प्रस्तावना
पाकिस्तान हाल के वर्षों में कई विपरीत हालातों से जूझता रहा है. पाकिस्तान में लोकतंत्र की हालत ख़राब है और सरकार में सेना का दबदबा बढ़ता जा रहा है. इसके साथ ही पाकिस्तान के अपने पड़ोसियों के साथ संबंध तनावपूर्ण बने हुए हैं, इसके अलावा अमेरिका और चीन की बढ़ती होड़ के बीच पाकिस्तान बुरी तरह से पिस रहा है.[1] जिस प्रकार से पाकिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है और उसकी अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है, उसमें देश की सरकार स्थिरता और सहयोग के लिए सत्ता को अपने कब्ज़े में लेने के लिए बेचैन सेना की बैसाखियों पर टिकी हुई है.[2] पाकिस्तान में वर्ष 2022 से ही ज़बरदस्त राजनीतिक घमासान मचा हुआ है और यह कहीं न कहीं दिखाता है कि देश की राजनीति में फ़ौज का दख़ल कितना अधिक है. ज़ाहिर है कि सेना की सत्ता में दख़लंदाज़ी की वजह से ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को सेना से ख़राब होते रिश्तों के कारण आख़िरकार सत्ता से बेदख़ल होना पड़ा और यही इमरान के जेल जाने की भी वजह भी बना.[3] विरोधियों के मुताबिक़ सेना के सहयोग से ही इमरान ख़ान को वर्ष 2018 में देश की सत्ता मिली थी, लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान इमरान ख़ान की शीर्ष सैन्य जनरलों की नियुक्तियों और तमाम नीतिगत निर्णयों को लेकर सेना के साथ खुलेआम खींचतान एवं उनकी सरकार के लचर राजनीतिक और आर्थिक प्रबंधन को लेकर सैन्य अफ़सरों से हुई तकरार के चलते उन्हें सत्ता से बेदख़ल होना पड़ा.[4]
इसी साल फरवरी में पाकिस्तान में संपन्न हुए आम चुनावों में भी दिखाई दिया कि देश की घरेलू राजनीति में पाक आर्मी की किस कदर दिलचस्पी है. चुनाव के बाद नतीज़ों के ऐलान को लेकर जिस प्रकार भ्रम की स्थिति बनी और अराजकतापूर्ण माहौल पैदा हुआ, उसने चुनावों के दौरान वोटिंग में और वोटों की गिनती में धांधली के आरोपों को मज़बूती देने का काम किया.[5] पाकिस्तान के चुनावी नतीज़ों पर गहनता से नज़र डालें तो पता चलता है कि चुनावों में सोची समझी रणनीति के तहत गड़बड़ी फैलाई गई, साथ ही यह भी पता चलता है कि इसमें कहीं न कहीं सेना का हाथ है.[6] देश में इमरान ख़ान की राजनीतिक पार्टी यानी पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ (PTI) की ज़बरदस्त लोकप्रियता के बावज़ूद, सेना ने ऐसी रणनीतिक साजिश रची कि पीटीआई को दो-तिहाई बहुमत हासिल करने से रोक दिया गया. इसके अलावा, पाकिस्तान की सेना ने अपनी ख़ास रणनीति के तहत पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को दरकिनार कर उनके भाई और पूर्व पीएम एवं पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (PML-N) के नेता शाहबाज़ शरीफ को तरजीह दी. ज़ाहिर है कि पीएमएल-एन पूर्व में जब सत्ता में थी तो उसने इमरान ख़ान से भी ज़्यादा पाकिस्तानी सेना को चुनौती दी थी. ऐसे में जो सामने दिखाई दे रहा है, उसके मुताबिक पाकिस्तान सेना नवाज़ शरीफ के प्रमुख सहयोगियों को रणनीतिक रूप से कमज़ोर करके और राज्यों की सरकारों में अपने समर्थक राजनीतिक दलों को सत्ता सौंपकर देश में ऐसा वातावरण बनाएगी, जिससे लगे की वहां लोकतांत्रिक तरीक़े से सरकारें चल रही हैं और इस प्रकार से सेना देश की राजनीति पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखेगी. पाकिस्तानी फ़ौज का यह रणनीतिक दख़ल न केवल देश की घरेलू राजनीति के पेचीदा हालातों को अपने मुताबिक़ ढालने में उसकी काबिलियत को प्रकट करता है, बल्कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में लगातर क़ायम उसके दबदबे को भी सुनिश्चित करता है.
पाकिस्तान में ताक़तवर सेना का जिस प्रकार से हर महत्वपूर्ण मुद्दे में दख़ल है और हर स्तर पर उसका दबदबा है, उसकी वजह से पाकिस्तान को एक निरंकुश और तानाशाह राष्ट्र माना जाता है. ज़ाहिर है कि पाक सेना ही देश की राजनीतिक दिशा और दशा को तय करती है और कहा जा सकता है कि वहां की राजनीति को भी संचालित करती है.[7] ज़ाहिर है कि मार्डनाइजेशन थ्योरी यानी आधुनिकीकरण का सिद्धांत[A],[8] और डिपेंडेंसी थ्योरी यानी ग़रीब देशों के अमीर देशों पर निर्भर रहने के सिद्धांत[B],[9] के ज़रिए दुनियाभर के देशों में आर्थिक-सामाजिक विकास में आने वाली कमी और बढ़ते अधिनायकवाद को समझने में मदद मिलती है. आधुनिकीकरण सिद्धांत बताता है कि पाकिस्तान के विकास के मामले में पिछड़ने के पीछे कहीं न कहीं उसकी पारंपरिक मूल्यों को नहीं छोड़ना, बदलाव का विरोध करना और शिक्षा के मोर्चे पर समय के मुताबिक़ प्रगति नहीं करने जैसी बातें ज़िम्मेदार हैं. आ6धुनिकीकरण के सिद्धांत में समाज या देश के आधुनिक होने के साथ-साथ लोकतंत्र में उसका भरोसा बढ़ने की बात भी अनिवार्य होती है. लेकिन पाकिस्तान में कई बार सैन्य तख़्तापलट हो चुका है और सेना देश की बागड़ोर संभाल चुकी है. यही वजह है कि वहां लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति विश्वास गहराई से जम नहीं पाया, जैसा कि आधुनिकीकरण के सिद्धांत में उम्मीद की जाती है. दूसरी तरफ, निर्भरता के सिद्धांत के मुताबिक़ पाकिस्तान एक अविकसित देश है, यानी वहां बहुत अधिक विकास नहीं हुआ है और इस वजह से आर्थिक रूप से संपन्न राष्ट्रों पर निर्भरता उसकी मज़बूरी बनी हुई है. आर्थिक संकट के दौरान पाकिस्तान ने अक्सर विदेशी मदद मांगी है. दूसरे देशों पर इस निर्भरता के कारण ही ऐसे देशों के साथ पाकिस्तान के संबंधों में असंतुलन पैदा हुआ है और इसके चलते अपने मन मुताबिक़ आर्थिक नीतियां बनाने और नीतिगत क़दम उठाने के मामले में पाकिस्तान के हाथ बंध से गए हैं. दूसरे देशों पर आर्थिक निर्भरता से पाकिस्तान की आर्थिक चुनौतियों में इज़ाफा हुआ, लेकिन देश में इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकारी कामकाज और नीति निर्माण में सैन्य दख़लंदाज़ी को मज़बूत विकल्प के तौर पर देखा गया. इतना ही नहीं इस सैन्य हस्तक्षेप को देश के हालातों पर नियंत्रण और देश में स्थिरता बनाए रखने के उपायों के तौर पर उचित ठहराया गया. पाकिस्तान की दूसरे देशों पर निर्भरता और अलोकतांत्रिक या तानाशाही वाले शासन के बीच का यह संबंध कहीं न कहीं एक पैटर्न को सामने लाता है. इसके मुताबिक़ अगर आर्थिक चुनौतियों का डटकर मुक़ाबला करना है तो इसके लिए देश में स्थिरता की ज़रूरत है और स्थिरता के लिए सैन्य शासन या फिर सेना के नियंत्रण वाली सरकार का होना आवश्यक है. यही वजह है कि पाकिस्तान के साहित्य, पाठ्यपुस्तकों, उर्दू मीडिया और समाचार माध्यमों के ज़रिए सैन्य जनरलों को बहादुरी की मिसाल एवं इस्लाम के सच्चे प्रतिनिधि के तौर पर पेश किया जाता है.[10]
सेना से जुड़े इन नैरेटिव्स (या सुरक्षा बलों से जुड़ी बातों, जैसे कि ईरान की नैतिकता पुलिस) और इस्लामिक मूल्यों का एक दूसरे से मेल-मिलाप देखा जाए तो राजनीतिक और सामाजिक विचार-विमर्श का एकदम अलग आयाम है. ज़ाहिर है कि ऐसे ही विमर्श ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भू-राजनीतिक प्रभावों को प्रकट करते हैं और जो एक इस्लामिक फ्रेमवर्क के अंदर सेना की अगुवाई वाली सरकार या देश में सैन्य जनरलों के नेतृत्व के विचार को मज़बूती देते हैं.[C] मुस्लिम देशों में इसी तरह के विचारों और सैन्य अफसरों के महिमामंडन ने देखा जाए तो सैन्य तख़्तापलट की घटनाओं को आसान बना दिया है. कहने का मतलब है कि इन्हीं सब बातों में मुस्लिम देशों में सैन्य जनरलों को अपने व्यक्तिगत एवं संस्थागत हितों को पूरा करने के लिए लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकारों को उखाड़ फेंकने का आत्मविश्वास दिया है और उन्हें ऐसा करने के दौरान जनता के ज़्यादा विरोध का भी सामना नहीं करना पड़ता है.[11] पाकिस्तान में सेना को लेकर तमाम राजनीतिक दलों का नज़रिया अलग है, क्योंकि वहां की सरकारों द्वारा अक्सर सेना और उसके अफ़सरों को देश का, देश की विचारधारा का और देश के नागरिकों का एकमात्र रक्षक बताया जाता है. सरकारों का यही रवैया देखा जाए तो पाकिस्तान में सैन्य तख़्तापलट को क़ानूनी जामा पहनाने का काम करता है, यानी वहां इसे किसी बुरी नज़र से नहीं देखा जाता है, बल्कि अच्छी बात मानी जाती है. ब्रिटिश शासन के अधीर रह चुके तमाम दूसरे देशों की तरह ही पाकिस्तान भी कम विकसित राष्ट्र है[12]. यानी देश का समाज पूरी तरह से विकसित नहीं है.[D],[13] इसीलिए, पाकिस्तान में सेना राजनीतिक दलों, चुनावों और संविधान-निर्माण सहित लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के आगे बढ़ने और इनके सशक्तिकरण में अड़चनें पैदा करती है. हालांकि, ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान में समय-समय पर सैन्य शासन और सरकार में सेना के बढ़ते दख़ल के लिए वहां के प्रशासनिक ढांचे में नौकरशाहों के हाथों में असीम और केंद्रीकृत ताक़त जैसी स्थितियां ही अकेली ज़िम्मेदार हैं. जिस प्रकार से पाकिस्तानी जनमानस में सेना को उनके रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया गया है और सैन्य अफ़सरों को इस्लाम की हिफ़ाजत करने वाला समझा जाता है, यह भी कहीं न कहीं वहां फ़ौज की लोकप्रियता की बड़ी वजह बनता है. सेना के बारे में फैलाया गया यह नैरेटिव पाकिस्तान में सैन्य जनरलों को अपना राजनीतिक दबदबा क़ायम रखने का हौसला प्रदान करता है और जिसे देश की अवाम का भरपूर समर्थन भी मिलता है.
