Author : Farheen Nahvi

Issue BriefsPublished on Apr 18, 2023
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भारत में लैंगिक (जेंडर आधारित) हिंसा के विरुद्ध नीति निर्धारण में नारीवादी दृष्टिकोण को शामिल किये जाने की ज़रूरत!

  • Farheen Nahvi

    भारत के सामाजिक ढांचे में जेंडर आधारित असमानताओं की जड़ें काफ़ी गहरी हैं और स्थायी स्वरूप लिए हुए हैं, जो मूल रूप से पितृसत्तात्मक परंपराओं की देन हैं. और यही ढांचा लिंग-आधारित हिंसा को बढ़ावा देने में प्रभावी भूमिका निभाता है. भारत में महिलाओं को भ्रूण हत्या, लिंग निर्धारित गर्भपात, यौन तस्करी, पीछा किए जाने (स्टॉकिंग), दहेज़ की मांगों, बाल विवाह, एसिड हमले और कथित रूप से सम्मान के लिए की जाने वाली हत्याओं का सामना करना पड़ता है. यह लेख भारत में जेंडर आधारित हिंसा के सामाजिक आयामों को पड़ताल करता है और साथ ही इस बात की भी जांच करता है कि कैसे कानून व्यवस्था से जुड़ी कमियां समस्या को बढ़ावा देती हैं? इसके अलावा, यह नारीवादी दृष्टिकोण के ज़रिए जेंडर आधारित हिंसा से संबंधित नीति-निर्माण प्रक्रिया के पुनर्मूल्यांकन की भी सिफ़ारिश करता है. यह दृष्टिकोण भारत में जेंडर से जुड़ी सामाजिक बारीकियों को संज्ञान में लेता है ताकि दीर्घकालिक परिवर्तन को जन्म दिया जा सके.

Attribution:

फरहीन नहवी, "भारत में लैंगिक (जेंडर आधारित) हिंसा के विरुद्ध नीति निर्धारण में नारीवादी दृष्टिकोण को शामिल किये जाने की ज़रूरत! ," ओआरएफ़ इश्यू ब्रीफ नं. 632, अप्रैल 2023, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.

परिचय

2002 के गुजरात दंगों के दौरान, बलात्कार और हत्या की एक घटना में 21 वर्षीय बिलकिस बानो और उसके परिवार पर गुस्से में पगलाई एक हथियारबंद भीड़ ने हमला कर कर दिया.[1] एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद, 2008 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हमले, बलात्कार और हत्या के मामले में 11 लोगों को दोषी ठहराया गया और उन्हें उम्रकैद को सज़ा सुनाई गई.[2] हालांकि, अगस्त 2022 में, सभी 11 दोषियों को केवल 14 की सज़ा काटने के बाद क्षमादान देकर छोड़ दिया गया.[3] यह मामला जेंडर या लिंग पर आधारित हिंसा के खिलाफ़ भारत के नीतिगत एवं कानूनी ढांचे का प्रतिनिधित्व करता है, और भारत में महिला अधिकारों के भविष्य और सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े करता है.

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (यूनाइटेड स्टेट्स हाई कमीशन फॉर रिफ्यूजीज) जेंडर आधारित हिंसा को "लैंगिक आधार पर किसी व्यक्ति के खिलाफ़ हिंसक कार्रवाईयों" के रूप में परिभाषित करती है और कहती है, "इसके मूल में लैंगिक असमानता, शक्ति का दुरुपयोग और [4]विभेदकारी (नुकसान पहुंचाने वाली) परंपराएं हैं...और यह मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन और जीवन को ख़तरे में डालने वाले स्वास्थ्य एवं सुरक्षा संबंधी मुद्दे हैं."[5] और ऐसे कृत्य शारीरिक, यौनिक, मनोवैज्ञानिक या आर्थिक प्रकृति के हो सकते हैं.[6] कार्यस्थल पर उत्पीड़न, ऑनलाइन डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर दुर्व्यवहार, सामाजिक बहिष्कार और आर्थिक निर्भरता आदी लिंग आधारित हिंसा के अन्य प्रकार हैं. लिंग आधारित हिंसा का सबसे व्यापक स्वरूप अंतरंग साथियों द्वारा की जाने वाली हिंसा (इंटिमेट पार्टनर वायलेंस) है, जहां हर तीन में से एक औरत अपने जीवन में कभी न कभी अंतरंग साथी द्वारा यौन या शारीरिक हिंसा की शिकार होती है.[7]

हालांकि, लैंगिक हिंसा को निर्धारित करने में भले ही लिंग की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो, लेकिन एक व्यक्ति की पहचान को निर्धारित करने वाले अन्य कारकों के साथ जेंडर की प्रकृति अलग होती है, और हिंसा से जुड़े लोगों के अनुभवों को प्रभावित करती है. इनमें नस्ल, उम्र, सामाजिक वर्ग, धर्म और यौनिकता जैसे कारक हो सकते हैं. कुछ अल्पसंख्यक समुदायों को जेंडर आधारित हिंसा का विशेष रूप से सामना करना पड़ता है (उदाहरण के लिए, भारत में अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाली महिलाएं[8])[9]

कन्वेंशन ऑन एलिमिनेशन ऑफ़ ऑल फॉर्म्स डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वूमन,1979 और डिक्लेरेशन ऑन द एलिमिनेशन ऑफ़ वायलेंस अगेंस्ट वूमन,1993 महिलाओं के खिलाफ़ जेंडर आधारित हिंसा को एक वैश्विक मुद्दे के तौर पर चिन्हित करने संबंधी सबसे पहले अंतर्राष्ट्रीय प्रयास थे. हालांकि, मुख्य रूप से स्थानीय और राष्ट्रीय नारीवादी आंदोलनों ने महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा के मुद्दे को उजागर किया है और कानूनी एवं सामाजिक सुधारों की वकालत की है. उदाहरण के लिए, भारत में, नारीवादी सक्रियता ने कार्यस्थल पर सुधार लाने में अहम भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप 1997 में विशाखा दिशानिर्देशों की घोषणा की गई. बाद में इसे कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 से प्रतिस्थापित किया गया.

इस लेख के संदर्भ में, भारत में महिलाओं के खिलाफ़ शारीरिक, यौनिक, मनोवैज्ञानिक या आर्थिक स्तर पर चोट पहुंचाने वाले कृत्य जेंडर आधारित हिंसा हैं. 2018 के एक सर्वेक्षण[a] bमें भारत को महिलाओं के लिए सबसे ख़तरनाक देश कहा गया.[10] राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2011 (228,650[11]) से लेकर 2021(4,28,278[12]) के बीच महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा की वारदातों में 87 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, जिसमें सबसे ज़्यादा घरेलू हिंसा (31.8 प्रतिशत) के मामले थे.[13]

भारत में जेंडर आधारित हिंसा के ज़्यादातर मामलों में अपराधी महिला का ही कोई परिचित पुरुष होता है.[14] भारत के सामाजिक ढांचे में जेंडर आधारित असमानताओं की जड़ें काफ़ी गहरी हैं और स्थायी स्वरूप लिए हुए हैं, जो मूल रूप से पितृसत्तात्मक परंपराओं और लैंगिक भूमिकाओं की देन हैं, और यही सामाजिक ढांचा जेंडर आधारित हिंसा को बढ़ावा देता है. पारंपरिक लैंगिक भूमिकाएं महिलाओं से आसानी से काबू में आ जाने वाले स्वभाव की उम्मीद करती हैं और उन्हें एक निम्न ओहदा देती हैं. औरतों को घरेलू कामों, बच्चों की देखभाल से जुड़े कामों के लायक समझा जाता है और उनसे पति और परिवार की सेवा की उम्मीद की जाती है, यह स्थिति महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा को बढ़ावा देने और उसे वैधानिक स्वरूप देने वाले कारकों के पक्ष में काम करती है, जैसे पुरुषों को मनमर्जी का अधिकार दिया जाना और महिलाओं को एक यौनिक वस्तु के रूप में देखा जाना.[15] जबकि आमतौर पर भारत में घरेलू हिंसा, यौन हिंसा और हत्या जैसे अपराध महिलाओं के खिलाफ़ जेंडर आधारित हिंसा के उदाहरण हैं, लेकिन दरअसल इसका काफ़ी व्यापक स्वरूप है. भारत में महिलाएं भ्रूण हत्या, लिंग निर्धारित गर्भपात, यौन तस्करी, पीछा किए जाने (स्टॉकिंग), दहेज़ की मांगों, बाल विवाह, एसिड हमले और कथित रूप से सम्मान के लिए की जाने वाली हत्याओं का सामना करती हैं.

