Author : Amit Kumar

Issue BriefsPublished on Apr 10, 2023
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दो-दो मोर्चों पर चीन की दुविधा: भारत-चीन बॉर्डर के हालातों पर एक नज़रिया!

  • Amit Kumar

    2020 के बाद से लद्दाख में चीन की गतिविधियां दोनों देशों के बीच बनी आम समझ अथवा सहमति का उल्लंघन हैं. इसके चलते दोनों देशों के बीच चल रहा सीमा विवाद पुन: द्विपक्षीय संबंधों के केंद्र में आ गया है. इस आलेख में दो-मोर्चा दुविधा में फंसे होने की वज़ह से चीन की ओर से सीमा पर की जा रही कार्रवाइयों की वज़ह से उत्पन्न होने वाली स्थिति को समझने के लिए एक नए दृष्टिकोण पर नज़र डालने की कोशिश की जा रही है. इस आलेख में इस मामले को लेकर पूर्व की ऐतिहासिक घटनाओं पर नज़र डालकर उसकी सहायता से यह देखने की कोशिश की गई है कि दो-मोर्चों को लेकर चीन की ओर से उत्पन्न होने वाली ख़तरे की धारणा नई नहीं है. इस आलेख में यह साफ़ हो जाता है कि दो-मोर्चों को लेकर चीन में बढ़ी असुरक्षा की भावना और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर दोनों देशों के बीच तनाव में हुई वृद्धि के बीच सीधा संबंध है. इसमें यह निष्कर्ष निकाला गया है कि दरअसल, बीजिंग ने दो-मोर्चे से जुड़ी अपनी दुविधा और उसके ख़तरे को प्रबंधित करने के लिए LAC से सटे इलाकों में अस्थिरता का उपयोग किया है.

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एट्रीब्यूशन : अमित कुमार, ‘‘दो-दो मोर्चों पर चीन की दुविधा: भारत-चीन बॉर्डर के हालातों पर एक नज़रिया!,’’ओआरएफ़ ओकेशनल पेपर नं. 393, मार्च 2023, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.

प्रस्तावना

‘टू फ्रंट कनन्ड्रम अर्थात ‘दो-मोर्चा दुविधा’, किसी देश के समक्ष पेश होने वाली ऐसी दुविधा है, जिसमें संबंधित देश को अपनी दोनों सीमाओं पर दुश्मन देश का मुक़ाबला करना पड़ता है. यह चुनौती उस वक़्त बढ़ जाती है जब दोनों दुश्मन देश अपनी सीमाओं के बीच फंसे साझा शत्रु को परेशान करने के लिए हाथ मिलाते हुए उसके ख़िलाफ़ एक ‘पिंसर’ अभियान अर्थात उसे दो पाटों के बीच फांसने का अभियान चलाने लगते हैं. कुछ इसी तरह की चिंता का सामना भारत को करना पड़ रहा है. उसे अपनी सीमा पर पाकिस्तान और चीन जैसे प्रतिरोधी देशों के कारण दो-मोर्चे पर पेश होने वाली महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं का ध्यान रखना पड़ता है. जनवरी 2020 में, भारत के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवाने ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में संभावना पर बोलते हुए ध्यान आकर्षित किया था;[1] इसके कुछ ही महीने बाद, पूर्व चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (CDS) जनरल बिपिन रावत ने यूएस-इंडिया स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप फोरम में बोलते हुए इस संभावना को दोहराया था.[2]

भारत इस स्थिति को रोकने के लिए सतर्कता बरतता रहा है. पूर्व में भी जब भारत को एक मोर्चे पर कड़े कदम उठाने की आवश्यकता महसूस हुई तो भारत ने यह सुनिश्चित किया था कि दूसरे मोर्चे पर स्थिति उसके नियंत्रण में ही रहें. मसलन, 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के दौरान भारत ने अमेरिका से संपर्क स्थापित करते हुए उसे पाकिस्तान पर दबाव बनाने को कहा था. यह दबाव इस बात के लिए बनाया जाना था कि चीन के साथ चल रही स्थिति का पाकिस्तान अपने फ़ायदे के लिए लाभ उठाने को लेकर दूसरे मोर्चे पर लड़ाई शुरू न कर दें.[3] इस बाद 1971 में भी जब भारत ने मुक्ति वाहिनी की सहायता के लिए पूर्वी पाकिस्तान में हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया (इस हस्तक्षेप की वज़ह से ही बांग्लादेश का एक अलग देश के रूप में उदय हुआ था) तो उसने पहले चीन से बात कर ली थी कि वह इस मामले में हस्तक्षेप करने से ख़ुद को नहीं रोक सकता है तो यह हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिए. भारत ने किसी भी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ शांति, मित्रता और सहयोग को लेकर सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (USSR)[4] के पूर्व संघ के साथ संधि भी की थी. भारत ने दिसंबर 1971 में सर्दियां शुरू होने के बाद ही अपने हस्तक्षेप की शुरूआत की थी. इसी वज़ह से चीनी के लिए हस्तक्षेप करना मुश्किल हो गया था.

दो-मोर्चे का यह ख़तरा 2020 में पुन: उस वक़्त उभरकर सामने आया, जब पाकिस्तान ने भारत के साथ अपने 2003 के युद्धविराम समझौते का उल्लंघन किया.[5] यह उल्लंघन, लद्दाख में भारत और चीन के बीच अप्रैल 2020 में शुरू हुए गतिरोध के बीच किया गया था. चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ आमने-सामने (पीएलए) की स्थिति से उपजने वाले विवाद को लेकर बना गतिरोध लंबा चलने की स्थिति को भांपते हुए भारत ने फरवरी 2021 में पाकिस्तान के साथ एक नया युद्धविराम समझौता कर लिया था.[6]

ऐतिहासिक रूप से भारत के रणनीतिक निर्णयों में सदैव इस तरह के दोनों मोर्चे पर एक साथ होने वाले टकराव की संभावनाओं का ध्यान रखा गया है. भारतीय विद्वानों ने भी अपने विमर्श में इस विषय को न्यायोचित स्थान दिया है.

चीन भी ऐसी ही आशंका से ग्रस्त है. 1950 के दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुए एक दशक से भी ज़्यादा वक़्त से चीन इस बात को लेकर आशंकित है कि उसे दो-मोर्चे की चुनौती का सामना करना पड़ सकता है - पहला मोर्चा पूर्व में (प्रशांत मोर्चे के साथ) और दूसरा मोर्चा दक्षिण-पश्चिम में (हिमालयी मोर्चे के साथ). 1970 के आसपास यह आशंका और इससे जुड़ा ख़तरा कम होने लगा. इसकी वज़ह यह थी कि एक ओर जहां अमेरिका और भारत के बीच दूरियां बढ़ रही थीं, तो दूसरी ओर चीन और अमेरिका करीब आने लगे थे. अब 2008 के बाद भारत और अमेरिका के बीच पुन: मित्रता की शुरूआत होने के बाद से हालिया वर्षों में चीन की यह आशंका पुन: उभरने लगी है. चीन का मानना है कि भारत और अमेरिका के करीब आने का एक ही मक़सद है और वह यह कि दोनों ही चीन के उत्थान अथवा उदय को रोकना चाहते हैं.

यह आलेख चीन-भारत सीमा संघर्ष, जो 1959 में शुरू हुआ था और वर्तमान दशक में भी जारी है, को समझने का प्रयास करता है. इसमें लद्दाख में 2020 के संकट को भी शामिल किया गया है. इस दो-मोर्चे की दुविधा को चीन के सामने पेश चुनौती के चश्मे से देखते हुए समझने की कोशिश की गई है. इस आलेख में इस तथ्य का पता लगाने की कोशिश की गई है कि क्या चीन ने अपने दो-मोर्चे की दुविधा का रणनीतिक उपयोग करते हुए इसके माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान ख़ोजने की कोशिश की है. इस आलेख के माध्यम से यह स्पष्ट हो जाता है कि दो-मोर्चों को लेकर जैसे-जैसे चुनौतियां बढ़ी हैं, वैसे-वैसे  भारत-चीन सीमा पर चीनी की ओर से किए जाने वाले उल्लंघन की संख्या में समानांतर इज़ाफ़ा हुआ है. इस आलेख का मानना है कि 1959 के बाद के दशक में, चीन ने, जानबूझकर या शायद अनजाने में ही सही, दो-मोर्चों को लेकर भारत की असुरक्षा का फ़ायदा उठाया. ऐसा करते हुए उसने इस संबंध में अपनी दुविधा को भारत के मत्थे पर मढ़ दिया है. इस आलेख का मानना है कि 2010 के दशक के बाद के दशक में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) से सटी सीमा पर होने वाले संघर्ष की घटनाओं की आड़ में एक बार पुन: चीन दो-मोर्चे की दुविधा को लेकर अपनी चिंताओं को छुपाने की कोशिश कर रहा है. ऐसा मानने की वजह से ही आलेख में 2020 में लद्दाख में चीन की ओर से होने वाले आक्रमण का विश्लेषण करने का एक वैकल्पिक सिद्धांत भी यहां दिया गया है.

16 मई 1959 को भारतीय विदेश सचिव को भेजे गए डेमार्शे अर्थात आपत्ति पत्र में भारत में तत्कालीन चीनी राजदूत पान त्सुली ने दो-मोर्चे के संकट को लेकर चीन के अतिसंवेदनशील होने की बात को स्वीकार किया था.

चीन की अपने ऊपर मंडराने वाले ख़तरों को लेकर बनी धारणा के अलावा, उसका अपनी ही सेना को लेकर जो दृष्टिकोण है वह भी उसके लिए इस दो-मोर्चे संबंधी चुनौती का मुकाबला करने के लिए सीमा को अस्थिर बनाए रखने का एक अहम कारण है. इस प्रकार भारत के पास एक साथ दो मोर्चों पर मुकाबला करने की क्षमता का सापेक्ष अभाव भी चीन के इस दृष्टिकोण को बल देती है. चीन न केवल इस ख़तरे को वास्तविक मानता है, बल्कि उसे अपनी सेना में इस ख़तरे से निपटने की पर्याप्त क्षमता होने का भी भरोसा है. उसे लगता है कि इस ख़तरे को लेकर उपजने वाली चुनौतियों से निपटने की भारत की क्षमताएं सीमित है. इसी वज़ह से वह सीमा पर राजनीति करने को लेकर प्रोत्साहित होता रहता है. इस आलेख में यह सुझाव दिया गया है कि भारत को न केवल चीन संबंधी अपनी नीति तैयार करते वक़्त चीन के दो-मोर्चे में फंसे होने की बात पर नज़र रखनी चाहिए, बल्कि उसे इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि वह स्वयं अपने स्तर पर दो-मोर्चे की समस्या का समाधान कैसे ख़ोज सकता है.

इस आलेख का यह सुझाव नहीं है कि सीमा पर पैदा होने वाला प्रत्येक संकट चीन की दो-मोर्चे पर फंसे होने की दुविधा के समाधान से जुड़ी प्रबंधन रणनीति का हिस्सा है. सीमा पर तनाव बढ़ाने के लिए चीन के पास कोई और भी सामरिक अथवा रणनीतिक कारण हो सकता है. इस आलेख को तीन हिस्सों में बांटा गया हैं. पहले हिस्से में 1950 के दशक से लेकर चीन की असुरक्षा की उत्पत्ति के कारणों की चर्चा की गई है. इसके अलावा इसमें जबकि 1960 के दशक के अंत तक भारत-चीन सीमा पर तनाव का विश्लेषण भी किया गया है. दूसरे हिस्से में चीन से 2008 के बाद उपजने वाले ख़तरों की धारणा नए सिरे से उत्पन्न होने की चर्चा कर इसके साथ ही सीमा पर बढ़े तनाव की बात की गई है. तीसरे हिस्से में पिछले दो हिस्सों के निष्कर्षों को जोड़कर भारत के लिए भविष्य की राह कैसी हो, इसका सुझाव दिया गया है.

