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स्वदेशी अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक कार्यक्रम में भारत को अपेक्षित सफलता नहीं मिली. इससे सबक लेते हुए भारत ने ज़ोरावर टैंक के निर्माण में व्यावहारिक तरीका अपनाने का फैसला किया. ज़ोरावर में विदेशी पुर्जों का इस्तेमाल भी हो रहा है. इससे टैंक के निर्माण में तेज़ी आई है.
Image Source: Getty
भारत के स्वदेशी हल्के युद्धक टैंक (एलबीटी) - "ज़ोरावर" - में स्पष्ट प्रगति दिखाई दे रही है. रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने घोषणा की है कि युद्धक टैंक का दूसरा प्रोटोटाइप सितंबर 2025 तक तैयार कर लिया जाएगा. ज़ोरावर टैंक के निर्माण में आज जो विकास दिख रहा है, वो काफ़ी हद तक पिछली असफलताओं से मिले सबक का परिणाम है. स्वदेशी हथियारों के विकास में भारत का रिकॉर्ड बहुत चमकदार नहीं है. भारत को इस क्षेत्र में मिली-जुली सफलता ही मिली है. अगर ज़ोरावर की बात करें तो ये कहा जा सकता है कि अर्जुन युद्धक टैंक से जो सबक मिले, वो अब काम आ रहे हैं. ज़ोरावर टैंक का निर्माण डीआरडीओ के लड़ाकू वाहन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान (सीवीआरडीई) और लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) के गुजरात स्थित हजीरा संयंत्र द्वारा किया जा रहा है. ज़ोरावर द्वारा अब तक पूरे किए गए कई परीक्षण और मानकों की एक संक्षिप्त समीक्षा बताती है कि इसका विकास कितनी तेज़ी से हो रहा है.
जुलाई 2024 में, एलबीटी के पहले प्रोटोटाइप का अनावरण हजीरा संयंत्र में किया गया. इसके बाद, रेगिस्तानी इलाके में इसके क्षेत्रीय परीक्षण किए गए. यहां इसके कुछ शुरुआती ऑटोमोटिव परीक्षण किए गए. इस दौरान ज़ोरावर ने बेहतरीन प्रदर्शन किया, उच्च दक्षता प्रदर्शित की और अपने सभी परीक्षण उद्देश्यों को पूरा किया. इतना ही नहीं, इसकी मारक क्षमता ने अपने सभी पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को सफलतापूर्वक भेद दिया. इसके बाद, ज़ोरावर के इस पहले प्रोटोटाइप ने दिसंबर 2024 में सफल आंतरिक परीक्षण किए. ये भारतीय सेना (आईए) द्वारा अपने पहले उपयोगकर्ता परीक्षणों के दौर से गुजरने के कगार पर है. जिस हिसाब से ज़ोरावर पर काम चल रहा है और परीक्षण में इसे सफलता मिल रही है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि 2027 तक ये टैंक सेना की बख्तरबंद कोर में एकीकरण या कमीशनिंग के लिए तैयार हो जाएगा. ज़ोरावर एलबीटी के दूसरे प्रोटोटाइप का सितंबर 2025 के अंत तक प्रारंभिक क्षेत्र परीक्षण किया जाना है. हल्के युद्धक टैंक कार्यक्रम का ये एक सकारात्मक परिणाम है, क्योंकि ज़ोरावर का दूसरा प्रोटोटाइप भारत फोर्ज के साथ सह-विकसित किया जा रहा है. भारत फोर्ज एक प्राइवेट कंपनी है.