इस इश्यू ब्रीफ में ऐतिहासिक, सामाजिक और भू-राजनीतिक कारणों के विस्तृत आकलन के ज़रिए पाकिस्तान में सेना और सैन्य जनरलों के लगातार बढ़ते दबदबे एवं उनके राजनीतिक प्रभाव की पड़ताल की गई है. ज़ाहिर है कि इन्हीं ऐतिहासिक, सामाजिक और भू-राजनीतिक कारकों की वजह से पाकिस्तान की सरकार और वहां की शासन प्रणाली में सेना का व्यापक दख़ल बढ़ा है.
पाकिस्तान की रणनीतिक संस्कृति और राजनीतिक प्रणाली पर एक नज़र
स्ट्रैटेजिक कल्चर यानी रणनीतिक संस्कृति किसी देश में सत्ता पर काबिज ताक़तवर लोगों के विश्वासों, मानदंडों, मूल्यों और ऐतिहासिक अनुभवों का व्यापक समूह है, जो न सिर्फ़ सुरक्षा से जुड़े मसलों पर उनके विचारों को प्रकट करता है, बल्कि विस्तृत समझ-बूझ प्रदान करके नीतियां बनाने के लिए मार्गदर्शन भी करता है. ज़ाहिर है कि इन्हीं विचारों और समझ-बूझ की बदौलत नीति निर्माता या सत्तासीन राजनेता दूसरे देशों की तरफ से पैदा होने वाली सुरक्षा चुनौतियों का आकलन करते हैं और उसके मुताबिक़ फैसले लेते हैं.[14] यह रणनीतिक संस्कृति ही है, जिसके अंतर्गत “अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक मामलों यानी दूसरे देशों के साथ राजनीतिक संबंधों में सैन्य बल की भूमिका और प्रभावशीलता के सिद्धांतों को तैयार करके अपने देश के लिए व्यापक एवं दीर्घकालिक रणनीतिक प्राथमिकताओं को मुकम्मल स्वरूप प्रदान किया जाता है. इसके साथ ही इन्हें सच्चाई का ऐसा आवरण पहनाया जाता है, जिससे रणनीतिक प्राथमिकताएं अत्यधिक ज़रूरी और बेहद प्रभावी दिखाई देती हैं.”[15] ब्रिटिश साम्राज्य की समाप्ति के बाद के वर्षों में आज़ाद हुए मुल्कों की दशा और दिशा निर्धारित करने में सेनाओं एवं राजनीतिक शासन के बीच के उलझे हुए रिश्तों ने अहम भूमिका निभाई है.[16] पाकिस्तान इसका एक बेहतरीन उदाहरण है. पाकिस्तान की राजनीति में जिस प्रकार से सेना की ज़बरदस्त दख़लंदाज़ी है, वो न केवल ब्रिटिश शासन से मिली ऐतिहासिक विरासत को प्रकट करती है, बल्कि अपनी पहचान स्थापित करने एवं अपनी स्थिरता सुनिश्चित करने की कोशिश में जुटे एक स्वतंत्र देश के समक्ष खड़ी चुनौतियों और उसकी महत्वाकांक्षाओं को भी दर्शाती है.[17]
ब्रिटिश शासकों द्वारा पूर्व में विरासत में छोड़े गए ये सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव, देखा जाए तो पाकिस्तान की 'रणनीतिक संस्कृति' की एक अहम ख़ासियत हैं और देश की सुरक्षा से संबंधित नीतियों को बनाने में शामिल राजनेताओं एवं सैन्य अफ़सरों पर इसकी छाया साफ तौर पर दिखाई देती है. पाकिस्तानी सेना के जनरलों की सोच और उनके विचार आज़ादी मिलने के कुछ शुरुआती वर्षों के दौरान हुए ऐतिहासिक अनुभवों से प्रभावित दिखाई देते हैं. कहने का मतलब है कि उनके विचारों में आज़ादी के शुरुआती वर्षों के दौरान इस क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर जो माहौल था और जो ख़तरे थे, उनका साफ असर दिखता है. यह ऐतिहासिक अनुभव दुनिया के बारे में उनके व्यापक नज़रिए, राजनीतिक एवं सैन्य घटनाक्रमों को लेकर उनकी सोच, विरोधियों के बारे में उनके दृष्टिकोण और उनके नीतिगत विकल्पों को निर्धारित करता है.[18] यानी कि पाकिस्तान की रणनीतिक संस्कृति को इन बिन्दुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है: “(ए) आज़ादी के शुरूआती वर्षों में भारत के साथ मुश्किल और पेचादी रिश्तों एवं अफ़ग़ानिस्तान की ओर से पैदा हुई तमाम समस्याओं की वजह से पाकिस्तान में ज़बरदस्त असुरक्षा की भावना विकसित हुई. (बी) भारत को लेकर पाकिस्तान में ज़बरदस्त अविश्वास की भावना और भारत-पाक रिश्तों में कड़वाहट, जो कि आज़ादी के पहले हुए टकरावों की वजह से और स्वतंत्रता मिलने के बाद दोनों देशों के बीच जटिल द्विपक्षी रिश्तों के कारण और भी मज़बूत हुई. (सी) दक्षिण एशिया में भारत के दबदबे वाली क्षेत्रीय ताक़त की व्यवस्था को लेकर पाकिस्तान का विरोध. (डी) अपनी विदेश नीति एवं देश के भीतर विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी नीतियों को बनाने में अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने की लगातार कोशिश.[19] (ई) इस्लाम और सामरिक सोच के बीच मज़बूत गठजोड़, जिसकी वजह से इस्लामिक आतंकवाद और विदेश नीति के बीच गहरा रिश्ता क़ायम हुआ.”[20]
पाकिस्तानी सेना अपने संगठनात्मक ढांचे में इस्लामी सिद्धांतों को ख़ासा तवज्जो देती है. पाक आर्मी के प्रशिक्षण, अनुशासन और जवानों एवं अफ़सरों की नौकरी के दौरान इस्लामिक मूल्यों को विशेष रूप से प्रमुखता दी जाती है. सेना के शिक्षा और प्रशिक्षण से संबंधित कार्यक्रमों में इस्लामी तालीम, इस्लाम से संबंधित इतिहास (ख़ास तौर पर अहम इस्लामिक युद्धों) के जाने-माने मुस्लिम कमांडरों को शामिल किया जाता है. चाहे शांति के दौरान सैन्य कर्मियों की तैनाती हो, या फिर युद्ध के दौरान, दोनों ही अवसरों पर शहीद, गाज़ी (विजेता), और जिहाद-ए-फि-सिबिल्लाह (अल्लाह के नाम पर पाक युद्ध) जैसे प्रमुख इस्लामी सिद्धांत पाक आर्मी के लिए प्रेरणा के प्रमुख स्रोत होते हैं.[21] पाकिस्तान का गठन ही इस्लाम धर्म के नाम पर हुआ है और इसके मद्देनज़र पाकिस्तान की रक्षा, वो भी ख़ास तौर पर भारत से देश की सुरक्षा को कहीं न कहीं इस्लाम की रक्षा के साथ जोड़ा जाता है और ऐसा वहां के राजनेताओं द्वारा और सैन्य जनरलों दोनों के द्वारा किया जाता है. चाहे 1965 का युद्ध हो या फिर 1971 की जंग, दोनों में ही पाकिस्तान के नेताओं और सैन्य जनरलों द्वारा सैनिकों का मनोबल बढ़ाने और उनमें जोश भरने के लिए इन्हीं हथकंडों को अपनाया गया था और इस्लाम धर्म के नाम पर उन्हें एकजुट करने का प्रयास किया गया था.[22]
पाकिस्तान की सेना में 1970 के दशक से इस्लामिक कट्टरपंथ का बोलबाल हो गया था. दरअसल यह वो दौर था, जब पाक आर्मी में मध्यम और निम्म-मध्यम वर्ग की पृष्ठभूमि से आने वाले अधिकारियों की संख्या बढ़ गई थी, ज़ाहिर है कि इनमें से कई ऐसे अफ़सर थे जो इस्लाम धर्म की मान्यताओं और सिद्धांतों को लेकर बेहद संजीदा थे. ऐसी ही कई और वजहें थीं, जिनके चलते 1980 के दशक में पाकिस्तानी सेना में इस्लामी कट्टरवाद तेज़ी से बढ़ने लगा. ज़ाहिर है कि 1977 से 1988 के बीच जब जनरल ज़िया-उल-हक़ पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे, उस दौरान पाक सेना में इस्लामिक मान्यताओं और कट्टर विचारधारा ने ख़ासा जोर पकड़ा था. जनरल ज़िया-उल-हक़ के सैन्य शासन में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए न सिर्फ़ कट्टरपंथी इस्लामिक विचारों को बढ़ावा दिया गया, बल्कि चरमपंथी इस्लामिक गुटों को लामबंद किया गया, ताकि उनके शासन को मज़बूती मिल सके. ज़िया शासन द्वारा इस तरह की बातों को बढ़ावा देना 1970 और 1980 के दशक में भर्ती किए गए सैन्य अधिकारियों के कट्टर इस्लामिक विचार के अनुकूल था. ज़िया शासन के दौरान ही पाकिस्तानी आर्मी में अफ़सरों और सैनिकों को न केवल अपने धार्मिक विचारों को खुलकर प्रकट करने की छूट प्रदान की गई, बल्कि उसे प्रोत्साहित भी किया गया. इसके साथ ही कुछ चरमपंथी धार्मिक गुटों को सेना के भीतर अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराने की भी मंजूरी दी गई.[23]
इतना ही नहीं, अफ़ग़ान टकराव (1979-1989) ने पाकिस्तानी फौजियों में इस्लामिक कट्टरपंथ को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई.[24] उस दौरान पाक आर्मी के कई जवानों और अफ़सरों ने अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेनाओं के विरुद्ध जंग लड़ रहे इस्लामी गुटों और अफ़गान विरोधी गुटों का बढ़चढ़ कर सहयोग किया था. अफ़ग़ानिस्तान में हुई इस लड़ाई में पाक सेना के बड़े वर्ग को, ख़ास तौर पर सेना में इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) से जुड़े लोगों का यह मानना था कि अफ़ग़ानिस्तान में जो भी सबक सीखने को मिले हैं उन्हें अन्य जगहों पर भी आजमाया जा सकता है. इतना ही नहीं इन लोगों का यह भी मानना था कि जहां भी मुसलमानों पर गैर-मुस्लिम लोगों का वर्चस्व बना हुआ है, वहां उनका सामना करने के लिए ये अनुभव बेहद कारगर हैं.[25]