चीन की दो-मोर्चे वाली दुविधा की शुरूआत

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) की सत्ता में चीन में पहली मर्तबा 1950 के दशक की शुरूआत में दो-मोर्चे के ख़तरे को महसूस करते हुए चिंता देखी गई. 1949 में सीपीसी ने गुओमिदांग (जीएमडी) की राष्ट्रवादी सरकार को फॉमोर्सा (अब ताइवान) तक खदेड़ दिया था. उसी वक़्त से चीन को यह डर सताने लगा कि उसके पूर्व में स्थित जीएमडी भविष्य में अमेरिका के समर्थन से उस पर हमला कर सकता है. इसी तरह चीन, अपने पश्चिमी मोर्चे पर हिमालय से सटे इलाकों में भारत की ओर से तिब्बत को दिए जाने वाले समर्थन को लेकर आशंकित रहा है. उसका मानना है कि तिब्बत में भारत के हस्तक्षेप को अमेरिका का भी समर्थन हासिल है. उसका आरोप है कि यह हस्तक्षेप तिब्बत में विध्वंसक और अलगाववादी प्रवृत्तियों को भड़काने के उद्देश्य से किया जा रहा है.[7] माओ ज़दोंग को यह संदेह था कि भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू, अमेरिकी समर्थक थे. इतना ही नहीं माओ ज़दोंग को इस बात का भी संदेह था कि भारत मज़बूती के साथ अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी ख़ेमे में शामिल था.[8] भारत के पूर्व विदेश सचिव, विजय गोखले के अनुसार चीन को लगता था कि भारत की अपनी कोई स्वतंत्र नीति नहीं है.[9] इसी सोच की वज़ह से चीन दो-मोर्चे से जुड़े संकट को लेकर चिंतित रहता था. गोखले के अनुसार, ‘‘चीन की भारत नीति के मूल में यह बात शामिल थी कि किसी भी तरह भारत को अमेरिकी ख़ेमे में जाने से रोका जाए.’’[10] ऐसे में यह स्पष्ट तौर पर माना जा सकता है कि अमेरिका और भारत की निकटता को चीन चिंता की दृष्टि से देखता था.

16 मई 1959 को भारतीय विदेश सचिव को भेजे गए डेमार्शे अर्थात आपत्ति पत्र में भारत में तत्कालीन चीनी राजदूत पान त्सुली ने दो-मोर्चे के संकट को लेकर चीन के अतिसंवेदनशील होने की बात को स्वीकार किया था. इस डेमार्शे में अमेरिका की ओर इशारा करते हुए उन्होंने था लिखा कि, ‘‘चीनी लोगों का दुश्मन पूर्व में है.’’ क्योंकि ‘‘ताइवान, दक्षिण कोरिया, जापान और फिलीपींस में कई सैन्य ठिकाने मौजूद हैं... ये चीन के ख़िलाफ़ मोर्चा संभाले हुए हैं.’’[11] उन्होंने यह भी लिखा था कि, ‘‘चीन का मुख्य ध्यान और संघर्ष की नीति पूर्व की ओर, विशेषत: पश्चिम प्रशांत क्षेत्र की ओर केंद्रित है... और इसके केंद्र में भारत नहीं है.’’ उन्होंने कहा था कि कुछ अन्य  दक्षिण एशियाई और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के विपरीत, भारत ने दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (एसईएटीओ) में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया था. अत: भारत इसी वज़ह से चीन का ‘‘प्रतिद्वंद्वी नहीं’’ है. इसी प्रकार त्सुली ने कहा कि, ‘‘चीन इतना मूर्ख भी नहीं है कि वह एक ओर पूर्व में अमेरिका से दुश्मनी मोल ले और फिर पश्चिम में भारत को भी अपना शत्रु बना लें.’’ इस डेमार्शे के अंत में उन्होंने भारत को सूक्ष्म चेतावनी भी दे दी : ‘‘चीन का मानना है कि भारत भी दो-मोर्चे के संकट को नहीं झेल सकता. क्या यह बात सही नहीं है? यदि यह बात सच है तो फिर भारत और चीन को साथ मिलकर काम करने के लिए इतना ही पर्याप्त है.’’[12]

1950-60 के दशक में दो मोर्चों से लेकर जुड़े ख़तरे को लेकर चीन की चिंताओं में तेज वृद्धि हुई. इसके साथ ही इस अवधि में भारत-चीन सीमा पर झड़पों में इज़ाफ़ा होने लगा. भारत-चीन संबंधों के इतिहास में यह सबसे अस्थिर और विस्फोटक वक़्त था.

इस डेमार्शे में दो-मोर्चे को लेकर चीन की चिंतित होने की धारणा निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो गई थी. दो-मोर्चे अर्थात मुख्यत: एक आवेशित प्रशांत मोर्चा और दूसरा एक अस्थिर तिब्बत, जहां 'अलगाववादी ताकतों' को भारत ‘‘सहायता’’ मुहैया करवा रहा था. इसी प्रकार भारत और तिब्बत के बीच एक विवादित सीमा, भारत के साथ चीन के सक्रिय मोर्चे की योजना में अतिरिक्त सिरदर्द का कारण साबित हो रही थी. चीन को काफ़ी हद तक लगता था कि भारत और चीन के बीच एक अस्थिर सीमा होने की वज़ह से ही तिब्बत में भारतीय हस्तक्षेप हो रहा है. निश्चित रूप से, भारत के समर्थन पर तिब्बत के विद्रोही तेवर और सीमा को विवादित बताने को लेकर भारत की नीति से चीन में असुरक्षा की भावना को बढ़ावा मिला. आज भी सीमा पर चीनी हरकतों का असल उद्देश्य तिब्बत में हो रहे भारतीय हस्तक्षेप को रोकने का ही है. 1950 और 1960 के दशक में दो-मोर्चे को लेकर चीन की चिंताओं का असल कारण भारत के साथ उसका सीमा विवाद ही नहीं था. चीन इस बात से भी चिंतित था कि भारत के पास तिब्बत को लेकर उसकी अतिसंवेदनशीलता का लाभ उठाने की क्षमता है.

पान त्सुली के डेमार्शे में आसन्न दो-मोर्चे की दुविधाजनक स्थिति को अपरोक्ष रूप से स्वीकारोक्ति दी गई है. इसके अलावा चीन की ओर से भारत और चीन दोनों को इन देशों के सामने खड़ी आसन्न दो-मोर्चे के रणनीतिक त्रिकोण से बाहर निकलने की इसे पहली कोशिश भी निरुपित किया जा सकता है.[13] चीन ने भारत को दो मोर्चों पर ऐसी स्थिति से ख़ुद को बाहर निकालने के लिए आगाह करने के उद्देश्य से एक अपरोक्ष चेतावनी दी थी. इस चेतावनी को भारत की ओर से दिया गया जवाब बेहद कठोर था. नेहरू ने एक मसौदा पत्र में चीनी टिप्पणियों को 'आपत्तिजनक' और 'अभद्र' बताया था.[14] भारत की इस फटकार के साथ तिब्बत पर चीन-भारत के संबंधों में गिरावट की वज़ह से सीमा विवाद का हल नहीं निकल रहा था. इसी वज़ह से चीन में भारत के इरादों को लेकर संदेह और भी तेज हो गया.

दो-मोर्चे की स्थिति को लेकर चीन की आशंकाएं 1962 में भारत के साथ युद्व के पहले और भी स्पष्ट हो गई. 1962 में पोलैंड में चीनी राजदूत वांग बिंगनान ने अपने संस्मरणों में उल्लेख किया है कि 23 जून 1962 को उन्होंने अपने अमेरिकी समकक्ष जॉन कैबोट से चीनी ताइवान पर अमेरिका समर्थित आक्रमण को लेकर अपनी आशंका से अवगत करवाया था.[15] ऐसे में कैबोट ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय से बात करने के बाद वांग को आश्वासन दिया था कि ‘‘अमेरिकी सरकार का मौजूदा परिस्थितियों में मेनलैंड अर्थात मुख्य भूमि पर जीआरसी [a] (ताइवान) के हमले का समर्थन करने का कोई इरादा नहीं है.’’[16] वांग के संस्मरणों में दावा किया गया है कि कैबोट की इस बात पर उनके ‘‘कान विश्वास नहीं कर सके’’. ऐसे में उन्होंने कैबोट से अपने विदेश मंत्रालय से इस बात की पुन: पुष्टि करने का अनुरोध किया. कैबोट ने इस पुष्टि को दोहराया भी था.[17] इस तरह चीन को अपने पूर्वी मोर्चे पर 1962 में अमेरिका से नॉन-अग्रेशन अर्थात अनाक्रमण का आश्वासन हासिल हो गया था. वांग कहते है कि यह आश्वासन भारत के ख़िलाफ़ युद्ध शुरू करने के निर्णय के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ था.[18] इसके बावजूद चीन ने भारत पर आक्रमण करने के लिए उस थोड़े से वक़्त को चुना, जब क्यूबा के मिसाइल संकट की वज़ह से दो महाशक्तियां -अमेरिका और USSR- परमाणु शक्ति परीक्षण में उलझे हुए थे. क्यूबा संकट समाप्त होते ही चीन ने सुविधापूर्वक युद्ध विराम की घोषणा कर दी.

1950-60 के दशक में दो मोर्चों से लेकर जुड़े ख़तरे को लेकर चीन की चिंताओं में तेज वृद्धि हुई. इसके साथ ही इस अवधि में भारत-चीन सीमा पर झड़पों में इज़ाफ़ा होने लगा. भारत-चीन संबंधों के इतिहास में यह सबसे अस्थिर और विस्फोटक वक़्त था. 1955-56 में चीनी घुसपैठ में बड़ी संख्या में वृद्धि होने पर भारत ने इसका विरोध किया.[19] जुलाई 1958 में पीएलए ने पूर्वी लद्दाख में खुरनक किले पर जबरन कब्ज़ा कर लिया. सितंबर में, चीन ने लद्दाख के अक्साई चिन में एक भारतीय गश्ती दल को लगभग पांच हफ़्ते तक बंदी बनाकर रखा.[20] लोहित (अरुणाचल प्रदेश), लापथल और सांगच मल्ला (उत्तराखंड) जैसे पूर्वी और मध्य क्षेत्रों में भी घुसपैठ हुई थी.[21]

इन शुरूआती आक्रमणों को लेकर भारत की बुज़दिल प्रतिक्रिया से चीन का हौसला बढ़ गया. अत: सीमा पर पहली हिंसक झड़प, अगस्त 1959 में लोंग्जू में हुई थी, जिसमें दो भारतीय सैनिकों की जान गई.[22] इसके बाद उसी वर्ष अक्टूबर में एक और घातक घटना हुई. कोंगका दर्रे के पास गश्त ड्यूटी पर तैनात अनेक भारतीय पुलिस कर्मियों को मारने के बाद चीन ने कुछ पुलिस कर्मियों को बंदी बना लिया था.[23] इन कैदियों और मृतकों के शवों को एक महीने बाद लौटाया गया था.[24]

याद रहे कि पान त्सुली के मई 1959 के डेमार्शे में निहित सूक्ष्म चेतावनी के तुरंत बाद सीमा अस्थिर हो गई थी. ऐसा करने के तुरंत बाद ही USSR ने सीमा पर चीनी हरकतों को लेकर उसे कड़ी फटकार लगाई.[25] ऐसे में ख़ुद को अलग-थलग पाते हुए चीन ने कुछ वक़्त के लिए अपनी हरकतों पर रोक लगा ली. सीमा पर चीनी रवैये में आए बदलाव की वज़ह से ही 1960 में तत्कालीन प्रधान मंत्री झोउ एनलाई ने एक प्रस्ताव दिया, जिसे भारत ने अस्वीकार कर दिया.[26] प्रस्ताव यह था कि यदि भारत ने अक्साई चिन का हिस्सा चीन को सौंप दिया तो चीन भी इसके बदले में अरुणाचल प्रदेश पर भारत की संप्रभुता को मान्यता दे देगा. [b] चीन का अपनी क्षमता का आकलन इस बात का अतिरिक्त निर्धारक था कि उसे दुश्मनी ख़त्म करनी है अथवा इसे जारी रखना है.

इसके बावजूद सीमा विवाद का मुद्दा सुलझ नहीं पाया. अत: दो-मोर्चे को लेकर चीन की दुविधा और असुरक्षा की भावना भी कायम रही. लेकिन चीन की ओर से अपनाए गए संयम की अवधि जल्द ही समाप्त हो गई और चीन ने भारत के ख़िलाफ़ पूर्ण युद्ध छेड़ने की तैयारी शुरू कर दी. अक्टूबर-नवंबर 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट [c] के दौरान चीन ने उसे दिखाई देने वाले छोटे से अवसर का लाभ उठा लिया. चीन के हमले के पीछे आमतौर पर सबसे बड़ी वज़ह भारत की ओर से तिब्बत में किए जा रहे हस्तक्षेप को समझा जाता है.[27] लेकिन इसे ग्रेट लीप फॉरवर्ड (1958-61) के दौरान की गई गलतियों की वज़ह से फैली अराजक स्थिति से निपटने की सीपीसी अध्यक्ष माओ ज़ेदोंग के प्रयास के रूप में भी देखा जा सकता है.[28], [d] इस बात की भी संभावना है यह युद्ध इसलिए छेड़ा गया था, ताकि भारत को भी याद दिलाया जा सकें कि उसे भी अपने दो-मोर्चे की दुविधा को भूलना नहीं चाहिए.