भले भारतीय संविधान जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है (अनुच्छेद 21) और लिंग के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है (अनुच्छेद 15), लेकिन इस क्षेत्र में नीति निर्माण प्रक्रिया को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. यह लेख उन सामाजिक और कानूनी आयामों का विश्लेषण करता है, जो प्राथमिक और द्वितीयक आंकड़ों के विश्लेषण और शोध के माध्यम से भारत में जेंडर आधारित हिंसा को परिभाषित करते हैं.[b] यह नारीवादी दृष्टिकोण के माध्यम से जेंडर आधारित हिंसा से संबंधित नीति-निर्माण प्रक्रिया के पुनर्मूल्यांकन की भी सिफ़ारिश करता है. यह दृष्टिकोण भारत में जेंडर से जुड़ी सामाजिक बारीकियों को संज्ञान में लेता है ताकि दीर्घकालिक परिवर्तन को जन्म दिया जा सके.

भारत में जेंडर के आधार पर होने वाली हिंसा के सामाजिक आयाम

एक पितृसत्तात्मक समाज में ऐसा माना जाता है कि ताकत पर पुरुषों का अधिकार और नियंत्रण होता है. वंश का स्वरूप पैतृक होता है और विरासत पर पुरुषों का दावा होता है. आमतौर पर पारिवारिक संसाधनों पर पुरुषों का नियंत्रण होता है. स्वाभाविक रूप से इसके कारण महिलाएं सामाजिक नुकसान की स्थिति में होती हैं.

किसी भी समुदाय के भीतर अक्सर महिलाओं के कंधों पर इज्ज़त और मर्यादा का बोझ डाल दिया जाता है. इसलिए, किसी महिला के खिलाफ़ हुई हिंसा (ख़ासकर उसके शरीर पर किए गए हमले) को पूरे समुदाय के लिए शर्मनाक माना जाता है. संघर्ष या युद्ध के दौरान, ख़ासतौर पर सांप्रदायिक हमलों में, इसी बात का फ़ायदा उठाया जाता है, और मुख्य रूप से महिलाओं को निशाना बनाया जाता है. विभाजन के दौर से लेकर 2002 के गुजरात नरसंहार तक, हालिया वर्षों में सांप्रदायिक घटनाओं में हुई वृद्धि[16] ने ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं जहां किसी समुदाय का सिर झुकाने या उन्हें अपमानित करने के लिए महिलाओं के शरीर का इस्तेमाल किया गया है.

भारत में ख़ासतौर पर सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों की महिलाओं को कहीं अधिक यौन हिंसा का ख़तरा उठाना पड़ता है.[17] अकेले 2020 में, दलित और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के खिलाफ़ बलात्कार के 4,509 मामले दर्ज किए गए.[18] 2011 में माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप की एक रिपोर्ट के अनुसार, "दलित महिलाएं अपनी जाति, वर्ग और जेंडर के कारण तीनों स्तरों पर सामाजिक हीनता का बोझ उठाती हैं."[19] मुख्य रूप से उच्च जातियों से ताल्लुक रखने वाले पुरुष अपराधी इन [महिलाओं] को उनकी हैसियत बताने की कोशिश करे हैं." अभी भी इन समुदायों को निम्न समझने की प्रवृत्ति समाज में व्यापक रूप से फैली हुई है, जो उनके खिलाफ़ आपराधिक कृत्य को कुछ हद तक सामाजिक स्वीकृति प्रदान करती है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून, 1989 जैसे कानूनी प्रावधान अपने क्रियान्वयन में अपर्याप्त हैं और न्याय देने में असमर्थ हैं.

जेंडर के साथ दूसरे सामाजिक कारकों का सम्मिश्रण वैश्विक स्तर पर अल्पसंख्यक महिलाओं के साथ भेदभाव की एक बड़ी वजह है.[20] उदाहरण के लिए, 2012 के दिल्ली गैंगरेप मामले (जिसे 'निर्भया मामले' के नाम से जाना जाता है) और बिल्किस बानो मामले में दी गई प्रतिक्रियाओं को देख लीजिए. दोनों ही मामले, महिलाओं के खिलाफ़ यौन हिंसा के क्रूरतम उदाहरण हैं, जिसके कारण उन्हें गंभीर शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आघात का सामना करना पड़ा. दिल्ली मामले में यौन हिंसा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर एकजुटता का प्रदर्शन किया गया, और अपराधियों को जल्दी ही पकड़ लिया गया, उन पर मुक़दमा चलाया गया और उनके अपराधों की प्रकृति के अनुसार उन्हें उचित रूप से दंडित किया गया. वहीं दूसरी तरफ़, सांप्रदायिकता की भेंट चढ़े बिल्किस बानो मामले में न्यायपूर्ण अंत देखना नसीब नहीं हुआ, जहां केवल 14 साल के बाद ही अपराधियों को रिहा कर दिया गया.

अंतरधार्मिक और अंतर्जातीय विवाहों के मामलों में परिवार की गरिमा को बचाने के नाम पर की जाने वाली हत्याओं के साथ कथित रूप से सम्मान की धारणा जुड़ी हुई है. 'ऑनर किलिंग' के नाम से जाने जानी वाली इस प्रथा के व्यापक स्तर पर प्रचलन के बावजूद इसके खिलाफ़ कोई राष्ट्रीय कानून अस्तित्व में नहीं है.[21]

इसके अतिरिक्त, यौन हिंसा की सर्वाइवर महिलाओं के खिलाफ़ सामाजिक कलंक और शर्मिंदगी की भावना भारतीय समाज में गहराई से जड़ें जमा लेती हैं. सर्वाइवर महिलाओं और उनके परिवारों को, विशेष रूप से दूरस्थ इलाकों में बार-बार उत्पीड़न और यहां तक कि सामाजिक बहिष्कार सहन करना पड़ता है. महिलाओं को ही उनके साथ हुई यौन हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है और उन्हें एक 'टूटे-फूटे सामान' के रूप में देखा जाता है. सामाजिक कलंक के डर से ऐसे मामलों के दर्ज होने की दर भी बेहद कम होती है.[c],[22] यह भारत में व्यापक तौर पर मौजूद बलात्कार की संस्कृति की एक विशेषता है. बलात्कार की संस्कृति को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जहां जेंडर और यौनिकता को लेकर समाज के दृष्टिकोण के चलते बलात्कार एक रोजमर्रा घटित होने वाली एक आम सी घटना बन जाती है.[23] समाजशास्त्री बलात्कार संस्कृति से जुड़े कुछ सामान्य व्यवहारों जैसे पीड़ित को दोष देने, उसकी यौनिकता पर सवाल खड़े करने, उसे यौनिक वस्तु के रूप में देखने, मामले को बेहद मामूली घोषित करने, और एक बहुव्यापी समस्या को नकारने की प्रवृत्ति को इसके व्यापक प्रसार के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं.[24]

इसी तरह, तलाकशुदा महिलाओं को पतित माना जाता है और उन्हें सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण परिवार अक्सर महिलाओं को हिंसक संबंधों में रहने के लिए बाध्य करते हैं.[25] सामाजिक सहायता की कमी, अपने कानूनी अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी और आर्थिक ज़रूरतों के लिए एक पुरुष (पिता या पति) पर निर्भरता इस मुद्दे को और ज़्यादा जटिल बना देते हैं. साथ ही, मामले को सामने लेकर आने वाली सर्वाइवर महिलाओं के चरित्र को इतनी बुरी तरह से तोला जाता है, जिससे न्याय तक पहुंच का रास्ता काफ़ी कठिन हो जाता है.

भारतीय समाज को नियंत्रित करने वाले कानूनों की भाषा से हम पितृसत्ता की व्यापकता का अंदाज़ा लगा सकते हैं, जहां जेंडर के बाइनरी स्वरूप को ही संज्ञान में लिया जाता है. आपराधिक कानूनों में व्यक्ति के तौर पर केवल पुरुष और महिलाओं को ही शामिल किया गया है, और जेंडर स्पेक्ट्रम के अन्य सिरों पर आने वाले व्यक्तियों के खिलाफ़ हो रही हिंसा को संस्थागत तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता है. इसी तरह, महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या को पीड़ित और पुरुषों के बड़े वर्ग को अपराधी के तौर चिन्हित किया जाता है. उदाहरण के लिए, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 के अनुसार केवल महिलाओं को बलात्कार पीड़िता माना जाता है. इस तरह की कानूनी परिभाषाएं पितृसत्तात्मक समाज में लिंग आधारित भूमिकाओं को और बढ़ावा देती हैं, जो मौजूदा सामाजिक परंपराओं के साथ मिलकर स्वाभाविक तौर पर महिलाओं को पीछे ढकलने का काम करती हैं. 2018 में कानून के निरस्त होने से पहले तक, विवाहेत्तर संबंधों पर आधारित आईपीसी की धारा 497 के तहत एक पति उस पुरुष पर मुकदमा दर्ज करा सकता था, जिसके साथ उसकी पत्नी ने संबंध बनाए थे. लेकिन इसके विपरीत मामले में एक पत्नी को ऐसे अधिकार नहीं दिए गए थे, जिसके मूल एक महिला को पुरुष की संपत्ति घोषित करने की मानसिकता निहित थी.