निसंदेह तौर पर पाकिस्तान की रणनीतिक संस्कृति ने उसकी सुरक्षा और विदेश नीति को काफ़ी प्रभावित किया है.[26] पाकिस्तान की इस रणनीतिक संस्कृति के प्रमुख आयामों पर नज़र डालें तो इसमें दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन एक देश के पक्ष में नहीं, बल्कि कई देशों के बीच ताक़त का बंटवारा करने की पैरोकारी करना, दूसरे देशों से पैदा होने वाली सुरक्षा चिंताओं पर विशेष ध्यान देना, संभावित विरोधी देशों पर लगाम कसने के लिए अपनी सैन्य ताक़त में इज़ाफा करना, रक्षा के लिए व्यापक बजट आवंटित करना, दूसरे देशों से हथियारों की ख़रीद-फरोख़्त करना शामिल हैं. इसके अलावा, इन आयामों में क्षेत्र में अपने वर्चस्व को बनाने के लिए अन्य देशों के साथ, विशेष रूप से अमेरिका के साथ कूटनीति रिश्तों को बढ़ावा देना और सहयोग स्थापित करना शामिल है. इस सबके अलावा पाकिस्तान ने अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए तमाम तरह की रणनीतियों को अपनाया है. जैसे कि भारत द्वारा परमाणु परीक्षण करने के बाद पाकिस्तान ने खुद को भी परमाणु ताक़त से संपन्न राष्ट्र घोषित कर दिया. इसके अतिरिक्त, पाकिस्तान ने अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए खुलेआम इस्लामी आतंकवादी समूहों का इस्तेमाल किया. हालांकि, देखा जाए तो पाकिस्तान द्वारा जो भी सामरिक फैसले लिए गए हैं, ऐसा नहीं है कि उनके पीछे सिर्फ़ उसकी रणनीतिक संस्कृति के विभिन्न पहलू हैं. सच्चाई यह है कि पाकिस्तान द्वारा लिए गए रणनीतिक निर्णयों में वास्तविक हालात, पेशेवराना रुख़ और संगठनात्मक ज़रूरत जैसे फैक्टर भी अहम भूमिका निभाते हैं. ज़ाहिर है कि अनेकों अवसरों पर व्यावहारिकता और संगठनात्मक अनिवार्यता ने पाकिस्तानी सेना के नज़रिए और निर्णयों को प्रभावित किया है.[E] कई मौक़ों पर ऐसा भी होता है कि एक फैक्टर दूसरे से टकरा सकता है और ऐसे हालातों में पाकिस्तानी नीति निर्माताओं को मुश्किल विकल्पों को चुनना पड़ता है. सितंबर 2001 में अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों के बाद पाकिस्तान द्वारा जिस तरह से इस्लामी आतंकवादी गुटों का सामना किया गया, उसमें यह सब देखने को मिला था. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि पाकिस्तान ने अपने सामरिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इन आतंकवादी समूहों का इस्तेमाल किया था, लेकिन अमेरिका में आतंकवादी हमले के बाद जब आतंकवाद विरोधी कोशिशों में शामिल होने को लेकर वैश्विक दबाव पड़ा तो पाकिस्तान को उस वक़्त बेहद कठिन रास्तों को चुनने के लिए मज़बूर होना पड़ा था. देखा जाए तो 2001 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने एक प्रकार से न केवल दक्षिण एशिया के देशों के साथ अपने रणनीतिक रिश्तों का नए सिरे से मूल्यांकन किया था, बल्कि मुस्लिम देशों में लोकतंत्र के मुद्दे को भी प्रमुखता में रखा था. हालांकि, अमेरिका के इस रुख से पाकिस्तान को कुछ दिक़्क़त ज़रूर हुई थी, क्योंकि पाकिस्तान अपनी सेना के साथ नज़दीकी रिश्ते रखने वाले कुछ आतंकी समूहों का पक्ष ले रहा था.[27] यह दिखाता है कि पाकिस्तान सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को संभालने के अपने खुद के स्थापित तरीक़ों, यानी आतंकवादी समूहों का इस्तेमाल करने और 2001 के बाद बदलते वैश्विक वातावरण में आतंकवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रीय अपेक्षाओं के साथ तालमेल बिठाने की ज़रूरत के बीच किस प्रकार उलझा हुआ है.[28]
जनरल ज़िया-उल-हक़ के सैन्य शासन के बाद यानी 1980 के दशक के आख़िरी वर्षों के बाद से पाकिस्तान में सैन्य शासन के तौर-तरीक़ों में ज़बरदस्त बदलाव देखने को मिला है. यानी पाकिस्तान की सेना उसके बाद से सीधे सरकार के कामकाज में दख़ल देने के बजाए देश की राजनीतिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से दख़ल देने लगी है.[29] दरअसल, पाकिस्तान की राजनीति में सेना का हस्तक्षेप और उसकी प्रभावी भूमिका कोई नई बात नहीं है, बल्कि इसे अर्से से देखा जा रहा है. हमेशा से ही राजनीतिक दलों के नेताओं में सेना का समर्थन हासिल करने की होड़ लगी रहती है. हालांकि, ऐसा भी देखा गया है कि तमाम राजनेता सैन्य जनरलों का समर्थन प्राप्त करने के साथ-साथ, सेना की आलोचना भी करते हैं. इतना ही नहीं, यह भी देखने में आया है कि कुछ राजनेताओं ने अपने निजी हितों को सुरक्षित रखने के लिए सेना के साथ समझौते किए हैं, लेकिन पाकिस्तान में आम जनता ऐसे नेताओं को माफ़ नहीं करती है. कुल मिलाकर पाकिस्तान में राजनीतिक मसलों में सेना के व्यापक हस्तक्षेप को लेकर जनता में हर स्तर पर असंतोष फैला हुआ है, यह कहीं न कहीं पाकिस्तान की राजनीति के लिए एक बड़ी चुनौती भी है.[30]
पाकिस्तान की राजनीति की बात की जाए, तो यह कई विरोधाभासों से भरी हुई है, या कहा जाए कि इसकी प्रकृति मिलीजुली है. पाकिस्तान में राजनीतिक घटनाक्रमों को निर्धारित करने में सेना ने एक प्रमुख भूमिका निभाई है. कभी ऐसा देखने को मिलता है कि सेना ने सीधे सरकार को अपने नियंत्रण में ले लिया है, यानी सैन्य शासन स्थापित हो गया, और कई बार सेना सामने नहीं आती है, लेकिन पर्दे के पीछे रहकर सरकार को नियंत्रित करती है.[31] पाकिस्तान के नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल यानी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में सेना की यही मिलीजुली भूमिका नज़र आती है. राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में सैन्य अफ़सर और राजनेता, दोनों ही शामिल हैं और देश की महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियों पर मिल बैठकर फैसला लेते हैं. यानी एक लिहाज़ से देश की नीतियों को बनाने में सेना की भूमिका को संस्थागत रूप प्रदान करने का यह बेहतरीन उदाहरण है. इसके अलावा, ख़ुफ़िया एजेंसियों ने, ख़ास तौर पर आईएसआई ने पाकिस्तान की घरेलू राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आईएसआई की भूमिका ने तो नागरिक और सैन्य क्षेत्रों के बीच के अंतर को लगभग मिटा सा दिया है. उदाहरण के तौर पर वर्ष 2018 के आम चुनावों में सेना पर गड़बड़ी करने का आरोप लगाया गया था. उस दौरान सैन्य जनरलों ने देश में राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार और चुनी हुई सरकारों द्वारा गड़बड़ी करने जैसे मुद्दों के कारण चुनावों में अपने दख़ल को सही ठहराया था.[32]
पाकिस्तान में सेना का प्रभाव बहुत व्यापक है और यह सरकारी एवं अर्ध-सरकारी संस्थानों के साथ-साथ निजी सेक्टर, उद्योग, कृषि, शिक्षा, परिवहन और संचार के क्षेत्रों तक फैला हुआ है. पाकिस्तान की सेना देश में प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने के बजाए, परोक्ष रूप से अधिपत्य स्थापित करने की रणनीति अपना रही है. पाक सेना का प्रमुख मकसद अब डिफेंस हाउसिंग सोसाइटियों की संख्या में वृद्धि करके देश के विभिन्न शहरों में अपनी पहुंच का विस्तार करना है. लगता है कि ऐसा करके सेना आर्थिक रूप से लाभ उठाने के लिए अपने कॉर्पोरेट हितों की रक्षा करना चाहती है और उन्हें बढ़ाना चाहती है.[F],[33] गौरतलब है कि पाकिस्तान की 12 प्रतिशत भूमि सेना के पास है, जिसमें से दो-तिहाई ज़मीन वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के कब्ज़े में है.[34]
पाकिस्तानी सेना भारत से कई बार मुंह की खा चुकी है. 1947 और 1965 में, दो बार पाक आर्मी कश्मीर पर कब्ज़ा करने में नाक़ाम साबित हुई है और 1971 में पाक सेना ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान को गंवा दिया था. इसके बावज़ूद, पाकिस्तानी सेना ने खुद को देश का एकमात्र रक्षक और सच्चा देशभक्त बताकर कई सुविधाएं और विशेषाधिकार हासिल किए हुए हैं. हालांकि, हाल के वर्षों में देखने में आया है कि पाकिस्तानी अवाम ने सेना को संविधान के मुताबिक़ प्रदान किए गए अधिकारों के अतिरिक्त मिली शक्तियों, सुविधाओं और विशेषाधिकारों पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है, यहां तक कि इसको लेकर अपना गुस्सा भी ज़ाहिर किया है.[35]