चीन का उद्देश्य भले ही अपनी दो-मोर्चे की दुविधा को प्रबंधित करने का न रहा हो, लेकिन युद्ध के चलते वह ऐसा करने में अनजाने ही सफ़ल हो गया. अचानक युद्ध की स्थिति में फंस जाने के साथ ही भारत को भी यह समझ में आ गया कि वह दो-मोर्चों पर एक साथ ख़तरे से घिरा हुआ है. यह एक ऐसी स्थिति थी, जिसमें भारत को दो प्रतिरोधी देशों का एक ही वक़्त में मुकाबला करना था. अत: आने वाले दशकों में इसी बात को ध्यान में रखकर भारत को सुरक्षा से संबंधित अपने निर्णय लेने पड़े.[29]

दो-मोर्चे की चुनौती से निपटने की भारत की सापेक्ष अक्षमता के कारण भारत चीन के प्रति अत्यधिक सतर्क दृष्टिकोण अपनाने लगा. वह चीनी संवेदनशीलता को लेकर हमेशा सचेत रहने लगा. इसका कारण यह था कि भारत कोई नया सीमा विवाद शुरू नहीं करना चाहता था. लेकिन यहां यह साफ़ कर दिया जाना चाहिए कि यह सावधानी बरतने के पीछे नेहरू की धारणा इस चुनौती से उभरने वाला ख़तरा नहीं था, बल्कि नेहरू चीन को पसंद करते थे. नेहरू चाहते थे कि चीन के भारत के साथ दोस्ताना और स्थायी संबंध रहें. नेहरू को यकीन था कि चीन किसी भी सूरत में भारत के साथ युद्ध शुरू नहीं करेगा.[30] इसलिए उन्होंने 1959 में लोंग्जू की घटना को 'मामूली' निरुपित किया था.[31] नेहरू ने इसी विश्वास के कारण मैकमोहन रेखा [e] को भारत-तिब्बत सीमा के रूप में बनाए रखने पर जोर दिया था. याद रहे कि चीन ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वह ऐसा करने को लेकर असहमत था. नेहरू ने ही भारत-तिब्बत सीमा के साथ सीमावर्ती चौकियों पर सेना को तैनात करने के लिए 'फॉरवर्ड पॉलिसी' को भी मंजूरी दी. लेकिन इस 'फॉरवर्ड पॉलिसी' में हमला हो जाने की स्थिति में उसे रोकने के लिए पर्याप्त ऑपरेशनल अर्थात परिचालन या लॉजिस्टिक अर्थात रसद आपूर्ति की व्यवस्था का निर्माण को लेकर कोई कदम नहीं उठाया गया था.[32]

युद्ध के बाद, नेहरू ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी को आश्वासन दिया था कि भारत, चीन को भड़काने वाली कोई कार्रवाई नहीं करेगा.[33] LAC पर सैनिकों की तैनाती और सीमा अवसंरचना को लेकर अपनाई गई नई दिल्ली की नीति में यह बात स्पष्ट झलकती थी. उत्तरी कमान के पूर्व जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ (जीओसी-इन-सी), लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) एच.एस. पनाग मानते है कि इस युद्ध में भारत को ऐसी सैन्य पराजय का सामना करना पड़ा था कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व ‘‘अगले 24 वर्षों के लिए LAC पर सेना को तैनात करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.’’[34] यह नेहरू की 1961 की दुस्साहसिक 'फॉरवर्ड पॉलिसी' से पूरी तरह संबंध विच्छेद करने जैसा ही था. इसी प्रकार चीनी आक्रामकता के ख़िलाफ़ अपनाई गई त्रुटिपूर्ण निवारक नीति की वज़ह से सीमा अवसंरचना के विकास पर भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया. पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने 2010 में माना था कि पिछले अनेक वर्षों में सत्ता संभालने वाली सरकारों ने LAC पर बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान ही नहीं दिया था. उनके अनुसार इन सरकारों का मानना था कि सीमा पर ख़राब बुनियादी ढांचे और इससे जुड़ी दुर्गमता की वज़ह से चीनी वहां कोई हरकत अथवा दुस्साहस करने की कोशिश नहीं करेगा.[35] दो-मोर्चों को लेकर चीन की संवेदनशीलता को देखते हुए, यह तर्क देना न्यायोचित है कि पिछली सरकारों ने इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर युद्ध के प्रभाव का आकलन किया था. लेकिन यदि बुनियादी ढांचे पर ध्यान दिया जाता तो यह युद्ध में चीन के लिए चुनौती बढ़ाते हुए भारत को आक्रामक स्थिति में लाने का काम कर सकता था. इसके बावजूद LAC पर भारत कड़ा रूख अख्तियार करने के लिए तैयार नहीं था.

2008 के आसपास की अवधि में दो ऐसे घटनाक्रम देखे गए, जो चीन की दो-मोर्चे वाली दुविधा को पुनर्जीवित करने में अहम साबित हुए थे. इसमें पहला भारत-अमेरिका के बीच हुआ परमाणु सहयोग सौदे पर मुहर लगाने का फ़ैसला था. दूसरा फ़ैसला 2008 में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एसएसजी) में दी गई छूट से जुड़ा था

1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान चीन को एक और मौका दिखाई दिया. चीन ने भारत पर तिब्बत की ओर वाले क्षेत्र में सैन्य प्रतिष्ठान बनाकर सिक्किम-तिब्बत सीमा का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हुए इन प्रतिष्ठानों को हटाने का अल्टीमेटम जारी कर दिया. इसी तरह चीन ने भारत पर 59 चीनी याक अर्थात चमरी गाय का अपहरण करने का भी आरोप लगा दिया.[36] 19 सितंबर 1965 को, जब भारत-पाकिस्तान युद्ध चल रहा था, पीएलए के जवानों ने लद्दाख में सास्कुर के पास LAC के पार से तीन भारतीय सैनिकों का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी.[37] इन घटनाओं को अंजाम देने के लिए जो वक़्त चुना गया उसे भूलना नहीं चाहिए: चीन का उद्देश्य भारत को यह याद दिलाना था कि भारत को भी दो-मोर्चे को लेकर अपनी अतिसंवेदनशीलता को भूलना नहीं चाहिए. ऐसे में भारत ने इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया, क्योंकि वह दूसरे मोर्चा खोलने का जोख़िम नहीं उठा सकता था. इसी प्रकार मार्च 1963 में दो साल पहले हुए चीन-पाकिस्तान सीमा समाधान समझौते के तहत पाकिस्तान ने शाख्सगाम घाटी चीन को सौंपने का निर्णय लिया था. ऐसे में सीमा पर अपने दो शत्रुतापूर्ण पड़ोसियों के बीच मिलीभगत को लेकर भारत की आशंकाएं प्रबल हो गई थीं. 1965 के युद्ध के दौरान भारत ने युद्धविराम पर चीन के अल्टीमेटम का पालन करने का फ़ैसला किया था. ऐसे में यह साफ़ है कि उसका यह फ़ैसला चीन की पैंतरेबाजी से ही प्रभावित था.[38]

दो साल बाद, सितंबर-अक्टूबर 1967 में, चीन ने फिर से सीमा पर सिक्किम में नाथूला और चो ला में भारतीय सैनिकों के साथ मुठभेड़ कीं. [f] कुछ अनुमानों के अनुसार, पीएलए ने उन मुठभेड़ों में 300 सैनिकों को गंवा दिया, जबकि भारत के 80 सैनिक हताहत हुए थे.[39] ऐसे में साफ़ है कि 1950 के दशक के मध्य से 1960 के दशक के अंत तक, चीन की दो-मोर्चा ख़तरे को लेकर बढ़ी हुई धारणा के कारण ही चीन भारत के साथ सटी सीमा पर बार-बार सीमा संघर्ष की स्थिति पैदा कर रहा था. चीन की यह कोशिश भारत को भी दो-मोर्चे की स्थिति के प्रति उसकी अतिसंवेदनशीलता को याद दिलाने की थी. चीन ने ऐसा करते हुए एक स्थिर और शांत सीमा बनाए रखने की ज़िम्मेदारी भारत पर ही डाल दी थी.

चीन की नाराज़गी अथवा उसे भड़काने से बचने के डर से भारत ने न तो सीमा पर अपनी तरफ के इलाकों पर अपना दावा जताया और न ही सीमा पर बुनियादी ढांचे को विकसित ही किया. इसी वज़ह से अब जब हालिया दिनों में भारत ने ऐसा करने की कोशिश की है तो इन कोशिशों ने चीन की चिंता और असुरक्षा को बढ़ा दिया है.[40]

1960 का दशक समाप्त होते ही अमेरिका ने चीन के प्रति अपने दृष्टिकोण को नरम कर दिया. अत: चीन का सिरदर्द बनी हुई दो-मोर्चे की उसकी दुविधा से जुड़ी चुनौती भी कमज़ोर पड़ गई. 1971 में अमेरिका ने चीन के साथ अपने रिश्तों को सुधारते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में चीन गणराज्य (ताइवान) के स्थान पर चीन के प्रवेश का रास्ता साफ़ कर दिया. 1979 में यूएस-चीन के संबंधों में सामान्यीकरण के प्रयास उस वक़्त पूर्ण रूप से फलीभूत हुए, जब दोनों देशों ने एक-दूसरे को मान्यता देते हुए राजनयिक संबंध स्थापित करने का फ़ैसला कर लिया. इसी दौरान रिचर्ड निक्सन की अध्यक्षता वाली सरकार के साथ में भारत और अमेरिका के बीच बढ़ते सामरिक विचलन ने चीन की असुरक्षा को काफ़ी हद तक दूर करने का काम किया.

1970 के दशक में चीन के सामने एक अलग मोर्चे से एक नई चुनौती आ खड़ी हुई: यह चुनौती थी सोवियत संघ की चुनौती. USSR और भारत के बीच बढ़ती रणनीतिक नज़दीकियों के कारण चीन के सामने खड़ी हुई यह समस्या और भी जटिल हो गई थी. भारत और USSR के करीब आने की वज़ह से ही दोनों देशों के बीच अगस्त 1971 में शांति, मित्रता और सहयोग की संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे. माओ को यह डर सता रहा था कि सोवियत संघ और भारत की यह मित्रता चीन के ख़िलाफ़ एकजुट होने को लेकर देखी जा रही है.[41] लेकिन 1950-60 के दशक के विपरीत, इस नए घटनाक्रम के कारण भारत-चीन सीमा पर झड़पों में वृद्धि नहीं देखी गई. चीनी नेतृत्व ने एक वास्तविक ख़तरे का सामना करने की स्थिति होने के बावजूद अपनी संयमित क्षमता का आकलन करते हुए यह तय किया कि उसे भारत के ख़िलाफ़ हमला शुरू नहीं करना चाहिए. चूंकि भारत और सोवियत संधि सहयोगी बन चुके थे, अत: भारत के ख़िलाफ़ कोई भी हरकत किए जाने की स्थिति में सोवियत संघ का उसके पक्ष में उतरना तय था.  ऐसे में चीन ने अपनी पिछली हरकतों को नहीं दोहराने में ही समझदारी दिखाई.

