Author : Shahid Jameel

Published on Oct 22, 2020 Commentaries 0 Hours ago

सदियों से सबसे ज़्यादा अफ़वाह इस बात को लेकर रही है कि बीमारी लेकर कौन कहां से आया. बीमारी हमेशा विदेशी रही है जो या तो ग़लत इरादे के साथ लाई गई है या विदेशी ज़मीन पर उसको रोकने में दूसरों की नाकामी की वजह से आई है

कोविड19 और मानव-जीवन: जितनी चीज़ें बदलती हैं, उतनी वो पहले जैसी रहती हैं!

बीमारियों और जिन रोगाणुओं की वजह से बीमारी होती है, उनको लेकर समझ पिछले कुछ दशकों में बहुत ज़्यादा बढ़ी है. लेकिन इसके बावजूद किसी बीमारी के फैलने पर इंसान का शुरुआती जवाब वक़्त के साथ शायद ही बदला है.

उपन्यासकार और नोबल विजेता ओरहान पामुक हमें याद दिलाते हैं “लोगों ने हमेशा संक्रामक बीमारियों का जवाब अफ़वाह और झूठी जानकारी फैलाकर दिया है और बीमारी को विदेशी बताकर कहते रहे हैं कि उसे ग़लत इरादे से लाया गया है.” मौजूदा महामारी और प्लेग और कॉलरा फैलने के ऐतिहासिक प्रकोप के बारे में वो कहते हैं, “इनमें काफ़ी हद तक समानताएं हैं. पूरे मानवीय और साहित्यिक इतिहास के दौरान महामारी को जो बात एक जैसी बनाती है वो रोगाणु और विषाणु की समानता नहीं है बल्कि उसको लेकर हमारा जवाब हमेशा एक जैसा रहा है.” [1]

बीमारियों को लेकर इंसानी जवाबों की छानबीन करना महत्वपूर्ण है- किस तरह अफ़वाह, अर्ध-सत्य, इनकार और लांछन सदियों से काम कर रहा है और क्यों भरोसा बनाना और सही संवाद ज़रूर है. विज्ञान हमारे लिए अभूतपूर्व उम्मीद और लंबे समय तक रहने की मूलभूत समझ पेश करता है.

अफवाह और अर्ध-सत्य

आमतौर पर लोग महामारी का जवाब अफ़वाह और झूठी जानकारी फैलाकर देते हैं. अतीत में इसकी वजह बीमारी को नहीं समझना रहा है लेकिन अब जब विज्ञान और तकनीक तक आसान पहुंच है तब भी विज्ञान की प्रक्रिया और पद्धति की समझ खराब है. आधुनिक संचार के साधन बीमारी के बदले अफ़वाह और झूठी जानकारी के तेज़ी से फैलने में मददगार हैं. प्लेग की तरह राष्ट्रवाद और धार्मिक पहचान पर आधारित अफ़वाह और आरोप ने सोशल मीडिया के सहारे इस बात पर असर डाला कि कोविड-19 महामारी भारत समेत दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कैसे फैली.[2]

सदियों से सबसे ज़्यादा अफ़वाह इस बात को लेकर रही है कि बीमारी लेकर कौन कहां से आया. बीमारी हमेशा विदेशी रही है जो या तो ग़लत इरादे के साथ लाई गई है या विदेशी ज़मीन पर उसको रोकने में दूसरों की नाकामी की वजह से आई है. रोम के रहने वालों ने 165-180 ईस्वी में प्लेग के प्रकोप के लिए ईसाइयों और रोमन देवता को नाराज़ करने वाली उनकी प्रथाओं को ज़िम्मेदार ठहराया.[3] 80 के दशक में जब HIV/AIDS का शुरुआती दौर था, उस वक़्त अमेरिका के ईसाई धर्म के प्रचारक बिली ग्राहम ने इसे “भगवान का फ़ैसला” बताया. टेलीविज़न पर ईसाई धर्म का प्रचार करने वाले और नैतिकतावादी जेरी फालवेल सीनियर ने HIV/AIDS को समलैंगिकों की “भ्रष्ट जीवनशैली” का नतीजा बताया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि “एड्स भगवान की सज़ा है”.[4]  दूसरों ने दलील दी कि HIV/AIDS के विषाणु का वूडू से कोई लेना-देना है क्योंकि हैती में बड़ी संख्या में लोग संक्रमित हुए थे. कुछ लोग ऐसे भी थे जिनका मानना था कि HIV धूमकेतु के ज़रिए बाहरी अंतरिक्ष से पृथ्वी पर आया या अमेरिका की सेंट्रल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी, अमेरिकी रक्षा विभाग या बिग फार्मा ने एक लैब में इस जैविक हथियार को बनाया है.[5]