यहां तक कि पितृसत्ता ने कानूनी बदलावों को पूरी तरह से लागू होने से रोक रखा है. कई पारंपरिक नियम, जिन्हें अब ग़ैर कानूनी घोषित किया जा चुका है, अब भी अस्तित्व में हैं, ख़ासकर ऐसे दूरस्थ इलाकों में जहां महिला शिक्षा बहुत कम है. बाल विवाह की प्रथा इनमें से एक है. 2019-21 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में होने वाली सभी शादियों में 24 प्रतिशत बाल विवाह के मामले थे.[26]

इसलिए, भारत में जेंडर आधारित हिंसा के खिलाफ़ लड़ाई में किसी क़िस्म के दीर्घकालिक और स्थायी सुधार के लिए आवश्यक है कि सामूहिक सोच और धारणाओं में बदलाव लाया जाए.

निरंतर रूप से कानूनी सुधारों की आवश्यकता

1972 का मथुरा बलात्कार मामला, 1997 का विशाखा मामला और 2012 में दिल्ली गैंगरेप मामला भारत के न्यायिक इतिहास के लिए मील का पत्थर साबित हुए मामले थे, जिन्होंने यौन हिंसा के संबंध में भारतीय कानूनों में बदलाव किए हैं.

1983 के आपराधिक संशोधन अधिनियम, जिसे 1972 में पुलिस हिरासत में हुए बलात्कार मामले (मथुरा मामले)[d] के बाद लाया गया था, ने भारत में महिला अधिकारों की स्वीकार्यता के नए दौर की शुरुआत की. इसने भारतीय दंड संहिता (1860), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC, 1973) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872) में संशोधन किया. IPC की धारा 376B और 228A ने हिरासत में बलात्कार को एक दंडनीय अपराध बना दिया और सार्वजनिक स्तर पर सर्वाइवर महिला के चरित्र हनन को रोकने के लिए उसकी पहचान का खुलासा करने पर रोक लगा दी गई. हालांकि, सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, हिरासत में बलात्कार मामले में सशस्त्र बलों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, और वे अभी भी कानून के दायरे से बाहर हैं. भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114A के तहत अगर सर्वाइवर ने दावा किया है कि उसने अपनी सहमति नहीं दी थी तो इसे एक संभावना के तौर पर स्वीकार किया जाएगा, जिसका खंडन किया जा सकता है. CrPC की धारा 174(3) के अनुसार, विवाहित महिला की आत्महत्या से मौत होने पर पुलिस अधिकारियों को एक जांच रिपोर्ट तैयार करने की आवश्यकता होती है (जहां इसके लिए उचित कारण मौजूद हों या इसके लिए किसी रिश्तेदार द्वारा अनुरोध किया गया हो).

विशाखा एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997) (जहां राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा भंवरी देवी बलात्कार मामले में आरोपियों को बरी करने के फ़ैसले के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल की गई थी) ऐसा पहला मामला था जहां भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मुद्दे को संज्ञान में लेते हुए फ़ैसला सुनाया था. सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायतों को देखते हुए नियोक्ताओं के लिए दिशानिर्देश जारी किए, जिसे 'विशाखा गाइडलाइंस' के नाम से जाना जाता है.[27]हालांकि, 2013 में जाकर संसद द्वारा कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम को पारित किया गया. अधिनियम के अनुसार, हर एक नियोक्ता को एक आंतरिक शिकायत समिति का गठन करना होगा जहां कथित उत्पीड़न की शिकायत पर सिविल कोर्ट की बजाय समिति जांच प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगी. इसमें यह भी निर्देशित किया गया है कि इस समिति की अध्यक्ष एक महिला होगी और उसमें शामिल सदस्यों में आधी महिलाएं होंगी. साथ ही इसमें पीड़ित महिला को मुआवजा देने का प्रावधान भी शामिल है. इस कानून के तहत कार्यस्थल को जेंडर के लिहाज़ से संवेदनशील और सुरक्षित बनाने के लिए नियोक्ताओं पर कुछ ज़िम्मेदारियां डाली गई हैं. भले ही यह कानून अपने आप में बेहद विस्तृत है, लेकिन इसमें महिलाओं को महज़ एक शिकायतकर्ता के रूप में संबोधित किया गया है, जो कार्यस्थल पर जेंडर असंतुलन को ही बढ़ावा ही देता है. गुप्त रूप से शिकायत दर्ज कराने संबंधी प्रावधान के न होने के कारण यह सामाजिक बदनामी और कार्यस्थल पर शक्ति संबंधों की प्रकृति जैसे कारकों की भी अनदेखी करता है (जहां बदले की संभावनाएं पैदा हो सकती हैं या व्यावसायिक स्थिरता पर प्रभाव पड़ सकता है).

दिसंबर 2012 में, दिल्ली की एक प्राइवेट बस में अपने पुरुष मित्र के साथ यात्रा कर रही एक 22 वर्षीय महिला को मारा-पीटा और प्रताड़ित किया गया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. यह मामला व्यापक रूप से सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गया, और घटना के विरुद्ध जनता ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया, जिसके बाद यौन हिंसा के संबंध में आपराधिक कानूनों में बदलाव का सुझाव देने के लिए वर्मा समिति का गठन किया गया. समिति की कई सिफ़ारिशों[28] को शामिल करते हुए फ़रवरी 2013 (घटना के तीन महीनों के भीतर) में एक राष्ट्रपति अध्यादेश जारी किया गया, जिसे तब आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 के रूप में लागू किया गया. इन सुधारों के माध्यम से यौन हिंसा की समस्या से निपटने के लिए कई कड़े विधायी उपाय सामने रखे गए, और यौन हिंसा की परिभाषा और उससे जुड़ी समझ के दायरे का विस्तार किया गया. इस कानून ने IPC में नए अपराधों जैसे एसिड अटैक या उसकी कोशिश, पीछा करने और ताक-झांक को शामिल करने के साथ-साथ यौन हमले की परिभाषा का विस्तार किया. इस कानून ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी संशोधन किया, जहां धारा 54A के तहत बलात्कार मामलों में पीड़ित के चरित्र या उसके पुराने यौन अनुभवों को अप्रासंगिक बना दिया गया, जबकि धारा 114A के अनुसार यही माना जाएगा कि सहमति प्रदान नहीं की गई थी जब तक इसके खिलाफ़ कोई ठोस सबूत पेश न किए जाएं. एक ऐसे समाज में, जहां अपराधियों के कृत्यों का बचाव करने के लिए अक्सर यौन हिंसा से पीड़ित महिला के चरित्र पर ही सवाल खड़े कर दिए जाते हैं, यह सर्वाइवर महिलाओं के हितों के संरक्षण की दिशा में उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कानूनी कदम था.

लिंग पर आधारित हिंसा से पीड़ित महिलाओं को राहत देने के लिए बनाए गए कुछ कानून महज़ प्रतीकात्मक हैं, और राज्य और उसके प्रतिनिधियों (जैसे कानून प्रवर्तन और जनस्वास्थ्य से जुड़े कर्मचारी) द्वारा क्रियान्वयन का अभाव है. घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005 अपनी शुरुआत में एक ऐतिहासिक कानून था. यह उत्पीड़न के वर्गीकरण, विशेष रूप से आर्थिक उत्पीड़न और धमकी या नुकसान पहुंचाने की खातिर किए जाने वाले उत्पीड़न की पहचान के संदर्भ में काफ़ी महत्त्वाकांक्षी कानून था. हालांकि इसके क्रियान्वयन में कई खामियां थीं, जहां फॉलो-अप के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया था, न्यायिक प्रक्रिया थकाऊ थी और नियुक्त किए गए संरक्षण अधिकारियों को घरेलू हिंसा पीड़ितों/सर्वाइवर्स के साथ काम करने का पर्याप्त अनुभव नहीं था. इस कानून के तहत समस्या के निवारण को सुलभ बनाने के लिए संरक्षण अधिकारियों के पद का गठन किया गया था, लेकिन कानून में उनकी विशेषज्ञता और प्रशिक्षण को लेकर स्पष्टता का अभाव था.