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि अमेरिका के साथ चीन के संबंधों में सुधार शुरू हो गया था. इसी वज़ह से 1971 के बाद अमेरिका समर्थित ताइवान के आक्रमण का ख़तरा समाप्त हो गया था. लेकिन निक्सन के राष्ट्रपति पद से हटने के बाद अमेरिका-चीन संबंधों की प्रगति थोड़ी समय के लिए ठप्प हो गई थी. इस वज़ह से चीन का आत्मविश्वास डगमगा गया. अंत में, सांस्कृतिक क्रांति (1967-1976) [g] और लिन बिआउ मामले (1971) [h] की वज़ह से फ़ैली अराजकता के चलते चीन घरेलू समस्याओं में जकड़ा हुआ था. इन घटनाओं की वज़ह से नागरिक और सेना के बीच संबंध प्रभावित हुए थे. 1976 में माओ की मौत के साथ ही सांस्कृतिक क्रांति ने भी दम तोड़ दिया. लेकिन इस वज़ह से सीपीसी के भीतर उत्तराधिकार की लड़ाई और नेतृत्व के पदों को लेकर एक नया संघर्ष पैदा होने की वज़ह से राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई. यह अस्थिरता 1978 में देंग शियाओ पिंग के पदभार संभालने के बाद ही समाप्त हुई. देंग के लिए, मुख्य प्राथमिकता अर्थव्यवस्था थी.[42] ऐसे में डेंग ने निर्देश दिया था, ‘‘अपनी ताकत को छिपाने और अपने समय का इंतजार करने’’ के लिए, चीन को USSR और भारत के साथ संबंधों को स्थिर करना ज़रूरी था. USSR के साथ संबंधों के सामान्यीकरण के प्रयास 1982 में शुरू हुए थे. 1989 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव मिखाइल गोर्बाचेव की बीजिंग यात्रा के साथ इस पर मुहर लग गई. चीन ने भारत के साथ संबंध सुधारने के लिए जो प्रयास किए उसके फलस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी 1988 में बीजिंग का दौरा किया. अगले दो दशकों तक, चीन ने तीनों देशों- अमेरिका, सोवियत संघ (बाद में रूस) और भारत के साथ अपने संबंधों को काफ़ी अच्छी तरह से संभालते हुए अपनी दो-मोर्चा चुनौती को शानदार तरीके से अलग रखने में सफ़लता हासिल की.

लेकिन यह भी सच है कि 1970 से 2000 तक की अवधि के दौरान भी सीमा इलाके में अलग-अलग टकराव देखे गए थे. 1975 में तुलुंग ला में, [i] 1986 में सुमदोरोंग चू घाटी में, [j] और 1999 में डोंगझांग में. [k] ये तीनों इलाके अरुणाचल प्रदेश में आते हैं. लेकिन चीन ने इन घटनाओं के बीच पर्याप्त दूरी बनाए रखी थी. ऐेसे में इन्हें लेकर किसी पैटर्न का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता. इस बात की संभावना ज़्यादा है कि इन घटनाओं के पीछे अन्य सामरिक या रणनीतिक उद्देश्यों से जुड़े कारण रहे हो.

चीन की असुरक्षा का पुनर्जीवन

शीत युद्ध की समाप्ति के बाद की सदी में अमेरिका ने एशिया को लेकर अपनी सामरिक नीति को पुनर्गठित किया था. इस नीति का झुकाव भारत की ओर था. अमेरिका के ऐसा करने के पीछे जो विभिन्न चालक थे उसमें से एक यह था कि वह भारत को इस इलाके में चीन के काउन्टर्वेट अर्थात प्रतिकार के रूप में क्षमता रखने वाला देश समझता था.[43] इसकी वज़ह से अमेरिका-भारत सहयोग के इर्द-गिर्द केंद्रित हो रहे दक्षिण-एशियाई सुरक्षा ढांचे के विकास को लेकर चीन चिंतित था.[44]

2008 के आसपास की अवधि में दो ऐसे घटनाक्रम देखे गए, जो चीन की दो-मोर्चे वाली दुविधा को पुनर्जीवित करने में अहम साबित हुए थे. इसमें पहला भारत-अमेरिका के बीच हुआ परमाणु सहयोग सौदे पर मुहर लगाने का फ़ैसला था.[45] दूसरा फ़ैसला 2008 में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एसएसजी) में दी गई छूट से जुड़ा था.[46], [l]. अमेरिका के साथ हुआ यह सौदा और बाद में उसे एनएसजी में मिली छूट इस बात को दर्शाने वाली साबित हुई कि एक परमाणु शक्ति के रूप में भारत का कद अब बढ़ने लगा था.[47] इसी बात को ध्यान में रखकर अमेरिका की विदेश नीति में भारत को लेकर एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक और भू-रणनीतिक बदलाव आने लगा. इस बदलाव की वज़ह से ही दोनों देशों के बीच गहन रक्षा और सुरक्षा सहयोग का मार्ग प्रशस्त हो सका. भारत और अमेरिका के बीच हुआ परमाणु सौदा न केवल भारत की प्रासंगिकता पर मुहर लगाने वाला था, बल्कि यह सौदा चीन के उदय को देखकर एशिया के प्रति अपने दृष्टिकोण को पुनसंर्तुलित करने का अमेरिका का एक प्रयास भी था.[48] इस घटनाक्रम के साथ ही 2008 में भारत ने यूएस-निर्मित परिवहन विमान की खरीद का फ़ैसला भी लिया था. इसमें LAC के पास भारी-भरकम संचालन करने के लिए सी-130जे और सी-17 ग्लोबमास्टर विमान शामिल थे.

एशिया-प्रशांत में चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर अमेरिका की बेचैनी उसकी 'पिवट टू एशिया अर्थात एशिया केंद्रित' या 'एशिया रिबैलेंस अर्थात एशिया पुर्नसंतुलित' पहल के अनावरण से सभी को दिखाई दे रही थी.[49] इस पहल की सफ़लता बहस का विषय हो सकती है, लेकिन इसके पीछे का अंतर्निहित रणनीतिक तर्क - चीन के उदय का मुकाबला - स्पष्ट था. चीनी पीएलए के पूर्व मेजर जनरल, लुओ युआन ने स्वीकार किया कि 'पिवट टू एशिया' पहल का असल अमेरिकी उद्देश्य एशिया में चीन को ‘‘घेरने’’ का प्रयास था.[50] इसी पृष्ठभूमि के कारण अमेरिका-भारत के बीच रक्षा और सुरक्षा सहयोग में वृद्धि चीन के लिए चिंता का सबब बन गया था.

2008 के आसपास ही दूसरे घटनाक्रम में भारत ने अपनी सीमा पर अवसंरचना को लेकर निवेश बढ़ाना शुरू कर दिया था. 2009-10 की रक्षा मंत्रालय (एमओडी) की वार्षिक रिपोर्ट में सीमा पर बुनियादी ढांचे को उन्नत करने की आवश्यकता को स्वीकार किया गया था.[51] इसके पहले रक्षा मंत्रालयों की रिपोर्ट में इस पर बात नहीं की गई थी. (m) 2011-12 की एमओडी की रिपोर्ट में भी LAC पर चीनी क्षमताओं में हो रही वृद्धि को देखते हुए भारत को भी सीमा अवसंरचना में निवेश बढ़ाने की बात की गई थी.[52] ऐसे में इस अवधि के आसपास शुरू या पूरी की गई परियोजनाओं में क्रमश: 2008 और 2009 में लद्दाख में फुक्शे और न्योमा में उन्नत लैंडिंग ग्राउंड (एएलजी) को क्रियाशील करना; लद्दाख में दौलत बेग ओल्डी हवाई पट्टी को पुन: सक्रिय करना (2013 में निर्माण पूरा); दो नए पर्वत मंडलों की स्थापना को मंजूरी देना; और 2012 से शुरू होकर 10 वर्षों में LAC के करीब 15,000 किमी सड़क के निर्माण को मंजूरी देना शामिल था.[53] इन परियोजनाओं का उद्देश्य LAC पर बेहतर लॉजिस्टिक्स सुविधाओं की वज़ह से चीन के पास मौजूद लाभ की स्थिति को भले ही प्रभावहीन करना न रहा हो, लेकिन ये परियोजनाएं चीन को उपलब्ध लाभों को सीमित करने की दृष्टि से मंजूर की गई थी. बुनियादी ढांचे के उन्नयन में आक्रामक निवेश का उद्देश्य भारतीय सैनिकों को सीमा पर किसी भी वारदात अथवा सीमा का उल्लंघन किए जाने की स्थिति में तत्काल जवाब देने में कम से कम वक़्त लगने की व्यवस्था करना था. ऐसा होने पर भारतीय सेना आपात स्थिति में भारी उपकरणों के तेज परिवहन कर तत्काल प्रतिक्रिया देने के साथ ही अपने क्षेत्रीय दावों के दावे को सक्षम करके सामरिक नुक़सान को दूर करने की क्षमता हासिल कर सकती है.

अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता के गहराने के साथ ही अमेरिका के साथ भारत के रणनीतिक संरेखण ने चीन को एक नया सिरदर्द दे दिया था. ऐसे में भारत ने जब LAC पर अपनी क्षमताओं को बेहतर बनाने की कोशिश शुरू की तो चीन की चिंताओं में और भी इज़ाफ़ा हो गया. भारत के ख़िलाफ़ चीन को पहले से जो सामरिक लाभ मिला हुआ था, चीन उस प्रतिरोध क्षमता को बनाए रखना चाहता था. लेकिन भारत की ओर से इस मौजूदा संतुलन को समाप्त करने की कोशिशों के साथ ही चीन की जगह अमेरिका के भारत के साथ गहराते रणनीतिक झुकाव की वज़ह से चीन के लिए दो-मोर्चे की दुविधा न केवल पुनर्जीवित हो रही थी, बल्कि इसकी वज़ह से संभावित ख़तरे की विश्वसनीयता को भी संदेहास्पद बना रहा था. अमेरिका-भारत के संयुक्त सैन्य अभ्यास की ओर इशारा करते हुए, फुदान विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के प्रोफेसर लिन मिनवांग ने चेताया था कि ये दोनों देश ‘‘हिमालय में चीन के ख़िलाफ़ संयुक्त कार्रवाई’’ करने के लिए ही संयुक्त सैन्य अभ्यास कर रहे हैं.[54] लिन ने इस बात पर अफ़सोस जताया था कि कथित 'चीन ख़तरे' को संतुलित करने के लिए भारत ने अपनी रक्षा स्वायत्तता की बलि चढ़ा दी है.’’[55] उन्होंने LAC के भारतीय पक्ष में सड़क निर्माण करने के भारत के फ़ैसले को द्विपक्षीय सीमा संबंधों में एक अड़चन भी निरुपित किया था.[56] ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के प्रतिष्ठित फेलो मनोज जोशी इस बात से सहमत हैं कि सीमा के बुनियादी ढांचे को विकसित करने पर भारत की ओर से दिया जा रहा ध्यान और अमेरिका से भारत की बढ़ती निकटता को चीनियों द्वारा ‘‘प्राथमिक और द्वितीयक रणनीतिक दिशा’’ से ख़तरों के विलय के रूप में देखा जाता है.[57] इन घटनाक्रमों से दोनों मोर्चों को एक सामरिक स्तर पर विलय करने की भी कोशिश की जा रही है.