2014-16 के बीच इबोला प्रकोप के दौरान, जिसके 28,600 मामले आए और 11,325 लोगों की मौत हुई,[6] सामान्य अफ़वाह फिर से यही थी कि विषाणु को अमेरिकी सैन्य लैब में बनाया गया है या फिर विदेशी मदद हासिल करने के लिए ये सरकारी साज़िश है.[7] पश्चिमी अफ्रीका के देशों में रहने वाले लोग ख़ास तौर पर विदेशी सहायता एजेंसी जैसे मेडिसिन्स सान्स फ्रंटियर्स के द्वारा स्थापित इबोला ट्रीटमेंट यूनिट को लेकर चौकन्ने थे. इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी क्योंकि नियंत्रण और ज़्यादा मृत्यु दर का मतलब ये था कि जो लोग एक बार इलाज़ के लिए गए वो दोबारा नहीं दिखे. ऐसी अफ़वाह थी कि ये यूनिट अंग और ख़ून चुराने के लिए हैं.[8] कई लोगों ने ग़ुलामों की ख़रीद-बिक्री और औपनिवेशिक इतिहास की याद दिलाई क्योंकि विदेशी स्वास्थ्य कर्मियों ने जिन रास्तों का इस्तेमाल किया उनमें से ज़्यादातर का इस्तेमाल ग़ुलामों की ख़रीद-बिक्री करने वालों ने भी किया था.[9

2020 में इस बात के ज़बरदस्त वैज्ञानिक सबूतों के बावजूद कि कोविड-19 वायरस सबसे पहले चमगादड़ों से इंसानों में फैला और फिर इंसान से इंसान तक, कई लोग अब भी ज़ोर देकर कहते हैं कि इसे चीन की एक लैब में बनाया गया.[10] HIV की खोज करने वाले फ्रांसीसी विषाणु विज्ञानी लुक मोंटाग्नियर इस तरह का कट्टर दृष्टिकोण रखने वाले लोगों में शामिल हैं. [11]

सरकारें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और आंकड़ों को तोड़-मरोड़ कर पहले बीमारी के वजूद से इनकार करती हैं और फिर कुछ चुनिंदा आंकड़ों को उठाकर बीमारी के बारे में पूरा ख़ुलासा नहीं करती हैं. इसके पीछे अक्सर वजह बताई जाती है कि ऐसा ‘जन हित’ में किया जा रहा है ताकि लोगों में डर नहीं फैले. 

इनकार, लांछन और इनके नतीजे

बीमारी के प्रकोप के बाद शुरुआती जवाबों में इनकार भी एक हिस्सा रहा है. सरकारें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और आंकड़ों को तोड़-मरोड़ कर पहले बीमारी के वजूद से इनकार करती हैं और फिर कुछ चुनिंदा आंकड़ों को उठाकर बीमारी के बारे में पूरा ख़ुलासा नहीं करती हैं. इसके पीछे अक्सर वजह बताई जाती है कि ऐसा ‘जन हित’ में किया जा रहा है ताकि लोगों में डर नहीं फैले. अमेरिकी सरकार ने उच्चतम स्तर पर कोविड-19 संक्रमण के शुरुआती दिनों में इसे समस्या मानने से लगातार इनकार किया जिसकी वजह से तकनीकी रूप से दुनिया के सबसे विकसित देश में हालात बेहद गंभीर हुए. 18 अक्टूबर 2020 के आंकड़ों के मुताबिक़ अमेरिका 83 लाख से ज़्यादा मामलों और 2,24,000 मौतों के साथ लड़खड़ा रहा है.[12]