ऐसा एक और उदाहरण बाल विवाह निषेध कानून (2006) है. इस कानून के तहत बाल विवाह को महज़ शून्य करार किया जा सकता है, भले ही अभिवावक/माता-पिता या अन्य कोई वयस्क जानबूझकर इसमें शामिल हों और इसके लिए दंड के भागी हों. इस विवाह को शून्य करार करने का अधिकार केवल उसी बच्ची को होता है, जिसकी शादी की गई है, और इस कानून के तहत उस बच्ची बालिग होने के बाद महज़ दो साल की समयसीमा (यानी लड़की के 20 साल के होने तक) दी गई है, जिसके बीच वह कभी भी इस शादी को शून्य करार देने की अर्जी दे सकती है. यह कानून बाल विवाह से जुड़े सामाजिक कारकों जैसे पारिवारिक दबावों को समझने में नाकाम रहा है, जिसका केवल विधायी उपायों से समाधान नहीं किया जा सकता. मार्च 2020, महिला और बाल विकास मंत्री ने लोकसभा को संबोधित करते हुए कहा कि प्रचलित सामाजिक रीति-रिवाजों और परंपराओं, अशिक्षा, गरीबी, समाज में महिलाओं की निम्न स्थिति और महिलाओं को 'बोझ' समझने वाली धारणाओं, पीड़ितों के अधिकारों और निवारण उपायों के बारे में जागरूकता की कमी के चलते बाल विवाह की प्रथा अभी तक जारी है.[29] 2021 में लोकसभा में इस कानून को एक लेकर संशोधन विधेयक लाया गया[30], जिसमें शादी को रद्द करने की समय-सीमा को दो साल से बढ़ाकर पांच साल करने की मांग को गई थी लेकिन विधेयक में विवाह की न्यूनतम उम्र को 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया था, जो कि पूरी तरह से एक अव्यावहारिक क़दम है, जिससे आपसी सहमति देने में सक्षम दो बालिग वयस्कों का जीवन नकारात्मक रूप से प्रभावित होगा और इससे बाल विवाह प्रथा को समाप्त करने में कोई मदद नहीं मिलेगी.

इसके अतिरिक्त, न तो इस कानून में और न ही संशोधित विधेयक में विवाह के भीतर होने वाले बलात्कार के मुद्दे को संबोधित किया गया है. धारा 375 में कहा गया है, "एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ बनाए गए यौन संबंध को बलात्कार नहीं कहा जा सकता, अगर वह 15 साल से कम उम्र की नहीं है." इस अपवाद को समाप्त होना ही चाहिए. इसके अतिरिक्त, धारा 376 (B) के अनुसार, "अगर किसी की पत्नी उससे अलग रह रही है, भले ही इसके लिए कानूनी इजाज़त ली गई हो या न ली गई हो, मगर ऐसे में कोई अपनी पत्नी से बिना उसकी मर्ज़ी से यौन संबंध बनाता है तो उसे न्यूनतम दो साल की सज़ा, जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है, के साथ-साथ उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है." इस अपराध की भी वही सज़ा होनी चाहिए जैसा कि IPC की धारा 376 में निर्धारित किया गया है (यानी कि न्यूनतम 10 साल की सज़ा जो आजीवन कारावास तक बढ़ाई जा सकती है).

दोनों ही धाराएं विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच फ़र्क करती हैं, विवाहित महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता को कम करती हैं, उन्हें उनके पतियों की संपत्ति की तरह देखती हैं, और महिलाओं के खिलाफ़ यौन हिंसा को बढ़ावा देती हैं.

भारत के कानूनी ढांचे के भीतर वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण के पक्ष में तर्क पहले से मौजूद हैं. हिंदू विवाह अधिनियम, ईसाई विवाह अधिनियम, भारतीय तलाक अधिनियम, और पारसी विवाह और तलाक अधिनियम एक महिला को अपने पति को कई आधारों पर तलाक देने की अनुमति देते हैं, जिसमें यह आधार भी शामिल है कि क्या वह वैवाहिक बलात्कार का दोषी है. हालांकि, इसकी वर्तमान व्याख्या के अनुसार, पत्नी के विरुद्ध बलात्कार संभव ही नहीं है. यानी यह व्याख्या एक पत्नी को पुरुष की संपत्ति के तौर पर देखती है और वह उसके इच्छाओं पर निर्भर है, और उसकी कोई व्यक्तिगत स्वायत्तता नहीं है.

इसके अलावा, 1971 के मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी एक्ट के तहत विवाहित, तलाकशुदा, विधवा, विकलांग और यौन उत्पीड़न या बलात्कार पीड़ित महिलाएं और नाबालिग लड़कियां गर्भपात का अधिकार रखती हैं. सितंबर 2022 में, सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसला देते हुए कहा कि एक महिला के अविवाहित होने पर उससे गर्भपात का अधिकार नहीं छीना जा सकता, जिससे अब सभी महिलाओं को गर्भपात का अधिकार प्राप्त हो गया है.[31] 1971 का कानून इस बात की समझ को आवश्यक बनाता है कि शादीशुदा महिलाएं यौन दुर्व्यवहार एवं हिंसा के कारण गर्भपात प्रक्रिया का चुनाव कर सकती हैं जो वैवाहिक बलात्कार को कानूनी रूप से स्वीकार करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की हालिया टिप्पणियों से साम्यता नहीं रखता, जिसके अनुसार गर्भपात के लिए विवाहित महिलाओं के ज़बरन गर्भधारण को वैवाहिक बलात्कार माना जा सकता है.[32]

IPC की धारा 376 के अनुसार, 18 साल से कम उम्र की लड़कियों के साथ सहमति से बनाए गए यौन संबंध सांविधिक बलात्कार की श्रेणी में आते हैं. हालांकि, अगर लड़की 'शादीशुदा' है, तो सहमति की उम्र कम होकर 15 साल हो जाती है. इसका अर्थ यह हुआ कि जो पुरुष 15 वर्ष से अधिक उम्र की अपनी 'बीवी' के साथ यौन संबंध बनाता है, उसपर मुकदमा नहीं चलाया जा सकेगा, ऐसी स्थिति से बच्चों के शोषण और उनके साथ दुर्व्यवहार का ख़तरा और ज़्यादा बढ़ जाता है.

2017 में, सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम पर्सनल लॉ से तत्काल 'तीन तलाक़' के प्रावधान को समाप्त कर दिया.[33] तत्काल तीन तलाक़ के तहत प्रावधान एक मुस्लिम मर्द अपनी पत्नी को तीन बार तलाक़ शब्द बोलकर उसे छोड़ सकता था. तीन तलाक़ का मुद्दा भारत में जेंडर आधारित हिंसा को बढ़ावा देने वाले एक और कारक को रेखांकित करता है, वह है: एक असमान नागरिक संहिता.

भारत में अलग-अलग धार्मिक समुदाय अपने-अपने वैयक्तिक कानूनों का पालन करते हैं. जिसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ; हिंदू पर्सनल लॉ, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956), हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम (1956), और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम (1956) शामिल हैं, और ये कानून जैन, बौद्ध और सिखों पर भी लागू होते हैं ; क्रिश्चियन पर्सनल लॉ; और पारसी पर्सनल लॉ. ये कानून विवाह, तलाक़, एवं अन्य दूसरी चीज़ों के लिए नियम तय करने के लिए हैं. चूंकि भारत में हर धार्मिक समूह के ऊपर अलग कानून लागू होते हैं, इसलिए इनमें और भारत के अन्य मौजूदा कानूनों में गहरा विरोधाभास है. भारत में वैयक्तिक कानूनों के कारण महिलाओं और उनके हितों की सुरक्षा के लिए किसी एक साझी व्यवस्था का निर्माण काफ़ी कठिन है. उदाहरण के लिए, IPC की धारा 494 के अनुसार, बहुविवाह एक दंडनीय अपराध है जिसके लिए अपराधी को 7 साल तक की सज़ा सुनाई जा सकती है. हालांकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत, एक आदमी अपनी पत्नियों की सहमति (यह एक ऐसा पहलू है जिस पर समाज ने कभी विचार करने की ज़रूरत नहीं समझी है) से अधिकतम चार बार शादी कर सकता है. हालांकि, लैंगिक हिंसा को लेकर होने वाली नीतिगत बहसों में इस मुद्दे को शायद ही कभी उठाया जाता है. यहां तक कि समान नागरिक संहिता के गुणों पर फिर से विचार करने की ज़रूरत है ताकि भारत जेंडर आधारित हिंसा के विरुद्ध अपनी लड़ाई को आगे ले जा सके.