चीन पर मंडराने वाले ख़तरों की धारणा के साथ चीन का उसकी रक्षा क्षमताओं में बढ़ते विश्वास को समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. अनेक चीनी पर्यवेक्षकों का मानना है कि 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर कर आया है. ऐसे में अब चीन ने अपने पुराने 'लुका-छिपी' वाले दृष्टिकोण को छोड़ दिया है. अब वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बल का उपयोग करने से हिचकिचाने वाला देश नहीं है.[58]

2008 के बाद से चीनी पीएलए की ओर से LAC का उल्लंघन किए जाने की घटनाओं में निरंतर वृद्धि हुई है. यह वृद्धि ऐसे वक़्त हुई, जब स्पष्ट रूप से भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को लेकर आपस में बातचीत कर रहे थे. 2006 में, भारत में चीनी राजदूत सुन युक्सी ने मीडिया को दिए एक साक्षात्कार में, पूरे अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा बताकर इस पर अपने देश का दावा कर दिया था.[59] यह बयान आश्चर्यजनक इसलिए था, क्योंकि एक साल पहले ही अप्रैल 2005 में, भारत और चीन ने सीमा विवाद को हल करने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों पर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते में दोनों ही देशों ने ‘‘सीमा क्षेत्रों में बसी आबादी के हितों की रक्षा करने’’ पर सहमति व्यक्त की थी.[60] मई 2007 में, चीन ने अरुणाचल प्रदेश के एक भारतीय आईएएस अधिकारी को यह कहते हुए वीजा जारी करने से इंकार कर दिया कि वह ‘‘चीनी नागरिक’’ है. अत: उसे वीजा की आवश्यकता ही नहीं है. उस वर्ष LAC पर 150 से अधिक अतिक्रमण हुए, जो 2008 में बढ़कर 270 पर पहुंच गए.[61] नवंबर 2009 में, चीनी सैनिकों ने देमचोक, लद्दाख में LAC को पार करते हुए वहां चल रही एक सड़क निर्माण परियोजना को रोक दिया.[62] अगस्त 2011 में, कथित तौर पर चीनी सैनिकों ने LAC के भारतीय हिस्से में उतरने और बंकरों को नष्ट करने के लिए हेलीकॉप्टरों का उपयोग किया था.[63] LAC उल्लंघन के इसी तरह के उदाहरण 2012 में भी सामने आए थे.[64]

LAC से सटे क्षेत्रों में इसके बाद की घटनाएं और गंभीर होती चली हो गईं. 15 अप्रैल 2013 को, चीनी प्रीमियर ली कचियांग की भारत यात्रा से ठीक पहले, पीएलए के सैनिकों ने देपसांग के मैदानों में प्रवेश कर लिया था. यह मैदानी इलाका लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी क्षेत्र में आता है. वहां पीएलए के जवानों ने LAC से 19 किलोमीटर दूर, टेंट लगा दिए थे. उन्होंने वहां से पीछे हटने से इंकार भी कर दिया था. 21 दिनों के गहन सैन्य और कूटनीतिक प्रयास के बाद ही वे पीछे हटे थे.[65] उस वर्ष अगस्त में, भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड (एनएसएबी) द्वारा प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ) को सौंपी गई एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि देपसांग और आस-पास के क्षेत्रों में चीनी सैन्यव्यूहन अर्थात स्थिति परिवर्तन कौशल की वज़ह से देपसांग बल्ज् अर्थात उभार तक भारत के गश्ती अधिकार बाधित हो गए है. इस वज़ह से हो सकता था भारत को लगभग 640 वर्ग किमी क्षेत्र का नुक़सान उठाना पड़े. यदि ऐसा हुआ तो प्रभावी रूप से ऑपरेशनल LAC, भारतीय दावा रेखा के अंदर अच्छी तरह से स्थानांतरित हो जाएगी.[66]

सितंबर 2014 में, राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के कुछ दिन पहले, पीएलए के सैनिकों ने दक्षिण-पूर्वी लद्दाख में चुमार के पास तिबल तक एक सड़क बनाने का प्रयास किया. सीमा पर यह उल्लंघन उसी क्षेत्र में हुआ था, जहां भारतीय सैनिकों द्वारा एक अवलोकन पोस्ट को स्थापित किया गया था. कहा जाता है कि चीनी हरकत इसके जवाब में की गई थी. (भारतीय सैनिकों ने पोस्ट यह सुनिश्चित करने के लिए बनाया था कि वह अर्थात भारतीय सेना चीनी सेना को भारत की निर्माण गतिविधियों में बाधा डालने से रोक सकें); भारत की ओर से चीनी सड़क बनाने की कोशिशों का विरोध किया गया तो 16 दिनों तक दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं. यह सब कुछ उस वक़्त भी चल रहा था जब शी भारत में थे.[67] उपरोक्त दोनों घटनाएं क्रमश: चीनी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की भारत की राजकीय यात्राओं के समानांतर हुईं थी. ऐसे में यह इस बात का संकेत देती हैं कि उन्हें सर्वोच्च नेतृत्व की ओर से मंजूरी दी गई थी. यह इस बात भी संकेत था कि सीमा मुद्दे को चीन कितनी गंभीरता से लेता है. ओआरएफ के मनोज जोशी का मानना है कि देपसांग और चुमार दोनों फेस-ऑफ्स अर्थात आमने-सामने वाली स्थिति संभवत: भारत की ओर से LAC पर की शुरू की गई ताजा परियोजनाओं को लेकर चीन की चिंता का प्रतिबिंब हो सकती हैं.[68]

इन उच्च तीव्रता वाली घटनाओं के साथ ही छुटपुट घटनाओं में भी वृद्धि हुई है. भारत सरकार की ओर से संसद में उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार 2010 से अगस्त 2014 के बीच जहां कुल 1,612 चीनी घुसपैठ के मामले देखे गए थे, वहीं अगले तीन वर्षों अर्थात 2016-19 की अवधि में यह संख्या बढ़कर 1,625 पहुंच गई.[69],[n] 2008 के बाद भारतीय मीडिया में भी घुसपैठ के मामलों से जुड़ी जानकारी देने की संख्या में वृद्धि देखी गई.[70] 13 वर्षों में पहली बार, सन् 2015-16 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में रक्षा मंत्रालय ने अंतत: ‘‘LAC पर पीएलए द्वारा नियमित गश्त के दौरान निश्चयात्मकता में वृद्धि’’ की बात को मानते हुए स्वीकार किया कि इस वज़ह से सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों में भी इज़ाफ़ा हुआ है. 2002-03 से वर्ष 2015 तक वार्षिक रिपोर्ट में LAC से सटे इलाकों में ‘सीमा के उल्लंघन’ का उल्लेख देखने को नहीं मिलता. ऐसे में साफ़ है कि ऐसी घटनाओं में बाद के दौर में ही वृद्धि हुई है.

LAC पर चीन की बढ़ती आक्रामकता के साथ ही 2010 की दूसरी छमाही में भारत-अमेरिका सामरिक संरेखण और भारत की ओर से सीमा पर बुनियादी ढांचे के विकास की गति में भी तेज़ी देखी गई. 2016 में, भारत ने अमेरिका के साथ लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (एलईएमओए) समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसक तहत दोनों देशों ने एक दूसरे की रसद सुविधाओं तक पहुंच हासिल करने की अनुमति प्राप्त कर ली.[71] उसी वर्ष, अमेरिका ने भारत को 'प्रमुख रक्षा भागीदार' का दर्जा दे दिया.[72] जून-अगस्त 2017 में भारतीय सेना और पीएलए के बीच 72-दिवसीय डोकलाम गतिरोध एक और कैटलिस्ट अर्थात उत्प्रेरक साबित हुआ था. [o] उसी वर्ष, भारत और अमेरिका ने क्वॉड्रीलैटरल सिक्यूरिटी डायलॉग अर्थात चतुर्भुज सुरक्षा संवाद (क्वा) [p] को पुनर्जीवित करने का फ़ैसला लिया. इसमें जापान और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं. यह एक ऐसा समूह भी है, जिसे चीन ने हमेशा से अपने ख़िलाफ़ खड़े होने वाले समूह की दृष्टि से देखा था. 2018 में, दोनों देशों ने कम्युनिकेशन्स कॉपैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट अर्थात संचार संगतता और सुरक्षा समझौते (सीओएमसीएएसए) तथा 2020 में, बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीईसीए) पर हस्ताक्षर किए. ये उन चार मूलभूत रक्षा समझौतों में से अंतिम दो समझौते थे, जिन्हें आमतौर पर अमेरिका अपने मित्र देशों के साथ ही हस्ताक्षर करता हैं. [q] 2018 में, अमेरिका ने भारत के दर्जे को रणनीतिक व्यापार प्राधिकरण टियर -1 तक प्रोन्नत करने का फ़ैसला कर लिया. इसकी वज़ह से अब भारत को दोहरे उपयोग वाली सैन्य तकनीक तक लाइसेंस-मुक्त पहुंच की अनुमति भी उपलब्ध हो गई थी.[73] इन समझौतों की वज़ह से अमेरिकी रक्षा और सुरक्षा ढांचे में भारत के एकीकरण को गति हासिल हुई है.

इस अवधि के दौरान LAC पर चीन के सीमा उल्लंघन की घटनाएं अधिक रही. इसके परिणामस्वरूप 2020 का लद्दाख संकट पैदा हुआ. यह संकट लद्दाख में कई जगहों पर पीएलए के सीमा उल्लंघन के साथ शुरू हुआ - गलवान (पीपी 14), [r] पैंगोंग त्सो (उत्तर और दक्षिण छोर), गोगरा (पीपी 15) और हॉट स्प्रिंग (पीपी 17ए). इन सभी स्थानों पर, पीएलए के सैनिकों ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करते हुए पीएलए ने अस्थायी बुनियादी ढांचे का निर्माण भी कर दिया, जिसकी वज़ह से भारतीय गश्ती इकाइयों को परेशानी का सामना करना पड़ा. इस संकट के समाधान को लेकर शुरूआती प्रयास विफ़ल हो गए. अंतत: 15 जून 2020 को गलवान में हुए संघर्ष में 20 भारतीय सैनिक मारे गए.[74] इस घटना को देखकर दोनों पक्षों ने इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में सैनिकों को जुटाया और उन्हें वहां तैनात कर दिया. मई 2020 से सितंबर 2022 तक दोनों देशों के कोर कमांडरों ने 16 दौर की बातचीत की. इसके बाद ही विवादास्पद इन पांच बिंदुओं से सेनाएं पीछे हटी थीं.[75] लेकिन डी-एस्केलेशन अर्थात तनाव की तीव्रता में कमी अब भी नहीं देखी जा रही है. फिलहाल वहां यथास्थिति हासिल करना दूर की कौड़ी ही साबित होता दिखाई दे रहा है. चीन ने वर्तमान में चल रही वातार्ओं में देपसांग और देमचोक में पहले की गई घुसपैठ को चर्चा में शामिल करने से इंकार कर दिया है.[76] इस संकट के जारी रहने के बावजूद, पीएलए ने अक्टूबर 2021 और दिसंबर 2022 में अरुणाचल प्रदेश के यांगत्से में भारतीय सैनिकों को दो बार और चुनौती देने की कोशिश की हैं.[77]

CPC के प्रमुख समाचार पत्र पीपल्स डेली की एक शाखा ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित टिप्पणियों में चीनी विद्वानों का जो दृष्टिकोण परिलक्षित होता है उसके अनुसार अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति और भारत के साथ उसका संबंध चीन पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक नियंत्रण रणनीति है.[78] इन विद्वानों का कहना है कि भारत अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता को एक रणनीतिक अवसर मानकर उसका लाभ उठाने की कोशिश कर रहा है.[79] उनके अनुसार गलवान की घटना समेत लद्दाख संकट ऐसी घटनाएं है, जिनका लाभ उठाने की कोशिश भारत की ओर से की जा रही है. इस तरह के आरोप चीन की उस धारणा में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं जिसमें चीन का मानना है कि भारत के साथ सीमा पर तनाव की जड़ उसकी (चीन की) अमेरिका के साथ भू-रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता में निहित है. विजय गोखले तर्क देते हैं[80] कि चीन को चूंकि अभी भी संदेह है कि भारत में रणनीतिक स्वतंत्रता की कमी है. इसी कमज़ोरी की वज़ह से भारत अमेरिकी योजना में मोहरा बन रहा है.[81] इसी वज़ह से ही भारत LAC को भी यूएस-चीन प्रतिद्वंद्विता के एक और क्षेत्र के रूप में देखता है.

अत: 2010 के बाद से भारत-चीन सीमा पर टकराव दो-मोर्चे की दुविधा को लेकर मंडराने वाले ख़तरे से आशंकित चीन की धारणा के साथ ही बढ़ता गया है. ऐसे में यह दोनों ही बातों के बीच एक संबंध का संकेत भी देता है. 1950-60 के दशक की तरह ही एक बार पुन: चीन दो-मोर्चे की दुविधा के साथ-साथ अपनी समस्याओं के प्रबंधन के साधन के लिए भारत के मामले में सीमा मुद्दे का उपयोग करता हुआ प्रतीत होता है.

भारतीय दृष्टिकोण से, प्रत्येक घटना को लेकर लंबे समय तक चलने वाले कूटनीतिक, राजनीतिक और सैन्य प्रयासों के बाद समाधान हासिल किया गया. प्रत्येक घटना को लेकर हासिल किए गए शांति समझौते को आसानी से ख़तरे में नहीं डाला जा सकता है. इसलिए यह समझौते बेहद मूल्यवान है. 