लेकिन इसमें कुछ भी नया नहीं है. कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रख्यात रिसर्चर पीटर ड्यूसबर्ग के मुताबिक़ AIDS की वजह HIV नहीं है बल्कि ये मन बहलाने वाली दवाइयों और एंटी-रेट्रोवायरल दवाइयों के कारण होता है.[13] वैज्ञानिक समुदाय ने इस बात को पूरी तरह ठुकरा दिया है[14] लेकिन ड्यूसबर्ग की थ्योरी ने राष्ट्रपति थाबो मबेकी (1999-2008) के तहत दक्षिण अफ्रीका में HIV/AIDS पर नीति को प्रभावित किया. HIV/AIDS से संक्रमित व्यक्ति को समय पर दवाई मुहैया कराने में नाकामी की एक वजह ड्यूसबर्ग की थ्योरी रही. माना जाता है कि समय पर दवाई नहीं मिलने की वजह से दक्षिण अफ्रीका में सैकड़ों-हज़ारों लोगों की मौत हुई और नये संक्रमण के मामले आए जिन्हें रोका जा सकता था.[15

जब चीन ने अंत में वुहान को अलग-थलग करने का फ़ैसला लिया तब तक 50 लाख लोग चीन के नये साल की छुट्टियों को लेकर अपने-अपने घर से निकल चुके थे. इस वजह से जो स्थानीय संक्रमण था वो वैश्विक महामारी में तब्दील हो गया

इंटरनेशनल सोसायटी फॉर इन्फेक्शियस डिजीज़ प्रोग्राम फॉर मॉनिटरिंग इमर्जिंग डिजीज़ (ProMED) अजीब बीमारियों के फैलने को लेकर इंटरनेट पर चल रही चर्चा पर नज़र रखती है. 1994 में स्थापित इस संस्थान ने इंटरनेट के ज़रिए बीमारी की पहचान और उसकी जानकारी के क्षेत्र में बड़ा काम किया है. 20 फरवरी 2003 को ProMED को हांगकांग के स्वास्थ्य विभाग से एक नोटिस मिला जिसमें चीन के गुआंगडोंग प्रांत में निमोनिया के प्रकोप की चेतावनी दी गई थी. अगले दिन जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इसके बारे में जानकारी मांगी तो चीन ने ख़ुलासा किया कि नवंबर 2002 में शुरू इस बीमारी के 305 मामले आए हैं और पांच लोगों की मौत हुई है. ये पहला मौक़ा था जब दुनिया ने SARS के बारे में सुना जो बाद में 29 देशों में फैल गया और 8,096 लोग इससे संक्रमित हुए और 774 मौतें हुईं.[16] 30 दिसंबर 2019 को एक बार फिर चीन के वुहान में निमोनिया के मामलों को लेकर एक चर्चा पर ProMED की नज़र पड़ी. इस बीमारी को सीफूड और जंगली जानवरों के बाज़ार से जोड़ा गया. चाइनीज़ सेंटर फॉर डिजीज़ कंट्रोल ने अगले दिन इसकी पुष्टि की और 7 जनवरी 2020 को वायरस सीक्वेंस को जारी किया. इसे नोवल वायरस बताते हुए 2003 के SARS वायरस से जुड़े होने की पुष्टि की गई. दोनों मामलों में ये साफ़ है कि चीन के स्वास्थ्य विभाग को संक्रमण फैलने की जानकारी थी लेकिन दुनिया को इसके बारे में नहीं बताया गया. जब चीन ने अंत में वुहान को अलग-थलग करने का फ़ैसला लिया तब तक 50 लाख लोग चीन के नये साल की छुट्टियों को लेकर अपने-अपने घर से निकल चुके थे.[17] इस वजह से जो स्थानीय संक्रमण था वो वैश्विक महामारी में तब्दील हो गया और 18 अक्टूबर 2020 के आंकड़ों के मुताबिक़ इस महामारी का असर दुनिया के 217 देशों पर पड़ा जहां 4 करोड़ 1 लाख से ज़्यादा मामले सामने आए हैं और 11 लाख 16 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है.[18] वास्तविक आंकड़े इससे काफ़ी ज़्यादा होने की आशंका है.