ज़ोरावार की ये सभी उपलब्धियां दिखाती हैं कि इसके निर्माण में काफ़ी तेज़ी आ रही है. अगर इसकी तुलना अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक (एमबीटी) विकसित करने के प्रक्रिया से करें तो ये कहा जा सकता है कि अभी के प्रयास पहले की कोशिशों से बिल्कुल विपरीत हैं. अर्जुन एमबीटी पर 1970 के दशक में काम शुरू हुआ. हालांकि, भारतीय सेना की बख्तरबंद कोर के लिए एक गंभीर कोशिश के रूप में इसे 1988 में ही लॉन्च किया गया था. अर्जुन एमबीटी के विकास में कुछ शुरुआती गलतियां हुईं. इनमें से एक गलती ये थी कि इसके डिज़ाइन में सेना की पर्याप्त भागीदारी का अभाव था. इसके अलावा, डीआरडीओ के लिए सेना द्वारा निर्धारित तकनीकी आवश्यकताओं के साथ इसका सही तालमेल भी नहीं था. ज़ोरावर के मामले में ऐसा नहीं है, यहां सेना और डीआरडीओ के बीच शुरु से ही तालमेल था. हालांकि, ये सही है कि ज़ोरावर के मामले में भी तकनीकी व्यवहार्यता, लचीलेपन और प्रदर्शन की अपेक्षाओं को पूरा करने की आवश्यकता होगी. इसके अलावा, कुछ और चुनौतियां अभी भी बनी हुई है, जो इस परियोजना में बाधा बन सकती हैं. अर्जुन टैंक भी विकास के अलग-अलग चरणों से गुजरा. डीआरडीओ के नेतृत्व वाले वैज्ञानिक, इंजीनियरिंग प्रतिष्ठान और सेना की बख्तरबंद और आर्मर्ड कोर के अधिकारियों के बीच बातचीत के बाद अर्जुन टैंक में काफ़ी तकनीकी बदलाव हुए. ये बातें अभी भी भारत के पहले स्वदेशी युद्धक टैंक की निर्माण प्रक्रिया को कलंकित करता है.
जिस हिसाब से ज़ोरावर पर काम चल रहा है और परीक्षण में इसे सफलता मिल रही है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि 2027 तक ये टैंक सेना की बख्तरबंद कोर में एकीकरण या कमीशनिंग के लिए तैयार हो जाएगा.
भारतीय सेना के अनुरोध पर डीआरडीओ ने अर्जुन टैंक में कई सुधार किए गए. इसी के बाद इसको सेना में शामिल किया गया. इसके बावजूद, सेना की बख्तरबंद और आर्मर्ड कोर में अर्जुन को लेकर अब की जगह कुछ विवाद हैं. कम से कम अधिकारियों का एक वर्ग ये मानता है कि अर्जुन टैंक गुणवत्ता के मामले में इतना बेहतर नहीं है कि उसे सेना में शामिल किया जाए. उनका तर्क है कि अर्जुन की मुख्य तोप और उसकी युद्ध प्रबंधन प्रणाली (बीएमएस) अपेक्षित मारक क्षमता प्रदान नहीं करती. डीआरडीओ ने अपनी ओर से, इसकी सफलताओं, विशेष रूप से अर्जुन की क्रॉस-कंट्री मोबिलिटी की ओर ध्यान दिलाया है. उसका कहना है कि अर्जुन अपने समान भार वर्ग में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ टैंकों से मुकाबला करता है और टैंक-रोधी हथियारों से शक्तिशाली सुरक्षा प्रदान करता है. इसके बावजूद, डीआरडीओ का यह भी आरोप है कि सेना तकनीकी मानकों और प्रदर्शन अपेक्षाओं को लेकर बार-बार रुख बदलती रही है और कई बार उसने ऐसे तकनीकी लक्ष्य निर्धारित किए जो अव्यवहारिक अथवा असंभव थे. सेना ने 118 अर्जुन टैंकों का अपना अंतिम ऑर्डर 2020 में दिया था. अब लग रहा है कि सेना और टैंकों का ऑर्डर नहीं देगी. हालांकि, ज़ोरावर के साथ अब तक ऐसी कोई समस्याएं नहीं आई हैं लेकिन कई चुनौतियां अभी बनी हुई हैं.
ज़ोरावर के संबंध में डीआरडीओ, सेना और रक्षा मंत्रालय (एमओडी) की रणनीति में ये एक बड़ा बदलाव आया है. इस बदलाव का महत्वपूर्ण कारक अर्जुन टैंक के निर्माण का कठिन और कष्टदायक रास्ता है, विशेष रूप से लगभग पूरे टैंक को स्वदेशी तौर पर बनाने को लेकर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया जाना. वास्तव में, जैसा कि तीन दशक से भी पहले के एक विश्लेषण में अर्जुन टैंक के बारे में सही कहा गया था: "स्वदेशीकरण ही अर्जुन के अस्तित्व का मूल कारण है. अर्जुन को बनाने का मकसद ही स्वदेशीकरण था". इसी वजह से इसके निर्माण में इतनी देरी हुई और अर्जुन का कार्यक्रम वर्षों तक प्रभावित रहा. 1993 में तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष (सीओएएस) दिवंगत जनरल बिपिन जोशी ने अर्जुन के बारे में कहा था: "इस टैंक की स्वदेशी विशेषता इसका डिज़ाइन है, जिसे हमारी परिचालन आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया गया है. सिर्फ उन्हीं उपकरणों का स्वदेशीकरण ज़रूरी है, जो प्रतिबंधित हैं".