राजनीति में पाकिस्तानी सेना के दख़ल का विश्लेषण
ब्रिटिश शासन की समाप्ति के समय जब भारत का बंटवारा हुआ था और एक नए देश के रूप में पाकिस्तान अस्तित्व में आया था, तब उसकी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सेना को दी गई थी.[36] यही वजह है कि पाकिस्तान ने खुद को एक 'डेवेलपमेंट स्टेट' यानी विकास की ओर अग्रसर राष्ट्र के बजाए एक 'सिक्योरिटी स्टेट' यानी सुरक्षा को सबसे महत्वपूर्ण मानने वाले राष्ट्र के रूप स्थापित किया. कहने का मतलब है कि पाकिस्तान का हर क़दम और नीतिगत फैसला, यहां तक कि ज़्यादातर बजट का आवंटन भी देश की सुरक्षा को मज़बूत करने के लिए किया जाता था. इसके साथ ही पाक सत्ताधीशों का पूरा ध्यान सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों का समाधान तलाशने में लगा रहता था और इसके लिए कई बार तो देश में विकास से जुड़े दूसरे मुद्दों को भी हाशिए पर धकेल दिया जाता था. वास्तविकता यही है कि पाकिस्तान ने अपने बजट का एक बड़ा हिस्सा हमेशा सेना को आवंटित किया है और बजट देते समय अक्सर आर्थिक विकास, शिक्षा, हेल्थकेयर और जन कल्याण जैसे सेक्टरों को नज़रंदाज़ किया है.[37]
आज़ादी मिलने के बाद पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने सबसे पहले अमेरिका से 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सैन्य और वित्तीय सहायता मांगी थी. इस आर्थिक मदद में से आर्मी के लिए 170 मिलियन यूएस डॉलर, वायु सेना के लिए 75 मिलियन अमेरिकी डॉलर, नौसेना के लिए 60 मिलियन अमेरिकी डॉलर और औद्योगिक एवं कृषि विकास के लिए 700-700 मिलियन अमेरिकी डॉलर निर्धारित किए गए थे. पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान ने वर्ष 1950 में अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन से भेंट की थी और उस दौरान उन्होंने वाशिंगटन से इस्लामाबाद के "भू-राजनीतिक महत्व" को तरजीह देने की गुजारिश की थी. निसंदेह तौर पर उस समय अरब सागर क्षेत्र में कथित तौर पर रूस की नज़र थी और पाकिस्तान ने इसी पर चिंता जताते हुए अमेरिका से मदद करने को कहा था. ज़ाहिर है कि अमेरिका का ध्यान खींचने के लिए यह पाकिस्तान की एक सफल रणनीति थी.[38]
पाकिस्तान में सेना द्वारा अपना दबदबा क़ायम रखने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं. इनमें सरकार का तख़्तापलट करके सैन्य शासन स्थापित करना, लोकतांत्रिक सरकार को बेदख़ल करना और ढुलमुल सरकार को परोक्ष रूप से नियंत्रित करना शामिल है.[39] सेना द्वारा इस तरह के दख़ल को अक्सर अपने दम पर नहीं किया जाता है, बल्कि इसमें दूसरे किरदार भी सहायता करते हैं. जैसे कि सेना के इन मंसूबों को परवान चढ़ाने में अक्सर वहां की न्यायपालिका, ब्यूरोक्रेसी, समर्थक राजनेता, धार्मिक नेता और कॉर्पोरेट सेक्टर समेत तमाम दूसरे प्रभावशाली लोग सहयोग करते हैं. पाकिस्तान में इन्हें सामूहिक रूप से "एस्टेब्लिशमेंट यानी प्रतिष्ठान"[40] के तौर पर जाना जाता है. इसके साथ ही पाकिस्तान में राजनेताओं ने अपनी मज़बूरियों के चलते सेना को फलने-फूलने का पूरा मौक़ा दिया, नतीज़तन देश में विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं का महत्व कम होता गया.
पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP), पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (PML-N) और पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ पार्टी (PTI) जैसे कुछ राजनीतिक दलों का देश की घरेलू राजनीतिक में दबदबा है. इन राजनीतिक दलों की वजह से सैन्य जनरलों को पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करने और चुनावों को दौरान हेरफेर का अवसर मिलता है. पाकिस्तानी सेना ने अपने मंसूबों को अंज़ाम देने के लिए हमेशा से कुछ राजनेताओं की सहायता की है और उन्हें अपना संरक्षण प्रदान किया है, ताकि महत्वपूर्ण निर्णय लेने के दौरान अपने हितों को पूरा किया जा सके. देश की राजनीतिक व्यवस्था में सेना की यह दख़लंदाज़ी न केवल चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने में मददगार साबित हुई है, बल्कि इससे सेना की राजनीतिक ताक़त भी बढ़ी है. इसलिए, पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था को समझने के लिए, ख़ास तौर पर सेना द्वारा राजनेताओं की सहायता करने और चुनावों को प्रभावित करने के लिहाज़ से देश की राजनीति को समझने के लिए सेना एवं राजनीतिक दलों के बीच के पारस्परिक रिश्तों के बारे में समझना बेहद ज़रूरी है.
पाकिस्तानी सेना द्वारा आंतकवादियों के खात्मे के लिए चलाए गए जर्ब-ए-अज़्ब जैसे अभियानों से सशस्त्र बलों की विश्वसनीयता और सफलता साबित हुई है और ऐसे सफल अभियानों के बाद देश की अवाम का सेना में भरोसा बढ़ा है और इससे कहीं न कहीं मुल्क में पाकिस्तानी सेना के राजनीतिक दबदबे में भी इज़ाफा हुआ है.[G] राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने के साथ ही पाकिस्तानी सेना का झुकाव आर्थिक मामलों और बुनियादी ढांचा परियोजना में भी दिखाई देता है. डिफेंस हाउसिंग अथॉरिटी और फ्रंटियर वर्क्स संगठन जैसी इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं में पाक सेना की दिलचस्पी से ये ज़ाहिर भी होता है.[41] दूसरी ओर, पाक सेना की देश की न्यायपालिका के साथ मिलीभगत ने देखा जाए तो अदालतों की विश्वसनीयता और आज़ादी पर भी असर डाला है और उसे संदेह के घेरे में ला दिया है. “पाकिस्तान के गठन के आठ दशकों के इतिहास पर नज़र डाली जाए तो देश की अदालतों की ताक़तवर सेना से मिलीभीगत साफ तौर पर दिखाई देती है. पाकिस्तान की अदालतों ने देश में हुए तीन सैन्य तख़्तापलटों को क़ानूनी रूप से मान्यता प्रदान की, इसके साथ ही न्यायाधीशों ने सैन्य जनरलों का विरोध करने वाले दर्ज़नों राजनेताओं को अयोग्य घोषित किया. इतना ही नहीं राजनीतिक विरोधियों के लापता होने के मामलों पर भी चुप्पी साधे रखी.”[42] आख़िर में, जिस प्रकार से अमेरिका और पाक आर्मी के बीच सीधे रिश्ते हैं, वो साबित करते हैं कि विदेशी ताक़तों के लिए पाकिस्तानी सेना सामरिक रूप से पसंदीदा साझीदार है. यह बताता है कि पाकिस्तानी सेना को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज़बरदस्त समर्थन हासिल है और यह स्थिति पाक सेना की राजनीतिक ताक़त को बढ़ाने में मददगार साबित होती है.
भू-राजनीतिक लिहाज़ से देखा जाए तो पाकिस्तान में ख़ास तौर पर राजनीतिक मामलों में सेना के दख़ल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. दुनिया के एक ऐसे हिस्से में, जहां देशों के बीच एक दूसरे पर हावी होने की ज़बरदस्त होड़ मची हुई है और सुरक्षा के जुड़ी व्यापक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं, वहां पाकिस्तान भी तमाम ख़तरों और सामरिक चुनौतियों का सामना कर रहा है. इन भू-राजनीतिक हालातों के बीच पाकिस्तानी सेना की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि पाक सेना पर देश की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी है. इन परिस्थितियों में देश की विदेशी नीति बनाने और सुरक्षा से जुड़ी रणनीतियों को आगे बढ़ाने में निसंदेह तौर पर पाक सेना की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. देश के असैनिक अधिकारियों यानी सिविलियन अथॉरिटी और सैन्य अफ़सरों, दोनों का ही मानना है कि जब से पाकिस्तान का गठन हुआ है, तभी से देश ने इमरजेंसी जैसे हालातों का सामना किया है. इनके मुताबिक़ विवादित कश्मीर क्षेत्र को लेकर भारत से शत्रुता[43] और अफ़ग़ानिस्तान की तरफ से अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर मची उथल-पुथल पाकिस्तान की क्षेत्रीय अखंडता से जुड़े बड़े ख़तरे हैं.