अमेरिकन लेखक और दार्शनिक सुसन सोंटाग ने अपनी किताब इलनेस एज़ मेटाफोर में इस बात की तरफ़ ध्यान आकर्षित किया कि कोई भी बीमारी जिसमें मौतों को लेकर संदेह रहता है और जिसका इलाज़ मौजूद नहीं है वो अर्ध-सत्य का निशाना बन जाता है. “सबसे पहले डरावनी आशंका (भ्रष्टाचार, पतन, प्रदूषण, अनैतिकता, कमज़ोरी) के विषय को बीमारी से जोड़ा जाता है. बीमारी अपने आप में लक्षण बन जाती है. फिर बीमारी के नाम पर (मतलब कि लक्षण के तौर पर इसे इस्तेमाल करते हुए) उस डर को दूसरी चीज़ों पर थोपा जाता है.” [19] 70 के दशक में कैंसर मरीज़ के तौर पर सोंटाग ने भेदभाव का सामना किया था और उन्हें ये एहसास कराया गया कि बीमारी शर्मनाक है और इसमें उनकी ग़लती है. जिस तरह कैंसर को नुक़सानदेह आदतों जैसे धूम्रपान और ज़्यादा शराब पीने से जोड़ा गया था, उसी तरह HIV/AIDS को शुरुआत में ज़रूरत से ज़्यादा यौन संबंधों और नैतिक भ्रष्टता की बीमारी बताया गया. यहां तक कि इसे मेडिकल सर्कल में “समलैंगिकों की बीमारी” भी बताया गया.[20]

संवाद और भरोसा

HIV/AIDS के मरीज़ों से समाज को कथित ख़तरे को लेकर भेदभाव उन्माद और दहशत में तब्दील हो गया. इसके पीछे तीन वजह हैं- HIV/AIDS की खोज ख़ून से पैदा बीमारी के तौर पर हुई और ये देश में ख़ून के सप्लाई तक पहुंच सकता है; ख़राब सार्वजनिक स्वास्थ्य संदेश और “शारीरिक तरल पदार्थ” जैसे अस्पष्ट शब्दों के इस्तेमाल से इस धारणा को बल मिलता है कि ये बीमारी संक्रमित व्यक्ति के हाथ में आने वाली चीज़ों से भी फैल सकती है; और ये एक नये ख़तरनाक वायरस से होता है.[21] इसी तरह का डर कोविड-19 को लेकर भी है. ये एक नये तरह के वायरस से होता है जो पिछले कुछ महीनों के दौरान सभी खोजों के बावजूद अभी तक पूरी तरह समझ में नहीं आया है. HIV/AIDS से अलग लेकिन 1918 के जानलेवा स्पैनिश फ्लू की तरह कोविड-19 का वायरस भी एरोसॉल के ज़रिए फैलता है. फिर मास्क और वायुजनित संक्रमण की परिभाषा को लेकर मिला-जुला संदेश है[22] जिसकी वजह से लोग उलझन में रहते हैं और डर पैदा होता है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भरोसा बीमारियों के संक्रमण को रोकने के महत्वपूर्ण औज़ार हैं. चीन ने जिस तरह से दोनों महामारियों- SARS और कोविड-19 का सामना किया उससे ये साफ़ है. हालांकि, कोविड-19 के मामले में चीन काफ़ी ज़्यादा ख़ुला और जवाबदेह रहा. भारत में केरल ने पहली बार महामारी के फैलने को तेज़ी और कुशलता से काबू में किया जिसकी वजह वहां की सक्षम सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली है.[23] इस दौरान राज्य सरकार और लोगों के बीच भरोसे की संस्कृति भी ज़ाहिर हुई जिसके पीछे साफ़ और पारदर्शी संवाद और कमज़ोरों की देखभाल की इच्छा थी. उस दौरान भारत के बाक़ी हिस्से गंभीर प्रवासी संकट के अलावा संवाद और भरोसे में कमी का सामना कर रहे थे. [24] [25]

