Author : Harsh V. Pant

Published on Dec 17, 2022 Updated 0 Hours ago

पश्चिम एशिया में दशकों से अमेरिका ही सबसे बड़ी शक्ति के रूप में मौजूद रहा है. फिर यह मोड़ आया कैसे, आइए समझते हैं.

पश्चिम एशिया में चीन ने शुरू किया नया खेल
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यह ग्लोबल ऑर्डर में बड़े बदलावों का साल रहा है. यूक्रेन वॉर के बाद दुनिया की बड़ी शक्तियों में पोलराइजेशन बढ़ा. अमेरिका और चीन के मुकाबले ने भी इस साल नया रूप लिया. हमने देखा कि चीन को लेकर अमेरिका किस तरह से सीरियस हुआ है. बाइडन सरकार ने अपनी आर्थिक नीतियों को बदला है. सेमिकंडक्टर्स और आधुनिक तकनीक चीन तक ना पहुंचे, उसके लिए कानून बनाए हैं. दूसरी ओर साल के आखिर में चीन की विदेश नीति तब एक नया मोड़ लेती दिखी, जब शी जिनपिंग ने पश्चिम एशिया (मिडल ईस्ट) का दौरा किया.

हमने देखा कि चीन को लेकर अमेरिका किस तरह से सीरियस हुआ है. बाइडन सरकार ने अपनी आर्थिक नीतियों को बदला है. सेमिकंडक्टर्स और आधुनिक तकनीक चीन तक ना पहुंचे, उसके लिए कानून बनाए हैं.

कैसे आया मोड़


पश्चिम एशिया में दशकों से अमेरिका ही सबसे बड़ी शक्ति के रूप में मौजूद रहा है. फिर यह मोड़ आया कैसे, आइए समझते हैं.

  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका पश्चिम एशियाई देशों के सबसे इंपॉर्टेंट सिक्यॉरिटी गारंटर के रूप में रहा है. खासकर सऊदी अरब ने अमेरिका के साथ सुरक्षा को लेकर संबंध बनाया तो अमेरिका की सुरक्षा नीति में भी सऊदी अरब और उसकी ऑयल एंड एनर्जी इंडस्ट्री का प्रमुख स्थान बना रहा.
  • अब सऊदी अरब की विदेश नीति थोड़ी बदलती नजर आ रही है. वहां के क्राउन प्रिंस मोहम्‍मद बिन सलमान और अमेरिका के बीच तनाव बढ़ता ही रहा है.
  • अपने चुनावी कैंपेन में खुद बाइडन ने क्राउन प्रिंस की बहुत आलोचना की थी. इस साल बाइडन की सऊदी अरब यात्रा भी बहुत सफल नहीं रही. सऊदी अरब के साथ मतभेदों को पूरी तरह सुलझाने में अमेरिका को अभी तक सफलता नहीं मिली है.

घटता अमेरिकी दबदबा


इसीलिए चीन की नई पहल बेहद अहम है. हिंद-प्रशांत में चीन काफी अलग-थलग पड़ गया है. पश्चिमी देशों के साथ भी चीन के संबंध इस समय बहुत सार्थक नहीं दिख रहे. ऐसे में चीन के राष्ट्रपति का पश्चिम एशिया जाना संकेत दे रहा है कि वह वहां अमेरिका को चुनौती देने के लिए तैयार हैं. हालांकि सऊदी अरब और चीन के संबंध काफी सालों से धीरे-धीरे बढ़ रहे थे, लेकिन शी की हालिया यात्रा ने उसे एक तरह से अंतिम रूप दे दिया. इस रिश्ते के अभी के मोड़ तक पहुंचने की और भी इसकी कई वजहें हैं.

पश्चिमी देशों के साथ भी चीन के संबंध इस समय बहुत सार्थक नहीं दिख रहे. ऐसे में चीन के राष्ट्रपति का पश्चिम एशिया जाना संकेत दे रहा है कि वह वहां अमेरिका को चुनौती देने के लिए तैयार हैं.