पाकिस्तान में राजनीतिक व्यवस्था पर सेना के नियंत्रण को आगे बताई गईं छह व्यापक वजहों से आसानी से समझा जा सकता है:
- नागरिक संस्थानों यानी असैनिक संस्थानों की कमज़ोरी
जहां तक पाकिस्तान की राजनीति में सैन्य हस्तक्षेप की बात है, तो समय-समय पर सेना का यह दख़ल देखने को मिलता रहता है और अक्सर सरकार में सेना की इस दख़लंदाज़ी के लिए देश की नागरिक संस्थाओं या असैनिक संस्थाओं की कमज़ोरी को ज़िम्मेदार बताया जाता है.[44] पाकिस्तान की राजनीति में सेना के इस दख़ल को[45] को ‘ख़ास मकसद के लिए बनाए गए सैन्यवाद’ (यानी देश के भीतर की राजनीति में दख़ल देने और विस्तारवादी विदेश नीतियों का अनुपालन करने की सकारात्मक एवं सोची-समझी इच्छा) या ‘प्रतिक्रियाशील सैन्यवाद’ (सैन्य ताक़त का विस्तार जो नागरिक संस्थानों की कमज़ोरी और सेना की भूमिका बढ़ाने के लिए अवाम के दबाव की वजह से होता है) के नज़रिए से समझा जा सकता है. पाकिस्तान में जनरल मोहम्मद अयूब ख़ान द्वारा सैन्य शासन की स्थापना विशेष उद्देश्य वाला सैन्यवाद था, जबकि जनरल ज़िया-उल-हक़ द्वारा सत्ता को हथियाना प्रतिक्रियात्मक सैन्यवाद था.[46] इसी तरह से जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के सैन्य शासन को सोच-समझ कर उठाया गया क़दम माना जाता है.[H]
पाकिस्तान की सेना, जो आज बहुत सशक्त नज़र आती है और उसकी देश में जो ज़बरदस्त पकड़ है, उसकी जड़ें देश के गठन के बाद शुरुआती सालों में फ़ौज की दो तरह की धराणाओं में जमी हैं. पाकिस्तान सेना में सबसे पहली धारणा तो यह है कि वहां के राजनेताओं में एक स्थाई और मज़बूत सरकार को स्थापित करने की योग्यता नहीं है और देश से जुड़े महत्वपूर्ण मसलों को प्रभावी तरीक़े से संभालने की क्षमता नहीं है. इसी धारणा की वजह से सेना खुद को श्रेष्ठ समझने लगी और स्वयं को राष्ट्र की इकलौती रक्षक मानने लगी. सेना की इसी सोच की वजह से उसने देश की राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने के लिए खुद को 'आवश्यकता के सिद्धांत' को मुफ़ीद पाया यानी आपतकाल या दूसरी चरम परिस्थितियों में क़ानून के शासन को अपने हाथ में लेने को उचित ठहराया. ख़ास तौर पर सरकार का मुखिया यानी प्रधानमंत्री तय करने को और देश की आंतरिक सुरक्षा या बाहरी सुरक्षा से जुड़े मसलों में अपने नीतिगत दख़ल को सेना ने उचित ठहराया. पाक फ़ौज ने खुद को मज़बूत करने के लिए अपने हितों के मुताबिक़ सरकारी नीतियों में बदलाव किया. जैसे कि पाकिस्तानी फ़ौज ने व्यावसायिक गतिविधियां संचालित करने के लिए नीतियां बनाईं (सेना द्वारा बिजनेस करने को एक स्कॉलर ने "मिलबस" नाम दिया है, यानी मिलिट्री बिजनेस कहा है. यह एक हिसाब से सेना का पैसा है, जिसे अलग-अलग प्रकार के बिजनेस में लगाया जाता है और इससे होने वाली कमाई को सेना से जुड़े लोगों में बांटा जाता है."[47]) इसके अतिरिक्त पाक फ़ौज ने सरकार से अलग अपनी एक विदेश नीति भी बनाई है और अमेरिका के साथ सीधे रिश्ते बनाए हैं. इस सभी मामलों ने देखा जाए तो पाकिस्तानी सेना को कहीं न कहीं एक प्रकार की स्वायत्तता प्रदान की है. यानी एक संगठन के रूप में सेना पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं और वो स्वतंत्र होकर अपनी गतिविधियां संचालित करती है. पाकिस्तानी फ़ौज की दूसरी सोच यह है कि उसे इस बात का पता है कि वो देश में हमेशा शासन नहीं कर सकती है, क्योंकि सैन्य शासन की अपनी कई दिक़्क़तें हैं. ऐसे में अब सेना का मकसद परोक्ष रूप से राजनीतिक हस्तक्षेप के ज़रिए निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपने वर्चस्व को बरक़रार रखना है. ज़ाहिर है कि सेना पाकिस्तान में ब्रिटिश काल की दोहरी शासन व्यवस्था को जारी रखना चाहती है, जिसमें ब्यूरोक्रेसी यानी नौकरशाही और सेना, शासन के प्रमुख स्तंभ होते हैं और इसमें सेना के जनरल भी सत्ता केंद्र में होते हैं. इस दोहरी शासन व्यवस्था में एक शासक के हाथ में ताक़त होती है, जबकि दूसरे शासक के हाथ में ज़िम्मेदारी होती है. सेना के इस विचार ने न केवल उसे देश की राजनीतिक व्यवस्था में शामिल किया है, बल्कि ‘ट्रोइका-सिस्टम’ के लिए भी ज़मीन तैयार की है.[I],[48] पाकिस्तान की राजनीति में निर्वाचित नेताओं और सैन्य जनरलों के बीच सत्ता साझाकरण की यह व्यवस्था वर्ष 1972 के बाद से गहराई से अपनी जड़ें जमा चुकी है. इन्हीं दोनों दृष्टिकोणों की वजह से पाकिस्तान की राजनीति और सरकार में सेना की भागीदारी लगातार बनी हुई है और देश के नागरिक संस्थानों की दुर्बलता ने फ़ौज की इस धारणा को कहीं न कहीं मज़बूत करने का काम किया है.[49]
लचर सरकारी नियंत्रण की वजह से पाकिस्तान की चुनावी व्यवस्था वर्तमान में बुरी तरह से डगमगा चुकी है. हालांकि, वर्ष 2008 में चुनावों से पहले पाकिस्तान में चुनावी प्रणाली इतनी अव्यवस्थित नहीं थी. पाकिस्तान में ख़ुफ़िया एजेंसियों की मदद से चुनाव में भारी गड़बड़ी की गई, ताकि इस प्रकार के चुनावी नतीज़े हासिल किए जा सकें, जिनमें पाकिस्तानी फ़ौज और सैन्य जनरलों को वहां की राजनीति और सरकार में बेरोकटोक दख़ल देने का मौक़ा मिल सके. पाकिस्तान में चुनावों को प्रभावित करने के लिए सेना ने राजनीतिक दलों के सामने तमाम मुश्किलें खड़ी कीं हैं, जिनमें राजनीतिक दलों में तोड़फोड़ करना, नई राजनीतिक पार्टियों का निर्माण, चुनाव में नाम वापस लेने के लिए उम्मीदवारों पर दबाव डालना और राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध लगाना और कुछ ख़ास राजनीतिक दलों के प्रति दुर्भावना रखना शामिल है.[50] इसके अलावा, पाकिस्तान में चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारों को भी विभिन्न तरीक़ों से कमज़ोर किया गया, जैसे कि विश्वास मत के दौरान वोटों की ख़रीद-फरोख़्त (हॉर्स-ट्रेडिंग) की गई. जिसके चलते सत्ताधारी दलों को सरकार से बेदख़ल होना पड़ा. नतीज़तन, पाकिस्तान में सक्रिय राजनीतिक दलों के विस्तार में रुकावटें आईं. पाकिस्तान में अलग-अलग राजनेताओं एवं उनकी पार्टियों के बीच ‘फूट डालो और राज करो’ के ज़रिए तनाव पैदा करने की रणनीति की वजह से न सिर्फ़ संसदीय प्रक्रिया को कमज़ोर करने वाली गुटबाज़ी में बढ़ोतरी हुई है, बल्कि विपक्ष और सरकार के बीच रिश्तों में भी कड़वाहट बढ़ी है. हालांकि, पाक फ़ौज द्वारा 2008 के चुनावों में तटस्थ रुख अपनाए जाने के बाद वहां एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिला. सेना के इस रुख ने न केवल देश की जनता द्वारा अपना नेता चुने जाने का मार्ग प्रशस्त किया और उनमें अपनी सरकार चुनने की भावना जगी, बल्कि देश में निष्पक्ष चुनावों को भी सुगम बनाया. इसी के फलस्वरूप 2008 में पाकिस्तान का पहले बड़ा राजनीतिक गठबंधन बन पाया, जिसमें देश को दे प्रमुख विरोधी दल, पीपीपी और पीएमएल-एन शामिल थे. पाकिस्तान की राजनीति में आए इस बड़े बदलाव ने संसद की ताक़त को बढ़ाने में भी योगदान दिया और देश के हित में कई महत्वपूर्ण फैसले भी लिए गए. इन्हीं फैसलों में संविधान का अठारहवां संशोधन जैसे प्रमुख क़दम भी शामिल हैं.[J] इसके अलावा, संसद में नेताओं की निगरानी में रक्षा बजट पेश किया गया और पहली बार रक्षा बजट पर बहस की शुरुआत भी हुई.[51]
- नाज़ुक नागरिक-सैन्य संबंध
पाकिस्तान में नागरिक-सैन्य रिश्ते यानी राजनेताओं या सरकारी अधिकारियों या फिर नागरिक समाज के साथ फौजियों और सैन्य अफ़सरों के रिश्ते बहुत प्रगाढ़ नहीं रहे हैं. इसकी प्रमुख वजह देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में काफ़ी उतार-चढ़ाव होना रहा है.[52] पाकिस्तान में तानाशाही वाले युग की समाप्ति से लेकर लोकतंत्र की स्थापना और उसके मज़बूत होने तक हुए बदलाव के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है. इसके बजाए, पाकिस्तान में जो भी राजनीतिक घटनाक्रम आगे बढ़ा है, उसकी ख़ासियत लोकतांत्रिक शासन और सैन्य शासन या अर्ध-सैन्य शासन के बीच परिवर्तन है. पाकिस्तान ने नौकरशाही-सैन्य प्रभुत्व (1947-1972) के शुरुआती चरण के बाद लोकतंत्र की स्थापना की तीन कोशिशें हुई हैं. हालांकि, पाकिस्तान में हुए लोकतंत्रीकरण के यह जो भी प्रयास हुए, उन्हें कहीं न कहीं सैन्य शासन का जवाब माना जा सकता है. लोकतंत्र की स्थापना के इन्हीं प्रयासों से देश में राष्ट्रीय स्तर पर चुने गए नेता (जैसे कि जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो) उभरकर सामने आए और तमाम राजनीतिक दलों (जैसे कि पीपीपी या मजहबी राजनीतिक दल) का भी जन्म हुआ.[53] ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की ओर परिवर्तन सैन्य हस्तक्षेपों की वजह से ही शुरू हुआ और धीरे-धीरे मज़बूत भी हुआ. इसके अलावा, साथ ही साथ लोकतंत्रीकरण के इन चरणों में एक सीमा तक सैन्य दख़ल भी देखा गया. लोकतंत्र को मज़बूत करने और चुनी हुई सरकारों पर अंकुश लगाने के सेना के इस विरोधाभास के पीछे देखा जाए तो सबसे बड़ी वजह चुनावों में जीत हासिल करने वाले राजनेताओं (प्रारंभिक वर्षों के दौरान गैर-निर्वाचित व्यक्ति और बाद में निर्वाचित नेताओं) की सेना पर सरकार के नियंत्रण को संस्थागत बनाने में नक़ामी है. सेना पर सरकार का पूरा नियंत्रण नहीं होने की वजह से लोकतंत्र पर काफ़ी असर पड़ता है और इससे लोकतांत्रिक शासन के कई आयाम प्रभावित होते हैं. कुल मिलाकर सेना ने पाकिस्तान को “एकीकृत और स्थिर राष्ट्र बनाने के लिए दीर्घकालिक राष्ट्र निर्माण रणनीति प्रदान नहीं की है”[54]
- सशस्त्र बलों की विश्वसनीयता और पेशेवराना रवैया
पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही वहां की सेना ने अपना लगातार एक पेशेवर और अनुशासित चरित्र बरक़रार रखा है. समय के साथ जैसे-जैसे सेना की ताक़त में वृद्धि होती गई इसने सरकार के रोज़मर्रा के कामकाज में चुने गए नेताओं के फैसलों का विरोध करना शुरू कर दिया.[55] जनरल अयूब और जनरल ज़िया-उल-हक़ समेत कई सैन्य प्रमुखों ने लंबे समय तक पाकिस्तान पर शासन किया और उनके द्वारा थोपे गए मार्शल लॉ का राजनेताओं द्वारा सीमित विरोध देखने को मिला. साथ ही साथ पाकिस्तान में राजनीतिक दल और उनके नेता भी देश में सशक्त लोकांत्रिक सरकार स्थापित नहीं कर पाए और इस वजह से भी सरकार में सेना का दबदबा क़ायम रहा.