भारत में केरल ने पहली बार महामारी के फैलने को तेज़ी और कुशलता से काबू में किया जिसकी वजह वहां की सक्षम सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली है. इस दौरान राज्य सरकार और लोगों के बीच भरोसे की संस्कृति भी ज़ाहिर हुई जिसके पीछे साफ़ और पारदर्शी संवाद और कमज़ोरों की देखभाल की इच्छा थी. 

18 अक्टूबर के आंकड़े के मुताबिक़ भारत में कोविड-19 के 74 लाख से ज़्यादा मामले सामने आ चुके हैं और 1 लाख 14 हज़ार से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं. मौतों के मामले में भारत अमेरिका और ब्राज़ील के बाद तीसरे नंबर पर है जबकि मरीज़ों के मामले में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर. [26] चिंता की बात ये है कि भारत में वायरस दुनिया के दूसरे देशों के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ी से फैल रहा है. 4 सितंबर को ख़त्म हफ़्ते में भारत में औसतन 78,364 नये मामले सामने आए जो अमेरिका (41,804 मामले) या ब्राज़ील (40,237) के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा था. [27] ये उस देश में क्यों हो रहा है जिसने बेहद जल्दी पाबंदियां लगाई थीं और जहां 25 मार्च से लेकर 31 जून तक 68 दिनों के लिए दुनिया के सबसे कठोर लॉकडाउन में से एक लगाया गया था? इसका जवाब संभवत: संवाद और भरोसे में है. सरकार अभी भी दावा करती है कि कोई ‘कम्युनिटी ट्रांसमिशन’ नहीं है और लगातार मरीज़ों के ठीक होने की दर में बढ़ोतरी और कम मृत्यु दर जो कि अर्ध-सत्य हैं, पर ज़ोर दे रही है. [28] मृत्यु दर 1.52 प्रतिशत होने से मरीज़ों के ठीक होने की दर 98.48 प्रतिशत होना तय है; ये लगातार बढ़ रही है और 18 अक्टूबर को 88.03 प्रतिशत पर है. [29] इस सरकारी सोच की वजह से लोगों के बीच आम तौर पर लापरवाही आ गई है. समान रूप से चिंता की बात है महामारी का शहरों से निकलकर गांव तक पहुंचना- शुरुआती 10 लाख मामलों के लिए अनुमानित 40:60 ग्रामीण-शहरी वितरण की जगह अब ये आंकड़ा 67:33 हो गया है. [30] ग्रामीण भारत में ख़राब स्वास्थ्य ढांचा को देखते हुए ये बेहद चिंता की बात है.