जिस तेज़ी से साइबर क्षेत्र ने लोगों की सामाजिक, व्यावसायिक और निजी जिंदगियों में दख़ल दिया है, डिजिटल स्पेस में विनियमन की आवश्यकता काफ़ी बढ़ गई है. गुमनाम रहने की स्वतंत्रता ने दुर्व्यवहार, दमन और महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ़ अलग-अलग तरह की हिंसा को आसान बना दिया है.[34] इंटरनेट ने महिलाओं को अभिव्यक्ति का एक मंच दिया है, और इस स्वतंत्रता को भारत में (और अन्य जगहों पर) पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना के लिए एक चुनौती के रूप में देखा जाता है, जिससे उनके खिलाफ़ हिंसा का ख़तरा और अधिक बढ़ जाता है.[35]

2013 के आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम ने स्टॉकिंग की परिभाषा का विस्तार करते हुए साइबरस्टॉकिंग को एक नए अपराध की श्रेणी में शामिल किया. साइबरस्पेस में जेंडर आधारित हिंसा के संबंध में इनफॉर्मेशन एंड टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 प्रमुख कानून है. जबकि IT एक्ट की धाराएं 66E, 67, 72 और 354A कानूनी रास्ता अपनाने और निजता के उल्लंघन, यौनिकता का मुखर प्रदर्शन करने वाली या अश्लील सामग्री को प्रकाशित किए जाने को लेकर विभिन्न प्रावधानों का उल्लेख करती हैं. यह कानून सीधे-सीधे जेंडर आधारित हिंसा और साइबरस्पेस में महिलाओं के खिलाफ़ मनोवैज्ञानिक हिंसा का संज्ञान नहीं लेता, और इसलिए इस विशेष संदर्भ में महिलाओं की असुरक्षा को समझने में विफल रहता है. 2015 में, छत्तीसगढ़ सरकार ने डिजिटल स्पेस को मौजूदा प्रावधान के दायरे में लाने के इरादे से IPC में धारा 509B[36] को जोड़ा है, जिसमें "किसी भी महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने का इरादा रखने" वाले किसी व्यक्ति के खिलाफ़ सज़ा का प्रावधान और उसका विवरण दिया गया है.

संविधान महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव की अनुमति देता है, और जेंडर आधारित हिंसा के समाधान का अनिवार्य पहलू राष्ट्रीय और राज्य सामाजिक कल्याण योजनाएं रही हैं. इन कार्यक्रमों का उद्देश्य यौन और शारीरिक हिंसा का समाधान ढूंढ़ना है, उदाहरण के लिए महिला 181 हेल्पलाइन, जिसे वन स्टॉप सेंटरों (OSCs) के साथ एकीकृत किए जाने की योजना है. यह हेल्पलाइन देश के कई जिलों में घरेलू हिंसा सहित हिंसा और दुर्व्यवहार के मामलों को रिपोर्ट करने के लिए स्थापित की गई है. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (BBBP) और महिला उद्यम निधि जैसी योजनाएं शिक्षा और वित्तीय स्वतंत्रता के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए लाई गई हैं, वहीं शोषण और मानव तस्करी के मुद्दों से निपटने के लिए उज्जवला योजना को लाया गया. इसके अतिरिक्त, महिला पुलिस वॉलंटियरों को नियुक्त करने और महिला द्वारा प्रबंधित पुलिस स्टेशनों और बैंकों की स्थापना से जुड़े कई कार्यक्रम भी है. जबकि इन सभी कार्यक्रमों का उद्देश्य भारतीय महिलाओं को सशक्त बनाना और उनकी स्थिति में सुधार लाना है, उनकी प्रभावशीलता और कार्यान्वयन का स्तर अलग-अलग है. उदाहरण के लिए, जम्मू और कश्मीर में 19 वन स्टॉप सेंटर्स हैं, लेकिन उनमें से केवल दो ही 181 हेल्पलाइन के साथ एकीकृत हैं.[37] इसी तरह, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना में लिंग-चयनात्मक गर्भपात, भ्रूण हत्या और महिला शिक्षा के महत्व के खिलाफ़ जागरूकता बढ़ाने की भरपूर संभावनाएं हैं, लेकिन धन के अनुचित आवंटन और उपयोग के कारण इसके क्रियान्वयन में कमी रही है.[38]

राष्ट्रीय महिला आयोग (1992 में गठित) और कई राज्यों में महिला आयोगों का गठन किया गया ताकि महिला सुरक्षा से जुड़े सभी मुद्दों की जांच की जा सके, जिसमें सुरक्षा उल्लंघनों की जांच करना भी शामिल है. राष्ट्रीय महिला आयोग महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों में भाग लेता है, सामयिक मुद्दों पर शोध करता है, महिलाओं से संबंधित प्रावधानों की समीक्षा करता है, और सरकार के लिए एक अनुशंसा निकाय के रूप में कार्य करता है. हालांकि, आयोग द्वारा दिए सुझाव कानूनी रूप बाध्यकारी नहीं होते हैं. यह काफ़ी हद तक राज्य द्वारा प्रदान की गई वित्तीय सहायता पर निर्भर होते हैं, और यह केवल दर्ज किए गए मामलों पर कार्रवाई का अधिकार रखते हैं. मानवाधिकार आयोग की तरह, महिला आयोग भी एक शक्तिहीन संस्था है, जो बदलाव के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा सकती.

नीति निर्माण की प्रक्रिया में नारीवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता: कुछ सुझाव

 

भारत में जेंडर आधारित हिंसा और नीति निर्माण प्रक्रिया दोनों ही का महिलाओं के प्रति भेदभाव करने वाली संस्कृति के साथ क़रीबी संबंध है, जो देश की कानून व्यवस्था और सामाजिक संपर्कों में उभर कर सामने आती है. इसलिए, यह ज़रूरी हो जाता है कि उन कमियों को पहचाना और सुधारा जाए जो भारत में जेंडर अंतरालों को दूर करने के प्रयासों में अवरोध की तरह खड़ी हो जाती हैं. इसके लिए निम्नलिखित सुझावों पर विचार किया जा सकता है:

नीतिगत फ़ैसलों से जुड़े दृष्टिकोणों का मूल्यांकन

एक नारीवादी दृष्टिकोण को अपनाए जाने की आवश्यकता है, जिसके केंद्र में हिंसा से बचाव करना हो. इससे भारत में लैंगिक परंपराओं के विश्लेषण में काफ़ी मदद मिलेगी और समस्या के मूल कारण, पितृसत्तात्मक संस्कृति, पर ध्यान केंद्रित किया जा सकेगा. यह कमज़ोर समूहों (इस संदर्भ में महिलाएं) को नीति निर्धारण में एक निष्क्रिय विषय के रूप में न देखकर एक योगदानकर्ता के रूप में समाधान प्रक्रिया में शामिल करता है.

जेंडर आधारित हिंसा के संदर्भ में भारत को जेंडर के बाइनरी स्वरूप से आगे बढ़ने की ज़रूरत है, जो जेंडर की पितृसत्तात्मक अवधारणा पर आधारित है. पीड़ित की श्रेणी में केवल महिलाओं को शामिल किए जाना दरअसल उन्हें अलग-थलग करना है, जो "हम और वे लोग" जैसी मानसिकता को जन्म देता है, जबकि जेंडर आधारित हिंसा एक सामाजिक समस्या है, और इसके समाधान के लिए इसमें सभी को शामिल किया जाना चाहिए. इस संवाद में पुरुषों को शामिल किया जाना ज़रूरी है ताकि जेंडर समानता पर आधारित समाज की स्थापना की जा सके.

यौन हिंसा से जुड़ी नीति निर्धारण प्रक्रिया काफ़ी हद तक जनता के रोष से संचालित होती है, जहां विरोध प्रदर्शनों, कानूनी कार्रवाईयों और अंतर्राष्ट्रीय दबावों (जैसा कि 2012 के दिल्ली गैंगरेप मामले में हुआ) के तहत फ़ैसले लिए गए हैं. 'जब तक कोई घटना नहीं, तब तक कोई कार्रवाई नहीं' वाली व्यवस्था को बदलते हुए एक शोध-आधारित योजनाबद्ध नीतियों को लागू करने की आवश्यकता है, जो सामाजिक और व्यवस्थाजन्य मुद्दों की एक व्यापक समस्या के रूप में पहचान करता है, जिस पर महज़ एक बार कोई भारी भरकम कानून बना देने से काम नहीं चलेगा, बल्कि उस पर लगातार काम किए जाने की ज़रूरत है.