अर्जुन टैंक को लेकर जनरल जोशी ने जो व्यावहारिकता वाली बात कही थी, कुछ हद तक वही बात आज ज़ोरावर एलबीटी के विकास को प्रेरित कर रही है. ज़ोरावर का मूल डिज़ाइन आंशिक रूप से स्थानीय है. इसके कई हिस्से भारत के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) से हासिल किए गए हैं, जैसे कि एलबीटी के रबर के पुर्जे, गियर सिस्टम और कूलिंग सिस्टम. ये स्थानीय रूप से विकसित कलपुर्जे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) द्वारा संचालित हैं, जो इस टैंक को दलदली भूमि, रेगिस्तान, जंगल, पहाड़ी इलाकों और जलाशयों में चलने में सक्षम बनाते हैं. ज़ोरावर मानवरहित निगरानी वाहनों (यूएसवी) से लैस होगा. स्वदेशीकरण की इन कोशिशों के बावजूद देश अभी अर्जुन टैंक निर्माण के बुरे अनुभवों को भूला नहीं है. यही वजह है कि भारतीय सेना और रक्षा मंत्रालय को ज़ोरावर के कई पुर्जे आयात करने पड़े.
आयातित पुर्जों में सबसे पहली है ज़ोरावर के लिए 105 मिमी कॉकरिल 3105 बुर्ज तोप. इस तोप को मूल रूप से जॉन कॉकरिल द्वारा विकसित किया गया था. अब 60:40 समझौते के तहत बेल्जियम स्थित जॉन कॉकरिल डिफेंस और पुणे स्थित इलेक्ट्रो न्यूमेटिक्स एंड हाइड्रोलिक्स (ईपीएच) इसे मिलकर बनाएंगे. दोनों कंपनियों के बीच सह-उद्यम विकसित हो चुका है. इस व्यवस्था से स्वेदशी उत्पादन बढ़ेगा और रक्षा निर्यात को भी बढ़ावा मिलेगा. 105 मिमी कॉकरिल 3105 बुर्ज को भारतीय सेना की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संशोधित किया जा रहा है. इसमें 12.7 मिमी रिमोट से संचालित हथियार स्टेशन और दो एंटी-टैंक गाइडेड मिसाइलें शामिल हैं.
ज़ोरावर का मूल डिज़ाइन आंशिक रूप से स्थानीय है. इसके कई हिस्से भारत के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) से हासिल किए गए हैं, जैसे कि एलबीटी के रबर के पुर्जे, गियर सिस्टम और कूलिंग सिस्टम. ये स्थानीय रूप से विकसित कलपुर्जे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) द्वारा संचालित हैं, जो इस टैंक को दलदली भूमि, रेगिस्तान, जंगल, पहाड़ी इलाकों और जलाशयों में चलने में सक्षम बनाते हैं.
दूसरा, ज़ोरावर में अमेरिका निर्मित कमिंस 760 हॉर्सपावर (एचपी) VTA904E-T760 इंजन और एक RENK अमेरिकी HMPT ट्रांसमिशन सिस्टम लगा है. ज़ोरावर इस मायने में भी आधुनिक है कि इसमें अपग्रेड और भविष्य में सुधार किए जा सकते हैं. इन अपग्रेड्स से ज़ोरावर की मारक क्षमता और गतिशीलता में और भी इज़ाफ़ा हो सकता है, खासकर एक ज़्यादा शक्तिशाली 1000 एचपी कमिंस ACE इंजन के साथ. हालांकि, इस इंजन के लगने से ये अपने मौजूदा 25 टन वज़न से थोड़ा ज़्यादा भारी हो जाएगा, फिर भी ऊंचाई वाले इलाकों में इसकी प्रभावशीलता में कोई कमी नहीं आएगी.