विज्ञान, उम्मीद और भविष्य

पहले की प्लेग और दूसरी महामारियों से अलग आज डर बीमारी को समझने की वजह से ज़्यादा है. पामुक कहते हैं, “मरने की सोच जैसा डर हमें अकेला महसूस कराता है लेकिन ये मानना कि हम सभी लोग एक जैसे दुख का अनुभव कर रहे हैं, वो हमें हमारे अकेलेपन से बाहर करता है”. वो आगे कहते हैं, “हम अब अपने डर से असहज नहीं होते हैं; हम इसमें विनम्रता की तलाश करते हैं जो आपसी समझ को बढ़ाती है”.[31] बीमारी और आजीविका गंवाने की चपेट में आई दुनिया में भारत और दूसरे देशों में लोग एक-दूसरे की मदद के लिए साथ आए हैं. दुनिया के हर हिस्से में डॉक्टर, नर्स और दूसरे स्वास्थ्य कर्मी बीमारों के इलाज़ में मोर्चे पर हैं. वो भी तब जब लाखों स्वास्थ्य कर्मी संक्रमित हुए हैं और हज़ारों की जान चली गई है.[32] अच्छी बात ये है कि ठीक होने वाले मरीज़ गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों को प्लाज़्मा डोनेट करने की इच्छा जता रहे हैं.

पहले की प्लेग और दूसरी महामारियों से अलग आज डर बीमारी को समझने की वजह से ज़्यादा है. पामुक कहते हैं, “मरने की सोच जैसा डर हमें अकेला महसूस कराता है लेकिन ये मानना कि हम सभी लोग एक जैसे दुख का अनुभव कर रहे हैं, वो हमें हमारे अकेलेपन से बाहर करता है”. 

कोविड-19 के ख़िलाफ़ दुनिया का जवाब विज्ञान की ताक़त और दुनिया भर के वैज्ञानिकों की इस इच्छा को दिखाता है कि वो साथ काम करने के लिए तैयार हैं. महामारी की जानकारी मिलने के कुछ दिनों के भीतर ही मरीज़ों से वायरस को आइसोलेट किया गया और उनकी पहचान की गई जिसकी वजह से डायग्नोस्टिक किट, वैक्सीन और इलाज़ के लिए रास्ता बना. 4 सितंबर तक 94 हज़ार से ज़्यादा SARS-CoV-2 का जिनोमिक सीक्वेंस सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं[33] जिसकी वजह से वैज्ञानिक दुनिया भर में वायरस की शुरुआत और आगे बढ़ने का पता लगा पाए हैं. [34] 200 से ज़्यादा वैक्सीन विकसित हो रही हैं जिनमें से 46 का मानवीय क्लीनिकल ट्रायल हो रहा है और तीन को सीमित इस्तेमाल की मंज़ूरी मिल चुकी है. [35] ये बड़ी उपलब्धि है क्योंकि 2003 में SARS वैक्सीन को टेस्टिंग के स्तर तक पहुंचने में 20 महीने लग गए थे. तकरीबन 800 डायग्नोस्टिक टेस्ट विकसित हो चुके हैं[36] और अलग-अलग असर वाले 20 तरह के इलाज़ उपलब्ध हैं. [37] इस साल की शुरुआत से कोविड-19 पर 10,000 से ज़्यादा रिसर्च पेपर प्रकाशित हो चुके हैं और ज़्यादातर प्रकाशकों ने इन रिसर्च को हर किसी के लिए उपलब्ध कराया है.

ग्लोबल आउटब्रेक अलर्ट एंड रेस्पॉन्स नेटवर्क (GOARN) WHO का एक नेटवर्क है जिसमें दुनिया भर के 250 तकनीकी साझेदार संगठन हैं. इसने पिछले दिनों महामारी से निपटने के रास्ते को लेकर दुनिया को याद दिलाई.[38]