  • इसमें सऊदी अरब की ओर से सबसे बड़ा कारण है यह है कि क्राउन प्रिंस मोहम्‍मद बिन सलमान अपने देश को डायवर्सिफाई करना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि अगले कुछ दशकों में दुनिया की कच्चे तेल और गैस पर उतनी अधिक निर्भरता नहीं रह जाएगी. इसलिए जियो पॉलिटिक्स में बड़ा बदलाव आएगा.
  • अमेरिका खुद ही एक बहुत बड़ा एनर्जी एक्सपोर्टर बनता जा रहा है, तो उसकी पश्चिम एशिया और सऊदी अरब पर निर्भरता कम होती जाएगी. इसीलिए अमेरिका के इस क्षेत्र में जो हित हैं, वे उतने प्रबल नहीं रहेंगे, जितने पिछले कई दशकों से रहे हैं.
  • वहीं सऊदी अरब खुद को मॉडर्नाइज करने की कोशिश कर रहा है. वहां पर सर्विस सेक्टर को डिवेलप करने की कोशिश है. उन्होंने महिलाओं को भी थोड़े-बहुत राइट्स दिए हैं ताकि वे भी कुछ लिमिट के अंदर वर्कफोर्स में आ सकती हैं, सोशियो-इकॉनमिक एक्टिविटी में हिस्सा ले सकती हैं.
  • दुबई या अबू धाबी से कंपीट करने के लिए नियोम जैसे कई शहर बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे मॉडर्न शहर, जहां पर तकनीक हो, नई इंडस्ट्री आ पाएं.
  • ऐसे में सऊदी अरब को लग रहा है कि उसे अमेरिका से हटकर दूसरे देशों की तरफ, खासकर उन देशों की तरफ जिनके पास कैपिटल है, जाना पड़ेगा. चूंकि चीन एक बड़ी आर्थिक शक्ति है, तो स्वाभाविक ही सऊदी अरब उसके साथ संबंध बढ़ा रहा है.
  • समिट के दौरान शी चिनफिंग ने कहा कि चीन ऑयल इंपोर्ट करता रहेगा और नैचरल गैस इंपोर्ट भी बढ़ाएगा. इस तरह से चीन ने खाड़ी के देशों और सऊदी अरब को यह आश्वासन दिया है कि वह लॉन्ग टर्म स्ट्रैटिजी के तहत उनके साथ अपना व्यापार खासकर एनर्जी ट्रेड बढ़ाता रहेगा और इन्वेस्ट भी करेगा. सऊदी अरब की ऑयल कंपनी अरामको चीनी कंपनियों के साथ कोलैबरेट कर रही है. चीन ने भी इस साल सऊदी अरब की इस कंपनी में बहुत बड़ा इन्वेस्टमेंट किया है.
  • दोनों ही देश चाहते हैं कि अंदरूनी मामलों में कोई हस्तक्षेप न करे. अमेरिका की दखलंदाजी दोनों को पसंद नहीं है. इसके चलते हम सऊदी अरब और चीन में एक पॉलिटिकल कन्वर्जन भी देख रहे हैं.

हालांकि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि पश्चिम एशिया में अमेरिका का असर कम होगा, क्योंकि उसके अभी भी यूएई, सऊदी अरब और इस्राइल के साथ गहरे संबंध हैं. सिक्यॉरिटी इश्यूज में भी उनकी अमेरिका के ऊपर बहुत ज्यादा निर्भरता है. लेकिन चीन ने इस विजिट के बाद एक बार फिर बता दिया है कि अमेरिका को चैलेंज करने के लिए वह पश्चिम एशिया में तैयार खड़ा है.

भारत के लिए अच्छी बात यह है कि अमेरिका के साथ उसके अच्छे संबंध हैं. पश्चिम एशिया में जो बदलाव हो रहे हैं, उससे भी वह जुड़ा हुआ है.

भारत क्या करें

 

चीन का यह कदम भारत के लिए भी बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि पिछले कुछ सालों से पश्चिम एशिया के देशों के साथ भारत के संबंध व्यापक हुए हैं. हमने देखा कि जब कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाया गया तो सऊदी अरब या यूएई की ओर से कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई. दोनों ही देश भारत के साथ बहुत ही कोऑपरेटिव तरीके से आगे बढ़ रहे हैं. सऊदी अरब भारत में भी निवेश कर रहा है. भारत भी खाड़ी देशों से काफी तेल और गैस खरीदता है. भारत के लिए अच्छी बात यह है कि अमेरिका के साथ उसके अच्छे संबंध हैं. पश्चिम एशिया में जो बदलाव हो रहे हैं, उससे भी वह जुड़ा हुआ है. वह इस्राइल, यूएई और यूएस के I2U2  प्लैटफॉर्म में है. भारत का रोल पश्चिम एशिया में बढ़ता जा रहा है, लेकिन अगर चीन का प्रभाव ऐसे ही वहां बढ़ता रहा तो भारत की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.

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