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चीन पर निर्भरता की वजह से जर्मनी की असुरक्षा को देखते हुए ये सही वक़्त है कि जर्मनी विविधताओं से भरे सुरक्षित विकल्पों की तरफ़ बढ़े.
संयुक्त राष्ट्र (UN) के मुताबिक़ पिछले दिनों चीन को पीछे छोड़कर भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश बन गया. इस ख़बर को जर्मनी की साप्ताहिक मैगज़ीन डेर स्पीगल ने एक अपमानजनक कार्टून के ज़रिए पेश किया. इस कार्टून में एक ओवरलोड पुराने ज़माने की ट्रेन के ऊपर कई भारतीयों को हाथ में एक तिरंगे के साथ बैठा दिखाया गया. इससे भी बदतर बात है कि कार्टून में ये दिखाया गया कि परंपरागत भारतीय ट्रेन के साथ चीन की एक हाई-टेक बुलेट ट्रेन चल रही है.
यूरोप की सबसे बड़ी निर्यात पर निर्भर अर्थव्यवस्था के रूप में जर्मनी के लिए चीन का विशाल बाज़ार अभी भी एक आकर्षण बना हुआ है. पिछले साल नवंबर में एक बड़े व्यावसायिक प्रतिनिधिमंडल के साथ जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज़ की चीन यात्रा इस बात का संकेत थी कि जर्मनी का नज़रिया चीन के मामले में दूसरी बातों के ऊपर कारोबार को तरजीह देना है.
जर्मन भाषा में ‘आईने’ को ‘डेर स्पीगल’ कहा जाता है. सोचने की बात है कि क्या कार्टून चीन के मुक़ाबले भारत को लेकर जर्मनी की समझ को दिखाता है.
जर्मनी चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, इस मामले में 2016 से जर्मनी ने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है. 2021 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 245 अरब यूरो के पार पहुंच गया. चीन के बाज़ार से ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए चीन पर जर्मनी की निर्भरता स्पष्ट है, जैसा कि फॉक्सवैगन ऑटो के मामले में है. हालांकि व्यापार का संतुलन काफ़ी ज़्यादा चीन के पक्ष में झुका हुआ है.
वैसे तो रूस-यूक्रेन संकट के बाद यूरोपियन यूनियन (EU) चीन के साथ अपने आर्थिक संबंधों को नया रूप दे रहा है लेकिन इसके बावजूद 2022 की पहली छमाही में चीन में जर्मनी का निवेश 10 अरब यूरो को पार कर गया. साथ ही EU जहां अपने सामरिक क्षेत्रों को चीन के ‘जोखिम से दूर करने’ की बात करता है वहीं जर्मनी ने चीन की कंपनी कॉस्को को हैम्बर्ग बंदरगाह में निवेश करने की इजाज़त दे दी. यूरोप की सबसे बड़ी निर्यात पर निर्भर अर्थव्यवस्था के रूप में जर्मनी के लिए चीन का विशाल बाज़ार अभी भी एक आकर्षण बना हुआ है. पिछले साल नवंबर में एक बड़े व्यावसायिक प्रतिनिधिमंडल के साथ जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज़ की चीन यात्रा इस बात का संकेत थी कि जर्मनी का नज़रिया चीन के मामले में दूसरी बातों के ऊपर कारोबार को तरजीह देना है. इस तरह जर्मनी चीन को लेकर EU के बदलते नज़रिए के मामले में सबसे सुस्त बना हुआ है.
लग रहा है कि अटलांटिक सागर के पार संबंधों में अनिश्चितता के साथ-साथ अमेरिका-चीन के बीच बढ़ते मुक़ाबले के ख़िलाफ़ संतुलन बनाने के लिए चीन पुराने यूरोप के सबसे प्रभावशाली देशों जर्मनी और फ्रांस के लिए एक संभावित साझेदार के रूप में उभर रहा है. जर्मनी ने चीन के साथ जलवायु परिवर्तन से लेकर ग्लोबल गवर्नेंस (वैश्विक शासन व्यवस्था) तक कई मुद्दों पर नज़दीकी रिश्ते बना लिए हैं.
लेकिन वो समय आ गया है जब जर्मनी अपनी आंखें खोले और असलियत से रू-ब-रू हो.
चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) ने जर्मनी के लिए व्यापार और निवेश के महत्वपूर्ण अवसरों का वादा किया था, ख़ास तौर पर ऑटोमेटिक, मशीनरी और केमिकल जैसे सेक्टर में जहां जर्मनी की कंपनियों की मज़बूत मौजूदगी है. लेकिन चीन के साथ भू-राजनीतिक तनाव में बढ़ोतरी और चीन की असंतुलित व्यापार पद्धति की वजह से ऐसा होने में नाकामी मिली है
चीन पर जर्मनी की एकतरफ़ा निर्भरता रूस के साथ उसके इसी तरह के समीकरण की तरह है क्योंकि यूक्रेन युद्ध से पहले जर्मनी गैस को लेकर रूस पर निर्भर था. लेकिन जोखिम के बावजूद जर्मनी ने चीन के साथ अपने आर्थिक संबंधों को बरकरार रखा है.