“GOARN की संचालन समिति सभी सरकारों और साझेदारों से स्थानीय स्तर पर आग्रह करती है कि (1) प्रमाण आधारित सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भरोसे के निर्माण हेतु समुदायों को हिस्सेदार बनाया जाए और संक्रमण पर नियंत्रण के लिए स्थानीय स्तर पर जवाबी क़दम के लिए प्रोत्साहित किया जाए; (2) कोविड-19 के ख़िलाफ़ जवाब के राजनीतिकरण को हतोत्साहित किया जाए क्योंकि राजनीतिकरण प्रतिकूल है और इससे ख़राब रणनीतिक फ़ैसले होते हैं; (3) देश के भीतर संक्रमण के ख़िलाफ़ अनुभवी विशेषज्ञों का इस्तेमाल किया जाए जिनमें GOARN के साझेदार और आपातकालीन मेडिकल टीम भी शामिल हों क्योंकि मौजूदा फ़ैसलों को सलाहकारों के विस्तार से मज़बूती मिल सकती है; (4) संक्रमण के ख़िलाफ़ जवाबी क़दम के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य कर्मियों के तेज़ी से विस्तार पर निवेश किया जाए; (5) व्यापक रणनीति, नवीनतम प्रमाण और महामारी के हालात (जैसे संक्रमित मरीज़ों के लिए देखभाल के तहत आइसोलेशन और अनिवार्य रूप से मास्क पहनने का अच्छा नतीजा निकला है) के आधार पर फ़ैसले लिए जाएं और इन फ़ैसलों के बारे में साफ़ तौर पर लोगों को बताया जाए; (6) सुनिश्चित किया जाए कि डायग्नोस्टिक टेस्ट, इलाज़ तक सभी लोगों की पहुंच हो और वैक्सीन सार्वजनिक स्वास्थ्य की कसौटी और ज़रूरत के मुताबिक़ लोगों को मिले; और (7) बहुपक्षीय अभियान और अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता में सबसे आगे रहें. अंतर्राष्ट्रीय जवाब के लिए WHO अहम है क्योंकि ये संगठन हर देश को वैश्विक दिशा-निर्देश और जवाब देने वालों को उसकी ज़रूरत के मुताबिक़ तकनीकी मदद मुहैया कराता है.”

लेखक अरुंधति रॉय कहती हैं, “ऐतिहासिक रूप से महामारी ने लोगों को अतीत से तोड़कर नये ढंग से दुनिया देखने के लिए मजबूर किया. ये महामारी भी कोई अलग नहीं है. ये एक दरवाज़ा है एक दुनिया से अगली दुनिया के बीच का. हम इससे गुज़रने को चुन सकते हैं, हमारे पूर्वाग्रह और नफ़रत के ढांचे को, हमारे लालच, हमारे डाटा बैंक और मृत विचारों, हमारी मृत नदियों और धुएं से भरे आसमान को खींचते हुए अपने पीछे छोड़ सकते हैं.” वो आगे जोड़ती हैं, “और इस ख़ौफ़नाक मायूसी के बीच ये हमें उस क़यामत की मशीन के बारे में फिर से विचार करने का एक मौक़ा देती है जिसे हमने अपने लिए बनाया है. सामान्य हालात की तरफ़ लौटने से ख़राब कुछ भी नहीं हो सकता है.” [39]

हम अपने साझा इतिहास के मोड़ पर हैं. बेहतर भविष्य के लिए आइए हम इससे सीखते हैं.


ये निबंध मूल रूप से रिबूटिंग द वर्ल्ड में प्रकाशित हुआ था.


Endnotes

[1] Orhan Pamuk, “What the Great Pandemic Novels Teach Us”, New York Times, April 23, 2020.

[2] Rasheed Kidwai and Naghma Sahar, “Let’s talk about how Tablighi Jamaat turned Covid hate against Muslims around”, The Print, July 12, 2020.

[3] John Horgan, “Antonine Plague”, Ancient History Encyclopedia, May 2, 2019.

[4] Laurie Garrett, The Coming Plague – Newly Emerging Diseases in a World Out of Balance (New York: Penguin Books, 1994), pp. 330.

[5] Douglas Selvage, “Memetic Engineering: Conspiracies, Viruses and Historical Agency”, Open Democracy, October 22, 2015.

[6] Centers for Disease Control and Prevention, “2014-2016 Ebola Outbreak in West Africa”.

[7] Mark Honigsbaum, The Pandemic Century – A History of Global Contagion from the Spanish Flu to Covid-19, (London: W.H. Allen, 2019), pp. 208.