ऐसे में दो प्रतिरोधी देशों के कारण उत्पन्न होने वाली दो मोर्चों की दुविधा से पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने में भारत की सापेक्षिक कमज़ोरी तथा उसकी सीमित तैयारी 2020 के लद्दाख गतिरोध के दौरान स्पष्ट दिखाई दी थी. उस वक़्त उसे अपने पश्चिमी मोर्चे पर तैनात प्रहार बलों को उत्तर की ओर पुनर्निर्देशित करने पर मज़बूर होना पड़ा था.[82] यदि भारत के पास इस स्थिति से निपटने के संसाधन नहीं है तो चीन की दो-मोर्चों से जुड़ी ख़तरे की धारणा आखिर कितनी विश्वसनीय है? वर्तमान में भले ही भारत के पास आवश्यक क्षमता मौजूद नहीं है, लेकिन यूएस-भारत के बीच हो रहे रणनीतिक संरेखण और LAC से सटे इलाकों में सीमा अवसंरचना को विकसित कर इस क्षमता को तैयार करने की कोशिश की जा रही है. इसी वज़ह से चीन की चिंता सही साबित होती है. इसी बात को ध्यान में रखकर ही भारत में मौजूद इस कमज़ोरी के बने रहने तक उसका लाभ उठाने के लिए चीन बल का उपयोग करने का तरीका अपना रहा है. यह स्थिति चीन को अपनी दो-मोर्चे से जुड़ी दुविधा और उससे जुड़े ख़तरों को भारत के मत्थे मढ़ देने का मौका भी प्रदान करती है.

फिर भी, चीन ने अब तक वे चरम कदम नहीं उठाए हैं, जैसा कि उसने 1950 और 1960 के दशक के अंत में उठाए थे. वह इस तरह के कदम उठाने का अनिच्छुक दिखाई दे रहा है. [s] इसके बजाय, चीन ने 'सीमित और नियंत्रित टकराव' और लंबे समय तक गतिरोध बनाए रखने की नीति को एक रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया है. वह यह सुनिश्चित करना चाहता है कि भारत को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए. 2010 के दौरान प्रत्येक मर्तबा जब दोनों सेनाएं आमने-सामने की स्थिति में पहुंची अर्थात देपसांग (2013), चुमार (2014), या डोकलाम (2017) - [t] तो ये घटनाएं 'सीमित और निहित' (अनिवार्य रूप से अहिंसक) दायरे में होने के बावजूद, बाद में एक 'दीर्घकालिक और दीर्घ' घटना में परिवर्तित हो गई थी. इसके बाद इन्हें सुलझाने के लिए विस्तारित बातचीत की आवश्यकता होती और इसे हल करने में कई दिन लग जाते हैं. इसी वज़ह से इन घटनाओं ने सबसे ज़्यादा ध्यान आकर्षित किया. इन्हें लेकर काफी चर्चाएं भी हुई. भारतीय दृष्टिकोण से, प्रत्येक घटना को लेकर लंबे समय तक चलने वाले कूटनीतिक, राजनीतिक और सैन्य प्रयासों के बाद समाधान हासिल किया गया. प्रत्येक घटना को लेकर हासिल किए गए शांति समझौते को आसानी से ख़तरे में नहीं डाला जा सकता है. इसलिए यह समझौते बेहद मूल्यवान है. इसके साथ ही, इन घटनाओं की वज़ह से चीन के साथ स्थिर संबंध बनाए रखने को लेकर भारत की सहनशीलता की सीमा में भी वृद्धि कर दी है. भारत के संदर्भ में 'रोष से शांति' एक महत्वपूर्ण चीनी रणनीति बनकर उभरी है.

क्या यह रणनीति चीन के लिए कारगर साबित हो रही है? 2000 के दशक के अंत तक सीमा पर बुनियादी ढांचे के विकास और बड़ी संख्या में तैनाती को लेकर भारत की हिचकिचाहट तो बताती है कि चीनी रणनीति सफ़ल साबित हुई है. इस रणनीति पर चलते हुए चीन को पूर्व में मिली सफ़लता से यह भी साफ़ हो जाता है कि इसी रणनीति के साथ चीन दृढ़ता से आगे बढ़ेगा. लेकिन पिछले एक दशक में, ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की ओर से आने वाली प्रतिक्रिया से चीन संतुष्ट नहीं है. 2020 में लद्दाख संकट देखकर पता चलता है कि 2020 से पहले की अपनी कोशिशों को चीन विफ़ल मानता है. ऐसे में वह इसमें संशोधन करने पर मजबूर हो रहा है. चीन अब तनाव को इस हद तक बढ़ा देना चाहता है कि भारत के लिए उसका समाधान हासिल करने की कीमत बढ़ जाएगी. इसी वज़ह से भारतीय सैनिकों को गश्त के अधिकार से वंचित करके अनेक विवाद शुरू करना, ब्रिगेड-आकार में सैनिकों की तैनाती करना, तनाव कम करने से इंकार और बफर ज़ोन बनाने पर जोर देना, चीन की इसी कोशिश का हिस्सा समझे जा रहे है. ऐसे में लद्दाख 2020 संकट के संकट के माध्यम से चीन एक संतुलन बहाल करने की कोशिश कर रहा है. इस संतुलन को भारत ने असंतुलित किया था अथवा भंग कर दिया था.

2010 के बाद से, यदि चीन को भारत से अपेक्षित प्रतिक्रिया हासिल नहीं हो रही है अथवा वह इसे हासिल करने में सफ़ल नहीं हो पा रहा है तो आखिर वह सीमा विवाद के मुद्दे को इतनी तवज्जो क्यों दे रहा है? पहली बात तो यह हो सकती है कि वह मानता है कि सीमा पर तनाव के बढ़ने से भारत को वह विवश कर सकता है. दूसरी बात यह हो सकती है कि चीन का मानना है कि सीमा विवाद एक सदैव संवेदनशील बने रहने वाला मुद्दा है. ऐसे में वह भारत के पास संसाधनों की कमी होने की वज़ह वह इसका उपयोग भारत की प्राथमिकताओं को प्रभावित करने के लिए कर सकता है.

निष्कर्ष

भारत-चीन सीमा पर बढ़ती अस्थिरता और दो मोर्चों की दुविधा को लेकर चीन की बढ़ती चुनौती से जुड़ी आशंका के बीच एक संबंध स्थापित किया जा सकता है. यह दरअसल पुराना पैटर्न अर्थात बानगी है, जिसे दोहराया जा रहा है. चीन ने इसके पहले भी भारत-चीन सीमा पर जो अस्थिरता है उसका उपयोग अपनी दो-मोर्चा दुविधा को भारत के मत्थे मढ़ने के लिए किया है. इस ख़तरे की धारणा के अलावा, चीन को अपनी क्षमता का आकलन और दो-मोर्चे की दुविधा से उपजने वाली चुनौती का जवाब देने में भारत के पास संसाधनों की कमी होने की वज़ह से भी प्रोत्साहन मिल रहा हैं. चीन का मानना है कि यदि उसने पर्याप्त दबाव बना लिया तो सीमा पर शांति रखने की ज़िम्मेदारी का बोझ भारत के कंधों पर डाला जा सकता है. ऐसे में वह इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाएगा.

यह आलेख अनुशंसा करता है कि भारत को चीन को यह स्पष्ट रूप से बता देना चाहिए कि दो-मोर्चे से जुड़ी जिस दुविधा और चुनौतियों का सामना भारत कर रहा है यह चीन के लिए भी उतनी ही दुविधा और चुनौती है. ऐसे में सीमा पर शांति बनाए रखने का भार भारत और चीन को मिलकर बराबरी से उठाना है.

इतना तो साफ़ है कि 1950-60 के दशक के विपरीत, चीन को 2008 के बाद से इस रणनीति से वह परिणाम हासिल नहीं हुए है, जिनकी वह चाहत रखता था. लेकिन चीन की इन हरकतों के कारण भारत अब उसके ख़िलाफ़ आंतरिक और बाहरी संतुलन हासिल करने के मज़बूत इरादे के साथ काम करने लगा है. इसी संदर्भ को देखते हुए 2020 का लद्दाख संकट भारत के लिए सीमा की सुरक्षा की लागत बढ़ाने और भारत की कोशिशों से चीन की कीमत पर खोए हुए संतुलन को बहाल करने की कोशिश में चीन जुटा हुआ दिखाई देता है. ऐसा करते हुए वह इस क्षेत्र में अपना लाभ पुन: हासिल करने की जुगत भिड़ा रहा है. ऐसे में इस आलेख में जिन तीन घटनाक्रमों - भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों में गहराई और मज़बूती आने, सीमा पर अपने इलाकों में बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने को लेकर भारत की ओर से उठाए गए उन्नयन संबंधी कदम और भारत और चीन के बीच विषमता - में से किसी में भी निकट भविष्य में कोई बदलाव आने की संभावना नहीं दिखाई देती है. अत: भारत को सीमा पर तनाव बढ़ाने वाली कुछ और घटनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए.

यह आलेख अनुशंसा करता है कि भारत को चीन को यह स्पष्ट रूप से बता देना चाहिए कि दो-मोर्चे से जुड़ी जिस दुविधा और चुनौतियों का सामना भारत कर रहा है यह चीन के लिए भी उतनी ही दुविधा और चुनौती है. ऐसे में सीमा पर शांति बनाए रखने का भार भारत और चीन को मिलकर बराबरी से उठाना है. इस भार को अकेले भारत के कंधों पर डाल देना उचित नहीं होगा. यह भी साफ़ कर दिया जाना चाहिए कि राजदूत पान त्सुली के डेमार्शे अर्थात उनके जैसे भेजे गए आपत्ति पत्र को दोबारा भेजे जाने से भारत का अहित नहीं होगा. चीन को यह बात भी याद रखनी होगी कि इस मामले को लेकर उसकी स्थिति भी कमज़ोर ही है. इतना ही नहीं यह भी साफ़ हो गया है कि अब भारत की ओर से चीन की ओर से सीमा वाले इलाकों में किए जाने वाले उल्लंघन का करारा जवाब दिया जाएगा. यह जवाब बलपूर्वक भी दिया जा सकता है, जैसा कि गलवान, पैंगोंग त्सो, और यांगत्से संकट के दौरान देखा गया था. क्योंकि जवाब का यही तरीका चीन के ख़िलाफ़ कारगर साबित होता दिखाई दे रहा है.[83] इनमें से प्रत्येक घटनाओं में, जब भारत ने सैन्य रूप से जवाब दिया, तो पीएलए ने तत्काल सैन्य दबाव को कम करने की बातचीत की. इसके पहले की विवादास्पद घटनाओं में चीन ने यह दृष्टिकोण नहीं अपनाया था. इस स्थिति में चीन द्वारा बार-बार LAC का उल्लंघन भी भारत के लिए एक 'न्यू नार्मल अर्थात नया सामान्य' तय करने का एक सुनहरा अवसर है. भारत को इस अवसर का उपयोग करना चाहिए. भारतीय सैनिक अब सीमा पर पुराने रूल्स ऑफ एंगेजमेंट (आरओई) अर्थात सीमा पर लड़ाई के नियमों से बंधे हुए नहीं हैं. गालवान के बाद में भारत ने उन्हें संशोधित कर दिया है और इसकी जानकारी चीन को भी दे दी गई है.[84] नए नियमों के तहत भारतीय सैनिकों को लिए सीमित सैन्य विकल्पों का प्रयोग करने की जगह छोड़ी गई है अथवा छूट दी गई है. जब भी भारतीय सैनिकों ने चीनी हरकतों का जवाब देते हुए सैन्य कार्रवाई की है तब चीन ने इस विवाद को आगे बढ़ाने से परहेज किया है. चीन को उसकी अतिसंवेदनशीलता अथवा कमज़ोरी की याद दिलाकर भारत भी दो-मोर्चे की दुविधा और उसकी जुड़ी अपनी चुनौतियों को लेकर लाभ उठाने की स्थिति में आ सकता है.

हालांकि, प्रभावी ढंग से जवाबी कार्रवाई करने के लिए भारत को LAC पर बहुत अधिक संख्या में सैनिकों को तैनात करने की ज़रूरत पड़ेगी. यह इसलिए भी जरूरी है कि सीमा के किसी भी उल्लंघन के मामले में भारत चीनी हरकत की वज़ह से हैरान अभिभूत होने से बच सकें. लेकिन ऐसा करने के लिए भारत को LAC पर अपनी स्थिति को मज़बूत बनाए रखने लिए कीमत अदा करनी होगी. लेकिन चीन की हरकतों को देखते हुए भारत के पास बहुत सीमित विकल्प हैं. इसका कारण यह है कि चीन ने स्वयं सीमा पर बड़ी मात्रा में सैनिकों को तैनात कर रखा है.


अमित कुमार, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन के इंडो-पैसिफिक स्टडीज प्रोग्राम में रिसर्च एनालिस्ट हैं.


Endnotes

[a] The Goumindang government in Taiwan was also called the Government of the Republic of China (GRC) though all it controlled of China was the island of Taiwan.