रक्षा मंत्रालय और डीआरडीओ के लिए सामने भविष्य में चुनौती एक ऐसा समझौता हासिल करने की होगी, जो ये सुनिश्चित कर सके कि कमिंस भारत में एक सह-विकास और सह-उत्पादन सुविधा स्थापित करे. भारत के पास जर्मन मोटोरेन-अंड टर्बिनेन-यूनियन (एमटीयू) जैसे विकल्प मौजूद हैं. शुरू में इसे ही ज़ोरावर के इंजन के लिए चुना गया था, लेकिन मूल सौदा बर्लिन के निर्यात नियंत्रण प्रतिबंधों के कारण नाकाम हो गया था. इन प्रतिबंधों में अब ढील दी गई है. हालांकि, एमटीयू के मामले में भी, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (टीओटी) और सह-उत्पादन अधिकार हासिल करने की चुनौती बनी रहेगी. जैसा कि इस लेखक ने अपने पिछले विश्लेषण में बताया था कि बख्तरबंद वाहन इंजन प्रौद्योगिकी का स्वदेशीकरण उतना ही अनिवार्य है, जितना कि हवाई इंजनों का स्वदेशी विकास.
हालांकि, ये बात सही है कि आयात और सह-विकास के अभी वैसे समझौते नहीं हुए हैं, जैसे भारत चाहता है. इसके बावजूद ये कहना होगा कि अगर ज़ोरावर के मामले में भी अर्जुन टैंक के निर्माण की तरह का रास्ता चुना जाता तो भारत इतने आगे नहीं बढ़ पाता. ऊपर बताए गए सभी सभी ज़रूरी विदेशी कलपुर्जों को ज़ोरावर टैंक में वास्तविक रूप से एकीकृत करने से पहले डिज़ाइन, विकास और परीक्षण में कई साल लग जाते. वैसे वास्तविकता ये है कि स्वदेशीकरण के इरादे के बावजूद अपने नवीनतम Mk-1A संस्करण में भी अर्जुन टैंक पूरी तरह स्वदेशी नहीं है. अर्जुन टैंक के लिए डीआरडीओ अपने जर्मन-निर्मित इंजन, ट्रांसमिशन और गन कंट्रोल सिस्टम सहित कई प्रमुख घटकों को स्थानीय स्तर पर विकसित करने में असफल रहा. इसके फायर कंट्रोल सिस्टम और थर्मल इमेजर जैसे अन्य घटक स्थानीय स्तर पर बनाए गए हैं, लेकिन हकीक़त ये है कि इन्हें इज़रायली और फ्रांसीसी रक्षा उपकरण उत्पादकों के साथ लाइसेंस समझौतों के माध्यम से हासिल किया गया है. भारतीय सेना की बदलती गुणात्मक आवश्यकताओं (क्यूआर) के अलावा, रक्षा मंत्रालय और डीआरडीओ द्वारा स्थानीय विकास क्षमताओं का बढ़ा-चढ़ाकर अनुमान लगाना भी इन उत्पादों के आयात की मज़बूरी बन गया. इससे टैंक निर्माण में अनावश्यक देरी और लागत में वृद्धि हुई. सभी घटकों के पूर्ण एकीकरण के बाद भी अर्जुन टैंक को व्यापक परीक्षण और ट्रायल की आवश्यकता होगी. वहीं ज़ोरावर के लिए एक प्रोटोटाइप की तरफ बढ़ना अर्जुन से एक उल्लेखनीय अंतर है. इसके अलावा, दो प्रोटोटाइप के विकास में निजी क्षेत्र की भागीदारी है. भले ही ये प्रोटोटाइप एक दूसरे से अधिक उन्नत हो, लेकिन ये भारतीय हल्के लड़ाकू टैंक कार्यक्रम की एक प्रमुख उपलब्धि है. ये अर्जुन के बिल्कुल विपरीत है, क्योंकि उस टैंक का समानांतर या लगभग समानांतर प्रोटोटाइप टैंक का विकास डीआरडीओ और निजी क्षेत्र द्वारा कभी नहीं किया गया. हालांकि, अर्जुन के निर्माण में परेशान करने वाली सभी विकासात्मक और परीक्षण संबंधी देरी को सीवीआरडीई और सेना ने अब तक टाल रखा है, लेकिन आगे इसके और परीक्षण की आवश्यकता है. ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि ज़ोरावर टैंक अपनी परिचालन प्रदर्शन संबंधी अपेक्षाओं को किस हद तक पूरा कर पाएगा.
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Kartik is a Senior Fellow with the Strategic Studies Programme. He is currently working on issues related to land warfare and armies, especially the India ...
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