ताइवान को लेकर मतभेद और शिनजियांग में मानवाधिकार का मुद्दा भी चीन के साथ जर्मनी के रिश्तों को मुश्किल बना रहा है. इसके साथ-साथ रूस-चीन के रिश्तों में मज़बूती और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के अधिकार जताने जैसे मामले भी हैं. आलोचक दलील देते हैं कि चीन के साथ जर्मनी की भागीदारी उसके मूल्यों और सिद्धांतों से समझौते की क़ीमत पर नहीं हो. वो ये भी कहते हैं कि जर्मनी को मानवाधिकारों की चिंताओं का समाधान करने, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था (गवर्नेंस) को बढ़ावा देने और नियम आधारित विश्व व्यवस्था के लिए सतर्क रहना चाहिए. दिलचस्प बात ये है कि ऐसे मुद्दों का समाधान क्षेत्र के एक बड़े लोकतंत्र भारत में सकारात्मक रूप से होता है.
जिस तरह EU के दूसरे सदस्य देश अपने व्यापार साझेदारों और सप्लाई चेन का विस्तार करने के लिए होड़ में लगे हुए हैं, उसी तरह जर्मनी के लिए भी जोखिम भरी आपसी निर्भरता सुरक्षित विकल्प के लिए ज़रूरत पैदा कर रही है.
जर्मनी की दशकों पुरानी वैंडल डर्च हैंडल यानी ‘व्यापार के ज़रिए बदलाव’ की नीति और ये उम्मीद कि वो आर्थिक भागीदारी के ज़रिए रूस और चीन जैसे निरंकुश देशों के बर्ताव को सामान्य बना देगा, के उल्टे नतीजे निकले हैं. इस नीति और उम्मीद की वजह से जर्मनी इस तरह की ख़तरनाक आपसी निर्भरता से कमज़ोर हुआ है. इसका नतीजा जर्मनी के 84 प्रतिशत लोगों के द्वारा चीन के साथ आर्थिक संबंधों में कमी की इच्छा के रूप में निकला है.
तब भी चीन के साथ जर्मनी के रिश्तों की तुलना भारत के साथ अपेक्षाकृत कमज़ोर संबंधों से कीजिए तो एक बिल्कुल अलग तस्वीर सामने आती है जबकि जर्मनी EU में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. 2022 में चीन और जर्मनी के बीच सामानों के द्विपक्षीय व्यापार की क़ीमत लगभग 320 अरब अमेरिकी डॉलर आंकी गई जबकि उसी साल भारत और जर्मनी के बीच व्यापार 30 अरब अमेरिकी डॉलर से कम का था. यहां जर्मनी की एशिया नीति के मुख्य रूप से चीन पर केंद्रित होने के साथ समझ ने भी एक भूमिका अदा की है. भारत और जर्मनी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में समझ की भूमिका को लेकर एक उपयोगी केस स्टडी पेश करते हैं. हालांकि भारत और जापान के साथ भागीदारी में बढ़ोतरी के साथ ये साफ़ है कि पहले के मुक़ाबले एशिया को लेकर जर्मनी की सीमित सोच का विस्तार हो रहा है.
पिछले दिनों जर्मनी की तरफ़ से भारत का उच्च-स्तरीय दौरा दिखाता है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी अब कोई मुद्दा नहीं है. इस साल फरवरी में रूस-यूक्रेन संघर्ष का एक साल पूरा होने पर जर्मन चांसलर शोल्ज़ एक बड़े कारोबारी प्रतिनिधिमंडल के साथ भारत के दौरे गए और उन्होंने नये भारत-EU मुक्त व्यापार समझौते (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) को लेकर वादे को दोहराया. छह महीनों के दौरान जर्मनी की विदेश मंत्री अन्नालेना बेयरबॉक, जिनकी ग्रीन्स पार्टी चीन को लेकर ख़ास तौर पर आक्रामक है, ने दो बार भारत का दौरा किया और भारत के साथ आर्थिक और सुरक्षा- दोनों मामलों में मूल्य आधारित सहयोग पर ज़ोर दिया. भारत के साथ अच्छे रिश्ते बनाने की ये चाह इस बात का सबूत है कि जर्मनी की सरकार में शामिल अलग-अलग पार्टियां भारत के साथ नज़दीकी रिश्ते को बढ़ावा देने का इरादा रखती हैं. ये बात दिसंबर 2021 के गठबंधन समझौते में भी शामिल थी.