[b] It was then called North East Frontier Agency (NEFA).

[c] The Cuban missile crisis of October 1962 began with a US spy plane secretly photographing nuclear missiles the USSR was stocking in Cuba, which had seen a communist takeover in January 1959. The US imposed a naval quarantine around Cuba preventing the USSR from bringing in any more missiles. The USSR eventually agreed to withdraw its missiles, while the US promised not to invade Cuba.

[d] China’s Great Leap Forward, begun in 1958, was an effort to accelerate economic development by collectivising agriculture and introducing modern methods while also promoting rural industrialisation. The attempt to achieve ‘too much too soon’ had disastrous consequences leading to mass starvation, and was abandoned in 1961.

[e] The McMahon Line forms India's boundary with Tibet in the Eastern sector of the LAC. It was an outcome of the Simla Convention, 1914 which was attended by representatives of the British, China and Tibet. The Chinese objected to the delineation of the border and did not sign the final agreement.

[f] The Nathu La conflict erupted following attempts by Indian troops to erect a border fence there after repeated incursions by the PLA. The Chinese objected, leading to heated exchanges, after which they attacked with mortars and artilleries. China launched another offensive at Cho La, forcing India to retaliate.

[g] The Cultural Revolution was an attempt to revitalise communism in China by purging Chinese society of whatever capitalist and traditional practices that still remained. Like the Great Leap Forward, it had disastrous, if unintended, consequences.

[h] Lin Biao was a hero of the Communist victory in the Chinese civil war and the designated deputy of Chairman Mao Zedong, who, however, was killed in a mysterious air crash in 1971. It was subsequently said that he had been plotting a coup against Mao and was branded a traitor.

[i] Four Assam Rifles jawans were ambushed and killed by Chinese soldiers at Tulung La on 20 October 1975. China claimed it had fired in self-defence.

[j] India had resumed patrolling the Sumdorong Chu area in 1981 and built a post there in 1984. On noticing the development, the Chinese resisted and set up camps in the area in 1986, resulting in the standoff which lasted until May 1987.

[k] In July 1999, China sought to graze animals at a spot in Dongzhang which India claims as its territory. The standoff between Indian and Chinese troops over the matter lasted 87 days.

[l] NSG rules forbid it from providing nuclear supplies to a country which has not signed the Nuclear Non-Proliferation Treaty (NPT). India is not a signatory, calling the treaty discriminatory. The waiver allowed NSG to supply such material to India despite India not having signed the NPT.

[m] MoD’s 2009-2010 annual report says: “Government of India is fully seized of the security needs of the country as well as the requirement of development of infrastructure in the border areas. Necessary steps have been initiated for the upgradation of our infrastructure… Strategically important infrastructure requirements along the LAC have been identified and are being developed in a phased manner.”

[n] Government data for 2008, 2009 and 2015 was not available.

[o] China began extending a road at Doklam, an area disputed between China and Bhutan. As an ally of Bhutan’s, India sent troops across the border to stop the construction.

[p] The Quad was launched in 2007, but had been near-dormant for many years.

[q] The other two were the General Security of Military Information Agreement (GSOMIA) signed in 2002 and Logistics Exchange Memorandum of Agreement (LEMOA) signed in 2016.

[r] The Indian Army has 65 patrolling points (PPs) along the LAC.

[s] Galwan was an anomaly where confrontations turned violent leading to the loss of lives on both sides. One, the Chinese did not undertake a similar course of action at other friction points. Had this been a sanctioned policy, it would have been uniformly adopted. Two, the Chinese swiftly moved to immediately resolve the crisis by holding talks and Galwan became the first friction point to witness disengagement while others remained under negotiation. Three, the whole incident in Galwan unfolded for two days consisting of back-and-forth measures, indicating that it was unplanned and reactionary in nature.

[t] Even though Doklam had differing strategic motives, the Chinese approach reflected the intention of prolonging the conflict by refusing to settle.

[1]National Defence, General MM Naravane Full Press Conference Ahead of Army Day 2020 (Get Back PoK) YouTube, 1:18:00, January 11, 2020, https://www.youtube.com/watch?v=bGkcc8zajXU&ab_channel=NationalDefence.

[2] Indian Express, “Army, IAF chiefs visit forward areas, CDS Rawat warns of two-front threat, September 4, 2020, https://indianexpress.com/article/india/india-china-border-dispute-cds-bipin-rawat-naravane-6582279/.

[3] Bruce Riedel, JFK’s Forgotten Crisis: Tibet, the CIA and Sino-Indian War (Harper Collins: 2015), 5.

[4] Ministry of External Affairs, Government of India, Treaty of Peace, Friendship and Co-operation (New Delhi: Ministry of External Affairs, 1971), https://mea.gov.in/bilateral-documents.htm?dtl/5139/Treaty+of.

[5] Press Trust of India, “J&K: Highest number of ceasefire violations by Pak in 2020 since 2003 truce,” The Hindustan Times, December 29, 2020, https://www.hindustantimes.com/india-news/j-k-highest-number-of-ceasefire-violations-by-pak-in-2020-since-2003-truce/story-TJ7teyXb88dheysDqEgWCN.html

[6] Ministry of Defence, “Joint Statement,” Press Information Bureau, February 25, 2021, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1700682

[7] A.S. Bhasin, Nehru, Tibet And China (Viking: Penguin Random House India, 2021)

[8] Doc. 0107, Telegram from Bharat, Nanking to Foreign, New Delhi, November 04, 1959, on Chinese Press Reactions to Nehru’s visit to the US in October 1959. India-China Relations 1947-2000 – A Documentary Study. Vol 1. 5 vols. Ed. A.S. Bhasin. (New Delhi: Geetika Publishers. 2018). 163-164.

[9] Vijay Gokhale, “A Historical Evaluation of China’s India Policy: Lessons for India-China Relations,” Carnegie India, December 2022, https://carnegieendowment.org/files/Gokhale_-_Chinas_India_Policy3.pdf.

[10] Gokhale, “A Historical Evaluation of China’s India Policy: Lessons for India-China Relations”

[11] Wilson Center Digital Archive, Statement made by the Chinese Ambassador to the Foreign Secretary, May 16, 1959, History and Public Policy Program Digital Archive, Ministry of External Affairs, Government of India, Notes, Memoranda and Letters Exchanged and Agreements Signed between the Governments of India and China 1954-1959: White Paper I (New Delhi: External Publicity Division, Ministry of External Affairs, 1959), 73-76, https://digitalarchive.wilsoncenter.org/document/175950.pdf?v=f4d3281b010c4bcbb2612718dfdb46a7.

[12] Wilson Center Digital Archive, Statement made by the Chinese Ambassador to the Foreign Secretary, May 16, 1959

[13]  The terminology has been picked from Shekhar Gupta’s essay on National Interest. See, Shekhar Gupta, “India’s challenge is to avoid two-front war, but can Modi put politics aside for strategy?”, The Print, February 20, 2021, https://theprint.in/national-interest/indias-challenge-is-to-avoid-two-front-war-but-can-modi-put-politics-aside-for-strategy/608515/

[14] PM’s draft note for F.S. 22 May 1959; Nehru Papers, folio no.683-I, pp.209-10, 213, and folio no. 683-II, p.265-66, cited in A.S. Bhasin, Nehru, Tibet And China (Viking: Penguin Random House India, 2021), 228; Shivshankar Menon, India and Asian Geopolitics: The Past The Present (Allen Lane: Penguin Random House India, 2021), 90.

[15]  Wang Bingnan, Zhong- Mei huitan jiu nian huigu (Recollections of Nine years of Sino-US talks) Beijing, pp. 85-90.

[16] Department of State, File No.611.93/6-2362, https://history.state.gov/historicaldocuments/frus1961-63v22/d131.

[17] Wang Bingnan, Zhong- Mei huitan jiu nian huigu

[18] Wang Bingnan, Zhong- Mei huitan jiu nian huigu

[19]  K. Singh, An Analytical Study of Sino-Indian Relations, Rohtak, Spellbound Publishers, 1997, pp. 24-25; Ajay Kumar and Mamta Walia, India China Relations: A study of Border Dispute, New Delhi, Crescent Publishing Corporation, 2018, pp.56-57.

[20] Singh, An Analytical Study of Sino-Indian Relations; Kumar and Walia, India China Relations, pp.56-57

[21] Singh, An Analytical Study of Sino-Indian Relations; Kumar and Walia, India China Relations, pp.56-57

[22] Bhasin, Nehru, Tibet And China, p 281.

[23] Accounts vary with regard to number of soldiers killed and kidnapped. See, Bhasin, Nehru, Tibet And China, p 203, 233; and Manoj Joshi, Understanding India-China border: The Enduring Threat of War in High Himalayas (London: C. Hurst & Co. (Publishers), 2022),

[24] Joshi, Understanding India-China Border

[25] Bhasin, Nehru, Tibet And China, pp.233-34.

[26] Gokhale, “A Historical Evaluation of China’s India Policy: Lessons for India-China Relations”

[27] Bhasin, Nehru, Tibet And China

[28]  Bertil Lintner, China’s India war: Collision course on the roof of the world. (Oxford University Press, 2018)

[29] Sushant Singh, “Can India Transcend its two-Front Challenge?”, War on the Rocks, September 14, 2020, https://warontherocks.com/2020/09/can-india-transcend-its-two-front-challenge/. Military officers have on multiple occasions has highlighted the two-front challenge that the Army faces. See Sushant Singh, “The Challenge of a Two-Front War: India’s China-Pakistan Dilemma”, Stimson, April 19, 2021, https://www.stimson.org/2021/the-challenge-of-a-two-front-war-indias-china-pakistan-dilemma/

[30] Bhasin, Nehru, Tibet And China, p 246.  

[31] Bhasin, Nehru, Tibet And China, p 285.

[32] A.G Noorani, “Review: India’s Forward Policy,” The China Quarterly, Cambridge University Press: 1970, No. 43, https://www.jstor.org/stable/pdf/652088.pdf?refreqid=excelsior%3Aac29b4414f5ac1e3f723d482923b79d6&ab_segments=&origin=&acceptTC=1

[33] Nehru to President Kennedy, 10 Dec. 1962, SWJN, COL.80.P.337 (?)

[34] Lt. Gen. H.S Panag, “Not China, 1962 war called India’s bluff,” The Print, October 12, 2018, https://theprint.in/opinion/not-china-1962-war-called-indias-bluff/133196/.

[35] Defense Minister A.K. Antony while speaking at a BRO meeting, said that the Indian approach earlier was that “inaccessibility in far-flung areas would be a deterrent to the enemies.” See, Press Information Bureau Mumbai, “BRO to focus on building strategic assets: Antony” (New Delhi: Press Information Bureau Mumbai, 2010), http://pibmumbai.gov.in/scripts/detail.asp?releaseId=E2010PR815.

[36] Shivshankar Menon, India and Asian Geopolitics, p 107.

[37] Vandana Menon and Nayanika Chatterjee, “Remembering the war we forgot: 51 years ago, how India gave China a bloody nose,” The Print, October 1, 2018, https://theprint.in/defence/remembering-the-war-we-forgot-51-years-ago-how-india-gave-china-a-bloody-nose/127356/.

[38] Joshi, Understanding India-China Border

[39]  Sushant Singh, “India-China Border Dispute: What happened in Nathu La in 1967,” The Indian Express, June 18, 2020, https://indianexpress.com/article/explained/explained-what-happened-in-nathu-la-in-1967-india-china-border-dispute-6462532/.

[40] A Chinese commentator during a discussion held by Carnegie expressed India’s border infrastructure upgradation as a concern and possible reason for rising tension along the LAC. See, Carnegie, Where Do China-India Relations Stand?, YouTube video, 14:26 min, December 14, 2022, https://carnegieendowment.org/2022/12/14/where-do-china-india-relations-stand-event-8003

[41] Li Zhisui and Tai Hung-Chao, “The Private Life of Chairman Mao: The Memoirs of Mao’s Personal Physician Dr. Li Zhisui,” Translated by Tai Hung-Chao. (New York: Random House, 1994), p. 514.