जनरल अयूब और जनरल ज़िया-उल-हक़ ने अपने शासन के दौरान पाकिस्तान में सेना और राजनीतिक दलों एवं राजनेताओं के बीच संबंधों को सहज बनाने में बेहद अहम भूमिका निभाई. शायद यही वजह है कि उनके सैन्य शासन के लंबे कार्यकाल के दौरान राजनेताओं ने कोई ज़्यादा सवाल नहीं उठाए, यानी एक प्रकार से उसे स्वीकार कर लिया. इससे कहीं न कहीं पाकिस्तान की राजनीति और वहां की सरकार में सेना के दख़ल की एक परिपाटी सी बन गई. सेना ने सरकार में अपनी पकड़ को मज़बूत करने के लिए हर हथकंडा अपनाया. सरकार में बैठे सेना के हितैषी राजनेताओं का खुलकर समर्थन किया और अपने आदेशों व निर्णयों को थोपकर उनसे अपने हित में काम करवाया. राजनेताओं और सैन्य जनरलों के इस गठजोड़ से दोनों पक्षों को ही खूब फायदा हुआ, लेकिन जिस प्रकार से निर्वाचित राजनेताओं को अपने जाल में फंसाया गया और सरकार पर कब्जा किया गया, उसने कहीं न कहीं सत्ता के समुचित विकेंद्रीकरण में रुकावटें डालने का काम किया.[56]
पाकिस्तान में 1980 के दशक के आख़िरी वर्षों में शुरू होने वाले पोस्ट ज़िया युग यानी जनरल ज़िया-उल-हक़ शासन के बाद देश में सैन्य शासन के तौर-तरीक़ों में ज़बरदस्त परिवर्तन आया. कहने का मतलब है कि ज़िया युग की समाप्ति के बाद के समय में पाकिस्तानी फ़ौज ने निर्वाचित सरकारों पर प्रत्यक्ष दख़ल देने से परहेज किया और आईएसआई के साथ मिलकर ‘नरम दख़ल’ की रणनीति अपनाई, यानी सरकार के कामकाज में अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप देना शुरू कर दिया. सेना की इस रणनीति की वजह से पाकिस्तान में ऐसी सरकारें आईं, जिनमें राजनेता और सैन्य जनरल एक हिसाब से मिलजुल कर कार्य करते हैं, यानी सैन्य जनरलों ने सरकार में सीधा हस्तक्षेप करने के बजाए नीतिगत मसलों पर राजनेताओं के साथ मोलभाव की रणनीति अपनाई.[57] हालांकि, सेना का इस प्रकार से दख़ल करना बहुत आसान भी नहीं रहा, यानी दोनों पक्षों में खींचतान का माहौल बना रहा और एक प्रकार से देखा जाए तो सेना और सरकार के बीच इस प्रकार के संबंधों में स्थायित्व का अभाव नज़र आया. पाकिस्तान में फ़ौज और राजनेताओं के बीच इस प्रकार के रिश्तों को यानी ऐसी सरकार को ‘हाइब्रिड सरकार’ कहा गया.
- पाकिस्तानी फ़ौज के आर्थिक हित
पाकिस्तान के गठन के बाद अगर शुरुआती वर्षों में हुई आर्थिक वृद्धि का बात की जाए, इसके पीछे यह वजह हो सकती है कि “पाकिस्तान में सैन्य सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर बहुत गंभीरता से कार्य किया और केंद्रीय मंत्रालयों की ज़िम्मेदारी विशेषज्ञों एवं पेशेवरों को सौंपी, साथ ही उन्हें देश हित में फैसले लेने की आज़ादी भी दी.”[58] दरअसल, जिस प्रकार से सरकारी और निजी सेक्टरों में, हर जगह सेना की मौज़ूदगी है, वो देखा जाए तो देश और समाज में सेना के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका सुनिश्चित करती है. यानी सैन्य जनरल अगर सरकार में सीधे हस्तक्षेप न भी करें, तब भी देश में पाकिस्तान में सेना का प्रभाव बहुत व्यापक है.[59]
जिस तरह के पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था लचर स्थिति में है और वहां सैन्य तख़्तापलट की संभावना बनी रहती है, उसके पीछे भी सीधा संबंध बताया जाता है. कहने का मतलब यह है कि सैन्य अधिकारी अधिक पढ़े लिखे होते हैं और उन्हें तमाम तरह के ट्रेनिंग दी जाती है और उनका दृष्टिकोण कहीं न कहीं देश की राजनीति में सक्रिय नेताओं की तुलना में अधिक प्रगतिशील होता है.[60] फ़ौज के अधिकारियों का यही प्रगतिशील नज़रिया देखा जाए तो सेना को देश के अयोग्य और भ्रष्टाचार में डूबे राजनेताओं के विरुद्ध खड़ा होने के लिए मज़बूर करता है. इतना ही नहीं, सैन्य अफ़सरों का यही दृष्टिकोण देश में अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने और उसे आधुनिक बनाने के लिए भी उन्हें प्रेरित करती है.[61] इसके अलावा पाकिस्तानी फ़ौज अपनी खुद की आर्थिक स्थित को मज़बूत करने में भी जुटी है और इसके लिए उसने देश और सरकार में अपने मज़बूत प्रभाव का भरपूर इस्तेमाल किया है.[62] "उद्योग, वाणिज्य और व्यवसाय" में भागीदारी ने सेना को "सरकारी नीतियों और औद्योगिक और वाणिज्यिक रणनीतियों में हिस्सेदारी" विकसित करने के योग्य बनाया है.[63] यह भागीदारी, सेना के वेलफेयर और चैरिटी सिस्टम की स्थापना के साथ मिलकर,[64] न केवल अर्थव्यवस्था में पाकिस्तानी सेना के लिए एक महत्वपूर्ण हिस्सेदारी सुनिश्चित करती है, बल्कि सेना को सरकार से वित्तीय स्वतंत्रता भी प्रदान करती है. ख़ास तौर पर वेलफेयर, पेंशन और ट्रस्टों के संबंध में तो यह बिलकुल सही है. सेना की कमाई के ये बाहरी स्रोत ही "मिलबस" यानी मिलिट्री बिजनेस का निर्माण करते हैं.[65] राजस्व की यह कमाई या आर्थिक ताक़त फ़ौज को निजी और सरकारी दोनों सेक्टरों में एक प्रमुख खिलाड़ी बनाने का काम करती है.[66]
सेना की आर्थिक स्वायत्तता हासिल करने की इन कोशिशों ने नागरिक-सैन्य असंतुलन को और बढ़ा दिया है. सेना ने 1950 और 1960 के दशक में व्यक्तिगत लाभ कमाने के लिए औद्योगिक और आवास परियोजनाएं शुरू कीं (जिसके कारण ‘मिलबस’ सामने आया, जिसने फ़ौज के राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि की).[67] सैन्य जनरलों को राजनीतिक हस्तक्षेप पर लगाम लगाने के लिए सेना की कॉर्पोरेट परियोजनाओं में भागीदारी का पता लगाना और उसका समाधान करना बेहद महत्वपूर्ण है.[68]
- न्यायपालिक की अस्पष्ट और संदेहास्पद भूमिका
पाकिस्तानी फ़ौज और देश की न्यापालिका के बीच मज़बूत सांठगांठ है. इन्हीं रिश्तों का फायदा उठाते हुए कई बार सैन्य जनरलों ने संकटग्रस्त परिस्थितियों में अपने फैसलों पर क़ानूनी मुहर लगवाने के लिए न्यायाधीशों से मदद ली है. हालांकि, अब परिस्थितियां पहले जैसी नहीं रहीं है, क्योंकि देश की बड़ी अदालतें सेना का पिछलग्गू बनने के बजाए तेज़ी से स्वतंत्र रुख अख़्तियार कर रही हैं. देश की न्यायपालिका के बदले हुए रुख को सेना द्वारा हल्के में नहीं लिया जा सकता है. शायद यही वजह है कि फ़ौज द्वारा न्यायालयों को कमज़ोर करने और उसके निर्णयों पर सवाल उठाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं. इतना ही नहीं सेना द्वारा वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच विश्वास की कमी, आपसी मतभेदों और झगड़ों को तूल देने का काम किया गया है.[69]
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और उनकी पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ पार्टी का मामला देश की न्यायपालिका के बीच बढ़ते मतभेदों को बखूबी सामने लाता है. इन घटनाक्रमों ने साबित किया है कि पाकिस्तान में न्यायपालिका किस प्रकार से अपने हिसाब से स्वतंत्र होकर फैसले ले रही है. देखा जाए तो ये घटनाक्रम पाकिस्तान की राजनीति में दख़ल देने के सेना के मंसूबों को न सिर्फ़ आघात पहुंचाने वाला है, बल्कि सेना के हितों के मुताबिक़ न्यायपालिका द्वारा निर्णय देने के पहले के वाकयों के बिलकुल उलट है. पाकिस्तान की न्यायपालिका जैसे अहम प्रतिष्ठानों के भीतर सैन्य जनरलों की ढीली होती पकड़ इशारा करती है कि देश की राजनीति में सेना का दबदबा अब पहले की तरह नहीं रह गया है.[70]
एक सच्चाई यह भी है कि वर्ष 2023 में तमाम ऐसी घटनाएं सामने आईं, जिनमें सैन्य अदालतों में नागरिकों पर मुक़दमे चलाए गए. इसने कहीं न कहीं पाकिस्तान में न्याय व्यवस्था कमज़ोर बनाने का काम किया है. इमरान ख़ान भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है, वहीं प्रशासन ने दूसरे पीटीआई नेताओं एवं ख़ान के समर्थकों पर शिकंजा कसा है और इनमें से कई लोगों पर सैन्य अदालतों में मुक़दमे चलाए जा रहे हैं.[71] पाकिस्तान सेना (संशोधन) विधेयक 2023 में फ़ौज को सशक्त बनाने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं. इसमें पाकिस्तानी सेना के व्यापक व्यापारिक साम्राज्य को पूर्ण क़ानूनी दर्ज़ा प्रदान किया गया है, फ़ौज की आलोचना को अपराध करार दिया गया है, साथ ही सेना को "राष्ट्रीय विकास और राष्ट्रीय या रणनीतिक हितों से जुड़ी गतिविधियों में भाग लेने और उन्हें आगे बढ़ाने" का अधिकार प्रदान किया गया है. इसके अलावा, आधिकारिक गोपनीयता (संशोधन) विधेयक 2023 सुरक्षा एजेंसियों को ऐसे किसी भी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने का अधिकार देता है, जो देश के लिए ख़तरा है या जिसकी गतिविधियां राष्ट्र विरोधी हैं. इसके अलावा, पाकिस्तान में सैन्य प्रतिष्ठानों और कार्यालयों में अनधिकृत रूप से प्रवेश पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है, अगर कोई संदिग्ध व्यक्ति ऐसा करते हुए पकड़ा जाता है, तो उस पर सैन्य अदालतों में मुक़दमा चलाया जा सकता है.[72]