नीति निर्धारण प्रक्रिया को भारत में जेंडर आधारित हिंसा से निपटने में नागरिक समाज के योगदान और महत्त्व को पहचानना चाहिए. ग़ैर-नागरिक संगठन हमेशा ही महिला अधिकारों की रक्षा में सबसे आगे रहे हैं. उन्होंने अनुसंधान, वकालत, राहत कार्यक्रम, जागरूकता और जेंडर से जुड़ी समस्याग्रस्त मान्यताओं के प्रति समाज की मानसिकता बदलने की दिशा में काम किया है. स्थानीय संस्थाएं उन समुदायों के बारे में बेहतर समझ रखती हैं जिनके साथ वे मिलकर काम करती हैं, और वे बड़े संस्थानों की तुलना में समुदाय के भीतर उन महिलाओं तक आसानी से पहुंच सकती हैं, जो समस्याओं से प्रभावित एवं उनके प्रति संवेदनशील हैं. और इसलिए वे जागरूकता अभियान चलाने और सामाजिक कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए सबसे उपयुक्त हैं.

इसी तरह, नीति निर्माण प्रक्रिया में अकादमिक और अनुसंधान संस्थाओं की और अधिक भागीदारी की आवश्यकता है. समस्या क्षेत्रों की पहचान और व्यापक स्तर पर अनुसंधान के लिए उनके पास संसाधन हैं, और वे साक्ष्य आधारित एवं‌ और अधिक प्रभावी नीतियों के निर्माण में सक्षम हैं.

और अंत में, यौन हिंसा के संदर्भ में भारत की नीति निर्धारण प्रक्रिया की एक बड़ी विफलता उसकी दंडात्मक प्रकृति है. महज़ अपराधीकरण से आगे बढ़ते हुए अपराधियों को सज़ा दिलाने, बचाव उपायों को और बेहतर बनाने और सर्वाइवर महिलाओं के पुनर्वास पर बराबर रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है. यह अपने आप में एक आधी-अधूरी व्यवस्था है, जो समस्या के मूल कारणों और नागरिक-कल्याण की उपेक्षा करता है. उदाहरण के लिए, वर्मा समिति ने बलात्कार के मामलों में कड़ी सजा की सिफारिश की थी. इसने टू फिंगर टेस्ट को बंद करने[39] और सामाजिक कारकों के प्रभाव पर विचार करने संबंधी कई अन्य तर्क भी दिए लेकिन इन्हें आपराधिक संशोधन अधिनियम में शामिल नहीं किया गया. भले ही कड़े दंडात्मक प्रावधान ज़रूरी हैं लेकिन इन संशोधनों में समस्या के सिर्फ़ एक पहलू पर ही समाधान पेश किया है.

कार्यवाही आधारित सुझाव

भारत में यौन हिंसा से जुड़े विभिन्न पक्षों पर फिर से विचार किए जाने की आवश्यकता है ताकि इन अपराधों का व्यापक रूप से वर्गीकरण किया जा सके. विशेष रूप से वैवाहिक बलात्कार को शामिल किए जाने और यौन हिंसा के आरोपी सैन्यकर्मियों पर मुकदमा चलाने के लिए आवश्यक प्रावधानों को शामिल किए की ज़रूरत है. वर्तमान में, वर्तमान में, सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां अधिनियम), 1958 की धारा 6 के तहत सैन्य अधिकारियों को अधिनियम के दायरे में आने वाले कर्तव्यों के पालन के लिए कानूनी प्रतिरक्षा दी गई है. इसका मतलब यह हुआ कि केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना यौन हिंसा के आरोपी अधिकारियों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता और न हीं दूसरी कोई वैधानिक कार्रवाई की जा सकती है.

कानूनों के उचित कार्यान्वयन और आवश्यक संशोधनों पर विचार करने के लिए ज़रूरी है कि कार्यस्थल पर महिलाओं का 2013 यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम और 2005 घरेलू हिंसा अधिनियम जैसे मौजूदा अधिनियमों की प्रभावकारिता और अनुपालन की जांच की जानी चाहिए और इसके लिए हर पांच साल में नियमित ऑडिट कार्रवाईयों का प्रावधान किया जाना चाहिए.

वर्तमान में, पुनर्वास, विशेष रूप से मनोसामाजिक सेवाओं का भार नागरिक समाज उठाता है. नागरिक संगठनों और राज्य के आपसी संबंधों को संस्थागत रूप देने के लिए एक राष्ट्रीय नीति तैयार किए जाने की आवश्यकता है ताकि दोनों के बीच तालमेल को और बेहतर बनाया जा सके और नागरिक समाज संगठनों के कामकामी अधिकारों को स्थापित किया जा सके. इस नीति के माध्यम से विशेष रूप से संसाधनों के आवंटन और आपसी सहयोग की प्रकृति पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, जहां इन संगठनों को समुदायों के भीतर पहले से स्थापित व्यवस्थाओं और संपर्क सूत्रों के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं और कानून प्रवर्तन के साथ समन्वय स्थापित करते हुए मनोसामाजिक सेवाओं को संस्थागत मदद प्रदान करना चाहिए.

ऐसे संबंधों के विकास से जेंडर आधारित हिंसा से बच निकलने वाली महिलाओं के पुनर्वास संबंधी प्रावधानों को और बेहतर बनाने में मदद मिलेगी, जिसकी वर्तमान नीति निर्धारण प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा उपेक्षा हुई है. यौन हिंसा, और एकल मातृत्व जैसे पहलुओं पर शर्म की संस्कृति को देखेते हुए, महिलाओं को सामाजिक सहायता की अनुपस्थिति में हिंसा के आघातों से उबरने के लिए संस्थागत देखभाल की ज़रुरत होती है. इन सेवाओं में हेल्पलाइन नंबर, आश्रय घर, कानूनी सहायता और परामर्श, स्वास्थ्य देखभाल और दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक और शारीरिक स्तर पर परामर्श सेवाएं शामिल हैं.

181 हेल्पलाइन और एकीकृत वन स्टॉप सेंटर योजना देश में एकमात्र प्रमुख संस्थागत कार्यक्रमों में से एक है. यह एक महत्त्वाकांक्षी योजना है लेकिन इसे दस्तावेजीकरण, अनुवर्ती कार्रवाईयों और विशेष रूप से कर्मचारियों को प्रशिक्षण सुविधाओं को उपलब्ध कराने के संबंध में प्रभावी उपायों को लागू करने में आधारभूत संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है. मौजूदा सेवाओं को और बेहतर बनाने के लिए संसाधनों के उचित वितरण की आवश्यकता है.

जेंडर को लेकर न्याय, कानून और स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े अधिकारियों और 181 हेल्पलाइन के संचालनकर्मियों के अपने पूर्वाग्रह भी बाधा खड़ी करते हैं, जिससे हिंसा के समाधान पर काम करना कठिन हो जाता है. इन पूर्वाग्रहों की मौजूदगी को स्वीकार करना इसे समाप्त करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है. जेंडर सेंसिटिविटी से जुड़े प्रशिक्षण कार्यक्रमों को क्षमता निर्माण कार्यक्रमों की तरह और अधिक लक्षित और कर्मचारियों की भूमिका के आधार पर संदर्भ के साथ लागू किया जाना चाहिए. समुदाय के साथ सीधे जुड़कर काम करने वाले एक हवलदार के प्रशिक्षण मॉड्यूल को प्रशासन या संबंधित भूमिका को संभालने वाले एक अधिकारी के लिए तैयार किए मॉड्यूल से अलग होना चाहिए. इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों में जेंडर आधारित हिंसा के मामलों के नाटकीय रूपांतरणों को शामिल किया जाना चाहिए और उनसे निपटने के सबसे बेहतरीन उपायों को लेकर व्यावहारिक प्रशिक्षण भी देना चाहिए. इसके अलावा, प्रशिक्षण कार्यक्रम के एक भाग के रूप में सर्वाइवर महिलाओं से संवाद को भी शामिल किया जाना चाहिए.