भारत और जर्मनी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में समझ की भूमिका को लेकर एक उपयोगी केस स्टडी पेश करते हैं. हालांकि भारत और जापान के साथ भागीदारी में बढ़ोतरी के साथ ये साफ़ है कि पहले के मुक़ाबले एशिया को लेकर जर्मनी की सीमित सोच का विस्तार हो रहा है.
वैज्ञानिक सहयोग और मज़बूत आर्थिक संपर्क के साथ हरित तकनीक (ग्रीन टेक) और नवीकरणीय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) के क्षेत्रों में सहयोग भी पूरी रफ़्तार से जारी है. दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में भारतीय बाज़ार जर्मनी के लिए कई क्षेत्रों में एक बड़ा अवसर है. इनमें कृषि, स्टार्ट-अप्स और स्मार्ट सिटीज़ शामिल हैं जहां जर्मनी अपने तकनीकी हुनर के साथ भारत के लिए एक क़ीमती साझेदार है.
रूस-यूक्रेन संकट ने पूरे यूरोप में आगे का रास्ता ठीक करने को प्रेरित किया है जिसका नतीजा मूल्य आधारित साझेदारी के फिर से उभरने के रूप में निकला है. ऐसे में यूरोप तेज़ी से ख़ुद को भारत की तरफ़ कर रहा है. निश्चित रूप से जर्मनी के लिए भी साझा मूल्यों के साथ तेज़ी से बढ़ता लोकतांत्रिक भारत निरंकुश चीन, जिसके मूल्य दुनिया के तानाशाहों के साथ ज़्यादा मिलते-जुलते हैं, की तुलना में एक ज़्यादा भरोसेमंद लंबे समय की उम्मीद है.
इस साल उम्मीद की जा रही है कि चीन को लेकर जर्मनी अपनी नई रणनीति की शुरुआत करेगा. जैसे-जैसे चीन के साथ अपने संबंधों में जर्मनी सहयोग और संघर्ष को संतुलित कर रहा है, वैसे-वैसे एक स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक को लेकर भारत और जर्मनी के हित रणनीतिक तौर पर मिल रहे हैं. ये बात जर्मनी की तरफ़ से 2020 में जारी इंडो-पैसिफिक रणनीति में भी दिखाई दी. चीन के साथ भारत का मौजूदा सीमा गतिरोध और दूसरे मतभेद ऐसे देशों और भारत के बीच सामरिक सहयोग के लिए पर्याप्त साझा आधार तैयार करते हैं.
दिसंबर 2022 में दोनों देशों ने जर्मनी में हुनरमंद कामगारों और छात्रों के आवागमन की सुविधा के लिए समझौते पर भी दस्तख़त किए. इससे जर्मनी को हुनरमंद मज़दूरों की कमी से जुड़ी चुनौती से पार पाने में भी मदद मिल सकती है.
इसमें कोई शक नहीं है कि भारत-जर्मनी की जो साझेदारी पहले ठीक ढंग से काम नहीं कर रही थी वो अब अपनी संभावना की थाह ले रही है. ये चर्चा चल रही है कि साझा तौर पर चीन से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए भारत और जर्मनी एक औपचारिक द्विपक्षीय संवाद की स्थापना करने जा रहे हैं. ये संवाद वाकई शुरू होता है और इसकी वजह से दोनों देशों के बीच ज़्यादा जुड़ाव होता है या नहीं, ये देखा जाना बाक़ी है. हालांकि तब तक के लिए ज़्यादा भागीदारी के साथ दोनों देश एक-दूसरे के बारे में समझ पैदा करने और उसे सुधारने पर विचार कर सकते हैं. इसकी शुरुआत कार्टून से हो सकती है.
जर्मनी के लोगों के लिए ये याद करना फ़ायदेमंद होगा कि आज भारत विश्व स्तरीय डिज़ाइन के साथ अपनी हाई-स्पीड ट्रेनों का कोच ख़ुद बना रहा है. इसके अलावा जर्मनी के घरेलू ब्रांड सीमेंस को भारतीय रेल से 1,200 इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव डिलीवर करने और 35 साल की पूरी देखरेख (मेंटेनेंस) का ऑर्डर मिला है. ये 3 अरब यूरो की परियोजना है जो कंपनी के इतिहास में इस तरह का सबसे बड़ा ऑर्डर है. इस संदर्भ में जर्मनी का मीडिया भारत को सही ढंग से पेश करने पर विचार कर सकता है, ख़ास तौर पर अगर जर्मनी अपने संबंधों को और रफ़्तार देने का इरादा रखता है.
शायरी मल्होत्रा ORF के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.
श्रीनाथ श्रीधरन ORF के विज़िटिंग फेलो हैं.
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A.K. Bhattacharya was former Editor of Business Standard and at present is its Editorial Director. He is the author of The Rise of Goliath: Twelve ...
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