- विदेशी ताक़तों के लिए पाकिस्तानी फैज पसंदीदा भागीदार
पाकिस्तान में जितनी बार भी सैन्य शासन रहा है, उन सब में एक सामान्य बात यह थी कि सैन्य शासकों के अमेरिका के साथ रिश्ते बहुत प्रगाढ़ थे. इसके पीछे शायद प्रमुख वजह यह थी कि सैन्य शासन के दौरान वैश्विक राजनीति में पाकिस्तान के भू-राजनीतिक महत्व में बढ़ोत्तरी हुई और जिसने कहीं न कहीं पाकिस्तान को एक फ्रंटलाइन स्टेट यानी क्षेत्र का अग्रणी राष्ट्र बना दिया.[K] इससे साबित होता कि पाकिस्तान में सैन्य शासन की जो भी नीतियां और सरोकार थे, वे अमेरिका के साथ पारिस्परिक रूप से मेल खाते थे.[73]
पाकिस्तान के निर्वाचित नेताओं की प्राथमिकता हमेशा क्षेत्रीय देशों और बड़ी वैश्विक ताक़तों के साथ सकारात्मक, बहुआयामी संबंध स्थापित करने की रही है. इसके अलावा, निर्वाचित सरकार की प्राथमिकता ख़ास तौर पर व्यापारिक एवं आर्थिक सहयोग के ज़रिए दूसरे देशों के साथ संबंध बनाने की होती है. चूंकि पाकिस्तान में सेना का वर्चस्व है, इसलिए विदेश नीति को लेकर सरकार में बैठे नेताओं की न तो कोई दिलचस्पी होती है और न ही इसमें उनका कोई विशेष हस्तक्षेप ही होता है.[74] यही वजह है कि जब भी कोई कूटनीतिक चुनौती सामने आती है, तो सरकार में बैठे राजनेता सामान्य तौर पर अपने क़दम पीछे कर लेते हैं. इतना ही नहीं, पाकिस्तानी फ़ौज देश की सुरक्षा से जुड़ा अपना नज़रिया नहीं बदलती है और देश के आर्थिक व राजनीतिक मसलों को नज़रंदाज़ करते हुए दूसरे देशों के साथ केवल सुरक्षा के मुद्दों पर रिश्ते बनाना पसंद करती है. परिणामस्वरूप इस रीजन में अपने सुरक्षा हित रखने वाले देश पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार से बातचीत करने के बजाए सेना के साथ मजबूत संबंध बनाते हैं.
निष्कर्ष
पाकिस्तान की हमेशा से एक सच्चाई यह रही है कि वहां चुनी हुई सरकारें और राजनीतिक नेतृत्व बहुत मज़बूत नहीं रहे हैं, ऐसे में राजनीतिक मतभेदों ने देश की सेना पर निर्भरता को बढ़ाने का काम किया है. इसके अलावा, एक वास्तविकता यह भी है कि सरकार के कामकाज में सैन्य जनरलों द्वारा किए जाने वाले दख़ल ने देश में लोकतंत्र की मज़बूती यानी चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर असल डाला है. जब से पाकिस्तान की स्थापना हुई है, तभी से सेना का ज़ोर ऐसे ढुलमुल या रीढ़विहीन नेताओं को अपना समर्थन देने का रहा है, जो चुनाव जीतकर सेना के मुताबिक़ घरेलू और विदेशी नीतियों को लागू करें, साथ ही बाक़ी जो भी राजनेता हों, वे हमेशा सेना निर्देशों के मुताबिक़ काम करें.
ज़ाहिर है कि पूर्व में जब भी पाकिस्तान में विपरीत हालात पैदा हुए, तब सैन्य जनरलों ने अपनी एकजुटता को बरक़रार रखते हुए देश को संभाला है. लेकिन ख़बरों के मुताबिक़ हाल फिलहाल में जिस प्रकार से सेना के शीर्ष अधिकारियों के बीच खींचतान की स्थितियां बनी हैं और मतभेद पैदा हुए हैं, उनसे लगता है कि अब अगर देश में किसी प्रकार का संकट पैदा होता है, तो देश में स्थायित्व बरक़ार रखने में फ़ौज नाक़ाम साबित हो सकती है. वर्तमान में जिस प्रकार से पाकिस्तान की सेना पर देश की अवाम का विश्वास कम हुआ है, उससे देश में अस्थिरता और अराजकता बढ़ने का ख़तरा है. इन हालातों में दूसरे देशों में हमेशा इस बात की अनिश्चितता बनी रहती है कि सरकार और सेना में से सत्ता किसके पास है.[75] ज़ाहिर की पाकिस्तान में जिस प्रकार से सेना को मिलने वाले जन समर्थन में कमी आई है, उससे न केवल सेना की प्रतिष्ठा और उसके वर्चस्व में कमी आती है, बल्कि अपने मकसदों को हासिल करने और हितों को सुरक्षित करने की सेना की क्षमता पर भी इसका गंभीर असर पड़ता है. ख़ास तौर पर तमाम चुनौतियों से घिरे इस क्षेत्र में, जहां पाकिस्तानी फ़ौज लगातार आतंकवाद विरोधी अभियानों में सक्रियता के साथ अपनी भूमिका निभा रही है, वहां उसे मिलने वाले जन समर्थन में कमी काफ़ी गंभीर साबित हो सकती है.
पाकिस्तान में जिस तरह से सेना को चौतरफा अविश्वास और आरोपों का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे में वर्तमान पेचीदा परिस्थितियों को संभालना बेहद मुश्किल होगा. देश में फिलहाल विवादों का निपटारा करने वाला कोई विश्वसनीय तंत्र मौज़ूद नहीं है, जो कि इन हालातों को और विकट बनाता है. पाकिस्तान में परंपरागत तौर पर सेना और सुप्रीम कोर्ट दोनों को संकट के वक़्त बीच-बचाव करने वाली संस्थाओं के रूप में देखा जाता है. लेकिन फिलहाल सेना और न्यायपालिका दोनों ही तमाम विवादों एवं आंतरिक मतभेदों का सामना कर रहे हैं, जिससे इनकी विश्वसनीयता भी घट रही है. इतना ही नहीं, विवादों के समाधान के लिए संसद को एक आदर्श प्लेटफॉर्म माना जाता है, लेकिन नेशनल असेंबली में मज़बूत विपक्ष की गैरमौज़ूदगी से संसद भी और कमज़ोर हो सकती है. पाकिस्तान में स्थिरता और समृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि फ़ौज और उसके अफ़सर देश की राजनीतिक गतिविधियों में बेवजह की दख़लंदाज़ी न करें और देश की सुरक्षा की अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी को गंभीरता के साथ निभाएं. सेना अगर ऐसा करती है, तो इससे न सिर्फ़ पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिरता क़ायम होगी, बल्कि अवाम की नज़रों में भी सेना का रुतबा बढ़ेगा. कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि अगर पाकिस्तान संकटों के दुष्चक्र से बाहर निकलता चाहता है, तो उसे हर हाल में जनता के विश्वास को दोबारा से बहाल करना होगा, लोकतांत्रिक सिद्धांतों को सही मायने में अपनाना होगा और सरकार, सेना एवं न्यायपालिका के बीच तमाम विवादित मसलों का समाधान करने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे. ऐसा करने पर ही पाकिस्तान स्थिरता और उम्मीदों से भरे भविष्य के रास्ते पर अग्रसर हो सकता है. कहने का मतलब यह है कि अगर एक प्रतिष्ठान के रूप में पाकिस्तान में सेना के प्रभुत्व में और उसके नज़रिए में बदलाव होता है, तो यह देश के भविष्य के लिए बेहद परिवर्तनकारी और लाभकारी सिद्ध हो सकता है. हालांकि, पाकिस्तान में स्थायित्व के लिए सबसे महत्वपूर्ण रास्ता देश की प्रमुख संवैधानिक संस्थाओं के बीच सामंजस्य की स्थापना करना होगा. यह तभी संभव होगा जब देश के राजनीतिक दलों, संसद और सरकार को सशक्त किया जाएगा और देश में प्रभावशाली रानीतिक नेतृत्व को प्रोत्साहित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा.
ज़ाहिर है कि राजनीतिक और आर्थिक मोर्चों पर पाकिस्तान को तमाम बड़ी चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है. परमाणु ताक़त और क्षेत्रीय अस्थिरता की वजह से पाकिस्तान की ये चुनौतियां और व्यापक हो गई हैं. पाकिस्तान में जिस तरह से घरेलू हालात बेकाबू होते जा रहे हैं, उनमें तात्कालिक ज़रूरत व्यापक स्तर पर आर्थिक सुधारों को लागू करने की है, जिसमें आर्थिक तंगी से निजात पाने के लिए आईएमएफ के साथ कर्ज़ को लेकर बातचीत भी शामिल है. इन परिस्थितियों में पाकिस्तान में एक ऐसी सरकार की ज़रूरत होगी, जो ख़र्चों को नियंत्रित करने और डंवाडोल आर्थिक हालातों को संभालने में सक्षम हो. ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में आर्थिक स्थिरता के लिए और वैश्विक स्तर पर तमाम देशों का ज़रूरी समर्थन हासिल करने के लिए ऐसी सरकार बेहद महत्वपूर्ण है.
Endnotes
[A] आधुनिकीकरण सिद्धांत से तात्पर्य ऐसे कार्यों से है, जो 1950 और 1960 के दशक में आर्थिक और सामाजिक विकास के मुद्दों को समझने तथा ग़रीब देशों को उनके परिवर्तन यानी आगे बढ़ने में सहायता करने के लिए नीतियां बनाने के माध्यम के रूप में सामने आए.
[B] डिपेंडेंसी थ्योरी यानी निर्भरता सिद्धांत समसामयिक सोशल साइंस में एक विचारधारा है, जो कम विकास होने की वजहों को अच्छी तरह से समझने, उनका विश्लेषण करने और कुछ हद तक, कम विकास की समस्या से निपटने में मदद करने की कोशिश करती है.