एक ग़ैर सरकारी संगठन, साक्षी, ने 1990 के दशक के अंत में ऐसे ही एक कार्यक्रम का विकास किया था, जिसका लक्ष्य न्यायिक शिक्षा और संवेदनशीलता के माध्यम से लैंगिक रूप से जागरूक न्यायिक व्यवस्था का निर्माण करना था. 'एशिया-पैसिफिक ज्यूडिशियल इक्वालिटी एजुकेशन प्रोग्राम' को जजों के साथ मिलकर तैयार किया गया था ताकि न्यायतंत्र में जेंडर संबंधी पूर्वाग्रहों के अस्तित्व पर व्यवस्थागत संदेह की समस्या का समाधान ढूंढ़ा जा सके. इस पायलट कार्यक्रम को बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में भी चलाया गया, जहां इसे काफ़ी हद तक सफ़लता हासिल हुई. कार्यक्रम का एक हिस्सा न्यायाधीशों द्वारा मुकदमा दायर करने वाली महिलाओं, पुरुष एवं महिला वकीलों और ग़ैर-सरकारी संगठनों के साथ चर्चा और साक्षात्कार पर आधारित था.[40]

इसके अतिरिक्त, जैसा कि वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा था कि पुलिस की निष्क्रियता एक बहुत बड़ी संस्थानिक बाधा है. कानून प्रवर्तन अधिकारियों का महिला अधिकारों और कानूनी प्रावधानों के प्रति उदासीन या अपर्याप्त जानकारी रखना, जेंडर पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होना, भ्रष्टाचार में संलिप्त होना आदि आदि कारक महिलाओं की न्याय तक पहुंच को बाधित करते हैं. बुनियादी पुलिस प्रशिक्षण के परे, कानून प्रवर्तन अधिकारियों को कानूनी क्षेत्र में हो रहे बदलावों के प्रति जागरूक बनाने के लिए उनके नियमित प्रशिक्षण को अनिवार्य घोषित कर देना चाहिए.

शैक्षणिक/अनुसंधान संस्थानों जैसे राष्ट्रीय विधि महाविद्यालयों के साथ मिलकर कार्यशालाओं और प्रशिक्षण मॉड्यूल को तैयार किया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज ने पिछले कुछ वर्षों में इस तरह के कार्यक्रम आयोजित किए हैं, जिसमें से सबसे हालिया कार्यक्रम मध्य प्रदेश में आयोजित किया गया था.[41]

नीति निर्धारण प्रक्रिया में विशेष रूप से यौन हिंसा की परिस्थितियों से निपटने के लिए किसी विशेषज्ञ समूह की कमी पर ध्यान देना चाहिए. कानून प्रवर्तन एजेंसियों और स्वास्थ्य संस्थानों के साथ ऐसे किसी समूह की उपस्थिति सर्वाइवर महिलाओं को रिपोर्टिंग के लिए सुरक्षित माहौल प्रदान करेगी. ग़ैर-नागरिक संगठनों और समुदाय आधारित संगठनों, खासकर दूरस्थ क्षेत्रों और ग्रामीण इलाकों में कार्यरत लोगों को मिलाकर ऐसी यूनिट का गठन किया जा सकता है. इन यूनिटों और राज्य विभागों के बीच तालमेल बिठाकर पुलिस और समुदाय के बीच संबंधों को सुधारा जा सकता है. इसके लिए पुलिस थानों में नागरिक समन्वयकों या सलाहकारों/परामर्शदाताओं की नियुक्ति की जा सकती है.

आखिरकार, बचाव से जुड़ा एक आवश्यक पहलू जागरूकता है. नागरिक समाज संगठन ही सबसे उपयुक्त संगठन हैं, जो लक्षित जागरूकता कार्यक्रमों को चला सकें. उदाहरण के लिए, चेन्नई में प्रज्ञा ट्रस्ट जेंडर आधारित हिंसा और संबंधित विषयों पर अनौपचारिक चर्चा को प्रोत्साहित करने के लिए सामुदायिक कैफे वग़ैरह में ऐसे कार्यक्रमों की शृंखला का आयोजन करता है.[42] इसके अतिरिक्त, पितृसत्तात्मक धारणाओं में बदलाव की शुरुआत बच्चों से की जा सकती है क्योंकि उन पर इनका सबसे कम प्रभाव होता है और इसके लिए स्कूल स्तर पर रोकथाम के उद्देश्य से जागरूकता शुरू की जानी चाहिए. स्कूल एक आदर्श सामाजिक संस्था के रूप में काम कर सकते हैं जहां लैंगिक रूढ़िवादिता के खिलाफ़ अभियान शुरू किया जा सकता है. इन्हें पाठ्यक्रमों में बदलाव के माध्यम से हासिल किया जा सकता है, जहां बहस और संवाद जैसे विकल्पों के माध्यम से संघर्ष की स्थिति से निपटा जा सकता है, और साथ ही एक परिवार के भीतर मौजूद रिश्तों के विभिन्न रूपों की पहचान के माध्यम से पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं से जुड़ी धारणाओं को चुनौती दी जा सकती है और शोषण के अलग-अलग प्रकारों की पहचान की जा सकती है. उदाहरण के लिए, अंतर्राष्ट्रीय महिला अनुसंधान केंद्र द्वारा चलाए जा रहे GEMS (जेंडर इक्विटी मूवमेंट इन स्कूल्स)[43] कार्यक्रम ने एक ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया है, जिसकी मदद से युवा छात्रों को जेंडर असमानता से जुड़े गंभीर प्रभावों को समझाया जा सकता है, जिसे भारत, बांग्लादेश, वियतनाम और फिलीपींस में सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया जा चुका है और इस कार्यक्रम के सकारात्मक परिणाम मिले हैं.[44] भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में ऐसे ही एक मॉडल को लागू किया जाना चाहिए.

निष्कर्ष 

सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यतायें ठीक उसी तरह नीति निर्धारण प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं, जिस तरह से नीतियों में सामाजिक परंपराओं में बदलाव करने या उसे जस का तस लागू करने की क्षमता होती है. इसलिए, यह ज़रूरी है कि हम उन मौजूदा कमियों की पहचान करें जो भारत में लैंगिक अंतरालों को पाटने, विशेष रूप से जेंडर आधारित हिंसा के संदर्भ में बाधाएं पैदा करती हैं. भारत ने पिछले 40 सालों में महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा के मसले का समाधान ढूंढ़ने में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है. लेकिन जेंडर आधारित हिंसा से संबंधित नीतियों की समीक्षा करने पर पता चलता है कि भले ही भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून मौजूद हैं, लेकिन ये मूल रूप से दंडात्मक प्रकृति के हैं. नीति निर्धारण प्रक्रिया में जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े कुछ प्रमुख बिंदुओं को अनदेखा कर दिया जाता है, जैसे: पितृसत्तात्मक अवसंरचना, सांस्थानिक ढांचे की अपर्याप्तता, लैंगिक रूप से पक्षपाती धारणाएं जो क्रियान्वयन को प्रभावित करती हैं, सर्वाइवर महिलाओं के पुनर्वास के लिए सुविधाएं, और कानूनी प्रावधानों से जुड़े अंतराल.

नीति निर्माण का मुख्य उद्देश्य संघर्ष और अभाव को समाप्त करके, अवसरों तक पहुंच में वृद्धि और विकास एवं सुरक्षा में संतुलन के माध्यम से सामाजिक अस्थिरता की स्थिति में सुधार लाना है. भारत अपनी आधी आबादी को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाली एक महत्त्वपूर्ण समस्या का समाधान ढूंढ़ने में विफल रहा है, इस लिहाज़ से वह जेंडर आधारित हिंसा के प्रति काफ़ी अभी भी काफ़ी संवेदनशील देश है, जिससे सामाजिक कल्याण में बाधाएं पैदा होती हैं, संघर्ष की संभावनाएं बढ़ती हैं और विश्व स्तर पर आधुनिकीकरण की प्रक्रिया थम सी जाती है. भारत में नीति निर्माण से जुड़ा दृष्टिकोण ऐसा होना चाहिए कि वह इस समस्या के सामाजिक और कानूनी, सभी पक्षों के संतुलन पर आधारित हो ताकि और अधिक स्पष्ट समाधान ढूंढ़े जा सकें.


Endnotes

 [a] The 2018 version is the latest such poll by Thomson Reuters, and is a repeat of a similar survey of global experts in women’s issues conducted in 2011 that ranked India as the fourth most dangerous country for women.

[b] This includes perusing government records and publications, formal and informal statistical data, and other books and journals, and conducting personnel interviews.

