाहर देखने को तैयार नहीं है.


शैरी मल्होत्रा, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक असिस्टेंट फेलो हैं.

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