[C] डोनाल्ड यूजीन स्मिथ ने शरिया क़ानून और तानाशाही के बीच के रिश्तों की पड़ताल की है. उनके मुताबिक़ शरिया लोगों को इस्लाम के सिद्धांतों पर चलने के लिए प्रेरित करता है और लोगों को आलोचनात्मक सोच एवं विद्रोह करने के अधिकार को छोड़ने की राह दिखाता है. इसके साथ ही शरिया में लोगों को शासन करने वालों के आदेशों को मानना एवं निरंकुश सत्ता को स्वीकार करना सिखाया गया है. देखें: Donald Eugene Smith, Religion and Political Development: An Analytical Study (New York: Little Brown, 1970).
[D] एक शक्तिशाली और केंद्रीकृत सरकार, जिस पर अक्सर सेना के हस्तक्षेपों का व्यापक प्रभाव होता है. ऐसी सरकार अधिकतर ग़रीबी में घिरे, बुनियादी सेवाओं तक पहुंच से दूर रहने वाले और सीमित आर्थिक अवसरों जैसी चुनौतियों से जूझ रहे समाज पर शासन करती है.
[E] 'यथार्थवाद' का संदर्भ बताता है कि पाकिस्तानी फौज एक पेशेवर और अनुशासित सेना होने के नाते, अपने निर्णय लेने की प्रक्रिया में ज़मीनी हक़ीक़त और चुनौतियों को बखूबी समझती है. निर्णय लेने की प्रक्रिया में मौज़ूदा भू-राजनीतिक हालात, सेना की वास्तविक क्षमताएं व सीमाएं और देश के सामने खड़ी तात्कालिक सुरक्षा संबंधी चिंताओं जैसे मसलों पर विचार करना शामिल हो सकता है. 1950 के दशक के मध्य में और 1980 के दशक की शुरुआत में अमेरिकी सैन्य सहायता लेने के पाकिस्तान के फैसले को उसकी रणनीतिक संस्कृति के साथ-साथ यथार्थवाद के संदर्भ में भी समझाया जा सकता है.
[F] इस तरह के रिहाइशी इलाक़ों को लेकर लोगों की ख़ासी दिलचस्पी होती है. क्योंकि इन क्षेत्रों में सुनियोजित विकास होता है, साथ ही सुरक्षा और दूसरी ज़रूरी बुनियादी सुविधाएं भी मौज़ूद होती हैं. हालांकि, इस तरह की हाउसिंग सोसाइटियों का प्राथमिक उद्देश्य सैन्य कर्मियों की आवास ज़रूरतों को पूरा करना है. लेकिन जिस प्रकार से अब इन हाउसिंग सोसाइटियों में आम नागरिकों को भी अवास उपलब्ध कराए जाने लगे हैं, ऐसे में इन आवास समितियों द्वारा आवास मुहैया कराई जाने वाली आबादी का दायरा बढ़ गया है.
[G] रावलपिंडी में कोर कमांडरों की बैठक के बाद इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (ISPR) द्वारा प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई. इस प्रेस रिलीज के कुछ दिनों बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने भी हैदराबाद में एक भाषण के दौरान ख़राब शासन के लिए सरकार की फटकार लगाई थी. Dawn, November 14, 2015. अहमद एवं अन्य को भी देखें.
[H] लेखकों द्वारा सरकारी एवं सैन्य अफ़सरों के साथ किए गए व्यक्तिगत संवाद से पता चलता है कि यह एक योजनाबद्ध सैन्यवाद है.
[I] ट्रोइका सिस्टम सरकार और सेना के बीच सत्ता-साझाकरण की प्रणाली को प्रकट करता है, जो कि पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था में तीन सबसे महत्वपूर्ण किरदारों यानी सैन्य प्रमुख, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के ज़रिए ज़ाहिर होती है.
[J] अप्रैल 2010 में अठारहवें संशोधन के ज़रिए संविधान के संसदीय स्वरूप को बहाल किया गया. इसके साथ ही अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में संसदीय भागीदारी का सुझाव देकर संसद और न्यायपालिका के बीच संबंधों को नए सिरे से परिभाषित किया, साथ ही कई अहम कार्यों का विकेंद्रीकरण करते हुए उन्हें राज्य सरकारों को सौंपा गया. ज़िम्मेदारी और अधिकार को लेकर किया गया यह बंटवारा आने वाले वर्षों में विवाद में फंसने वाली इन अहम सरकारी संस्थाओं की भूमिकाओं के पुनर्मूल्यांकन के लिए अवसर उपलब्ध कराता है. अधिक जानकारी के लिए देखें- Muhammad Ahsan Rana, “Decentralization Experience in Pakistan: The 18th Constitutional Amendment,” Asian Journal of Management Cases, 17(1) 61–84, 2020, https://journals.sagepub.com/doi/pdf/10.1177/0972820119892720; National Assembly of Pakistan, https://na.gov.pk/uploads/documents/1302138356_934.pdf
[K] अपनी सामरिक भौगोलिक स्थिति और अहम क्षेत्रीय व वैश्विक मामलों में भागीदारी की वजह से पाकिस्तान का अक्सर एक "फंटलाइन राष्ट्र" के रूप में उल्लेख किया जाता है. पाकिस्तान दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और पश्चिम एशिया का एक प्रमुख मिलन बिंदु है, और उसकी इसी ख़ासियत ने क्षेत्रीय सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिहाज़ से इसके महत्व को बढ़ा दिया है, क्योंकि इन इलाक़ों में टकराव वाले कई क्षेत्रों से पाकिस्तान की नज़दीकी है. शीत युद्ध के दौरान, अमेरिका और सोवियत के बीच मची होड़ में पाकिस्तान एक अहम और अग्रणी राष्ट्र के रूप में स्थापित हो गया था. ख़ास तौर पर पाकिस्तान ने सोवियत सेनाओं के विरुद्ध अफ़ग़ान विरोध का समर्थन किया था और इसने उसे इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण देश बना दिया था. सितंबर 2001 के बाद के वर्षों में भी पाकिस्तान ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक लड़ाई में खुद को एक अग्रणी राष्ट्र बनाए रखा. पाकिस्तान ने आतंकवाद विरोधी प्रयासों में अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ मिलकर काम किया. इसके अलावा, परमाणु प्रसार, भारत-पाकिस्तान के बीच टकराव और अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर पैदा हुई चिंताओं, साथ ही साथ इसका आर्थिक और व्यापारिक महत्व, अंतर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय भू-राजनीति में पाकिस्तान की बहुआयामी सामरिक सार्थकता को बढ़ाने का काम करता है.
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[3] Hamid Mir, “Dirty Game: Untold Story of Imran Khan and Gen Bajwa’s Love-Hate Relationship: Opinion,” India Today, August 1, 2023, www.indiatoday.in/opinion-columns/story/dirty-game-untold-story-of-imran-khan-gen-qamar-javed-bajwa-love-hate-relationship-2319003-2023-01-09.
[4] Cyril Almeida, “What Led to Leader Imran Khan’s Downfall in Pakistan?” Al Jazeera, 10 April 2022, www.aljazeera.com/news/2022/4/9/analysis-end-of-imran-khans-term.
[5] “Pakistan Official Admits Involvement in Rigging Election Results,” Al Jazeera, 17 February 2024, www.aljazeera.com/news/2024/2/17/pakistan-official-admits-involvement-in-rigging-election-results.
[6] “Imran Khan Claims Victory in Pakistan Poll but Military Might Have Final Say,” Guardian, 10 February 2024, www.theguardian.com/world/2024/feb/10/imran-khan-claims-victory-in-pakistan-poll-but-military-might-have-final-say.
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[40] Cohen, The Idea of Pakistan
[41] Siddiqa, Military Inc.: Inside Pakistan's Military Economy
[42] “Pakistan’s Courts Face a Challenge: Defying the Military,” The New York Times, May 31, 2023, https://www.nytimes.com/2023/05/31/world/asia/pakistan-courts-challenge-military.html
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[49] Wolf, "Civilian control and democratic transition: Pakistan's unequal equation"
[50] Wolf, "Civilian control and democratic transition: Pakistan's unequal equation"
[51] Wolf, "Civilian control and democratic transition: Pakistan's unequal equation"
[52] Abdul Shakoor Khakwani, “Civil-Military Relations in Pakistan: The Case of the Recent Military Intervention (October 12, 1999) and Its Implications for Pakistan’s Security Milieu,” ACDIS: Occasional Paper, University of Illinois, May 2003: pp.23.
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[60] Samuel P. Huntington, Political Order in Changing Societies (New Haven: Yale University Press, 2006) pp.201
[61] Huntington, Political Order in Changing Societies
[62] Amina Ibrahim, "The Economic Factors of Pakistan’s Military Coups." LSE Working Paper Series, 2009, https://www.lse.ac.uk/international-development/Assets/Documents/PDFs/Dissertation/Prizewinning-Dissertations/PWD-2007/WP92.pdf
[63] Kukreja, Contemporary Pakistan
[64] Rizvi, Military, State and Society in Pakistan, pp. 236-237.
[65] Siddiqa, Military Inc. Inside Pakistan’s Military Economy
[66] Siddiqa, Military Inc. Inside Pakistan’s Military Economy
[67] Siddiqa, Military Inc. Inside Pakistan’s Military Economy
[68] Mazhar Aziz, Military Control in Pakistan: The Parallel State (London: Routledge, 2008), pp.45.
[69] Baqir Sajjad, "Pakistan At a Dangerous Crossroads,” Wilson Center, May 16, 2023, https://www.wilsoncenter.org/blog-post/pakistan-dangerous-crossroads.
[70] Sajjad, “Pakistan At a Dangerous Crossroads"
[71] Hannah Ellis-Petersen and Meer Baloch Shah, “Imran Khan: Former Pakistan Prime Minister Sentenced to Three Years in Jail,” The Guardian, August 5, 2023, www.theguardian.com/world/2023/aug/05/former-pakistan-prime-minister-imran-khan-jailed-for-three-years.
[72] Salman Rafi Sheikh, “Pakistan’s Military Can Now Legally Do Whatever It Wants,” Nikkei Asia, August 23, 2023, asia.nikkei.com/Opinion/Pakistan-s-military-can-now-legally-do-whatever-it-wants.
[73] Khakwani, "Civil-Military Relations in Pakistan”
[74] Deedar Hussain Samejo, “Why Pakistan’s Foreign Policy Is so Confused,” The Diplomat, August 13, 2016, thediplomat.com/2016/08/why-pakistans-foreign-policy-is-so-confused/.
[75] Sajjad, “Pakistan at a Dangerous Crossroads”
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