[c] According to an analysis of 2016 National Family Health Survey data, only about 15 percent of all sexual assault incidents perpetrated by strangers are reported to the police.

[d] In 1972, a young tribal girl from Maharashtra was raped by two uniformed officers following a summon to appear at the police station in relation to an FIR registered against her elopement.

[e] In 1992, social worker Bhanvari Devi was gangraped in retaliation for trying to stop a child marriage as part of her duties with the Women Development Programme, a state government scheme. Following the Rajasthan High Court’s acquittal of the accused, several NGOs and women’s groups filed a public interest litigation in the Supreme Court demanding the enforcement of fundamental rights for working women.

[1] “Who Is Bilkis Bano, Who Was Gangraped during the 2002 Gujarat Riots?” The Indian Express, 16 August 2022, https://indianexpress.com/article/explained/explained-bilkis-bano-gangraped-2002-gujarat-riots-8093937/.

[2] “Who Is Bilkis Bano, Who Was Gangraped during the 2002 Gujarat Riots?”

[3] “Bilkis Bano Case Convicts Released due to Good Behaviour: Gujarat Govt to SC,” The Times of India, 17 October 2022, https://timesofindia.indiatimes.com/india/bilkis-bano-case-convicts-granted-remissions-due-to-good-behaviour-gujarat-govt-tells-sc/articleshow/94923481.cms.

[4] UNHCR, “Gender-Based Violence,” 2022, https://www.unhcr.org/gender-based-violence.html.

[5] Europarat, and Amnesty International, eds., The Council of Europe Convention on Preventing and Combating Violence against Women and Domestic Violence: A Tool to End Female Genital Mutilation; Istanbul Convention, Strasbourg: Council of Europe Publ, 2014.

[6] World Health Organisation, Global, regional and national estimates for intimate partner violence against women and global and regional estimates for non-partner sexual violence against women, New York, WHO, 2021, who.int/publications/i/item/9789240022256.

[7] “Crime in India – 2021,” National Crime Records Bureau, https://ncrb.gov.in/en/Crime-in-India-2021.

[8] De Schrijver, et al., “Minority Identity, Othering-Based Stress, and Sexual Violence,” International Journal of Environmental Research and Public Health 19, no. 7 (April 1, 2022): 4221. https://doi.org/10.3390/ijerph19074221.

[9] Peggy Antrobus, “DAWN, the Third World Feminist Network: Upturning Hierarchies,” In The Oxford Handbook of Transnational Feminist Movements, ed. Rawwida Baksh and Wendy Harcourt (New York, NY: Oxford University Press, 2015), 159–187.

[10] “Poll Ranks India the World’s Most Dangerous Country for Women,” The Guardian, 28 June 2018, https://www.theguardian.com/global-development/2018/jun/28/poll-ranks-india-most-dangerous-country-for-women.

[11] “Crime in India – 2011,” National Crime Records Bureau, https://ncrb.gov.in/en/crime-india-year-2011.

[12] “Nearly 20% Increase in Rapes Across India in 2021, Rajasthan Had Highest Cases: NCRB,” The Wire, 30 August 2022, https://thewire.in/women/crimes-against-women-rape-cases-india-2021-ncrb-data.

[13] “Crime in India – 2021”

[14] Esha Roy, “30% women in India subjected to physical, sexual violence: NFHS,” The Indian Express, 8 May, 2022, https://indianexpress.com/article/india/30-women-in-india-subjected-to-physical-sexual-violence-nfhs-7906029/.

[15] UN Women, “Understanding Masculinities and Violence Against Women and Girls Booklet,” 2016, https://trainingcentre.unwomen.org/RESOURCES_LIBRARY/Resources_Centre/masculinities.

[16] Human Rights Watch, “India: Unchecked Attacks on Religious Minorities,” January 18, 2018, https://www.hrw.org/news/2018/01/18/india-unchecked-attacks-religious-minorities.

[17] Equality Now, “Addressing Sexual Violence Against Marginalized Communities in India,” https://www.equalitynow.org/addressing-sexual-violence-against-marginalized-communities-in-india/.

[18] “Crime in India – 2021”

[19] Michelle Carnegie and Claire Rowland, “Violence against Women in Indigenous, Minority and Migrant Groups,” In State of the World’s Minorities and Indigenous Peoples 2011: Focus on Women’s Rights, ed. Joanna Hoare, 32–41, (London: Minority Rights Group International), 2011.

[20] United Nations Human Rights Office, “Impact of multiple and intersecting forms of discrimination and violence in the context of racism, racial discrimination, xenophobia and related intolerance on the full enjoyment of all human rights by women and girls: report of the United Nations High Commissioner for Human Rights,” UNHRC, 2017, https://digitallibrary.un.org/record/1298043?ln=en.

[21] Avanti Deshpande, “Addressing ‘Honour Killings’ in India: The Need for New Legislation,” Oxford Human Rights Hub (blog), September 7, 2022, https://ohrh.law.ox.ac.uk/addressing-honour-killings-in-india-the-need-for-new-legislation/.

[22] Pramit Bhattacharya and Tadit Kundu, “99% cases of sexual assaults go unreported, govt data shows,” LiveMint, 24 April 2018, https://www.livemint.com/Politics/AV3sIKoEBAGZozALMX8THK/99-cases-of-sexual-assaults-go-unreported-govt-data-shows.html

[23] Surmayi Khatana, “Infographic: What Is Rape Culture?” Feminism in India, May 4, 2020, https://feminisminindia.com/2020/05/04/infographic-rape-culture/.

[24] Frederick Attenborough, “Rape Is Rape (except When It’s Not): The Media, Recontextualisation and Violence against Women,” Benjamins Current Topics 86 (2016):15.

[25] Debarati Chakraborty, “Why Many Indian Women Can’t Walk Out Of Abusive Marriages,” HuffPost, August 4, 2019. https://www.huffpost.com/archive/in/entry/therapists-reveal-why-indian-women-stay-in-abusive-marriages_in_5d42df2ae4b0aca34119a4ce.

[26] India, Ministry of Health and Family Welfare India, National Family Health Survey – 5 (2019-21), 2022, http://rchiips.org/nfhs/NFHS-5_FCTS/India.pdf.

[27] “Vishaka Guidelines against Sexual Harassment at Workplace,” Vishaka v. State of Rajasthan, 1997, http://www.nitc.ac.in/app/webroot/img/upload/546896605.pdf.

[28] Harsimran Kalra, “Report Summary: Report of the Committee on Amendments to Criminal Law, 2013,” PRS Legislative Research, January 25, 2013, https://prsindia.org/policy/report-summaries/justice-verma-committee-report-summary.

[29] India, Ministry of Women and Child Development, Lok Sabha Unstarred Question No. 4526, March 20, 2020, http://164.100.24.220/loksabhaquestions/annex/173/AU4526.pdf.

[30] The Prohibition of Child Marriage (Amendment) Bill, 2021.

[31] “All Women Have Right to Safe, Legal Abortion: India’s Top Court,” Al Jazeera, 29 September 2022.

[32] “All Women Have Right to Safe, Legal Abortion: India’s Top Court”

[33] Shayara Bano v Union of India, 2017.

[34] NORC at the University of Chicago and the International Center for Research on Women, “Case Study: Technology-facilitated Gender Based Violence in India,” 2022.

[35] Kunal Majumder, “Women journalists in India feel more at risk after ‘auction’ apps worsen online abuse,” Committee to Protect Journalists, 31 January 2022.

[36] Criminal Law (Chhattisgarh Amendment) Act, 2013.

[37] Farheen Nahvi, “In the Shadow of Conflict: An Overview of Support Services of Gender-based Violence in Kashmir, plus a Directory of Resources,” The Prajnya Trust, 25 April 2022.

[38] Sneha Biswas, “‘Beti Bachao, Beti Padhao’ Failed To Show Desired Results: Parliamentary Committee Report,” RepublicWorld.com, 10 December 2021.

[39] “‘Two-finger test’ of sexual assault victims: What SC said, past attempts to stop it,” The Indian Express, 1 November, 2022.

[40] Naina Kapur, phone interview, March 7, 2023.

[41] Mid Career Training Programme for Madhya Pradesh (MP) Police Officers, MP Police Academy (MPPA) on “Emotional Intelligence & Sensitive Policing” [Workshop], TISS, October 25-29, 2022.

[42] Kannalmozhi Kabilan, “A reckoner for transformation,” The New Indian Express, 25 November, 2021.

[43] International Center for Research on Women, “Flagship Program: Gender Equity Movement in Schools (GEMS),” International Center for Research on Women.

[44] International Center for Research on Women, “Flagship Program”

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