[8] Honigsbaum, The Pandemic Century

[9] Honigsbaum, The Pandemic Century

[10] Shahid Jameel, “Is the novel coronavirus a product of evolution or deliberate manipulation?”, The Telegraph, May 19, 2020.

[11] Surendra Singh, “Coronavirus man-made in Wuhan lab: Nobel laureate”, The Times of India, April 19, 2020.

[12] Worldometers, “United States”.

[13] Laurie Garrett, The Coming Plague – Newly Emerging Diseases in a World Out of Balance (New York: Penguin Books, 1994), pp. 383.

[14] John Cohen, “The Duesberg Phenomenon”, Science 266 (1994): 1642.

[15] Pride Chigwedere, et al., “Estimating the Lost Benefits of Antiretroviral Drug Use in South Africa” Journal of Acquired Immune Deficiency Syndromes. 49 (2008): 410.

[16] Debora Mackenzie, Covid-19: The pandemic that never should have happened, and how to stop the next one, (London: The Bridge Street Press, 2020), pp. 66-67.

[17] Mark Honigsbaum, The Pandemic Century – A History of Global Contagion from the Spanish Flu to Covid-19, (London: W.H. Allen, 2019), pp. 261-263.

[18] Worldmeters, “COVID-19 Coronavirus Pandemic”.

[19] Susan Sontag, Illness as Metaphor, (New York: Farrar, Strauss and Giroux, 1978), pp. 58.

[20] Laurie Garrett, The Coming Plague – Newly Emerging Diseases in a World Out of Balance (New York: Penguin Books, 1994), pp. 292.

[21] Mark Honigsbaum, The Pandemic Century – A History of Global Contagion from the Spanish Flu to Covid-19, (London: W.H. Allen, 2019), pp. 149.

[22] Jim Daley, “What Scientists Know About Airborne Transmission of the New Coronavirus”, The Smithsonian Magazine, 12 August 2020.

[23] T.M. Thomas Isaac and Rajeev Sadanandan, “COVID-19, Public Health System

and Local Governance in Kerala”, Economic and Political Weekly, LV (2020): 35.

[24] Nitin Sethi and Kumar Sambhav Shrivastava, “Govt Knew Lockdown Would Delay, Not Control Pandemic”, Article 14, April 23, 2020.

[25] Nitin Sethi and Kumar Sambhav Shrivastava, “Frustration in National Covid-19 Task Force”, Article 14, April 24, 2020.

[26] Worldometers, “India”.

[27] Worldmeters, “Reported Cases and Deaths by Country, Territory, or Conveyance”.

[28] Priyanka Pulla, “Four Reasons It’s Hard to Believe India Doesn’t Have Community Transmission”, The Wire Science, March 20, 2020.

[29] Worldometers, “India”

[30] Vignesh Radhakrishnan, Sumant Sen and Naresh Singaravelu, “Is Covid-19 intensifying in rural India”, The Hindu, August 30, 2020.

[31] Pamuk, “What the Great Pandemic Novels Teach Us”

[32] More than 1,000 Doctors Infected with COVID-19 in India; Global Tally Nearly 3,000”, The Weather Channel, July 18, 2020.

[33] Global Initiative on Sharing All Influenza Data.

[34] Genomic epidemiology of novel coronavirus – Global subsampling.

[35] Jonathan Corum, Denise Grady, Sui-Lee Wee and Carl Zimmer, “Coronavirus Vaccine Tracker”, The New York Times, August 31, 2020.

[36] Foundation for Innovative New Diagnostics, “SARS-CoV2 diagnostic pipeline”.

[37] Jonathan Corum, Katherine J. Wu and Carl Zimmer, “Coronavirus drug and treatment tracker”, The New York Times, August 24, 2020.

[38] Dale A. Fisher and Gale Carson, “Back to basics: the outbreak response pillars”, The Lancet, 396 (2020): 598.

[39] Arundhati Roy, “The pandemic is a portal”, Financial Times, April 3, 2020.

 

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