[42] Although, China did military intervene in Vietnam in 1979 at a time when Sino-Soviet relations were tense and Vietnam was closer to the Soviets. One may question what made the Chinese so confident to disregard a two-front situation from its northern border while it attacked Vietnam. The paper argues that there were multiple reasons. One, the normalisation of China-US relations by this time made the proposition of a Soviet attack weak. Secondly, the Soviets became increasingly involved in Afghanistan and were anticipating an Islamist fightback against the Soviet-friendly regime. By 1978, the Soviet Union had committed to providing direct military assistance to the ruling regime in Afghanistan. Finally, China increased the build-up of forces along the northern borders to account for any Soviet adventure. See, Department of State (United States of America), “The Soviet Invasion of Afghanistan and the US response, 1978-1980”.; and King C. Chen, “China’s War against Vietnam, 1979: A Military Analysis,” Journal of East Asian Affairs Vol. III, No. 1 Spring/Summer 1983, 233–63. http://www.jstor.org/stable/23253977.

[43] Zhang Guihong, “US security policy towards South Asia after September 11 and its implications for China: A Chinese perspective,” Strategic Analysis 27:2, 145-171 (2003), US security policy towards South Asia after September 11 and its implications for China: A Chinese perspective: Strategic Analysis: Vol 27, No 2 (remotlog.com).

[44]  Zhang Guihong, “US security policy towards South Asia after September 11 and its implications for China”

[45] US Dept. of State, “Secretary of State Condoleezza Rice and Indian Minister of External Affairs Pranab Mukherjee At the Signing of the U.S.-India Civilian Nuclear Cooperation Agreement”, October 10, 2008, https://2001-2009.state.gov/secretary/rm/2008/10/110916.htm

[46] NSG is an export control group founded in 1974 in response to India’s first nuclear test in Pokharan that sought to deny non-NPT (Nuclear Non-Proliferation Treaty) signatories the transfer of nuclear fuel and technology to prevent its misuse for building nuclear weapons. The NSG waiver sought to lift this restriction on India despite being a non-signatory to the NPT.

[47] Harsh V Pant, “The US–India nuclear deal: the beginning of a beautiful relationship?,” Cambridge Review of International Affairs, 20:3, (2007) 455-472, DOI: 10.1080/09557570701574162

[48] Pant, “The US–India nuclear deal: the beginning of a beautiful relationship?”

[49] Anushka Saxena, “A Decade of US ‘Pivot to Asia,” Institute for Defence Studies and Analysis, October 27, 2022, https://www.idsa.in/idsacomments/A-Decade-of-US-Pivot-to-Asia-asaxena-271022.

[50] Reuters, “PLA researcher says U.S aims to encircle China,” November 28, 2011, https://www.reuters.com/article/us-china-usa-pla-idUSTRE7AR07Q20111128.

[51] Ministry of Defence (GoI), Annual Defence Report 2009-10, 2010, https://www.mod.gov.in/sites/default/files/AR910.pdf

[52] Ministry of Defence, (GoI), Annual Defence Report 2011-12, 2012, https://www.mod.gov.in/sites/default/files/AR1112.pdf

[53] Joshi, Understanding India-China Border

[54] Lin Minwang, “What can India offer to turn the US into a pawn?,” The Global Times, December 24, 2020, https://www.globaltimes.cn/content/1210926.shtml.

[55] Lin Minwang, “What can India offer to turn the US into a pawn?”

[56] The Diplomat, Where Does the China-India Border Dispute Stand?, YouTube Video, 1:29:46, September 8, 2021, https://thediplomat.com/2021/09/where-does-the-china-india-border-dispute-stand/.

[57] Manoj Joshi, Eastern Ladakh: The Longer Perspective, ORF Occasional Paper No. 319, June 14, 2021, Observer Research Foundation, https://www.orfonline.org/research/eastern-ladakh-the-longer-perspective/.

[58] Wang Jisi and Kenneth G. Lieberthal, Addressing U.S.-China Strategic Distrust (Washington, D.C.: Brookings Institution, 2012), pp. 1-49.

[59] Chinese Ambassador Sun Yuxi in an interview to CNNIBN in New Delhi on November 13, 2006 stated that ‘In our position, the whole of the state of Arunachal Pradesh is Chinese territory. And Tawang is only one of the places in it. We are claiming all of that. That is our position.’ China Daily, “India, China in spat over border dispute,”, November14, 2006, https://www.chinadaily.com.cn/china/2006-11/14/content_733133.htm.

[60] Ministry of External Affairs, Government of India, Agreement between the Government of the Republic of India and the Government of the People’s Republic of China on the Political Parameters and Guiding Principles for the Settlement of the lndia-China Boundary Question, 11 April 2005

[61] Although there exists no government data on the number of Chinese transgressions in the year 2007, this figure is based on figures reported in a media source and a book. See,  Saurabh Shukla, Creeping Aggression, India Today, October 15, 2007, https://www.indiatoday.in/magazine/international/story/20071015-creeping-aggression-734302-2007-10-09 (incursion 2006-07); Srikanth Kondapalli, “Fence Sitting, Prolonged Talks: The India-China Boundary Dispute”, in India and China in the Emerging Dynamics of East Asia. Springer, ed. Naidu, G. V. C., Mumin Chen, and Raviprasad Narayanan, (Springer, 2014) 103. Around 270 incidents of Chinese transgressions were reported in the year 2008. See, Indrani Bagchi, “Chinese incursions into Indian Territory rose sharply in 2008,” The Times of India, June 9, 2009, https://timesofindia.indiatimes.com/india/chinese-incursions-into-indian-territory-rose-sharply-in-2008/articleshow/4632640.cms (incursion in 2008 and 2009).

[62] The Economic Times, “Now, PLA decides on road construction in Ladakh”, December 1, 2009, https://m.economictimes.com/news/politics-and-nation/now-pla-decides-on-road-construction-in-ladakh/articleshow/5286307.cms

[63] India Today, “Chinese troops had dismantled bunkers on Indian side of LoAC in August 2011,” April 25, 2013, https://www.indiatoday.in/india/north/story/chinese-troops-had-dismantled-bunkers-on-indian-side-of-line-of-actual-control-in-august-2011-160035-2013-04-24

[64] Saurabh Shukla, “Growing intrusion by the Chinese army on the LAC has set the alarm bells ringing in South Block. Can the Indian Army maintain restrain?,” India Today, October 17, 2012, https://www.indiatoday.in/india/north/story/sino-indian-border-dispute-chinese-army-intrusions-118767-2012-10-16

[65]  Sandeep Dixit, “China ends stand-off, pulls out troops from Daulat Beg Oldi sector,” The Hindu, May 5, 2013, https://www.thehindu.com/news/national/china-ends-standoff-pulls-out-troops-from-daulat-beg-oldi-sector/article4686606.ece

[66]  Shiv Aroor, “Chinese Army has occupied 640 square km in three Ladakh sectors, says report,” India Today, December 15, 2013, https://www.indiatoday.in/india/north/story/chinese-army-occupied-640-square-km-three-ladakh-sectors-report-209992-2013-09-04

[67] India Today, “China pitches seven tents in Chumar, stand-off continues,” September 21, 2014.; The Economic Times, “India, China hold flag meet on Chumar incursion,” September 25, 2014.; Rajat Pandit, “India, China set to end 16-day Chumar stand-off by Saturday,” Times of India, September 26, 2014.;

[68] Manoj Joshi, “Eastern Ladakh: The Longer Perspective

[69]  According to the data provided by the Ministry of Defence in the Parliament, the number of transgressions that took place along the LAC in successive years stood at 228 (2010), 213 (2011), 426 (2012), 411 (2013), 273 (2016), 426 (2017), 326 (2018). For the year 2014, the data provided by the Ministry was available only till 04 Aug of that year and stood at 334. For the year 2015, data was not available. For reference, see Ministry of Home Affairs, Government of India, in reply to Rajya Sabha Unstarred Question no. 3776: Intrusion of Chinese Army into Indian Territory, August 13, 2014,

https://www.mha.gov.in/MHA1/Par2017/pdfs/par2014-pdfs/rs-130814/RS%203776.pdf; Ministry of Defence, Government of India, in reply to Lok Sabha Unstarred Question no. 1577, November 27, 2019,

http://164.100.24.220/loksabhaquestions/annex/172/AU1577.pdf; In 2019, the transgressions reported were close to 600. See, Dinakar Peri, “Chinese transgressions testing India, say officials,” The Hindu, October 3, 2021, https://www.thehindu.com/news/national/chinese-transgressions-testing-india-say-officials/article36808989.ece

[70]  Mihir Bhonsale, “Understanding Sino-Indian border issues: An analysis of incidents reported in the Indian media,” ORF Occasional Paper, Vol. 143, February 2018, https://www.orfonline.org/research/understanding-sino-indian-border-issues-an-analysis-of-incidents-reported-in-the-indian-media/

[71]  Ministry of Defence (GOI), India and the United States Sign the Logistics Exchange Memorandum of Agreement (LEMOA), Press Trust of India, August 30, 2016, https://archive.pib.gov.in/newsite/PrintRelease.aspx?relid=149322

[72] US Department of Defense, Joint India-United States Statement on the Visit of Secretary of Defense Carter to India, December 8, 2016.; https://www.state.gov/u-s-security-cooperation-with-india/#:~:text=In%202016%2C%20the%20United%20States,as%20a%20Major%20Defense%20Partner.

[73] US Department of Defence, US Security Cooperation with India, January 20, 2021, https://www.state.gov/u-s-security-cooperation-with-india/#:~:text=In%202016%2C%20the%20United%20States,as%20a%20Major%20Defense%20Partner

[74] Press Information Bureau, Text of Raksha Mantri Shri Rajnath Singh Statement in Rajya Sabha on September 17, September 17, 2020https://www.pib.gov.in/PressReleseDetailm.aspx?PRID=1655521The Kalxon, “Major drowning” of Chinese soldiers in India skirmish: new claims,” February 2, 2022, https://theklaxon.com.au/home-china-india-clash-death-58xj7/

[75] Suhasini Haider, Ananth Krishnan and Dinakar Peri, “Indian Army says 20 soldiers killed in clash with Chinese troops in the Galwan area,” The Hindu, June 16, 2020, https://www.thehindu.com/news/national/indian-army-says-20-soldiers-killed-in-clash-with-chinese-troops-in-the-galwan-area/article61668218.ece; Government of India, Joint Press Release of the 10th Round of China-India Corps Commander Level Meeting, Press Information Bureau, February 21, 2021, https://www.pib.gov.in/PressReleseDetailm.aspx?PRID=1699803; Government of India, Joint Press Release of the 9th Round of India-China Military Commander-Level Meeting, Press Information Bureau, January 25, 2021, https://pib.gov.in/PressReleseDetailm.aspx?PRID=1692266; Government of India, Joint Statement, Press Information Bureau, September 8 2022, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1857830; Government of India, Press Release: Disengagement at PP 17A, Press Information Bureau, August 6, 2021, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1743220.

[76] The Hindu, “India and China to keep dialogue channels open,” December 22, 2022, https://www.thehindu.com/news/national/india-china-agree-to-continue-dialogue-in-17th-round-of-military talks/article66292310.ece#:~:text=Latest%20News&text=While%20India%20maintains%20that%20friction,friction%20points%20in%20the%20area.

[77] Vijayata Singh and Dinakar Peri, “Indian, Chinese soldiers injured in clash near Arunachal border,” The Hindu, June 16, 2020, https://www.thehindu.com/news/national/several-army-soldiers-injured-in-clashes-with-chinese-pla-on-dec-9-first-incident-of-its-kind-after-galwan/article66254984.ece

[78] Fei Xue, “India-US drill near LAC exposes US’ belligerence,” Global Times, December 4, 2022, https://www.globaltimes.cn/page/202212/1281064.shtml

[79]  Liu Zongyi, “To improve China-India relations, the ball is in India’s court,” Global Times, December 5, 2022, https://www.globaltimes.cn/page/202206/1267283.shtml

[80]  Gokhale, “A Historical Evaluation of China’s India Policy”

[81] Lin Minwang, “What can India offer to turn the US into a ‘pawn’?, The Global Times, December 24, 2020.

[82] Amrita Nayak Dutta, “Army plans to keep 2 strike corps for mountains facing China amid Ladakh crisis,” The Print, January 6, 2021.

[83] Vijayta Singh and Dinakar Peri, “Indian, Chinese soldiers injured in clash near Arunachal border,” The Hindu, December 12, 2022.

[84] Snehesh Alex Philip, “India changes rules of engagement at LAC after Galwan Valley clash,” The Print, June 20, 2020.; Hindustan Times, “‘No restrictions on using firearms’: India gives soldiers freedom along LAC in extraordinary times,” January 20, 2020.

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